नई दिल्ली: एक नई रिपोर्ट में कहा गया है कि जिस तेज़ी से कार्बन का उत्सर्जन हो रहा है, उसका असर आज पैदा होने वाले हर बच्चे को ज़िंदगी भर भुगतना पड़ेगा। आज पैदा हुआ बच्चा जब 71 साल का होगा तब तक धरती का तापमान, सत्रहवीं शताब्दी के मध्य (औद्योगिक क्रांति से पहले) के तापमान से 4 डिग्री सेल्सियस ज़्यादा होगा।

ऐसे भारतीय बच्चे जो पहले से ही दूषित हवा में सांस ले रहे हैं और विशेष रूप से कुपोषण और संक्रामक रोगों की चपेट में आसानी से आ सकते हैं उन पर जलवायु परिवर्तन का बहुत ज़्यादा असर पड़ेगा। इस पर हम आगे विस्तार से चर्चा करेंगे। एक मेडिकल जर्नल द लांसेट में प्रकाशित 2019 द लांसेट काउंटडाउन रिपोर्ट के अनुसार, कुछ निम्नालिखित तरीकों से जलवायु परिवर्तन का असर बच्चों के जीवन पर उनके शैशव काल से लेकर बुढ़ापे तक पर पड़ सकता है:

  • चावल और मक्का की औसत पैदावार के कम होने से इन फ़सलों की कीमत बढ़ जाएगी, जिससे कुपोषण का बोझ बढ़ेगा। भारतीय बच्चों में पहले से ही कुपोषण की दर ज़्यादा है।

  • मौसम बदलने से संक्रामक रोग डायरिया और मच्छरों से पैदा होने वाली बीमारियां बढ़ेंगी। बच्चे विशेष रूप से इन बीमारियों का आसानी से शिकार हो सकते हैं।

  • वायु प्रदूषण की दशा और ज़्यादा खराब होने से धूल कणों के कारण होने वाली मौतों की संख्या बढ़ेगी।

  • तापमान बढ़ने से विनाशकारी बाढ़, लंबे समय तक सूखे और जंगलों में आग लगने की घटनाएं बढ़ेंगी, जिससे जान माल का जोखिम हो सकता है।

द लांसेट काउंटडाउन का पहला संस्करण 2016 में सामने आया था। ये एक व्यापक वार्षिक विश्लेषण है जो 41 प्रमुख संकेतकों में बदलाव को ट्रैक करता है जिससे स्वास्थ्य पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के असर का पता चलता है।

लांसेट काउंटडाउन के कार्यकारी निदेशक निक वाट्स ने कहा, "बच्चे विशेष रूप से बदलते जलवायु के स्वास्थ्य जोखिमों के प्रति संवेदनशील होते हैं। उनके शरीर और प्रतिरक्षा प्रणाली अभी भी विकसित हो रहे होते हैं, जो उन्हें बीमारी और पर्यावरण प्रदूषकों का आसानी से शिकार बना देता है।”

इंडियास्पेंड ने 8 अक्टूबर, 2018 को एक रिपोर्ट में बताया था कि दुनिया के औसत तापमान में वृद्धि से लगभग 60 करोड़ भारतीयों को ख़तरा है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पूरा करने और अगली पीढ़ी के स्वास्थ्य की रक्षा करने के लिए दुनिया के ऊर्जा परिदृश्य में तेजी से और जल्द बदलाव लाना होगा। देशों को समझौते के तहत निर्धारित लक्ष्यों के माध्यम से कार्बन उत्सर्जन को कम करने के प्रयासों को तेज़ करके ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने की कोशिश करनी होगी।

रिपोर्ट कहती है कि जीवाश्म कार्बन डाई-ऑक्साइड के उत्सर्जन में सालाना 7.4% से कम की कटौती के बिना वर्ष 2019 और 2050 के बीच ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री तक सीमित करने का महत्वा्कांक्षी लक्ष्य पूरा नहीं किया जा सकता।

जलवायु परिवर्तन के ख़तरों को रेखांकित करते हुए द लांसेट के प्रधान संपादक रिचर्ड हॉर्टन ने एक वक्तव्य में कहा, "जलवायु संकट आज मानवता के स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़े ख़तरों में से एक है, लेकिन दुनिया को अभी भी इंतेज़ार है विभिन्न् सरकारों के जवाब का जो अगली पीढ़ी के सामने अभूतपूर्व पैमाने पर चुनौती से मेल खा सके। वर्ष 2020 से कार्यान्वित होने वाले पेरिस समझौते को पूरी ताकत से लागू किए बिना हम इस स्तर के विनाश को बर्दाश्त नहीं कर सकते। दुनिया के नैदानिक, वैश्विक स्वास्थ्य और अनुसंधान में लगे लोगों को अब एक साथ आकर, अंतर्राष्ट्रीय नेताओं को बचपन और आजीवन स्वास्थ्य के ख़तरों से बचाने के लिए चुनौती देने की ज़रूरत है।”

