कोटा, राजस्थान: रुख़सार बानो (22) ने 16 दिसंबर 2019 को एक बच्ची को जन्म दिया। रुख़सार ने अपनी इस पहली बच्ची का नाम ब्यूटी रखा। ब्यूटी का वज़न जन्म के समय 2.7 किलोग्राम था। ब्यूटी को 29 दिसंबर को बुख़ार हुआ था और रुख़सार ने उसे कोटा में जेके लोन अस्पताल में भर्ती कराया। दो सप्ताह की ब्यूटी ने कुछ घंटे बाद उसी अस्पताल में दम तोड़ दिया जहां उसका जन्म हुआ था।

“वह एक सेहतमंद बच्ची थी, वह मेरे साथ रही थी, जब हम उसे घर लाए तो वह बिल्कुल ठीक थी,” रुख़सार बानो ने बताया। रुख़सार के पति आसिम हुसैन, 27 चंबल नदी में गोताखोर के तौर पर काम करते हैं और रोज़ाना की उनकी आमदनी 270 रुपये है, रुख़सार ने बताया। रुख़सार का मानना है कि अगर उसकी माली हालत अच्छी होती तो ब्यूटी बच सकती थी। लेकिन उनका परिवार प्राइवेट अस्पताल में इलाज नहीं करा सकता था।

ब्यूटी उन 101 नवजात शिशुओं में से थी जिनकी मृत्यु दिसंबर 2019 में जेके लोन अस्पताल में हुई थी। कोटा में इन मौतों का मामला सुर्खियों में छाया रहा, लेकिन देश के अन्य हिस्सों में भी नियमित तौर पर नवजात शिशुओं की मौत की ख़बर मिलती है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने 9 जनवरी 2020 की अपनी रिपोर्ट में बताया था। हमारे विश्लेषण से पता चलता है कि मेडिकल सुविधाओं, जन्म से पूर्व की देखभाल, मां के स्वास्थ्य और जन्म के बाद की देखभाल ठीक न होने से बच्चों का जीवन ख़तरे में होता है।

कोटा में हमने कर्मचारियों की कम संख्या और प्राथमिक और द्वितीय स्वास्थ्य केंद्रों में आधारभूत सुविधाओं की कमी पाई। इसके परिणाम में, तृतीय केंद्रों में आने वाले मरीज़ों की संख्या अक्सर बहुत ज़्यादा होती है। कुपोषित मां से जन्मे बच्चों का वज़न अक्सर जन्म के समय कम होता है। इसके साथ ही सर्दी से हाइपोथर्मिया का ख़तरा बढ़ जाता है जो मृत्यु का एक कारण बन जाता है।

रुख़सार अपनी बेटी की मौत के लिए जेके लोन अस्पताल को ज़िम्मेदार ठहराती है।

बुख़ार के कारण ब्यूटी लगभग 12 घंटे से स्तनपान नहीं कर रही थी। परिवार उसे 29 दिसंबर, 2019 की सुबह अस्पताल ले गया था। नियोनेटल इंटेंसिव केयर यूनिट (एनआईसीयू) में भर्ती होने के कुछ घंटे बाद ही ब्यूटी ने दम तोड़ दिया।

“डॉक्टरों ने हमें उसकी मौत की वजह भी नहीं बताई। उन्होंने कुछ नहीं कहा। उन्होंने केवल उसे हमें सौंप दिया और हमसे जाने के लिए कहा,” रुख़सार बानो ने बताया।

रुख़सार बानो, 22, ने एक स्वस्थ बच्ची, ब्यूटी, को 16 दिसंबर, 2019 को जन्म दिया। दो सप्ताह बाद, ब्यूटी को जेके लोन अस्पताल में बुख़ार के इलाज के लिए भर्ती कराया गया था और उसकी उसी अस्पताल में मौत हो गई जहां उसका जन्म हुआ था। वह उस महीने अस्पताल में दम तोड़ने वाले 101 बच्चों में से थी।

