मुंबईः जून 2011 की बात है। 11वीं में पढ़ने वाले फ़ैज़ान मिठाईवाला अपने दोस्त के साथ वीकेंड के लिए पुराने पुणे-गोवा हाइवे से लोनावाला जा रहे थे। बारिश का मौसम था। फैज़ान को बस इतना याद है कि एक्सीडेंट से ठीक पहले उन्होंने अपने दोस्त से कहा था, “ब्रेक लगा”।

असल में हुआ क्या था इस बारे में मिठाईवाला को ज़्यादा याद नहीं है। एक टेम्पो ट्रैवलर ने उन्हें मुंबई से 70 किलोमीटर खोपोली के निकट एक स्थानीय अस्पताल में पहुंचाया था। लेकिन, उन्हें वापस मुंबई के रास्ते में 37 किलोमीटर दूर पनवेल में एक अन्य अस्पताल ले जाना पड़ा था, क्योंकि खोपोली के अस्पताल में उनके इलाज के लिए सुविधाएं नहीं थीं। उनके दोस्त के दाएं हाथ में फ़्रैक्चर था।

मिठाईवाला के चेहरे पर काफ़ी चोट लगी थी, खून बहा था और सिर में भी चोट लगी थी। उनकी दायीं आंख को नुक़सान हुआ था। दो दिन के बाद, उन्हें मुंबई के सैफ़ी अस्पताल ले जाया गया। 10 महीने तक अस्पतालों में भर्ती रहने और 5 लाख रुपये से ज़्यादा के ख़र्च और चेहरे को ठीक करने की एक सर्जरी के बाद, मिठाईवाला बच गए।

वह सड़क दुर्घटनाओं के शिकार हुए सबसे भाग्यशाली लोगों में से हैं। सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, देश में हर घंटे 17 लोगों की सड़क दुर्घटनाओं में मौत हो जाती है।

इसके बावजूद, सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि 2012 से 2017 के दौरान ट्रॉमा-केयर सेंटर के तौर पर अपग्रेड होने में जिन 80 अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों को मदद दी गई थी उनमें से कोई भी अगस्त 2019 में चालू हालत में नहीं था। विशेषज्ञों का कहना है कि देश में एडवांस्ड ट्रॉमा लाइफ़ सपोर्ट (एटीएलएस) जैसे कोर्स डॉक्टरों के लिए अनिवार्य नहीं हैं। इमरजेंसी केयर सेंटर सभी जगहों पर मौजूद नहीं हैं। इन सेंटर्स की ज़िम्मेदारी अक्सर जूनियर डॉक्टर संभालते हैं, और सुविधाओं से लैस कुछ सेंटर्स पर बोझ बहुत अधिक है।

हर घंटे 53 सड़क दुर्घटनाओं में 17 मौतें

सितंबर 2019 में जारी हुई रोड एक्सिडेंट्स इन इंडिया 2018 रिपोर्ट के अनुसार, 2018 में देशभर में 467,044 सड़क दुर्घटनाएं दर्ज की गई थीं (हर घंटे औसतन 53)। यह 2017 की तुलना में 0.46% अधिक थी। इन दुर्घटनाओं में 151,417 लोगों की मौत हई थी (हर घंटे औसतन 17)। यह संख्या 2017 की तुलना में 2.4% अधिक थी।

सड़क दुर्घटनाओं में हुई मौतों में से एक-तिहाई शहरी क्षेत्रों में थीं, जो कुल दुर्घटनाओं का 41% है, जबकि ग्रामीण इलाकों में दो-तिहाई दुर्घटनाएं हुई थीं।

Source: Ministry of Road Transport And Highways 2018

रिपोर्ट में दुर्घटनाओं को चार वर्गों में बांटा गया हैः जानलेवा, गंभीर चोट (अस्पताल में भर्ती कराने की ज़रूरत), मामूली चोट और चोट नहीं लगना।

मामूली चोट वाली दुर्घटनाओं की संख्या सबसे अधिक (36%) थी, इसके बाद जानलेवा दुर्घटनाएं (30%) और गंभीर चोट वाली दुर्घटनाएं (27%) थीं। बाकी (7%) दुर्घटनाओं में किसी को कोई चोट नहीं लगी थी।

