मुंबई: 5 अगस्त, 2019 को, जब संसद के निचले सदन ने जम्मू-कश्मीर के विशेष संवैधानिक प्रावधान को रद्द कर दिया, तब लगभग बिना किसी बहस के, ट्रांसजेन्डर पर्सन (प्रटेक्शन ऑफ राइट) बिल-2019 भी पारित किया गया था।

पारित किया गया बिल ( 2016 में संसद में पहली बार रखे जाने के बाद से कुछ संशोधन ) भेदभाव समाप्त करने के लिए और ट्रांसजेंडर जीवन को अधिक सुरक्षित बनाने के लिए बनाया गया है।लेकिन ट्रांसजेंडर प्रतिनिधि और कार्यकर्ता इसे ‘रिग्रेसिव’ कहते हैं। जिन दिन लोकसभा द्वारा इस बिल को पारित किया गया था, उस दिन को उन्होंने इसे ‘जेंडर जस्टिस मर्डर डे’ कहा था।

लिंग-अधिकार कार्यकर्ता हरीश अय्यर ने इंडियास्पेंड को बताया, "ट्रांसजेंडर बिल आधे-अधूरे हैं।"

कार्यकर्ताओं के मुख्य तर्क नीचे हैं:

  • उनकी लैंगिकता का निर्धारण करने की स्वतंत्रता के बजाय,भारत के ट्रांसजेंडर लोगों को अब सरकारी अधिकारी और डॉक्टर को शामिल करते हुए एक प्रमाणन प्रक्रिया प्रस्तुत करना होगा।
  • यदि ट्रांसजेंडर लोगों पर यौन हमला किया जाता है, तो उनके हमलावरों को दो साल की अधिकतम जेल अवधि का सामना करना पड़ता है, जबकि महिलाओं पर हमला किए जाने के लिए न्यूनतम सात साल की सजा है।
  • पैदा हुए लिंग के अनुरूप दबाव के कारण यदि युवा ट्रांस व्यक्तियों को घर छोड़ना पड़ता है, तो वे अब ट्रांस समुदाय में शामिल नहीं हो सकते हैं। इसकी बजाय वे अदालत के जाएंगे, जो उन्हें ‘पुनर्वास केंद्र’ में भेज देगा।
  • एक ट्रांस व्यक्ति को विभिन्न सामाजिक-कल्याण कार्यक्रमों तक पहुंचने के लिए पहचान प्रमाण पत्र की आवश्यकता हो सकती है, जो कि भोजन, स्वास्थ्य सेवा, शैक्षिक अवसरों, बीमा से संबंधित हो सकते हैं।

17 वीं लोकसभा, जिसका मानसून सत्र 6 अगस्त, 2019 को समाप्त हुआ, ने 37 दिनों में 281 घंटे काम करते हुए रिकॉर्ड 35 बिल पारित किए। औसतन, हर आठ घंटे में एक बिल पारित किया गया था, लेकिन किसी को भी समिति के पास नहीं भेजा गया था, जिससे आलोचकों का कहना था कि कई अनुमोदित बिल कमजोर थे और इसपर आगे बहस की आवश्यकता थी। यह उस श्रृंखला में पहली रिपोर्ट है, जो इन 35 बिलों में से कुछ सबसे महत्वपूर्ण बिलों की परख करेगी।

ट्रांसजेंडर अधिकारों के लिए धार्मिक आधार

अर्धनारीश्वर की हिंदू अवधारणा ( एक अलौकिक देवता- जिसमें भगवान शिव ने अपने आधे शरीर मे शक्ति अर्थात माता पार्वती को धारण किया था। ) भारत में ट्रांसजेंडर लोगों की स्वीकृति के लिए धार्मिक आधार बनाता है। लेकिन, आधुनिक लोकतंत्र का पूर्ण नागरिक माने जाने के लिए ट्रांसजेंडर्स के जीवन के इस पवित्र संकट ने उनकी मांगों को कम कर दिया है,जैसा कि ट्रांसजेंडर के प्रतिनिधियों का आरोप है।

चेन्नई के एक ट्रांसजेंडर-अधिकार कार्यकर्ता ग्रेस बनु ने इंडियास्पेंड को बताया, "जब हम एक संसदीय समिति के सामने आए, तो अज्ञानता का स्तर बहुत ज्यादा था।"