“तृतीय अस्पतालों में भीड़ अधिक है और मौत के मामले (जे के लोन अस्पताल में) देश के अन्य राज्यों की तुलना में अधिक नहीं हैं,” कोटा के चीफ़ मेडिकल ऑफ़िसर, भूपेन्द्र सिंह तंवर ने इंडियास्पेंड को नई दिल्ली में मुलाकात के दौरान बताया। तीसरे स्तर का स्वास्थ्य केंद्र होने के कारण, जेके लोन अस्पताल में राजस्थान के कोटा, बूंदी (40 किलोमीटर दूर), चित्तौड़गढ़ (180 किलोमीटर दूर), और मध्य प्रदेश के शिवपुरी, मंदसौर और अन्य ज़िलों से मरीज़ रेफर किए जाते हैं, उन्होंने कहा। उनका कहना था कि अधिकतर मौतें जन्म के समय कम वज़न वाले शिशुओं और पहले से ‘गंभीर’ स्थिति वाले बच्चों की हुई हैं।

कोटा का जे के लोन अस्पताल जहां दिसंबर 2019 में 101 नवजात शिशुओं की मौत हुई। एक जांच टीम ने अस्पताल में खराब सुविधाएं, सफाई की बुरी स्थिति और अधिक भीड़ पाई।

जब इंडियास्पेंड ने 6 जनवरी, 2020 को जे के लोन अस्पताल का दौरा किया तो हमने अस्पताल के शिशु रोग विभाग के प्रमुख अमृतलाल बैरवा (फ़िलहाल निलंबित); कोटा मेडिकल कॉलेज के प्रिंसिपल, विजय सरदाना; अस्पताल के मेडिकल सुपरिटेंडेंट, सुरेश दुलारा से संपर्क करने की कोशिश की। इन सभी ने हमसे बात करने से मना कर दिया।

हमारे पहुंचने से पहले, केंद्र और राज्य सरकार के अधिकारी इन मौतों की जांच के लिए अस्पताल आए थे।

अस्पताल में 77 नवजात शिशुओं की मौत की ख़बर के बाद नेशनल कमीशन फ़ॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ चाइल्ड राइट्स (एनसीपीसीआर) की एक टीम ने 29 दिसंबर, 2019 को अस्पताल का दौरा किया था। उनकी शुरुआती रिपोर्ट के अनुसार अस्पताल में साफ़-सफ़ाई की स्थिति “बहुत बुरी” थी और “परिसर में सुअर घूम रहे थे”। उन्होंने आधारभूत सुविधाओं की भी कमी पाई थीः “खिड़कियों में कांच नहीं लगे थे, दरवाजे टूटे हुए थे और इस वजह से भर्ती हुए बच्चे खराब मौसम का सामना कर रहे थे।”

अस्पताल के 15 वेंटिलेटर में से, केवल नौ चल रहे थे। सालाना रखरखाव का कोई रिकॉर्ड नहीं था।

जे के लोन अस्पताल में प्रशासनिक कमियां (डॉक्टर नहीं) इन मौतों के लिए ज़िम्मेदार थी, कोटा के सीएमओ, तंवर ने बताया। उन्होंने साफ़ किया कि अस्पताल उनके या स्वास्थ्य विभाग के अधिकार क्षेत्र में नहीं, बल्कि राज्य के मेडिकल शिक्षा विभाग के तहत आता है। “हम उनकी मांग पर ही उन्हें सहायता दे सकते हैं-- हम मांग करने पर उन्हें फंड दे सकते हैं नर्स भेज सकते हैं। मेरे रिकॉर्ड के अनुसार, उनके पास 1.8 करोड़ रुपये का फंड है जिसका इस्तेमाल नहीं किया गया है,” उन्होंने हमें बताया।

नवजात शिशुओं की मौत अचानक आया संकट नहीं

2014 और 2019 के बीच, जे के लोन अस्पताल में नवजात/बच्चों की मौत कुल भर्ती का 5 से 8% रही है, जैसा कि अस्पताल के रिकॉर्ड से पता चलता है।