कुपोषण और भी ख़तरनाक रूप लेगा

रिपोर्ट के मुताबिक तापमान बढ़ने के साथ फ़सलों की पैदावार कम हो जाएगी जिससे खाद्य पदार्थों की कीमतें बढ़ेंगी। इस कारण खाद्य सुरक्षा को ख़तरा होगा और खाने-पीने की चीज़ें ग़रीबों की पहुंच से बाहर हो जाएंगी। नवजात और छोटे बच्चे, कुपोषण से सबसे ज़्यादा प्रभावित होंगें जिससे अविकसित कद, कमज़ोर प्रतिरक्षा प्रणाली और दीर्घकालीन विकास संबंधी समस्याएं बढ़ जाएंगी।

रिपोर्ट में आगे बताया गया है कि बढ़ते तापमान के कारण पिछले 30 साल में दुनियाभर में अनाज की उपज क्षमता गिर गई है। मक्का की उपज में 4%, सर्दियों की गेहूं की उपज में 6%, सोयाबीन की उपज में 3% और चावल की उपज में 4% की गिरावट आई है। पिछले 58 साल में (1960 से) भारत में मक्का और चावल की औसत उपज क्षमता में लगभग 2% की गिरावट आई है। जबकि पांच साल से कम उम्र के दो तिहाई बच्चों की मौत कुपोषण की वजह से हुई है।

इंडियास्पेंड ने 22 मार्च 2018 को एक रिपोर्ट में बताया था कि एक थिंक टैंक, इंटरनेशल फ़ूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट की इंडेक्स के मुताबिक, जलवायु परिवर्तन की वजह से भारत का कृषि उत्पादन गिर रहा है। वर्ष 2010 के स्तर के मुकाबले इंडेक्स स्कोर आउटपुट: अगर 2010 में इंडेक्स पर उत्पाादन '1.0' आंका गया था तो बिना जलवायु परिवर्तन के वर्ष 2030 तक '1.63' तक बढ़ सकता है। लेकिन अगर तापमान-वृद्धि को ध्यान में रखा जाए तो उत्पादन केवल '1.56’ तक बढ़ सकता है जो पहले की स्थिति से सात अंक कम हो सकता है।

इसी तरह वर्ष 2030 में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण भूख से पीड़ित लोगों की अनुमानित संख्या 22.5% ज़्यादा होगी। यानि कि इन लोगों की अनुमानित संख्या 9.05 करोड़ होगी। बिना जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के ये संख्या अनुमानित तौर पर 7.39 करोड़ आंकी गई थी।

जलवायु पर काम करने वाली संयुक्त राष्ट्र की सर्वोच्च वैज्ञानिक संस्था, इंटरगवर्मेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की नई विशेष रिपोर्ट के अनुसार, कम होती पैदावार के अलावा जलवायु परिवर्तन के कारण भोजन में पोषक तत्वों की कमी होने और किसानों के जानवरों की वृद्धि और उत्पादकता के प्रभावित होने से दुनिया के देशों में खाद्य असुरक्षा का वातावरण पैदा हो सकता है। जलवायु परिवर्तन के कारण 2050 तक अनाज की कीमतों में 23% तक का उछाल आ सकता है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने 2 सितंबर 2019 की रिपोर्ट में बताया था।

बीमारियों का घातक असर

बढ़ते तापमान और बदलते वर्षा पैटर्न की वजह से बच्चे संक्रामक रोगों के शिकार हो सकते हैं। द लांसेट की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले 30 साल में, विब्रियो बैक्टीरिया के फैलने के दिनों की संख्या दोगुनी हो गई है। ये बैक्टीरिया दस्त की बीमारी की वजह है।

इसी तरह, बदलते मौसम के पैटर्न विब्रियो कोलरा बैक्टीरिया के लिए अनुकूल वातावरण बना रहे हैं। 1980 के दशक की शुरुआत से विश्व स्तर पर इसकी उपयुक्तता में लगभग 10% की वृद्धि रही है। उन देशों में हैजा फैलने की आशंका बढ़ रही है जहां यह कभी-कभार हुआ करता था। भारत में, 1980 के दशक के शुरुआत से इस रोग के मामलों में 3% की दर से वृद्धि हुई है। जलवायु परिवर्तन इसे और बढ़ा सकता है।

रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण, मच्छरों से पैदा होने वाला डेंगी, दुनिया में सबसे तेज़ी से फैलने वाला रोग बन गया है। जिन 10 सालों में डेंगी सबसे ज़्यादा फैला उनमें से नौ साल सन 2000 के बाद के थे। अब दुनिया की लगभग आधी आबादी को इससे ख़तरा है।

हवा की ख़राब क्वालिटी से दिल, फेफड़ों को नुकसान होगा

जैसा कि हमने पहले बताया, आज पैदा होने वाला बच्चा, किशोरावस्था से होता हुआ जब वयस्क होगा तो वह कोयले और तेल के ईंधन की वजह से ज़्यादा ज़हरीली हवा में सांस ले रहा होगा। बढ़ते तापमान से हालात और बदतर हो जाएंगे। यह विशेष रूप से बच्चों के लिए हानिकारक है क्योंकि उनके फेफड़े अभी भी विकसित हो रहे होंगे। इससे बाद के जीवन में, फेफड़ों की कार्य क्षमता के कम हो जाने, अस्थमा के बिगड़ जाने और दिल के दौरे और स्ट्रोक के ख़तरे बढ़ जाएंगे।

