मुज़फ़्फ़रपुर, पटना: मुज़फ़्फ़रपुर के धर्मुहा गांव में 26 अक्टूबर को शाम के क़रीब चार बजे हमारी मुलाक़ात सौरव कुमार (बदला हुआ नाम) से हुई। सौरव (18) बैंगनी रंग की साइकिल पर गांव की ही किराने की दुकान की तरफ़ जा रहे थे। नई चमचमाती साइकिल देखकर हमारा ध्यान उसकी तरफ़ गया। हमने जिज्ञासावश साइकिल के बारे में पूछ लिया। सौरव ने बताया कि ये साइकिल दरअसल उसकी बहन अंजलि कुमारी (बदला हुआ नाम) की है जो उसे नौवीं क्लास में आने पर सरकार की तरफ़ मुख्यमंत्री बालिका साइकिल योजना के तहत मिली है।

घर में एक और साइकिल है जो इनके पिता मज़दूरी पर जाते वक़्त ले जाते हैं। “दूसरी साइकिल पुरानी है और आवाज़ करती है। ये (साइकिल) नई है और घर पर खड़ी रहती है तो मैं इसे चला लेता हूं,” सौरव ने बताया।

साइकिल ज़्यादातर वक़्त घर पर इसलिए रहती है क्योंकि अंजलि अपनी साइकिल से स्कूल के सिवा कहीं नहीं जाती है। उसे कहीं और जाने की इजाज़त नहीं है। वो रोज़ सुबह अपनी कुछ दोस्तों के साथ मिलकर स्कूल जाती है और फिर घर आती है। अंजलि का स्कूल घर से करीब पांच किलोमीटर दूर है। आठवीं तक अंजलि को स्कूल आने-जाने के लिए हर रोज़ दस किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था।

अंजलि अब नौवीं क्लास में आ चुकी है। स्कूल आने-जाने के लिए उसे 10 किलोमीटर पैदल नहीं चलना पड़ता है। अब वो स्कूल आने-जाने के लिए उस साइकिल का इस्तेमाल करती है जो उसे 9नवीं क्लास में पहुंचने पर राज्य सरकार से प्रोत्साहन के तौर पर मिली है।

अंजलि और सौरव के दो भाई और एक बहन और हैं। बड़ी बहन की शादी हो चुकी है एक भाई मुंबई में एक होटल में और दूसरा दिल्ली में कपड़े की एक दुकान पर काम करता है। इनके पिता दिहाड़ी मज़दूर हैं जो दिन में 300 रपए तक कमाते हैं लेकिन हफ़्ते में सिर्फ़ दो या तीन दिन ही काम मिल पाता है। ऐसे में अंजलि के स्कूल आने-जाने के लिए साइकिल ख़रीदने की बात किसी सपने से कम नहीं थी।

दरअसल, बिहार में बड़ी संख्या में लड़कियां आठवीं क्लास के बाद पढ़ाई छोड़ देती हैं। लड़कियों को पढ़ाई जारी रखने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए बिहार सरकार ने साल 2007 में मुख्यमंत्री बालिका साइकिल योजना के तहत सरकारी स्कूलों में पढ़ रहीं, आठवीं पास करके नवीं क्लास में पहुंचने वाली सभी लड़कियों को साइकिल देने का ऐलान किया था। इसके लिए 2,500 रुपए लड़कियों को दिए जाते थे। पहले ये रकम स्कूलों में कैंप लगाकर दी जाती थी लेकिन बाद में लड़कियों के बैंक अकाउंट खुलवाकर ये रकम अकाउंट में जाने लगी। साल 2018-19 में ये रकम बढ़ा कर 3,000 रुपए कर दी गई।

साल 2007 में जब इस योजना की शुरुआत हुई तो इसे सामाजिक परिवर्तन और नारी सशक्तिकरण के क्षेत्र में मील का पत्थर माना गया। पहले ही साल में नवीं क्लास में पढ़ने वाली 1.63 लाख लड़कियों को साइकिल ख़रीदने के लिए पैसे दिए गए। 2015 तक इस योजना की लाभार्थी लड़कियों की संख्या बढ़कर 8.15 लाख हो गई।