Source: J K Lon Hospital records accessed by IndiaSpend through sources

“एक ज़िला अस्पताल में 7-10% की मृत्यु दर (प्रति 100 भर्ती पर) सामान्य है,” शिशु रोग विशेषज्ञ और मां और बच्चों के स्वास्थ्य पर काम करने वाले एक गैर-लाभकारी संगठन ममता के कार्यकारी निदेशक, सुनील मेहरा ने बताया।

इसका कारण यह है कि ज़िला अस्पतालों में भीड़ अधिक होती है और मरीज़ों को लौटा नहीं सकते। यह प्राथमिक और द्वितीय स्वास्थ्य केंद्रों से अलग है जो अधिक भीड़ या कम सुविधाएं होने पर मरीज़ों को ज़िला अस्पताल भेज सकते हैं।

मरीज़ों के बीच यह धारणा भी है कि अच्छी देखभाल केवल ज़िला अस्पताल में ही मिलेगी, इससे सभी मरीज़ ज़िला अस्पताल जाते हैं – जो उन सभी की देखभाल करने के लिए सक्षम नहीं हो सकते, मेहरा ने कहा।

372 बेड वाले जे के लोन अस्पताल में भर्ती मरीज़ों का औसत 220% था, राजस्थान की मेडिकल एजुकेशन वेबसाइट पर अपलोड किए गए दस्तावेज़ों के मुताबिक़। इससे हर बेड पर कम से कम दो मरीज़ होते हैं।

“हमारा इसे अचानक आया संकट मानना ग़लत है,” नई दिल्ली के एक थिंक-टैंक, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के सीनियर हेल्थ फ़ेलो, ऊमन कूरियन ने कहा। रिपोर्ट से पता चलता है कि अस्पताल में उपकरणों की कमी थी लेकिन यह दिसंबर में नहीं हुआ; ऐसी स्थिति हमेशा से है और बहुत से बच्चों को बचाया जा सकता था, उन्होंने बताया।

गंदे शौचालय, बेड को साझा करते बीमार बच्चे

जब इंडियास्पेंड ने अस्पताल का दौरा किया तो हमने मैटरनिटी वॉर्ड के शौचालय गंदे पाए। “इन्हें कोई साफ नहीं करता,” अपनी बहू की डिलीवरी के लिए अस्पताल आई ज़ैनब बी (54) ने बताया। “हमने नर्स को कई बार बताया है। शौचालय में पानी नहीं है। हमें इंफेक्शन हो सकता है।”

मरीज़ों ने हमें बताया कि अस्पताल अपनी क्षमता से अधिक पर चल रहा है।

“वह आमतौर पर मशीन में दो बच्चे रखते हैं। अगर जगह कम हो तो वह तीन बच्चे भी रखते हैं,” जे के लोन अस्पताल में डेढ़ साल तक क्लीनर रही भगवती ने बताया।

“एक बॉटल के जरिए आईवी” (ग्लूकोस आदि) देने पर एक बेड पर दो से तीन बच्चे रखे जाते हैं,” उन्होंने बताया।

जब इंडियास्पेंड अस्पताल पहुंचा तो 32 बेड के नियोनेटल केयर वॉर्ड में हर बेड पर केवल एक बच्चा था। भर्ती हुए 32 बच्चों में से, 12 को निमोनिया था। हम जिन बच्चों से मिले उनमें से बहुत से बच्चे कम वज़न वाले थे।

“अगर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र अच्छी तरह चलें और लोग वक़्त रहते इलाज के लिए पहुंचें, तो बच्चों के बचने की संभावना अधिक है,” नई दिल्ली में फिज़िशियन और सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ, चंद्रकांत लहरिया ने बताया।

स्टाफ की कमी, ख़राब आधारभूत सुविधाएं

प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र काफ़ी नहीं हैं, केंद्र अक्सर बंद रहते हैं, डॉक्टर मौजूद नहीं होते और आधारभूत सुविधाएं पर्याप्त नहीं हैं, कोटा के आसपास एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी), दो प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (पीएचसी) और दो स्वास्थ्य उप-केंद्रों के दौरे के बाद हमने पाया।

