पटना: बिहार के सहरसा ज़िले सत्तर कटैया ब्लॉक के सिंहोल गांव के चंदन दस की उम्र महज़ 22 साल थी जब इसी साल 26 जून को उसकी मौत कैंसर से हुई। साल 2018 में चंदन को बवासीर की शिकायत हुई थी। परिवार की आर्थिक स्थिति ख़राब होने की वजह से उसने अपना इलाज झोला छाप डॉक्टर से कराया। धीरे-धीरे उसे खाना पचाने में दिक्कत होने लगी। उसे सहरसा सदर अस्पताल में दिखाया गया तो डॉक्टरों ने उसे पटना के इंदिरा गांधी इंसटीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज़ के लिए रैफ़र कर दिया। जहां पता चला कि चंदन को आंत का कैंसर है और उसे तुरंत ऑपरेशन की ज़रूरत है। ऑपरेशन का ख़र्च छह लाख रुपए था। आसपास के गांवों से चंदा इकट्ठा कर दिसंबर 2019 में महावीर कैंसर संस्थान में उसका ऑपरेशन कराया गया। उसकी हालत में सुधार भी आया। कोरोनावायरस की वजह से हुए लॉकडाउन के दौरान चंदन को कैंसर की दवाईयां नहीं मिल पाईं। दवाइयों के अभाव में 25 जून को अचानक उसकी हालत बिगड़ गई। उसे पटना ले जाया गया, जहां डॉक्टरों ने उसे मृत घोेषित कर दिया।

फ़ुटबॉल, गौतम राय का जुनून था। बिहार के सहरसा ज़िले के सत्तर कटैया ब्लॉक के कटैया गांव रहने वाले गौतम फ़ुटबॉल के राज्य स्तरीय खिला़ड़ी थे। परिवार की आर्थिक स्थिति ख़राब होने की वजह से लगभग छह साल पहले उन्हें फ़ुटबॉल छोड़नी प़ड़ी। 35 वर्षीय गौैतम अपने ही गांव में इलैक्ट्रॉनिक्स की दुकान चला रहे थे। कैरियर भले ही छूट गया था मगर शौकिया तौर पर उनके फ़ुटबॉल खेलने का सिलसिला जारी रहा। इस दौरान गौतम को पाचन में शिकायत रहने लगी। ज़िला मुख्यालय सहरसा में डॉक्टरों ने उनके पाचन तंत्र (डाइजेस्टिव सिस्टम) की समस्या मानकर इलाज शुरु कर दिया मगर गौतम को कोई फ़ायदा नहीं हुआ। पिछले साल मई में उन्होंने पटना के पटना मेडिकल कॉलेज और हॉस्पिटल (पीएमसीएच) में दिखाया। पीएमसीएच में जांच के बाद डॉक्टरों ने उन्हें लीवर कैंसर बताया। गौैतम का इलाज शुरु हुआ लेकिन तब तक शायद देर हो चुकी थी। गौैतम का कैंसर चौथी स्टेज तक विकसित हो चुका था। एक साल के दौरान पटना के आईजीआईएमएस, और दिल्ली के जीबी पंत अस्पताल में भी उनका इलाज चला। फ़ुटबॉल में फारवर्ड पोज़ीशन खेलने वाले गौतम फ़रवरी 2020 में कैंसर से पिछड़ गए।

“गौतम के पेट में पानी बढ़ गया था और उनकी पाचन क्षमता ख़राब रहने लगी थी,” गौतम के भाई संजीव राय ने बताया।

चंदन और गौतम की कहानियां बिहार के सहरसा ज़िले के सत्तर कटैया ब्लॉक की कैंसर की अनेक कहानियों में से हैं। सत्तर कटैया बलॉक ज़िला मुख्यालय से महज़ 10 किलोमीटर दूर है। इस ब्लॉक के कई गांवों में कैंसर तेज़ी से अपने पांव पसेर रहा है। ख़ासतौर पर पांच गांव- सहरबा, मेनहा, खादीपुर, खोनहा, कटैया और सत्तर- पिछले कुछ साल में कैंसर का हॉटस्पॉट बन चुके हैं। लगभग 10 हज़ार की आबादी वाले इन पाँच गांवों में पिछले दो साल में कैंसर से 39 लोगों की मौत हो चुकी है, बिहार के स्वास्थ्य विभाग के तहत आने वाली ज़िला स्वास्थ्य समिति के आंकड़ों के मुताबिक़।

इन पांच में से एक गांव में हाल ही में लगे स्वास्थ्य विभाग के एक कैंसर कैंप में 60 लोगों की जांच की गई। दो हज़ार की आबादी वाले इस गांव 60 में से 35 लोगों में कैंसर के लक्षण पाए गए। बड़ी संख्या में कैंसर के मामले मिलने के बाद बिहार के पब्लिक हेल्थ इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट ने यहां के ग्राउंड वाटर की जांच की और पानी को ठीक पाया, लेकिन इस इलाक़े के लोग इस रिपोर्ट पर भरोसा नहीं कर रहे हैं।

