नई दिल्ली: दुनिया भर की 30% महिलाओं ने अपने पति या पार्टनर से कभी ना कभी घरेलू हिंसा का सामना किया है। साल 2005 से 2016 के बीच 31 देशों में महिलाओं के ख़िलाफ़ घरेलू हिंसा के आंकड़ों के विश्लेषण में बेरोज़गारी और घरेलू हिंसा के बीच एक सीधा रिश्ता सामने आया है। पुरुषों में बढ़ती बेरोज़गारी की वजह से महिलाओं के ख़िलाफ़ घरेलू हिंसा के मामले बढ़ते हैं, एक शोध में यह सामने आया।

पुरुषों की बेरोज़गारी की दर में 1% की बढ़त से महिलाओं के ख़िलाफ़ घरेलू हिंसा की दर में 2.75% की बढ़त देखी गई, बेरोज़गारी से पैदा होने वाले आर्थिक और मानसिक तनाव को इसका कारण बताया गया है।

यह तथ्य एक ‘डिस्कशन पेपर’ में सामने आए हैं जो ‘वर्ल्ड बैंक इकोनॉमिक रिव्यू’ में छपने वाले एक बड़े शोध का हिस्सा है। “शोध में शामिल अमीर और ग़रीब सभी 31 देशों में एक जैसा पैटर्न देखने को मिलता है,” शोध के लेखकों में से एक, एसएक्स यूनिवर्सिटी में इकोनॉमिक्स की प्रोफ़ेसर सोनिया बलहोत्रा ने बताया।

पुरुषों के व्यवहार में ज़्यादा अंतर नहीं है, चाहे अमेरिका हो या भारत। हालांकि पुरुषों का यह व्यवहार सबसे ज़्यादा उन देशों में नज़र आता है जहां महिलाओं के लिए तलाक़ लेना पुरुषों के मुक़ाबले ज़्यादा मुश्किल है, बलहोत्रा ने कहा। “आंकड़े बताते हैं कि दुनिया भर में 30% से 68% महिलाओं की हत्या इंटिमेट पार्ट्नर यानी निजी साथी करते हैं। ये समस्या बहुत बड़ी और विस्तृत है”, उन्होंने बताया।

महिलाओं में बेरोज़गारी का असर उलटा देखा गया। शोध के अनुसार महिलाओं में बेरोज़गारी की दर 1% कम होने से इन पर हिंसा होने की सम्भावना 2.87% तक बढ़ जाती है।

नेशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे 2015-16 (एनएफ़एचएस-4) के अनुसार 15 साल की उम्र से शुरू होने वाली घरेलू हिंसा का सामना देश की 30% महिलाओं ने किया है, 6% महिलाओं ने यौन हिंसा का सामना किया है और 4% महिलाओं ने गर्भावस्था के दौरान हिंसा का सामना किया है। यह सिर्फ़ रिपोर्ट किए गए आंकड़े हैं। भारत में महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा के बहुत से मामले कभी सामने नहीं आ पाते।

घरेलू हिंसा की परिभाषा

भारत में घरेलू हिंसा को पहली बार 2005 में परिभाषित किया गया, जिसके अनुसार किसी भी महिला के साथ पति, पार्टनर या उसके रिश्तेदार की तरफ़ से हुआ शारीरिक दुर्व्यवहार, पीड़ा, हानि, जीवन या अंग या स्वास्थ्य को ख़तरा; लैगिंग दुर्व्यवहार, अपमान या तिरस्कार करना, मौखिक और भावनात्मक दुर्व्यवहार, उपहास, गाली देना, आर्थिक दुर्व्यवहार, मानसिक रूप से परेशान करना, बदतमीज़ी करना या किसी भी तरह की ज़बरदस्ती, यह सभी घरेलू हिंसा के दायरे में आते हैं। इस परिभाषा में वैवाहिक बलात्कार और दहेज़ की मांग को भी हिंसा ही माना गया।