पुरुष के रुप में जन्म लिए लेकिन महिला की पहचान रखने और कपड़े पहनने वाले बानु कहते हैं, "एक शख्स ने मुझसे पूछा कि क्या मेरे पास एक लिंग है। बीजेपी (भारतीय जनता पार्टी) के सांसद केवल हमारे बारे में अर्धनारीश्वर के रूप में बात करते रहे।"

2014 में राज्यसभा में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के तिरुचि शिवा द्वारा पेश किए गए ट्रांसजेंडर अधिकारों पर पहला बिल,उस वर्ष उच्चतम न्यायालय के राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA) के निर्णय के अनुरूप ‘एक आदर्श विधेयक’ था,जैसा कि एक संस्था हमसफर ट्रस्ट के संस्थापक और चेयरपर्सन, अशोक रो कावी ने कहा है। यह बिल एक निजी सदस्य का बिल था, जिसे अप्रैल 2015 में उच्च सदन में स्वीकार और पारित किया गया था।

जब ट्रांसजेंडर बिल अगली बार 2 अगस्त 2016 को ट्रांसजेन्डर पर्सन (प्रटेक्शन ऑफ राइट) बिल-2016, के रूप में सरकार द्वारा लोकसभा में पेश किया गया था, यह तय करने के लिए कि कौन ट्रांसजेंडर है और कौन नहीं, और भीख मांगने का अपराध, जो अधिकांश ट्रांसजेंडर भारतीयों के लिए एक मुख्य आधार था, पर बहस के दौरान इसका विरोध किया गया था,जिसमें ‘स्क्रीनिंग कमेटी’ के प्रस्ताव भी शामिल थे।

अय्यर कहते हैं, '' सरकार ने श्रेय के लिए हमारे इनपुट का भरपूर इस्तेमाल किया और बिल के शुरुआती मसौदे को फिर से परिभाषित किया, जो बेहद प्रतिगामी था।पहले उन्होंने ट्रांस लोगों को 'न तो पूर्ण पुरुष और न ही पूर्ण महिला' के रूप में परिभाषित किया था। अब उन्होंने उसे हटा दिया और ट्रांसजेंडर की सही परिभाषा डाली। ”

हालांकि स्क्रीनिंग कमेटी को हटा दिया गया है, ट्रांस व्यक्तियों को अभी भी एक सरकारी चिकित्सक और जिला मजिस्ट्रेट से प्रमाण पत्र की आवश्यकता है। अय्यर ने कहा, "निर्णायक बिंदु यह है कि ट्रांस व्यक्ति के रूप में पंजीकृत किए जाने के लिए आपको एक डॉक्टर के पास जाना होगा। एक ट्रांस व्यक्ति कई कठिन परिस्थितियां देखेगा, जिस तरह के प्रश्न पूछे जाएंगे- खासकर जननांग से संबंधित- वैसे प्रश्न आपसे और मुझसे नहीं पूछे जाएंगे।"

कानून बनने के लिए राज्यसभा और भारत के राष्ट्रपति द्वारा बिल को मंजूरी मिलनी चाहिए।

ट्रांसजेंडर प्रतिनिधियों ने कहा कि उन्होंने लगभग 100 संशोधन प्रस्तावित किए हैं, लेकिन 17 दिसंबर, 2018 को पहली बार पारित किए गए बिल में 27 संशोधन थे। यह 2019 में आम चुनावों से पहले सभा के विघटन के साथ व्यतीत हो गया। वे 27 संशोधन नवीनतम संस्करण में रहे। ट्रांसजेंडर संगठनों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के पांच साल पुराने आदेश में प्रगति को रद्द कर दिया गया है।

सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला

2014 में सुप्रीम कोर्ट ने ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को 'तीसरे लिंग' के रूप में मान्यता दी थी, जो संविधान के तहत उनके मौलिक अधिकारों की पुष्टि करते थे।

भारत सरकार और राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA) के बीच एक मामले में निर्णय - जिसे NALSA मामले के रूप में जाना जाता है - ने ट्रांसजेंडर लोगों को पुरुष, महिला या तृतीय-लिंग के रूप में ‘स्व-पहचान’ का अधिकार दिया और शैक्षणिक संस्थानों के साथ-साथ सार्वजनिक रोजगार में आरक्षण दिया।

नया ट्रांसजेंडर बिल शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य जैसे ‘सेवाओं’ में ‘इनकार’ से हुए पैदाभेदभाव को रोकता है, लेकिन नौकरियों में सकारात्मक कार्रवाई का उल्लेख से भी चूकता है।

