मुंबई: एक साल के लम्बे इंतेज़ार के बाद, आख़िरकार गृह मंत्रालय के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने 21 अक्टूबर, 2019 को वर्ष 2017 के अपराध के आंकड़े जारी कर दिए। लेकिन, इस रिपोर्ट में लिंचिंग के आंकड़ों को शामिल नहीं किया गया। पहले उम्मीद थी कि जारी होने वाले आंकड़ों में लिंचिंग को भी शामिल किया जाएगा।

गृह मंत्रालय की ओर से बताया गया है कि यह देरी ‘ग़लतियों को दूर करने’ में लगने वाले समय के कारण हुई है। यह भी कहा गया है कि 25 श्रेणियों के आंकड़ों को रोक दिया गया था, जिसमें सांप्रदायिक दंगों के दौरान बलात्कार, गाय से संबंधित हिंसा, पत्रकारों और आरटीआई कार्यकर्ताओं पर हमले और घृणा अपराध शामिल हैं। तर्क यह दिया गया है कि इसके आंकड़े भरोसेमंद नहीं थे, और गलत जानकारी फैलने का ख़तरा था।

इस बार, एनसीआरबी ने नई श्रेणियों में आंकड़े जारी किए हैं जैसे कि राष्ट्रीय विरोधी तत्व, फर्जी / नकली समाचार / अफवाहें फैलाना, चिट फंड, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम और मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम, ध्वनि प्रदूषण और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के मामले।

हर साल जारी होने वाले 'एक्सीडेंटल डेथ्स एंड सुसाइड्स इन इंडिया' रिपोर्ट अब तक जारी नहीं की गई है। इस रिपोर्ट में किसानों / कृषि मजदूरों और छात्रों की आकस्मिक मौतों के अलावा आत्महत्याओं पर महत्वपूर्ण आंकड़े होते हैं। लेकिन पिछले तीन साल से ये आंकड़े जारी नहीं किए गए हैं। इसकी अंतिम रिपोर्ट 2015 में आई थी।

क्रिमिनोलॉजी और क्रिमिनल जस्टिस के प्रोफेसर और दिल्ली के नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी (एनएलयू), में सेंटर फॉर क्रिमिनोलॉजी एंड विक्टिमोलॉजी के चेयरपर्सन, जी.एस बाजपेयी और एनएलयू के रिसर्च एसोसिएट अंकित कौशिक के साथ इंडियास्पेंड से इन मुद्दों पर बात की। इंडियास्पेंड के साथ बातचीत में बताया कि आंकड़ों को रोकना ‘आपराधिक न्याय और नीति के क्षेत्र में रिसर्च में रुकावट डालना है।’

57 वर्षीय जी.एस बाजपेयी दिल्ली के एनएलयू में रजिस्ट्रार भी हैं और उन्होंने 17 किताबें, 80 से अधिक रिसर्च पेपर, कई मोनोग्राफ और प्रोजेक्ट रिपोर्टे लिखी हैं। वह देश के प्रमुख समाचार पत्रों लगातार कॉलम लिखते हैं। वे गृह मंत्रालय के ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवल्पमेंट के रिसर्च प्रोजेक्ट के स्थायी समिति के सदस्य हैं। साथ ही पुलिस ट्रेनिंग रिसर्च और कोर्स में उनका योगदान रहा है।

27 वर्षीय अंकित कौशिक ने ‘इंडियन काउंसिल ऑफ सोशल साइंस रिसर्च प्रोजेक्ट’ में महिलाओं के खिलाफ अपराध की स्थिति ’पर काम किया है। उन्होंने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के प्रोजेक्ट के तहत किशोर न्याय अधिनियम, 2000 के प्रभाव और कार्यान्वयन पर काम किया है। वह विश्वविद्यालय की ओर से राष्ट्रीय जांच एजेंसी के साथ-साथ ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवेलपमेंट के साथ जुड़े रहे हैं और परामर्श देते रहे हैं।

उनसे ईमेल इंटरव्यू के कुछ अंश:

हाल ही में जारी एनसीआरबी के आंकड़ों के सबसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष आपके लिए क्या हैं?