पिछले साल दिसम्बर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दावा किया था कि इस योजना की वजह से बिहार में 10वीं कक्षा की परीक्षा देने वाली लड़कियों की संख्या 2005 में 1.8 लाख थी जो 2019 में बढ़ कर 8.22 लाख हो गयी।

सरकार ने इस योजना की सफलता का दावा किया और कहा कि महिला सशक्तिकरण, सामाजिक परिवर्तन और जनसंख्या नियंत्रण में ये योजना सहायक होगी। सरकारी आंकडों में ये योजना सफ़ल दिखती भी है। जिन लड़कियों को साइकिल मिली उनकी हाईस्कूल तक पढ़ाई पूरी करने की सम्भावना बाकी लड़कियों से 27.5% ज़्यादा, बारहवीं तक पढ़ाई पूरी करने की सम्भावना 22.9% ज़्यादा है और कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने की सम्भावना 5% ज़्यादा है, ऐसा एक शोध में सामने आया।

लेकिन 2013 में हुए एक अध्ययन के सामने आने के बाद इस योजना पर सवाल भी उठने लगे। इस योजना की सफलता के तौर पर अक्सर पेश होने वाले, किशोरियों के दाखिले के आंकड़े लड़कियों की शिक्षा के प्रति समाज में बढ़ रही जागरुकता या आंकड़ो में हेराफेरी का नतीजा भी हो सकते हैं, अध्ययन में कहा गया। इसके बारे में हम विस्तार से आगे बताएंगे।

‘आंकड़े नहीं दर्शाते पूरी तस्वीर’

स्कूल में पढ़ने वाले लड़कों और लड़कियों की संख्या के बीच के अंतर को कम करना, संयुक्त राष्ट्र के मिलेनीयम डवेलेपमेंट गोल्स का हिस्सा है। बिहार ने इसमें काफ़ी हद तक सफलता भी हासिल की है लेकिन ये सफलता सिर्फ़ बिहार में नहीं बल्कि देश के अन्य राज्यों में हासिल हुई है।

साल 2014 में, ऑक्सफॉर्ड विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स द्वारा किए गए एक शोध में सामने आया था कि बिहार में हाईस्कूल में पढ़ने वाली लड़कियों की संख्या 30% तक बढ़ गई थी, और छात्रों के बीच लिंग असंतुलन में भी 40% का सुधार हुआ। ये सुधार ख़ासकर ग्रामीण इलाक़ों में हुआ जहां गांव से निकटतम हाई स्कूल की दूरी शहरी क्षेत्रों के मुकाबले ज़्यादा थी--यानी समय की बचत और सुरक्षित तरह से स्कूल पहुँचने की वजह से ऐसा हुआ।

वित्त वर्ष 2019-20 के लिए राज्य सरकार ने बजट में 9,336 करोड़ रुपए (कुल बजट का 16%) महिलाओं से जुड़ी हुई 39 योजानाओ के लिए आवंटित किए थे। साल 2018-19 में बालिका साइकिल योजना के लिए 15 करोड़ रुपए आवंटित किए गए और 26 करोड़ खर्च किए गए। हालांकि इस योजना के लाभार्थियों की संख्या हर साल बढ़ रही है लेकिन इसके लिए प्रस्तावित बजट में साल दर साल कमी आ रही है, न्यूज़ 18 की अक्टूबर 2017 की इस रिपोर्ट के अनुसार। राजनैतिक समीक्षकों का कहना है कि 2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार की राजनैतिक सफलता में महिलाओं की बड़ी भूमिका थी।

आंकड़ों में साइकिल योजना सफल हैं, सरकार के अनुसार योजना में घोटाले और भ्रष्टाचार 5% से कम और कुछ जिलों में 3% से भी कम रहे, जबकि ऐसी ही अन्य योजनाओं में ऐसा नहीं देखा गया। शोध में ऐसे पांच मुख्य बिंदु सामने आए, जो इस योजना में कम भ्रष्टाचार होने का संभव कारण हो सकते हैं।