इनमें से, डिगोड के सीएचसी में एक एमबीबीएस डॉक्टर है। ताथेड में स्वास्थ्य उप-केंद्र और सिमिलिया और गोदलयाहेरी में पीएचसी में आयुष डॉक्टर हैं। झालीपुरा में स्वास्थ्य उप-केंद्र बंद मिला।

नेशनल हेल्थ मिशन के तहत, डिलीवरी के प्रत्येक बिंदु (पीएचसी) में न्यूबोर्न केयर कॉनर्नर, फर्स्ट रेफरल यूनिट (सीएचसी) में नवजात शिशुओं के लिए स्टेबलाइज़ेशन यूनिट और ज़िला अस्पतालों में स्पेशल नवजात केयर यूनिट होनी चाहिए।

न्यूबोर्न केयर में दी जाने वाली सेवाओं में बच्चों को गर्माहट देने, दोबारा होश में लाने, स्तनपान को जल्द शुरू कराने, नवजात शिशु का वज़न लेने, और बीमार नवजात शिशुओं की शुरुआती देखभाल देना शामिल है।

“इंफेक्शन या गंभीर स्थिति वाले शिशुओं को जे के लोन जैसे तृतीय केंद्रों में रेफ़र किया जाना चाहिए,” ‘ममता’ के मेहता ने बताया। अभी जन्म के समय कम वज़न वाले शिशुओं (2.5 किलोग्राम से कम) को भी ज़िला अस्पताल भेजा जाता है, जबकि उनका इलाज प्राथमिक और द्वितीय स्तर पर हो सकता है।

“समय से पहले जन्मे बच्चों, कमज़ोर नवजात शिशुओं, या जन्म के समय कम वज़न वाले शिशुओं के मामले में, हम अधिकतर मरीज़ों को कोटा के जे के लोन अस्पताल भेजते हैं,” डिगोड में सीएचसी के प्रभारी चिकित्सा अधिकारी, सहीबल मीणा ने बताया।

यह प्रचलन केवल कोटा तक सीमित नहीं है। राजस्थान में 95% (561) सीएचसी में एक चालू हालत वाला लेबर रूम है, इनमें से आधे से कम (288) में नवजात शिशुओं के लिए स्टेबलाइजेशन यूनिट चालू हालत में है। इसके अलावा इनमें से 18% (107) केंद्रों में न्यूबोर्न केयर नहीं है।

रूरल हेल्थ स्टैटिस्टिक्स 2018 के अनुसार, राज्य में एक भी उप-केंद्र, पीएचसी या सीएचसी इंडियन पब्लिक हेल्थ स्टैंडर्ड्स के नियमों को पूरा नहीं करता।

इसके अलावा फंड को सही तरीके से ख़र्च नहीं किया जाता। सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च, दिल्ली में एकाउंटेबिलिटी इनिशिएटिव की निदेशक अवनी कपूर ने बताया कि राजस्थान में फंड का इस्तेमाल आमतौर पर कम रहता है।

“उदाहरण के लिए, 2018-19 में सरकार के आंकड़ों के अनुसार, सुविधा आधारित नवजात शिशुओं की देखभाल के लिए आवंटित बजट का 23% खर्च किया गया था। यह कई कारणों से हो सकता है, फंड देरी से जारी होने से लेकर प्रशासनिक रुकावटें और टेंडर की जटिल प्रक्रिया,” कपूर ने कहा।

तीसरे स्तर के देखभाल केंद्रों में अधिक मृत्यु

“कोटा केवल एक ज़िला अस्पताल नहीं है; यह एक क्षेत्रीय अस्पताल है, हाड़ोती क्षेत्र से सभी मामले कोटा रेफ़र किए जाते हैं,” हाड़ोती क्षेत्र में बाल रोग विशेषज्ञों के संगठन के अध्यक्ष, विवेक गुप्ता ने बताया। राजस्थान में हाड़ोती चार सांस्कृतिक क्षेत्रों में से एक है, इसमें कोटा, बारन, बूंदी और झालावाड़ ज़िले शामिल हैं। “इन चार ज़िलों में हर साल एक वर्ष से कम उम्र के लगभग 3,500 बच्चों की मृत्यु हो रही है। ये सभी मामले कोटा स्थानांतरित किए जाते रहे हैं,” गुप्ता ने कहा।