दुनिया की हर तीन में से एक महिला अपने पति या पार्टनर की तरफ़ से घरेलू या यौन हिंसा का सामना करती है। सेंट्रल सब-सहारियन अफ़्रीका में यह आंकड़ा सबसे ज़्यादा (65.64%) और दक्षिण एशिया (भारत जिसका हिस्सा है) में यह आंकड़ा 41.73% है, शोध में बताया गया।/p>

शोध में बताया गया है कि भारत जैसे कम आमदनी वाले वाले देशों में महिलाओं के पास कामकाज के विकल्प कम होते हैं। आवधिक श्रमबल सर्वेक्षण (पीएलएफ़एस) 2017-18 की रिपोर्ट के अनुसार भारत के कुल श्रमबल में महिलाओं की भागीदारी सिर्फ़ 17.5% है। ग्रामीण क्षेत्रों में यह 18.2% और शहरी क्षेत्रों में 15.9% है।

पुरुषों की नौकरी छूटने से घर में आर्थिक तनाव बढ़ जाता है, पुरुष ज़्यादा समय घर पर बिताता है और मानसिक तनाव में रहता है। इसी दौरान अगर महिला नौकरी ढूंढती है या उसे नौकरी मिल जाती है तो हिंसा के आसार और बढ़ जाते हैं, ज़्यादातर उन घरों में जहां पुरुषों को घर चलाने वाला माना जाता है, शोध में कहा गया।

“समय पर मकान का किराया नहीं दिया गया तो मकान मालिक चिल्लाता है, लाला (साहूकार) अलग चिल्लाता है, तो कहीं ना कहीं उनके ऊपर एक दबाव बढ़ने लगता है, आस-पास के लोग भी मज़ाक़ उड़ाते हैं। तो पूरा जो ग़ुस्सा परिवार और पत्नी पर ही निकलता है,” गुड़गांव महिला कामगार संगठन की फ़ील्ड कोऑर्डिनेटर अनिता यादव ने इंडियास्पेंड को बताया। यह संगठन गुरुग्राम (गुड़गांव) शहर में लगभग 10,000 निम्न और माध्यम वर्गीय महिलाओं के बीच काम करता है।

शोध के अनुसार अगर महिला पढ़ी-लिखी होती है तो पुरुष के बेरोज़गार होने पर घरेलू हिंसा की सम्भावना ज़्यादा होती है।

एनएफ़एचएस-4 के अनुसार भारत की हर पांच में से एक यानी 18 से 19% महिलाओं (जिन्होंने बारह साल या उससे ज़्यादा पढ़ाई की है और अमीर घरों से आती हैं) ने भी अपने पति से शारीरिक, यौन या मानसिक हिंसा का सामना किया है। अगर महिला और पुरुष दोनों की पढ़ाई का स्तर एक बराबर है तो भी हिंसा की सम्भावना कम होती है। 46% मामलों में महिला और पुरुष कभी स्कूल नहीं गए हैं या एक की पढ़ाई दूसरे से ज़्यादा है तो हिंसा की सम्भावना ज़्यादा देखी गई है। यदि दोनों की पढ़ाई का स्तर बराबर है तो हिंसा सिर्फ़ 24% मामलों में देखी गयी है।

“पढ़ी-लिखी महिलाएं भी कुछ नहीं कर पाती हैं। वो पुलिस के पास भी नहीं जाती हैं, उन्हें लगता है कि पुलिस आएगी तो कुछ दिन ही पति का व्यवहार ठीक रहेगा। लिखित शिकायत करने से भी महिलाएं इसलिए कतराती हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे उनके प्रति हिंसा बढ़ भी सकती है,” अनीता ने बताया।

अगर महिला कम से कम एक लड़के को जन्म दे चुकी है तो उसके ख़िलाफ़ हिंसा की सम्भावना कम होती है। ख़ासकर भारत और पाकिस्तान में, जहां बेटा होने पर महिलाओं को परिवार में ज़्यादा अधिकार हासिल हो जाते हैं। अगर ज़्यादा बच्चे हैं तो भी कम हिंसा होती है, बच्चों की मौजूदगी में पुरुष के कम हिंसक होने की सम्भावना ज़्यादा होती है, ऐसा शोध में पाया गया।

