बेंगलुरु: इस वर्ष मानसुन के दौरान अनियमित वर्षा हुई। स्थानीय किसान संगठन का कहना है कि इस वजह से उन्हें नुकसान झेलना पड़ा, क्योंकि कर्नाटक के दक्षिणी और भीतरी इलाके में कावेरी नदी बेसिन के साथ लगे जिलों में बोई गई खरीफ (ग्रीष्म) की 25 फीसदी फसलें बर्बाद हो गई हैं।

खरीफ के फसल के लिए पारंपरिक बुआई का महीना जून और जुलाई माना जाता है। लेकिन इन दो महीनों में कम बारिश होने की सूचना थी, इसलिए यहां के किसानों ने इन फसलों की बुवाई अगस्त तक के लिए रोक दी थी। लेकिन फिर अगस्त में मूसलाधार बारिश हुई और इस वजह से नई लगी फसलों और तैयार फसलों में से एक चौथाई फसल नष्ट हो गई।

इंडिया मीटीऑरलाजिकल डिपार्टमेंट(आईएमडी) ने कावेरी बेसिन के दक्षिणी क्षेत्रों में 28 फीसदी वर्षा की कमी और अंदर के इलाके में 22 फीसदी की कमी दर्ज की थी। लेकिन अगस्त में 102 फीसदी यानी अत्यधिक वर्षा दर्ज हुई।

बेंगलुरु में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के सिविल इंजीनियरिंग और इंटरडिसिप्लिनरी सेंटर फॉर वॉटर रिसर्च (ICWAR), विभाग में प्रोफेसर शेखर मुड्डू के अनुसार, "चार महीने में कर्नाटक को जो वर्षा मिलती रही है, वह इस बार सिर्फ दो महीने में प्राप्त हुई।"

Precipitation anomaly in the Kaveri basin, June 2019. Credit: Raj Bhagat Palanichamy

Precipitation anomaly in the Kaveri basin, July 2019. Credit: Raj Bhagat Palanichamy

Precipitation anomaly in the Kaveri basin, August 2019. Credit: Raj Bhagat Palanichamy

जियोग्राफिक इंफार्मेशन सिस्टम और वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टिटयूट, इडिया से जुड़े रिमोट सेंसिंग एनालिस्ट राज भगत पलानीचामी कहते हैं, "जून और जुलाई में लग रहा था कि कावेरी का इलाका सूखे की चपेट में आ गया है। लेकिन फिर अगस्त की बारिश ने कावेरी बेसिन में सभी बांधों को लबालब कर दिया। किसान इस तरह की चरम स्थितियों के लिए अचानक तैयार नहीं हो सकते हैं।"

भगत पलानीचामी ने इस हालात को और स्पष्ट किया, " कोर कैचमेंट इलाकों, कोडागु और हसन में भी बारिश को लेकर भारी उतार चढ़ाव की स्थिति थी। इससे समस्या होती है, क्योंकि नदी इस क्षेत्र में उत्पन्न होती है और इसका प्रभाव बेसिन से अलग भी देखने को मिलते हैं।"

यह बात सच है कि कावेरी बेसिन में वर्षा की मात्रा में उतार-चढ़ाव की एक बड़ी प्रवृति देखने को मिलती है। इसका परिणाम हमेशा से परेशानी भरा होता है। यह जलवायु परिवर्तन से भी जुड़ा मसला है। कारण बड़े पैमाने पर वनों की कटाई और विकास से जुड़ी गतिविधियों हैं और परिणाम असामान्य रूप से सूखे के दिनों के साथ-साथ मूसलाधार बारिश भी है। वर्षा का यह पैटर्न भारत के अन्य हिस्सों में भी जीवन और लोगों की आजीविका को प्रभावित कर रहा है। इस पूरी स्थिति पर मई 2019 में राजस्थान से एक रिपोर्ट इंडियास्पेंड में प्रकाशित हुआ है।

पुणे के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मीटिरोलॉजी (आईआईटीएम) के शोधकर्ताओं के नेतृत्व में वर्ष 2017 में एक अध्ययन किया गया था। इस अध्ययन के अनुसार 1950 और 2015 के बीच मध्य भारत में चरम वर्षा की घटनाएं तीन गुना बढ़ी हैं। चरम वर्षा की इन घटनाओं से लगभग 825 मिलियन लोग प्रभावित हुए,17 मिलियन बेघर हो गए और लगभग 69,000 लोगों की मौत हो गई।