नवजात शिशुओं, समय से पहले जन्म लेने वाले और जन्म के समय कम वज़न वाले शिशुओं को हाइपोथर्मिया होने का ख़तरा अधिक रहता है। जिसमें शरीर में बनने वाली गर्मी की तुलना में शरीर में गर्मी तेजी से समाप्त होती है।

बच्चों को अस्पताल ले जाने के दौरान रिश्तेदार बच्चे के लिए ज़रूरी तापमान बनाए नहीं रख पाते, जिससे हाइपोथर्मिया होता है, कोटा के सीएमओ, तंवर ने इंडियास्पेंड को बताया।

“अगर एक उच्च केंद्र में ले जाने से पहले सामुदायिक स्तर पर मरीज़ को स्थिर करने वाले पर्याप्त केंद्र हों, तो मौतों की संख्या काफी कम हो जाएगी,” ममता एनजीओ के सिन्हा ने उत्तर प्रदेश में एंसिफ़ेलाइटिस से मौतों को रोकने के लिए सीएचसी और प्राइवेट अस्पताल में बनाए गए एंसिफेलाइटिस ट्रीटमेंट सेंटर के बारे में कहा।

कुछ आधुनिक सुविधाओं वाले प्राइवेट अस्पताल समय से पहले जन्मों और 500 ग्राम तक कम वज़न वाले नवजात शिशुओं का इलाज कर सकते हैं, जबकि सरकारी अस्पतालों में 1.5 किलोग्राम तक के वज़न वाले बच्चों को जीवित रहने के लिए संघर्ष करना पड़ सकता है, निंबालकर ने बताया।

नेशनल हेल्थ मिशन की ओर से ज़िला अस्पतालों को विशेष नवजात शिशु केयर यूनिट्स के लिए फ़ंड दिया जाता है, लेकिन जे के लोन जैसे मेडिकल कॉलेज फ़ंड के लिए राज्य सरकार पर निर्भर रहते हैं। “मेडिकल कॉलेजों के पास स्टाफ या बेड की संख्या मांग के अनुसार बढ़ाने की क्षमता नहीं होती क्योंकि स्टाफ़ की संख्या एमसीआई (मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया) के दिशानिर्देशों से जुड़ी है,” उन्होंने कहा।

नवजात शिशुओं की मौत के मामले में राजस्थान दूसरे स्थान पर

राजस्थान में 2018-19 में 24,451 नवजात शिशुओं की मौत हुई, यह मध्य प्रदेश (25,786) के बाद दूसरी सबसे अधिक संख्या थी, हेल्थ मैनेजमेंट इंफॉर्मेशन सिस्टम (एचएमआईएस) के आंकड़ों के मुताबिक़।

अप्रैल और दिसंबर 2019 के बीच भी राजस्थान में नवजात शिशुओं की मौत (17,613) की संख्या दूसरी सबसे अधिक थी, जो केवल मध्य प्रदेश (22,770) से कम थी।

2017 में, राजस्थान में शिशु मृत्यु दर (प्रति 1000 जीवित जन्मों पर 38 मृत्यु) के मामले देश में सातवें सबसे ज़्यादा थे। जबकि राष्ट्रीय औसत 33 था।

नीति आयोग की हेल्दी स्टेट्स प्रोग्रेसिव इंडिया रिपोर्ट 2018 में भी राजस्थान 21 बड़े राज्यों में 16वें स्थान पर रहा। राज्य में जन्म के समय कम वज़न वाले शिशुओं के अनुपात में भी 40% से अधिक की कमी आई है। “इसमें गर्भधारण का जल्द पंजीकरण, जल्द पहचान और अधिक जोखिम वाले गर्भधारण की देखभाल और एचएमआईएस डेटा की नियमित निगरानी जैसे उपायों का योगदान है,” नीति आयोग की रिपोर्ट में बताया गया।