गंभीर चोट वाली दुर्घटनाओं से “जीवन को बचाने के लिए ‘गुड समारिटन लॉ’ और महत्वपूर्ण घंटे के दौरान मुफ़्त इलाज के प्रावधान की ज़रूरत है,” रिपोर्ट के अनुसार। इसे अब मोटर व्हीकल अमेंडमेंट्स एक्ट 2019 का हिस्सा बनाया गया है।

देश में सड़क नेटवर्क में 1.94% राष्ट्रीय राजमार्ग हैं। 2018 में हुई कुल सड़क दुर्घटनाओं में से 30.2% राष्ट्रीय राजमार्गों पर हुईं। सड़क दुर्घटनाओं में होने वाली 35.7% मौतें भी राष्ट्रीय राजमार्गों पर हुईंं। देश में सड़कों की लंबाई में 2.97% राज्यों के राजमार्ग हैं। कुल सड़क दुर्घटनाओं का 25.2% और सड़क दुर्घनाओं में हुई मौतों का 26.8% राज्यों के राजमार्गों पर हुई थीं।

2014 और 2018 के बीच, ग्रामीण क्षेत्रों में सड़क दुर्घटनाएं लगभग 5% बढ़ी हैं, जबकि इन दुर्घटनाओं के कारण मृत्यु और घायल होने में क्रमशः 20.5% और 2.3% की बढ़ोत्तरी हुई थी।

दुनिया में दूसरी सबसे अधिक जनसंख्या वाले भारत में 199 देशों में सबसे अधिक सड़क दुर्घटनाओं की रिपोर्ट मिली थी, इंटरनेशनल रोड फ़ेडरेशन की वर्ल्ड रोड स्टैटिस्टिक्स 2018 रिपोर्ट के अनुसार। स्विट्ज़रलैंड के जिनेवा का यह गैर-लाभकारी संगठन परिवहन क्षेत्र से जुड़ा है। हालांकि, भारत, प्रति 1,00,000 जनसंख्या पर सड़क दुर्घटनाओं में 11 मौतों के आंकड़े के साथ दुनियाभर में चौथे स्थान पर है। यह ईरान (20), रशियन फेडरेशन (14) और अमेरिका (12) से कम है।

विश्व बैंक के जनवरी 2018 के एक अध्ययन में कहा गया था, 24 वर्षों की अवधि में सड़क दुर्घटनाओं में मृत्यु और चोटों को 50% तक घटाने से भारत की 2014 की जीडीपी के 14% के समान अतिरिक्त आमदनी (125 लाख करोड़ रुपये या 2.03 ट्रिलियन डॉलर) मिल सकती है।

दुर्घटना का पहला घंटा महत्वपूर्ण

‘महत्वपूर्ण घंटा’ दुर्घटना के तुरंत बाद का पहला घंटा है। अगर उस समय के दौरान उपयुक्त और समय पर प्राथमिक चिकित्सा दी जाती है तो सड़क दुर्घटना के शिकार लोगों के बचने की संभावना बढ़ जाती है, ‘द गोल्डन आवर’ हैंडबुक के अनुसार।

कम और मध्यम आमदनी वाले देशों में प्रत्येक वर्ष 4.5 करोड़ मौतों में से, 54% उन कारणों से होती हैं “जिनसे अस्पताल में जाने से पहले के उपायों और आपात देखभाल के ज़रिए रोका जा सकता है,” विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के 2015 के इस अध्ययन के अनुसार।

मंत्रालय की सड़क दुर्घटनाओं पर रिपोर्ट में इस संदर्भ में तमिलनाडु का उदाहरण दिया गया है। आंकड़ों से पता चलता है कि राज्य में 2017 और 2018 के दौरान सड़क दुर्घटनाओं में होने वाली मौतों में 24% की कमी आई है। रिपोर्ट में बताया गया है कि इस कमी के पीछे सड़कों पर यातायात के बेहतर प्रबंधन और आपात देखभाल में सुधार जैसी “कई प्रकार की कोशिशें हैं।”