इंडियास्पेंड ने अगस्त 2018 की एक रिपोर्ट में इस पर विस्तार से बताया है।

जून, जुलाई में मिट्टी की नमी में कमी

कावेरी बेसिन 85,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है । यह देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 2.5 फीसदी है और इसमें नदी और उसकी सहायक नदियों के क्षेत्र भी शामिल हैं। यह बेसिन लगभग 50 करोड़ लोगों को भरण पोषण में मदद करता है। इस बेसिन से पूरे कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु और पुदुचेरी में लगभग 81,155 वर्ग किमी के क्षेत्र में सिंचाई होती है। इस बेसिन के मुख्य जलाशयों की बात करें तो वे कर्नाटक में हरंगी, काबिनी, हेमवती और कृष्णा राजा सागर (केआरएस) और तमिलनाडु में मेट्टूर और भवानी हैं।

The Kaveri Basin. Credit: India Water Portal

कावेरी बेसिन कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच फैला हुआ है और इसका लगभग 66 फीसदी भाग कृषि भूमि है। कुल मिलाकर, कावेरी बेसिन में इस मानसून में 5 फीसदी अधिक वर्षा दर्ज की गई। सेंट्रल वॉटर कमीशन की रिपोर्ट है कि 19 सितंबर, 2019 को बेसिन के कर्नाटक वाले हिस्से के सभी जलाशय उफान पर थे।

आईसीडब्लूएआर के मुड्डू कहते हैं, “बेसिन के कर्नाटक भाग में खरीफ फसलों के लिए रोपण का मौसम मई और जुलाई के बीच शुरू होता है। लेकिन कई जगहों पर, इस दौरान मिट्टी की नमी बहुत कम थी। यह पूरे क्षेत्र में नमी की स्थिति और वर्तमान में वर्षा के पैटर्न के लिए एक संकेत है।

Soil moisture in June 2019. Credit: Sekhar Muddu

Soil moisture in July 2019. Credit: Sekhar Muddu

Soil moisture in August 2019. Credit: Sekhar Muddu

कर्नाटक में किसान कल्याण संगठनों के एक समूह राज्य किसान महासंघ के अध्यक्ष शांताकुमार बताते हैं, "जून और जुलाई बहुत सूखा था। किसान इन दो महीनों में किसी भी तरह की खेती शुरु नहीं कर पाए। मांड्या, मैसूर, चामराजनगर, मदिकेरी और हसन में धान, गन्ना और रागी जैसी फसलों की बुवाई अगस्त के अंत तक टाल दी गई। देर से खेती शुरु होने से, लगभग 25 फीसदी की उपज का नुकसान हुआ।"

Vegetation anomaly in June 2019. Credit: Raj Bhagat Palanichamy

Vegetation anomaly in July 2019. Credit: Raj Bhagat Palanichamy

तैयार फसलें भी प्रभावित हुईं

देर से वर्षा ने उन फसलों को भी प्रभावित किया जो इन मौसमों में पहले लगाई जाती थीं। मांड्या के एक किसान के एस. सुधीर कुमार ने कहा, “पिछले साल एक बड़े क्षेत्र में लगाए गए गन्ने जून के आसपास कटने लिए तैयार थे, लेकिन वे सूख गए, क्योंकि बारिश नहीं हुई।” सुधीर किसान संगठन, अखण्ड कर्नाटक राज्य रायता संघ के सचिव भी हैं। वह आगे बताते हैं, " वर्षा नहीं होने के कारण अगले सीजन यानी जून और जुलाई, 2019 के लिए हमने कोई फसल नहीं लगाईं।"