पुरुषों की हिंसा के बड़े कारणों में ख़ुद को महिलाओं से ऊपर समझना शामिल है। कुछ मामलों में पुरुष, महिला या उसके घर वालों से कोई आर्थिक लाभ लेना चाहता है। पुरुष की मानसिक स्थिति और सामाजिक कुप्रथाएं या सांस्कृतिक मान्यताएं भी इसमें अहम भूमिका निभाती हैं, शोध के अनुसार।

हालांकि कुछ विशेषज्ञ इससे सहमत नज़र नहीं आते। उनका मानना है कि बेरोज़गारी से हिंसा को इतने सीधे तौर पर जोड़ कर देखा जाना ठीक तरीक़ा नहीं है।

पुरुष सत्तात्मक सामाजिक ढांचों पर बात किए बिना नौकरी और घरेलू हिंसा के बीच इतना सीधा संबंध स्थापित करना मेरी समझ से ठीक नहीं है, महिला अधिकार के मुद्दों पर काम करने वाली एक विशेषज्ञ ने नाम ज़ाहिर ना किए जाने की शर्त पर बताया।

“नौकरी हो या ना हो, हिंसक पुरुष हिंसा करते ही हैं। मैं ऐसी कई अमीर दोस्तों को जानती हूं जिनके पति सफल बिज़नेसमैन हैं और फिर भी हिंसा करते हैं,” विशेषज्ञ ने बताया।

दुनिया भर में पलायन करने वाले लोगों के ख़िलाफ़ भी यही कारण दिया जाता है कि अगर उनके पास नौकरी नहीं है तो वो बलात्कार करेंगे, जो कि सरासर ग़लत है। पुरुष, पुरुष सत्तात्मक समाज का एक हिस्सा है और उनके हिंसक होने का सबसे बड़ा कारण सामाजिक मान्यताएं हैं, उन्होंने कहा।

क्या कहते हैं भारत में घरेलू हिंसा के आंकड़े

एनएफ़एचएस-4 के अनुसार देश में 15 साल से ऊपर की हर तीसरी महिला ने घरेलू हिंसा का सामना किया है। 33% विवाहित महिलाओं ने अपने पति से शारीरिक, यौन या मानसिक हिंसा का सामना किया है, जिसमें सबसे आम शारीरिक हिंसा (30%) है।

जिन विवाहित महिलाओं ने शारीरिक या यौन हिंसा का सामना किया उनमे से एक चौथाई को शारीरिक चोट पहुंची। कुल 8% महिलाओं ने आंख में चोट, मोच या मरोड़, जोड़ उखड़ना और जलना झेला, 5% महिलाओं ने गहरे घाव, टूटी हड्डियां, टूटे दांत और कई गंभीर चोटें झेली हैं।

6% महिलाओं के साथ उनके पतियों ने ज़बरदस्ती यौन संबंध बनाने की कोशिश की। 10% महिलाओं को उनके पति ने लोगों के सामने शर्मिंदा किया, 8% का मज़ाक़ उड़ाया, बेज़्ज़ती की या उन्हें बुरा महसूस कराया।

रिपोर्ट किए मामलों में भी हिंसा रोकने के लिए मदद मांगने वाली महिलाओं की संख्या में पांच साल में कमी आई है। एनएफ़एचएस के अनुसार साल 2010-11 में 24% महिलाओं ने मदद मांगी पर 2015-16 में यह आंकड़ा घटकर 14% रह गया।

मानसिक घरेलू हिंसा भी शारीरिक या यौन हिंसा से कम ख़तरनाक नहीं है, ये हिंसा कई बार महिलाओं की आत्महत्या का कारण भी बन सकती है।

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक़, साल 2018 में औसतन हर रोज़ 63 गृहणियों ने अपनी जान ली। यह आंकड़ा देशभर में हुई आत्महत्याओं का 17.1% था। इंडियास्पेंड ने 4 मार्च 2020 की रिपोर्ट में यह बताया था।