राज्य में 78 ट्रॉमा-केयर सेंटर बनाए जाने से आपात देखभाल में सुधार हुआ है, रिपोर्ट में कहा गया है। आपात समय में प्रतिक्रिया का समय 936 एंबुलेंस और 41 तुरंत सहायता करने वाली बाइकों की तैनाती से कम हुआ है। राज्य ने एक मोबाइल एप्लीकेशन भी शुरू की है जो दुर्घटनास्थल की जानकारी देती है जिससे आपात सहायता दुर्घटना के स्थान पर जल्द पहुंच सकती है।

“अस्पताल को आपात देखभाल में प्रशिक्षित डॉक्टरों और नर्सों को 24x7 उपलब्ध रखने के साथ ही ज़रूरी उपकरणों से भी लैस होने की जरूरत है,” अपोलो हॉस्पिटल, नवी मुंबई में इमरजेंसी मेडिसिन के प्रमुख, नितिन जगासिया ने कहा। इमरजेंसी टीम को ट्रॉमा केयर में प्रशिक्षित होना चाहिए जिससे वह किसी विशेषज्ञ का इंतज़ार करने के बजाय तुरंत आपात देखभाल शुरू कर सकें।

शारीरिक चोटों के अलावा, मरीज़ों को मनोवैज्ञानिक समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है, नितिन ने बताया। “भारत में रिहैबिलिटेशन की काफ़ी कमी है, इस क्षेत्र में बहुत कम अस्पताल या देखभाल उपलब्ध कराने वाले हैं,” उन्होंने कहा।

सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था में ट्रॉमा केयर

केंद्र सरकार ने वर्ष 2000 में “राजमार्गों पर आपात सुविधाओं को मज़बूत करने के लिए” एक परीक्षण परियोजना शुरू की थी, जिसे अब बदलकर “राष्ट्रीय राजमार्गों पर सरकारी अस्पतालों में ट्रॉमा केयर सुविधाएं तैयार करने के लिए क्षमता निर्माण में सहायता” शीर्षक वाली योजना कर दिया गया है।

इसका उद्देश्य देशभर में एक ट्रॉमा केयर नेटवर्क विकसित कर सड़क दुर्घटनाओं में होने वाली मौतों की संक्या 10% तक कम करना था। इसमें दुर्घटना के किसी भी शिकार को इलाज के लिए 50 किलोमीटर से अधिक दूर नहीं ले जाना होगा। प्रत्येक 100 किलोमीटर पर एक ट्रॉमा सेंटर उपलब्ध कराया जाना था।

इस योजना के तहत, 17 राज्यों में 116 ज़िला अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों की पहचान 11वीं पंच वर्षीय योजना (2007-2012) के दौरान मदद देने के लिए की गई थी। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की ओर से अगस्त 2019 में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, इनमें से 105 काम कर रहे थे (58 लेवल III ट्रॉमा-केयर सेंटर, 57 लेवल II और 1 लेवल I का था)।

Trauma Care

The Ministry of Health & Family Welfare categorises trauma care as follows, based on the WHO guidelines:

Level IV: Provided by appropriately equipped and manned mobile hospitals or ambulances.

Level III: Provides initial evaluation and stabilisation (surgically, if needed). Comprehensive medical and surgical in-patient services provided to those patients who can be maintained in a stable or improving condition without specialised care. Emergency doctors and nurses available round-the-clock. Physicians, surgeons, an orthopaedic surgeon and an anaesthetist available round-the-clock to assess, resuscitate, stabilise and initiate transfer as necessary to a higher-level trauma-care service. Should be located at a distance of 100-150 km from each other.

Level II: Provides definitive care for severe trauma patients. In-house emergency physicians, surgeons, orthopedicians and anaesthetists available to trauma patients immediately on arrival. On-call facility for neurosurgeons and paediatricians. Should be located at a distance of 300-450 km from each other.

Level I: Provides the highest level of definitive and comprehensive care for patients with complex injuries. In-house emergency physicians, nurses and surgeons available to trauma patient immediately on arrival. Services of all major super specialties associated with trauma care available 24x7. This should be located at a distance of 600-700 km from each other.