लाभारथियों में 9वीं कक्षा की ही लड़कियां शामिल थीं, इस वजह से ये लाभ किसे मिलेगा या नहीं इसमें अधिकारियों की मनमानी नहीं चल सकी। ये धनराशि सीधे तौर पर एक बार में पहुंचाई गई जिससे इस पर निगरानी रखना आसान रहा। साइकिल बांटने के लिए स्कूलों में सामाजिक कार्यक्रम हुए जिससे लड़कियों को इस बारे में पता चला और कुछ गड़बड़ होने पर उनके लिए शिकायत करना भी आसान हो गया। लाभार्थियों में जो लड़कियां थीं वो आठवीं पास कर चुकी थीं, यानी ये पहले से ही बाक़ियों के मुक़ाबले ज़्यादा जागरुक थीं जिनको उनके लाभ से इंकार करना अधिकारियों के लिए मुश्किल था।

पर इन आंकड़ों से योजना की सफलता का सही और इसके प्रभाव का उचित अंदाज़ा नहीं लगता है, शोध में ऐसा बताया गया।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार साल 2018-19 में 456,278 लड़कियों को साइकिल बांटी गई। आंकड़ों में तो ये साइकिल लड़कियों तक पहुंच गई पर असल में लड़कियों के जीवन पर इसका क्या असर पड़ा, इसकी कहानी थोड़ी अलग है।

साइकिल योजना के आंकड़े अच्छे होने के कई कारण हो सकते हैं जिनमे मुख्य है इस योजना के आने का समय। इस दौरान बिहार विकास की तरफ़ बढ़ रहा था और पढ़ाई करने के फ़ायदे (जैसे नौकरी या नौकरी में तरक्की) ज़्यादा थे। यानी ज़्यादा लड़कियों का स्कूल में दाख़िला लेना, जिसे सरकार योजना की सफलता के पैमाने के तौर पर पेश करती है, ये आंकड़े सिर्फ़ इस बड़े चलन का ही नतीजा हो सकते है। जिसका साइकिल योजना से संबंध होने का सीधा सुबूत नहीं मिलता।

साथ ही साइकिल योजना और इससे जुड़ी अतिरिक्त राशि की वजह से प्रशासनिक आंकड़ों में लड़कियों के दाखिले के आंकड़ों को बढ़ाकर लिखने की भी सम्भावना काफ़ी ज़्यादा है, शोध में कहा गया। यानी सम्भावना है कि इस योजना का ज़मीनी स्तर पर कोई भी असल प्रभाव हुआ ही नहीं और ये आंकड़े सिर्फ़ योजना को लागू करने में किए गए भ्रष्टाचार और प्रशासनिक रिकॉर्ड में हेर-फेर का नतीजा हो, शोध में कहा गया।

साथ ही योजना आठवीं के बाद आती है जब तक ज़्यादातर लड़कियाँ पढ़ाई छोड़ चुकी होती हैं, जो बचती हैं अक्सर उनकी साइकिल घर का कोई और सदस्य जैसे पिता या भाई चलाता है। पढ़ाई पूरी करने के बाद भी ज़्यादातर लड़कियों को आगे बढ़ने का अवसर कम ही मिलता है, हमने पाया।

सिर्फ़ पढ़ाई ही नहीं, सरकार के अनुसार इन लड़कियों की खेतों में काम करने की सम्भावना भी कम है क्योंकि पढ़ने के बाद वो बेहतर नौकरियाँ ढूँढती है, साथ ही साइकिल की वजह से लड़कियों में आत्मविश्वास की भी बढ़ोत्तरी होती है। शोधकर्ताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं, और बिहार में हमारी रिपोर्टिंग में सामने आया कि ये योजना सरकारी आंकड़ों में जितनी सफल दिखती है, उतनी है नहीं।