ये वास्तविक आंकड़े नहीं हैं कि जिसमें मेरी रुचि फौरन हो। हां, एनसीआरबी की ओर से पुराने अपराधों का पुनर्वर्गीकरण और नए अपराधों को शामिल करने का महत्व है। एनसीआरबी के इस काम से कई नए अपराध समाप्त हो गए हैं, जैसे कि महिलाओं / बच्चों की साइबर धमकियां आदि। इस तरह के पुनर्वर्गीकरण और अपराधों की श्रेणियों के निर्माण की जांच अत्यंत महत्वपूर्ण है और इस पर आपराधिक कानून विशेषज्ञों, वकीलों और नीति निर्माताओं को महत्वपूर्ण विश्लेषण करना चाहिए।

लिंचिंग पर डेटा, और पत्रकारों और कार्यकर्ताओं के खिलाफ अपराधों को शामिल नहीं किया गया है। इस पर आपकी क्या टिप्पणी है? क्या एक सार्वजनिक संस्थान के रूप में, एनसीआरबी, इन आंकड़ों को जनता के साथ साझा करने के लिए बाध्य नहीं है?

मॉब लिंचिंग और पत्रकारों के खिलाफ हमलों के आंकड़ों को शामिल नहीं करने के मुद्दे पर गृह मंत्रालय (एमएचए) का आधिकारिक रुख यह है कि थानों से प्राप्त आंकड़े अविश्वसनीय हैं और उससे गलत जानकारी फैलने का ख़तरा है। हालांकि, एमएचए के दावे की सत्यता की पुष्टि किए बिना आधिकारिक रुख पर टिप्पणी करना सही नहीं होगा; यह निश्चित रूप से स्वीकार्य है कि किसी भी आधिकारिक परिभाषा के अभाव में मॉब लिंचिंग पर डेटा इक्ट्ठा करना वास्तव में एक कठिन काम है। हालांकि,इस तर्क को अन्य अपराधों पर भी लागू किया जाना चाहिए, जो एनसीआरबी ने बनाए हैं या फिर से वर्गीकृत किए हैं, क्योंकि फेक न्यूज़ या फेक प्रोफ़ाइल जैसे नए वर्गीकृत अपराधों में से कई के लिए कोई आधिकारिक परिभाषा उपलब्ध नहीं हैं।

यदि डेटा अविश्वसनीय है, तो मुझे भी संदेह है कि इसे साझा किए जाने से कुछ अच्छा नतीजा बाहर आएगा,लेकिन दूसरी ओर फिर एनसीआरबी को अविश्वसनीय परिभाषाओं के आधार पर जमा किए गए अन्य डेटा को साझा करने से भी बचना चाहिए था।

डेटा में अब नई श्रेणियां शामिल हैं, जैसे कि राष्ट्र-विरोधी तत्वों द्वारा अपराध। इस पर आपका क्या कहना है?

एनसीआरबी के पुनर्वर्गीकरण के प्रयास को बेतरतीब और सिद्धांतहीन होने के लिए आलोचना का विषय बनाया जा सकता है। अपराधों में ही कोई ठोस बदलाव हुए बिना नए हेडिंग के तहत पुराने अपराधों को रिपैकेज करना व्यर्थ है। शैक्षिक या विधायी संवाद में नए अपराध और वर्गीकरण की परिभाषा मौजूद नहीं हैं। ‘ राष्ट्र-विरोधी तत्व’ नाम का हेडिंग भी इसी श्रेणी में आता है। जब तक 'राष्ट्र-विरोधी' शब्द को ठीक से परिभाषित नहीं किया जाता है, तब तक आपराधिक न्याय प्रशासन के भीतर उसे किसी भी प्रकार की आधिकारिक मान्यता प्रदान करना सही नहीं होगा।