जीवाश्म ईंधन से दुनिया में कार्बन डाई-ऑक्साेइड के उत्सर्जन का बढ़ना जारी है (2016 से 2018 के बीच 2.6% की वृद्धि हुई)। पिछले कुछ समय से कोयले से बिजली के उत्पादन में आ रही गिरावट भी अब वृद्धि में बदल गई है (वर्ष 2016 से 2018 के बीच इसमें 1.7% तक बढ़ोत्तरी हुई)।

पार्टिकुलेट मैटर (पीएम), मुनष्य के बाल से भी 30 गुना महीन कण हैं जो हमारे रक्त प्रवाह में प्रवेश कर सकते हैं। इससे लोगों की मौत हो सकती है। वर्ष 2017 में, इससे दुनिया भर में 29 लाख लोगों की मौत हो गई थी। सिर्फ़ कोयले की वजह से पीएम-2.5 (2.5 माइक्रोग्राम तक के कण) से साल 2016 में 440,000 से ज़्यादा लोगों की अकाल मृत्यु हो गई। कोयले के जलने से निकलने वाले सभी प्रदूषकों का हिसाब लगाया जाए तो इससे 10 लाख से ज़्यादा मौतें हुईं।

भारत का पीएम-2.5 का स्तर दुनिया में चौथा सबसे ज़्यादा है और विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की सुरक्षित सीमा का नौ गुना है। इस कारण भारत दुनिया के सबसे प्रदूषित देशों में गिना जाता है। दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में भारत के 14 शहर शामिल हैं।

वर्ष 2016 में पीएम-2.5 के उच्च स्तर के कारण भारत में 529,500 से ज़्यादा लोग अकाल मृत्यु का शिकार हुए। इनमें 97,400 से ज़्यादा लोगों की मौत कोयले की वजह से हुई।

वयस्क जीवन में चरम मौसम की घटनाएं बढेंगी

आज पैदा हुए बच्चों के सामने, जीवन में आगे चलकर, गंभीर बाढ़, लंबे समय तक सूखे और जंगली आग का ख़तरा बढ़ जाएगा। द लांसेट रिपोर्ट के मुताबिक, 196 में से लगभग 152 देशों में वर्ष 2001-2004 के बाद से जंगल की आग का शिकार लोगों की संख्या बढ़ी है। भारत में इस संख्या में लगभग 2.10 करोड़ और चीन में 1.70 करोड़ से ज़्यादा की बढ़ोत्तरी हुई है। इसकी वजह से लोगों की मौतें हो रही हैं, उन्हें सांस की बीमारी हो रही है और उन्हें अपने घरों से भी हाथ धोना पड़ा है।

जंगल की आग से प्रभावित व्यक्ति की वजह से दुनिया पर आर्थिक बोझ, भूकंपों की तुलना में दोगुना और बाढ़ की तुलना में 48 गुना ज़्यादा होता है। हालांकि, बाढ़ और उससे प्रभावित लोगों की संख्या, जंगलों में लगी आग की घटनाओं की तुलना में बहुत ज़्यादा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि बढ़ते तापमान और वक्त से पहले बर्फ़ गिरने जैसी जलवायु परिवर्तन की घटनाओं से गर्मी और ख़ुश्क मौसम की स्थिति पैदा होती है। इससे जंगल में आग लगने का ख़तरा बढ़ जाता है।

साल 2018 चौथा सबसे गर्म वर्ष रहा। इस साल दुनियाभर में रिकॉर्ड 22 करोड़ लोग लू का शिकार हुए। ये संख्या साल 2017 के मुक़ाबले 6.3 करोड़ और 2015 के मुक़ाबले 1.1 करोड़ ज़्यादा थी। साल 2018 में भारत में 4.5 करोड़ लोग लू का शिकार हुए थे।

रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि पुराने शहर में रहने वाले लोगों को, लू लगने से होने वाली बीमारियों जैसे स्ट्रोक और किडनी रोगों का ख़तरा है। लगातार और लंबे समय तक चलने वाली लू, वैश्विक श्रम क्षमता को फिर से परिभाषित करेगी। साल 2010 में साल 2000 की तुलना में अत्यधिक गर्मी के कारण दुनियाभर में 45 बिलियन काम के घंटों का नुकसान हुआ। भारत में साल 2000 के बाद से अत्यधिक गर्मी के कारण 22 बिलियन काम के घंटे बर्बाद हुए हैं। अकेले कृषि के क्षेत्र में 12 बिलियन घंटों का नुकसान हुआ।

(भास्कर इंडियास्पेंसड के साथ रिपोर्टिंग फे़लो हैं।)

(ये रिपोर्ट मूलत: अंग्रेज़ी में 14 नवंबर 2019 को IndiaSpend पर प्रकाशित हुई है।)

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