एस. सुधीर कुमार की बातों को आईसीडब्लूएआर के मुड्डू कुछ अलग ढंग से देखते हैं, “तमिलनाडु के कावेरी बेसिन क्षेत्रों में, चूंकि अक्टूबर और दिसंबर के बीच बड़े पैमाने पर वर्षा होती है, इसलिए आकलन करना जल्दबाजी होगी,हालांकि वर्तमान में तमिलनाडु के कावेरी बेसिन में नमी की मात्रा कम दिख रही है।लेकिन जरूरी नहीं कि यह आसन्न सूखे या खराब उपज का संकेत ही है, क्योंकि राज्य के कृषि बैंक अक्टूबर-दिसंबर की वर्षा पर काफी हद तक निर्भर करते हैं।"

शांताकुमार कहते हैं कि अगस्त की भारी बारिश से कुछ खास इलाके के खेतों में बाढ़ आ गई और कई किसानों के घर भी बह गए। हालिया रिपोर्टों के अनुसार, इन बाढ़ों में कर्नाटक में लगभग 76 लोगों की मौत हो गई। हालांकि अगस्त के दौरान भारी वर्षा से कई जलाशय जरूर भर गए, लेकिन इससे, पहले के दो महीनों में कम वर्षा के कारण जो भूजल तनाव उत्पन्न हुआ था, वह कम नहीं हुआ।

वनस्पतियों की हरी चादर का सिमटना और जलवायु परिवर्तन

आईआईएससी के एनेर्जी एंड वेटलैंड्स रिसर्च ग्रुप के कोर्डिनेटर, टी वी रामचंद्र इस समस्या को वनस्पतियों के नुकसान से जोड़कर देखते हैं, " क्षेत्र में वनस्पति की कमी के साथ जलवायु परिवर्तन, बाढ़ का कारण बन रहा है । वनस्पति की कमी से बारिश का पानी जमीन के अंदर नहीं जा पा रहा है। जल के स्तर को बरकरार रखने के लिए किसी भी भूमि के टुकड़े पर हरी वनस्पतियां जरूरी हैं।"

वनस्पति, विशेष रूप से देशी छोटे पौधे पानी को जमीन के अंदर जाने में मदद करते हैं।रामचंद्र बताते हैं कि, "इसी तरह भूजल रिचार्ज होता है। और जब मानसून शुरू होता है, तो इन भूमिगत परतों में जमा पानी नदियों और नालों में बह जाता है और इसी तरह हमें पूरे साल पानी मिलता है।"

रामचंद्र यह बताना नहीं भूलते कि पिछले कुछ दशकों में बेसिन में वनस्पति की हरी चादर सिमट गई है। कावेरी बेसिन पर हरी वनस्पतियों का आवरण 1965 में 20 फीसदी था। आज यह लगभग 13 फीसदी है।"

रामचंद्र और उनकी टीम द्वारा किए गए विश्लेषण के अनुसार, कावेरी बेसिन में 1965 में 35,020 वर्ग किमी सघन वनस्पति आवरण था। 2016 तक यह घटकर 22,747.17 वर्ग किमी रह गया है।

टीम ने जो निष्कर्ष निकाला था, उसके अनुसार, इसी क्षेत्र में

डिग्रेडिड

वनस्पति आवरण की मात्रा भी 21,369 वर्ग किमी से घटकर 1965 और 2016 के बीच 7,915.91 वर्ग किमी रह गई है।

रामचंद्र कुछ रास्ता सुझाते हैं, "नदी के बेसिन के प्रबंधन में सबसे पहले, हमें देशी प्रजातियों के पौधों के साथ,जलग्रहण क्षेत्रों पर हरियाली बनाए रखने की आवश्यकता है। दूसरे,

क्षेत्र के लिए

अनउपयुक्त फसल पैटर्न के कारण पानी का प्रबंधन लड़खड़ा रहा है। एक उदाहरण सूखा क्षेत्रों में गन्ने की फसल का क्षेत्रफल का बढ़ना है। सूखा क्षेत्र में पहले केवल बाजरा, दाल और मूंगफली की फसल को तरजीह दी जाती थी।"

रामचंद्र जोर देकर कहते हैं कि, "जलवायु परिवर्तन इन कारकों के कारण होने वाली समस्याओं को और बढ़ा रहा है।"

(पारदीकर स्वतंत्र पत्रकार हैं और बेंगलुरु में रहते हैं।)

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आलेख मूलत: अंग्रेजी में 03 अक्टूबर 2019 को IndiaSpend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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