Source: Ministry of Health & Family Welfare

12वीं पंच वर्षीय योजना (2012-17) के दौरान, 85 ट्रॉमा-केयर केंद्रों की पहचान सहायता के लिए की गई थी, और 80 को सहायता मिली थी। हालांकि, रिपोर्ट में कहा गया है कि इनमें से कोई भी काम नहीं कर रहा है।

जिसकी वजह से वर्तमान ट्रॉमा-केयर सेंटरों पर बहुत अधिक बोझ है।

उदाहरण के लिए, पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च (पीजीआईएमईआर), चंडीगढ़ के एडवांस्ड ट्रॉमा सेंटर में प्रोफ़ेसर और नोडल ऑफ़िसर, समीर अग्रवाल ने बताया कि उनके सेंटर में आने वाले लगभग 90% मामले पास के इलाकों (200 किलोमीटर तक) से होते हैं। वैसे जम्मू और कश्मीर से भी मामले आते हैं। 100 बेड का यह सेंटर लगभग 30 करोड़ लोगों की ज़रूरत पूरी करता है। इसमें मरीज़ों की दर 200% तक है, समीर ने बताया। “किसी भी समय, हमारे पास 100-150 मरीज़ ट्रॉली पर होते हैं क्योंकि इस क्षेत्र में यह एकमात्र लेवल-I ट्रॉमा सेंटर है,” उन्होंने कहा।

महाराष्ट्र (जहां 2018 में सड़क दुर्घटनाओं में दूसरी सबसे अधिक मौतें हुई थीं) में लेवल-III ट्रॉमा-केयर सेंटरों (टीसीसी) की मौजूदगी बिखरी हुई है, सीएजी की 2017 की रिपोर्ट के अनुसार। लेवल-III टीसीसी एक दूसरे से 100 से 150 किलोमीटर की दूरी पर होने चाहिए। राज्य में 69 लेवल-III टीसीसी में से, 38 की दूरी एक दूसरे से 50 किलोमीटर और 14 की 50 से 100 किलोमीटर है, यह केवल राज्य के पश्चिमी और मध्य भाग में हैं। “बाकी के 17 टीससी महाराष्ट्र के पूर्वी, दक्षिणी और उत्तरी हिस्सों में हैं,” रिपोर्ट में बताया गया।

इसके अलावा, ऑडिट किए गए 18 लेवल-III टीसीसी में से, जनवरी 2017 में 13 काम नहीं कर रहे थे या आंशिक तौर पर चल रहे थे। इसके पीछे कर्मचारियों की कमी, पर्याप्त उपकरणों का न होना और पानी की सप्लाई जैसे इंफ़्रास्ट्रक्चर का पूरा न होना, कारण थे।

गुजरात के पाटन ज़िले में 1.59 करोड़ रुपये की लागत (औसतन, 900 मरीज़ों के लिए एक महीने के ट्रॉमा केयर ख़र्च का भुगतान करने की पर्याप्त राशि) से बनाया गया 14 बेड का एक ट्रॉमा केयर सेंटर, मेडिकल और पैरामेडिकल कर्मचारियों की नियुक्ति नहीं होने के कारण शुरू नहीं किया जा सका था। अगस्त 2017 में, ऑर्थोपेडिक सर्जन और एनाथिसिस्ट प्रत्येक की एक पोस्ट, मेडिकल ऑफ़िसर की एक पोस्ट और 24 घंटे के पैरामेडिकल कर्मचारियों की छह पोस्ट खाली थीं, सीएजी की रिपोर्ट के अनुसार।

सरकारी क्षेत्र में सुविधाएं कम और मरीज़ ज़्यादा

देश में डॉक्टरों और नर्सों के लिए एडवांस्ड ट्रॉमा लाइफ़ सपोर्ट (एटीएलएस) जैसे कोर्स अनिवार्य नहीं हैं, ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज़ के पूर्व निदेशक, महेश चंद्र मिश्रा ने इंडियास्पेंड को बताया। अमेरिका में एटीएलएस कोर्स को लागू करने से 24 घंटे की चोट की मृत्यु दर घटकर 4% हो गई है, जबकि भारत में यह 10% पर है।