‘द एक्सीडेंटल डेथ्स एंड सुसाइड्स इन इंडिया’ रिपोर्ट तीन वर्षों से जारी नहीं की गई है। अंतिम बार यह 2015 में जारी हुआ था। आपकी क्या टिप्पणी है।

एनसीआरबी की ओर से आंकड़ें जारी करने में किसी भी तरह की देरी से देश भर में और उसके बाहर आपराधिक न्याय और नीति के क्षेत्र में रिसर्च में देरी होती है। पिछले दो वर्षों में अध्ययनों को पुराने आधिकारिक आंकड़ों पर निर्भर रहना पड़ा है। इसलिए, यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ‘द एक्सीडेंटल डेथ्स एंड सूसाइड्स इन इंडिया’ रिपोर्ट के प्रकाशन में देरी, क्राइम इन इंडिया स्टैटिस्टिक्स और प्रिज़़न (जेल) स्टैटिस्टिक्स के प्रकाशन में हुई देरी से भी ज़्यादा है।

क्या आपको ऐसी कोई जानकारी है कि ये अघोषित आंकड़ों को आरटीआई के ज़रिये हासिल करने की कोशिश की गई है, और उसके क्या परिणाम हुए?

एनसीआरबी एक सार्वजनिक निकाय है, आरटीआई अधिनियम उस पर लागू होता है। वास्तव में, केंद्रीय लोक सूचना अधिकारियों की एक सूची इसकी वेबसाइट पर आसानी से मिल सकती है। इसके अलावा, एनसीआरबी नियमित रूप से आरटीआई के तहत जानकारियां उपलब्ध कराता है, जो इसकी वेबसाइट पर सार्वजनिक उपयोग के लिए भी उपलब्ध हैं। हालांकि, मुझे एनसीआरबी में दायर ऐसी आरटीआई की संख्या की जानकारी नहीं है।

भारत में अपराध डेटा इक्ट्ठा करने और प्रकाशित करने में क्या चुनौतियां हैं? प्रक्रिया में सुधार कैसे किया जा सकता है? प्रक्रिया को निरंतर कैसे बनाया जा सकता है, ताकि एक खास अवधि को लेकर डेटा की तुलना की जा सके?

भारत में अपराध पर किसी भी रिपोर्ट को प्रकाशित करने के लिए डेटा संग्रह शायद सबसे बड़ी चुनौती है। पश्चिम बंगाल और बिहार पुलिस के अपर्याप्त सहयोग को लेकर एनसीआरबी ने नाराज़गी जताई है। किसी भी प्राइवेट रिसर्चर के लिए इस तरह की जानकारी को समझना ज्यादा कठिन होगा। इस प्रक्रिया को एक केंद्रीय डेटाबेस बनाकर काफी हद तक सुव्यवस्थित किया जा सकता है, जो वास्तविक समय में भारत में अपराध पर माइक्रो-लेवल के डेटा को स्वचालित रूप से अपडेट करता है। इस काम को यह सुनिश्चित करके ही किया जा सकता है कि ऑनलाइन अपलोड किया गया प्रत्येक एफआईआर से संबंधित डेटा स्वचालित रूप से केंद्रीय डेटाबेस से जोड़ा जाए। इससे हर साल हर पुलिस स्टेशन से जानकारी हासिल करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।

समय-समय पर डेटा की तुलना करने के लिए प्रक्रिया को निरंतर बनाने के लिए दूरदर्शिता तो चाहिए ही, साथ ही

एनसीआरबी की ओर से पहले से रिकॉर्ड किए गए डेटा को नए तरीकों के अनुसार समायोजित करने की क्षमता विकसित करने आवश्यकता है। हालांकि,इसमें एक किस्म की स्थिरता बनाए रखना कठिन होगा, क्योंकि समाज आम तौर पर अपराध और उसकी गम्भीरता व सज़ा दोनोें को ही परिभाषित और पुन: परिभाषित करता है। 1860 में एक गंभीर माना जाने वाला अपराध आज पूरी तरह स्वीकार्य हो सकता है या फिर इसका उल्टा भी हो सकता है।

क्या आपको लगता है कि कुछ ऐसी चीज़ें हैं जिन्हें इस रिपोर्ट में शामिल किया जाना चाहिए?