कुपोषित, अनीमिक माएं कम वज़न वाले बच्चों को जन्म देती हैं

पूजा (20) को दिसंबर 2019 में उनकी गर्भावस्था के छठे महीने में अनीमिक होने का पता चला था।

“मैं जे के लोन में चेक-अप के लिए गई थी, डॉक्टर ने मुझे सोनोग्राफी कराने के लिए कहा, जिसके बाद उन्होंने बताया कि मेरे पास पर्याप्त ख़ून नहीं है। मैं दो से तीन दिन अस्पताल में भर्ती थी जिससे वे मुझे ख़ून चढ़ा सकें। उन्होंने 14 दिसंबर को मुझे जाने के लिए कहा जिसके बाद मैं घर आई और अचानक डिलीवरी हो गई,” पूजा ने इंडियास्पेंड को बताया।

पूजा ने लगभग 400 ग्राम वज़न वाले समय से पहले बच्चे को जन्म दिया था। उसे 5-6 घंटे के लिए इनक्यूबेटर में रखा गया था, जिसके बाद परिवार को बच्चे की मृत्यु की सूचना दी गई।

पूजा (20) में रक्त की भारी कमी थी और उसने गर्भावस्था के छठे महीने में समय से पहले बच्चे को जन्म दिया था। बच्चे का जन्म के समय वज़न 400 ग्राम था, और उसकी कुछ घंटे बाद ही मृत्यु हो गई।

राजस्थान में 2015-16 में गर्भवती महिलाओं में से 46.6% एनिमिक थीं और गर्भवती महिलाओं में से केवल 38.5% के कम से कम चार जन्म से पहले के चेक-अप हुए थे, जो ज़रूरी होते हैं, नेशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे 2015-16 (एनएफ़एचएस-4) के अनुसार।

जब महिलाओं का विवाह होता है और वे डिलीवरी के बीच पर्याप्त अवधि के बिना जन्म देती हैं, तो इसके परिणाम में बच्चे जल्द और कम वज़न वाले पैदा होते हैं, इंडियास्पेंड ने 29 मार्च, 2018 की इस रिपोर्ट में ये बताया था।

गंभीर रूप से एनिमिक मांओं के बच्चों के गंभीर रूप से एनिमिक होने की आशंका उन मांओं के बच्चों की तुलना में सात गुना अधिक होती है जो एनिमिक नहीं हैं। गंभीर एनिमिया मां और बच्चे दोनों के लिए घातक हो सकता है, और एनिमिया को रोकना मां और नवजात शिशु की मृत्यु दर को कम करने के लिए महत्वपूर्ण है।

एक साक्षर मां से जन्मे बच्चे के पांच साल की उम्र को पार करने की संभावना 50% अधिक होती है; मां की शिक्षा का हर साल नवजात शिशु की मृत्यु दर को 5 से 10% घटा देता है, संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन की 2011 की रिपोर्ट के अनुसार। इंडियास्पेंड ने 16 जनवरी, 2018 की अपनी रिपोर्ट में इसके बारे में बताया था।

चार में से केवल एक महिला (25.3%) ने 12 साल से ज़्यादा की शिक्षा ली थी और 24 साल की हर तीन महिलाओं में से एक (35.4%) का विवाह 18 साल की उम्र से पहले हो गया था; 6.3% महिलाएं किशोरावस्था में गर्भवती हो गई थी, एनएफ़एचएस-4 के अनुसार।

(तिवारी, इंडियास्पेंड और हेल्थचेक के साथ प्रिंसिपल कॉरेसपॉन्डेंट हैं। इंडियास्पेंड और हेल्थचेक में स्पेशल कॉरेसपॉन्डेंट स्वागता यदवार, और इंडियास्पेंड और हेल्थचेक में डेटा एनालिस्ट श्रिया रमन का इनपुट भी इस रिपोर्ट में शामिल है।)

ये रिपोर्ट 13 जनवरी को health-check.in पर प्रकाशित हुई थी।

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