लड़कियों के लिए साइकिल का सीमित इस्तेमाल

अंजलि के साथ स्कूल जाने वालों में 15 साल की प्रिया रंजन भी है। प्रिया इस साल 10वीं में है। अंजलि की ही तरह, प्रिया और सभी लड़कियों के पिता देहाडी मज़दूर हैं, सबके घरों की आर्थिक स्थिति लगभग एक जैसी है। “मैं सिर्फ़ स्कूल जाती हूं, कभी-कभी मेरी साइकिल से मुझे स्कूल छोड़ कर भाई साइकिल वापस ले आता है, कभी पापा मेरी साइकिल से काम पर जाते हैं,” प्रिया ने बताया। प्रिया के तीन में से दो भाई जिनकी उम्र 17 और 19 साल है, दोनों पढ़ाई छोड़ चुके हैं, इनके घर में दो साइकिल हैं, एक प्रिया की और एक इनके पिता की, जो 13-14 साल पुरानी है।

प्रिया रंजन (15) दस्वीं में पढ़ती है और साइकिल से सिर्फ़ स्कूल जाती है। ग्रेजुएशन करने की इच्चा रखने वाली प्रिया को नहीं पता है कि उसे नौकरी करने का अवसर कहां और कैसे मिलेगा। फ़ोटो: साधिका तिवारी

राशन लाना, अस्पताल से दवाई लाना, पास के रिश्तेदार के घर से कुछ लेकर आना हो तो प्रिया, अंजलि और इन सभी लड़कियों के भाई ही लाते हैं। “हम साइकिल से और कहां जाएंगे, दोस्तों के घर भी नहीं जाते,” प्रिया ने बताया।

पर प्रिया को इस बात की खुशी है कि वो स्कूल तो जाती है, “मेरी दो दोस्त, मनीषा और नीलू, ने आठवीं के बाद पढ़ाई छोड़ दी,” प्रिया ने बताया, “उनकी शादी हो गई।”

“आठवीं कक्षा से पहले ही ज़्यादातर लड़कियां स्कूल जाना छोड़ देती हैं, कुछ माहवारी की वजह से, कुछ की शादी हो जाती है, कुछ के घर वाले उन्हें और पढ़ाना नहीं चाहते,” पटना के मसौढ़ि ब्लॉक में महिला अधिकारों पर काम रहे संस्थान लोक माध्यम के साथ जुड़ी, प्रमिला कुमारी ने बताया। “ये योजना जब तक लड़कियों को साइकिल देती है, उस से पहले ही ज़्यादातर ग़रीब और पिछड़ी जाति की ज़्यादातर लड़कियां स्कूल छोड़ चुकी होती हैं”।

जो लड़कियां आगे की पढ़ाई करती भी हैं उनके पास उसके बाद कुछ आगे करने के लिए अवसर बहुत कम होते हैं। प्रिया बताती हैं कि वो ग्रेजुएशन करना चाहती हैं। उसके बाद? “उसके बाद शादी करूंगी,” प्रिया ने कहा। पूछने पर प्रिया ने बताया कि वो ऐसी किसी लड़की को अपनी रिश्तेदारी में या गांव में नहीं जानती जो पढ़ाई के बाद नौकरी कर रही हो, “हम कहां काम करेंगे, क्या काम करेंगे।”

सरकारी आंकड़ों के अनुसार 15 से 19 साल की उम्र के हर चार में एक लड़का और हर दस में से एक लड़की बिहार में नौकरी की तलाश में हैं। बिहार की 67.6% किशोरियां सरकारी नौकरी करना चाहती है, जबकि किशोरों में ये आंकड़ा 59.9% है।

“पढ़ाई करना काफ़ी नहीं है, उसके बाद घरवाले शादी करवाते हैं, कोई घर से निकलने ही नहीं देता। कुछ एक-दो लड़कियां आगे बढ़ जाती हैं पर बाक़ी चौके-चूल्हे में लग जाती हैं,” प्रमिला ने कहा।

नौकरी करने की इच्छा रखने वाली 45% लड़कियों के परिवार उन्हें ऐसा करने की “इजाज़त” नहीं देते।

“स्कूल के सिवा कहीं और जाते ही नहीं हैं, डांट पड़ती है,” प्रिया ने बताया। इस दौरान हो रही बात चुपचाप सुन रही प्रिया की पड़ोसी, 12 साल की ख़ुशी ने कहा, “मुझे जब साइकिल मिलेगी मैं तो पूरे गांव में घूमूंगी।”

(साधिका, इंडियास्पेंड के साथ प्रिन्सिपल कॉरेस्पॉंडेंट हैं।)

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