विधेयक एक ट्रांसजेंडर को ‘एक व्यक्ति के रूप में परिभाषित करता है, जिसका लिंग जन्म के समय उस व्यक्ति के लिंग के साथ मेल नहीं खाता है और इसमें ट्रांस मेल या ट्रांस-फीमेल (ऐसे व्यक्ति को सेक्स रिअसाइनमेंट सर्जरी या हार्मोन थेरेपी या लेजर थेरेपी या ऐसी अन्य चिकित्सा से गुजरना पड़ा है या नहीं), इंटरसेक्स भिन्नता वाले व्यक्ति, और किन्नर, हिजड़ा,अरावनी और जोगता जैसी सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान रखने वाले व्यक्ति (ट्रांसजेंडर लोगों के लिए भारतीय भाषाओं में इस्तेमाल की जाने वाले शब्द) शामिल हैं।

ट्रांसजेंडर लोगों की सीमांत स्थिति को न्यायमूर्ति के. एस. राधाकृष्णन ने मान्यता दी थी, जिन्होंने कहा कि NALSA मामले में "हमारा समाज अक्सर ट्रांसजेंडर समुदाय का उपहास करता है और गाली देता है और रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, स्कूल, कार्यस्थल, मॉल, थिएटर, अस्पताल जैसे सार्वजनिक स्थानों पर उन्हें दरकिनार कर दिया जाता है। उन्हें अछूतों के रूप में माना जाता है। इस तथ्य को अक्सर भूला दिया जाता है कि नैतिक विफलता समाज में विभिन्न लिंग पहचान और अभिव्यक्तियों को शामिल करने या गले लगाने की अनिच्छा में निहित है। यह एक ऐसी मानसिकता है, जिसे हमें बदलना होगा। ”

मान्यता रद्द

2019 के बिल में ट्रांसजेंडर लोगों द्वारा स्व-पहचान का उल्लेख है, जैसा कि एनएएलएसए के फैसले से संभव हुआ, लेकिन एक जिला मजिस्ट्रेट और एक सरकारी डॉक्टर को यह निर्धारित करना होगा कि क्या वे चिकित्सकीय रूप से योग्य हैं। ट्रांसजेंडर प्रतिनिधियों का कहना है कि ऐसे समुदाय के लिए, जिनके साथ भेदभाव किया जाता है, ये अपमानजनक बाधा हो सकते हैं।

कवी कहते हैं, "ट्रांसजेंडर समुदाय के प्रति पूरे प्रणालीगत दृष्टिकोण के साथ कुछ गड़बड़ है, जिसे इस बिल को सही करना है। पूरी प्रक्रिया को सार्वजनिक स्वास्थ्य और लाभार्थी प्रणाली में लाने की जरूरत है, जो गायब है।"

कवी ने कहा, "पहला और दूसरा ड्राफ्ट" पूरी तरह से प्रतिगामी था। यह एक सही बिल नहीं है और बहुत सारे संशोधनों की आवश्यकता है।"

पहचान की प्रक्रिया

बिल में कहा गया है कि ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को जिला मजिस्ट्रेट (डीएम) को पहचान के प्रमाण पत्र के लिए आवेदन देना होगा, जो तब ‘पहचान प्रमाण पत्र’ जारी करेगा।

यह प्रमाण पत्र ‘एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति की पहचान’ उसके अधिकार दिलाएंगे। प्रमाणपत्र जारी होने के बाद, "यदि कोई ट्रांसजेंडर खुद को पुरुष या महिला के रूप में बदलने के लिए सर्जरी करता है," तो उस व्यक्ति को "संशोधित प्रमाणपत्र" के लिए जिला मजिस्ट्रेट को एक आवेदन करना होगा, जैसा कि बिल में कहा गया है।

बिल के अनुसार “डीएम, चिकित्सा अधीक्षक या मुख्य चिकित्सा अधिकारी द्वारा जारी किए गए प्रमाण पत्र के साथ आवेदन के आधार पर, और इस तरह के प्रमाण पत्र की शुद्धता से संतुष्ट होने पर, प्रमाण पत्र (लिंग में परिवर्तन) का संकेत देते हुए जारी करेंगे।”

ट्रांसजेंडर प्रतिनिधि बानु ने कहा, "इसलिए स्क्रीनिंग कमेटी अभी भी मौजूद है लेकिन नए बिल में इस शब्द का उल्लेख नहीं है।"