रिपोर्ट में पीड़ित के नजरिये की कमी खटकती है। भारत में अपराध का अध्ययन केवल अपराध और अपराधी के दृष्टिकोण से नहीं किया जा सकता है। अपराध को लेकर वह व्यक्ति या समूह भी बहुत महत्वपूर्ण है, जिसके खिलाफ अपराध हुआ है। इसमें गवाहों सहित अपराध के शिकार या पीड़ितों के बारे में बताने के साथ-साथ उनके मुद्दों के विश्लेषण के लिए एक पूरा चैप्टर हो सकता है।

रिपोर्ट किए गए अपराधों / मामलों को (यहां और यहां पढ़िए) देखकर लगता है कि अंडर-रिपोर्टिंग हुई है। इन चुनौतियों से निपटने के लिए क्या उपाय जरुरी हैं?

अपराधों / मामलों की अंडर-रिपोर्टिंग के लिए बड़े पैमाने पर दो पक्षों की जिम्मेदारी बनती है। पहला है संस्थागत और दूसरा सामाजिक। पीड़ितों और गवाहों की सुरक्षा के साथ-साथ पीड़ितों को सहायता देने के लिए सरकार के सकारात्मक कदमों के माध्यम से संस्थागत मुद्दों से निपटा जा सकता है, ताकि रिपोर्ट करना सहज हो। एक अन्य संस्थागत मुद्दा 'प्रिंसिपल ऑफेंस रूल' पर एनसीआरबी की निर्भरता है,

जिसमें एफआईआर में सभी अपराधों में से उच्चतम दंड वाले अपराध को एनसीआरबी ध्यान में रखता है। इसलिए बलात्कार और हत्या से संबंधित एक एफ़आईआर में, एनसीआरबी केवल हत्या की गिनती करेगा, बलात्कार की नहीं। यहीं आकर खुद-ब-खुद अंडर-रिपोर्टिंग हो जाती है, पीड़ितों की तरफ़ से नहीं बल्कि एनसीआरबी की तरफ़ से। शायद एनसीआरबी को नियम पर कम निर्भरता रखने के लिए कहा जाना चाहिए।

सामाजिक दबाव भी अपराधों के शिकार लोगों को आगे आने से रोकते हैं। दबावों में सामाजिक कलंक या बदनामी का डर तो है ही, समाज के भीतर असमान शक्ति संतुलन भी एक बड़ा कारण है। अगर पीड़ित को आरोपी का खतरा हो तो अंडर रिपोर्टिंग होगी। पीड़ितों पर अपराधों के प्रभाव को ध्यान में रखते हुए, पीड़ितों और गवाहों को सुरक्षा और सहायता देने के लिए सामाजिक जागरूकता, संवेदनशील कार्यक्रमों और संस्थागत सुधारों की ज़रूरत है।

अपराधों के आंकड़ों को सामने लाने के लिए पीड़ितों का सर्वे भी एक रास्ता है। देशव्यापी स्तर पर इससे मिलने वाले आंकड़े नीतिगत सुधार में मदद कर सकते हैं। मेरा मानना है कि अपराध के आधिकारिक आंकड़ों के विकल्प के रूप में पीड़ितों के सर्वे को संस्थागत रूप दिया जाए।

(

मल्लापुर वरिष्ठ विश्लेषक हैं और इंडियास्पेंड से जुड़े हैं।)

यह साक्षात्कार मूलत: अंग्रेजी में 24 अक्टूबर 2019 को IndiaSpend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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