घरेलू हिंसा के ख़िलाफ़ क़ानून

आईपीसी की धारा 498 (ए) के रूप में दहेज़ के कारण ससुराल में होने वाली मौतों के चलते महिलाओं के प्रति हिंसा को रोकने का उपाय तो दशकों से मौजूद है लेकिन यह धारा हिंसा को परिभाषित किए बिना सिर्फ़ ‘क्रूरता’ को अपराध की श्रेणी में रखती है, जिसके चलते अपराध रिकॉर्ड ही नहीं किए जाते थे, सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील इंदिरा जय सिंह ने कहा।

साल 2018 में महिलाओं के प्रति अपराधों की लिस्ट में सबसे ज़्यादा संख्या घरेलू हिंसा से जुड़े मामलों की थी, नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक़। साल 2018 में 104,165 महिलाओं ने अपने पति या उनके रिश्तेदारों के हाथों क्रूरता का सामना किया, इन मामलों को आईपीसी की धारा 498 (ए) के तहत दर्ज किया गया। साल 2018 में ही 7,277 महिलाओं की मृत्यु दहेज़ के चलते हुई।

परिभाषा की ग़ैर-मौजूदगी में पुलिस महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा और दहेज़ के कारण मृत्यु के कई मामलों को रसोई में खाना-बनाते समय हुई ‘दुर्घटना’ बताकर रफ़ा-दफ़ा करती थी। महिलाओं की इंसाफ़ की लड़ाई में साल 2005 का क़ानून इसलिए भी एक मील का पत्थर माना गया क्योंकि इसने पहली बार हिंसा की परिभाषा को स्पष्ट किया, इंदिरा जय सिंह ने कहा।

साल 2005 का क़ानून इसलिए भी अलग था क्योंकि इस क़ानून ने घरेलू हिंसा को ‘सिविल’ मामला बताया, जिसका उद्देश्य था हिंसा झेल रही महिलाओं के मन से पुलिस का भय ख़त्म करना और उन्हें हिंसा की रिपोर्ट करने के लिए प्रेरित करना। “पुराने क़ानून के ज़रिए महिलाएं अपने पतियों को जेल नहीं भिजवाना चाहती थीं,” इंदिरा जय सिंह ने कहा।

क़ानून आसान बनाए जाने के बाद भी महिलाएं कई सामाजिक कारणों के चलते आगे नहीं आती। “इस तरह की सामाजिक धारणाएं न्याय पाने में महिलाओं के लिए बाधा बनती हैं,” उन्होंने कहा।

शोध का नतीजा

गुड़गांव महिला कामगार संगठन की अनीता ने बताया कि बहुत सारी महिलाएं ऐसी हैं जो काम करती है और उनके पति बेरोज़गार हैं और उनके साथ नहीं रहते हैं। पर ऐसे मामलों में भी महिलाओं पर हिंसा की सम्भावना कम नहीं होती। “जब उनका (महिलाओं का) सैलरी का टाइम होता है तो उस टाइम पति वापस आ जाते हैं, फिर उनके साथ मारपीट करके पैसे छीन कर ले जाते हैं,” अनीता ने बताया।

शोध का निष्कर्ष था कि महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए सिर्फ़ उनके लिए नौकरियां या रोज़गार की संभावनाएं बढ़ाना काफ़ी नहीं होगा। घरेलू हिंसा कम करने के लिए महिलाओं के अधिकारों को और मज़बूत करना पड़ेगा और यह सुनिश्चित करना पड़ेगा कि वो इन अधिकारों का लाभ उठाएं। सम्पत्ति के अधिकार, कस्टोडीयल राइट्स और तलाक़ जैसे क़ानूनों को बेहतर बनाने से घरेलू हिंसा कम होने की सम्भावना है। साथ ही सामुदायिक सशक्तिकरण और समाजिक धारणाओं को बदलने की कोशिशों से घरेलू हिंसा को कम करने की दिशा में एक बड़ा क़दम उठाया जा सकता है।

(साधिका, इंडियास्पेंड के साथ प्रिन्सिपल कॉरेस्पॉंडेंट हैं।)

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