प्राइवेट और सरकारी दोनों अस्पतालों में इमरजेंसी केयर की ज़िम्मेदारी जूनियर डॉक्टरों पर है, जिससे मरीज़ के जीवन को ख़तरा रहता है। इसके अलावा, मरीज़ों के ट्रॉमा केयर सेंटर तक पहुंचने में देरी होती है, महेश चंद्र ने बताया।

दुर्घटना के शिकार लोगों में से केवल 15% को एंबुलेंस से ट्रॉमा-केयर सेंटर लाया जाता है, जबकि बाकी को रिश्तेदार या अन्य लोग निकट की स्वास्थ्य सुविधाओं तक लेकर जाते हैं। “स्वास्थ्य देखभाल सुविधाएं कम हैं और एक ज़्यादा गहरी चोट से नहीं निपट सकती,” महेश चंद्र ने बताया।

सड़क दुर्घटना से निर्धन और कम आमदनी वाले समूहों पर प्रभाव पड़ता है (अधिकतर चोटें और मृत्यु दोपहिया चलाने वालों और पैदल चलने वालों में होती हैं) और ट्रॉमा-केयर सेंटरों में अधिक निवेश की ज़रूरत है, महेश चंद्र मिश्रा ने बताया। इन मरीज़ों में से अधिकतर को सरकारी अस्पतालों में ले जाया जाता है क्योंकि प्राइवेट अस्पताल महंगे हैं और मरीज़ों के पास अक्सर बीमा सुरक्षा नहीं होती।

प्राइवेट अस्पतालों (जिनके पास सीटी स्कैन, ऑपरेशन थियेटर और योग्य डॉक्टर जैसी ट्रॉमा केयर के लिए ज़रूरी सभी सुविधाएं होती हैं) में मरीज़ों की संख्या बहुत कम रहती है, महेश चंद्र ने कहा। “यह एक असंतुलन की स्थिति है, सरकारी क्षेत्र में मरीज़ों की अधिक संख्या और प्राइवेट क्षेत्र में कम संख्या,” उन्होंने बताया।

आयुष्मान भारत जैसी सरकार की कई योजनाएं हैं। अगर इनका इस्तेमाल किया जाए तो सरकार प्राइवेट क्षेत्र से यह सेवाएं ख़रीद सकती है और जीवन बचाए जा सकते हैं, महेश चंद्र ने बताया।

“आमतौर पर दुर्घटनाएं राजमार्गों के उन स्थानों पर होती हैं जहां लोग नहीं रहते, या वह स्वास्थ्य सुविधाओं से दूर, या पहाड़ों और अन्य दुर्गम स्थानों पर होते हैं,” डब्ल्यूएचओ के रीजनल एडवाइज़र, पतंजलि देव नायर ने कहा।

“पॉलीट्रॉमा केयर जैसी ट्रॉमा केयर को प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल के साथ जोड़ा जा सकता है। उदाहरण के लिए, एक ब्लड बैंक दुर्घटना के शिकार व्यक्ति के साथ ही उस मां की भी मदद कर सकता है जिसका गर्भावस्था में जटिलताओं के कारण ख़ून बह रहा है। इसी कारण से हम [डब्ल्यूएचओ] अलग ट्रॉमा सेंटर बनाने के बजाय प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल में पॉलीट्रॉमा केयर को जोड़ने के पक्ष में हैं,” उन्होंने कहा।

“स्वास्थ्य, केंद्र और राज्य दोनों के अधीन है। इस वजह से कई बार केंद्र सरकार कोई योजना शुरू करती है लेकिन राज्य उसे आगे नहीं ले जाता। इसके अलावा ट्रॉमा केयर जैसे मुद्दों पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता और इसके लिए अधिक राशि आवंटित नहीं होती,” उन्होंने कहा।

(साल्वे, इंडियास्पेंड में एक कंट्रीब्यूटर हैं। यह लेख रोड सेफ़्टी मीडिया फ़ेलोशिप 2019 का हिस्सा हैं।)

यह रिपोर्ट अंग्रेज़ी में 4 फ़रवरी 2020 को IndiaSpend पर प्रकाशित हुई है।

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