कवी कहते हैं, “ जिन ट्रांस का जन्म महिलाओं के रूप में होता है और वे पुरुष बनना चाहती हैं तो सेक्स-रीसाइनमेंट सर्जरी अधिक कठिन है। इसमें स्तन को हटाने और अन्य ऑपरेशन की एक श्रृंखला की आवश्यकता होती है। लेकिन इसमें सुविधाओं या उन्हें मिलने वाली मदद का उल्लेख नहीं है।”

आरक्षण और बच्चे

कार्यकर्ताओं के मुताबिक, नया बिल स्कूल से शुरू होकर आजीविका के मुद्दों में नहीं जाता है।

जबकि नए विधेयक में सरकार को ट्रांसजेंडरों के लिए ‘व्यावसायिक प्रशिक्षण और स्वरोजगार’ सहित ‘आजीविका का समर्थन करने के लिए कल्याणकारी योजनाएं और कार्यक्रम तैयार करने’की आवश्यकता है, यह एक प्रमुख मांग, सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरी में आरक्षण, जैसे कि दिव्यांग लोगों के लिए है, उसकी अनदेखी करता है।

बानु कहते हैं, "सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कहा गया है कि ट्रांस लोगों को सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा माना जाता है। भारत में, ट्रांस लोगों को ओबीसी (अन्य पिछड़ी जाति) माना जाता है, और विशेष रूप से तमिलनाडु में, एमबीसी श्रेणी (सबसे पिछड़ा वर्ग) । मैं एक दलित, एक आदिवासी, एक मुस्लिम ट्रांस हूं, मैं इस ओबीसी या एमबीसी श्रेणी के आरक्षण को कैसे स्वीकार करूं? यह पूरी तरह अन्याय है। ”

विधेयक के मुद्दे ट्रांसजेंडर जीवन के शुरुआती चरण को पहचानने में इसकी विफलता से शुरू होते हैं।

कवी ने कहा,"स्कूल में ट्रांसजेंडर या एलजीबीटी छात्रों के साथ छेड़खानी एक मुद्दा है, जिसे सरकार संबोधित नहीं कर रही है।" उन्होंने कहा कि ट्रांस व्यक्तियों से साथ छेड़खानी , भारत में एक प्रणालीगत सामाजिक समस्या है, विशेष रूप से बच्चों के बीच। ट्रांस बच्चे अल्पसंख्यक हैं, कई स्कूल में हैं।”

एक और विवादास्पद मुद्दा परिवारों से ऐसे ट्रांसजेंडर लोगों की विदाई है, जो उनकी नन- बाइनरी या फ्लूइड सेक्शूऐलटी को स्वीकार नहीं करते हैं।

बिल कहता है, “एक सक्षम अदालत के आदेश के अलावा, एक ट्रांसजेंडर होने के आधार पर कोई बच्चा माता-पिता या तत्काल परिवार से अलग नहीं होगा। यदि कोई भी माता-पिता या परिवार का सदस्य एक ट्रांसजेंडर की देखभाल करने में असमर्थ है, तो सक्षम न्यायालय ऐसे व्यक्ति को पुनर्वास केंद्र में रखे जाने के आदेश द्वारा निर्देशित करेगा।”

इसका मतलब यह भी है कि युवा लोग अब यह तय नहीं कर पाएंगे कि क्या वे ट्रांस कम्युनिटी में शामिल होना चाहते हैं; एक अदालत यह तय करेगी कि उन्हें अपने परिवार या पुनर्वास केंद्र में वापस जाना है या नहीं। बानू ने कहा, "भारत में, बहुत से ट्रांस लोगों ने आत्महत्या की है, ज्यादातर 25 साल की उम्र में।"

भेदभाव पर ध्यान न देने के लिए ट्रांस बिल की भी आलोचना की गई है। अय्यर ने यौन अपराधों से प्रटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्शूअल ऑफेन्स (पोस्को) एक्ट 2012 का उदाहरण दिया, जो बताता है कि कैसे एक पुलिस स्टेशन में बच्चों के साथ वर्ताव करना चाहिए । अय्यर ने कहा, "इस बिल में कमी है, यह किसी भी तरह की कार्ययोजना नहीं है, ये आधे-अधूरे हैं।"

(मल्लापुर वरिष्ठ विश्लेषक हैं और इंडियास्पेंड के साथ जुड़े हैं।)

यह आलेख मूलत: अंग्रेजी में 22 अगस्त 2019 को IndiaSpend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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