कैंसर प्रभावित इन पांच गांवों में बड़ी आबादी दलितों और पिछड़ों की है। इनकी आर्थिक स्थिति इतनी ख़राब है कि ये लोग इलाज कराने के लिए पटना जाने का किराया तक भी वहन नहीं कर पाते हैं। कोरोनावायरस की वजह से चल रहे लॉकडाउन की वजह से भी कैंसर के मरीज़ों को मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है।

बिहार में कैंसर मरीज़ों पर सटीक शोध इसलिए भी नहीं हो पाता है क्योंकि यहां कैंसर मरीज़ों की रजिस्ट्री, पॉपुलेशन बेस्ड न होकर हॉस्पिटल बेस्ड है।

सहरसा ज़िला स्वास्थ्य समिति और नागरिक संगठनों ने बिहार स्वास्थ्य विभाग से सत्तर कटैया में कैंसर को लेकर शोध करवाए जाने गुज़ारिश करते रहे हैं। लेकिन अब तक कोई भी शोध नहीं किया गया है। जब तक कोई शोध नहीं होता सत्तर कटैया में कैंसर एक पहेली बनी रहेगी। हाल ही में दरभंगा मेडिकल कॉलेज में कैंसर के लिए सह-अस्पताल बनाने की मंज़ूरी मिल गई है।

60 लोगों की जांच में मिले कैंसर के 35 मरीज़

फरवरी 2020 में सहरसा ज़िला प्रशासन की अनुशंसा पर बिहार राज्य स्वास्थ्य समिति ने “सत्तर पंचायत के क्षेत्र में कैंसर के अपेक्षाकृत अधिक रोगी प्रतिवेदित” होने के संबंध में तुरंत चिकित्सा कैंप लगाने का आदेश दिया। 2 मार्च 2020 को इंदिरा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान, पटना (आईजीआईएमएस) के कैंसर विभाग के चिकित्सा पदाधिकारियों ने सहरबा गांव के विंदा-धर्मी प्राथमिक विद्यालय में विशेष जांच शिविर लगाया। चूंकि यह शिविर सिर्फ़ एक दिन के लिए लगाया गया था इसीलिए सहरबा गांव के ही लोगों की जांच हो सकी। दो हज़ार की जनसंख्या वाले इस गांव में जिन 60 लोगों की जांच की गई उनमें से 35 लोगों में कैंसर के प्रारंभिक लक्षण पाए गए। हालांकि इनमें से 10 का पहले से ही इलाज चल रहा था।

सहरबा गांव में 2 मार्च 2020 को कैंसर की जांच के लिए कैंप लगाया गया। इस कैंप में 60 लोगों की जांच की गई जिसमें से 35 में कैंसर के लक्षण पाए गए। फोटो: ऋषिकेश शर्मा

भूपेंद्र यादव (48) बड़े उम्मीद के साथ जांच शिविर पहुंचे थे। उन्हें लगा था कि जांच शिविर में दवा मिलेगी। भूपेंद्र को गले का कैंसर है। उनका इलाज महावीर कैंसर संस्थान, पटना में चल रहा है, जो यहां से क़रीब सात घंटे की दूरी पर है। “खेतीबाड़ी करते हैं। अभी तक इलाज में पांच से छह लाख रूपये तक ख़र्च कर चुके हैं। सहरबा में शिविर लगा तो एक उम्मीद बंधी कि कम से कम अब इलाज हो पाएगा। डॉक्टर कुछ निशुल्क दवा देंगे। लेकिन वहां सिर्फ जांच ही हुई,” भूपेंद्र ने इंडियास्पेंड को बताया।

बाकी ग्रामीण भी जांच शिविर के बाद मायूस हैं। “बहुत गुज़ारिश के बाद सरकार ने जांच शिविर लगाया। वह भी सिर्फ़ एक दिन के लिए। अब जब जांच में शामिल विशेषज्ञों ने ही 60 में से 35 लोगों में कैंसर के प्रारंभिक लक्षण दिखने की बात कही है तो क्या सरकार की जिम्मेदारी नहीं बनती कि वो इनके इलाज का प्रबंध करे? न लोगों को इलाज ही मिल पा रहा है, न ही हमारे क्षेत्र में इस बारे में कोई शोध हो रहा है। शोध से कम से कम मालूम तो चलता कि आखिर हमारे क्षेत्र में कैंसर का कारण क्या है?,” पूर्व ज़िला पार्षद, प्रवीण आनंद ने कहा।

ज़िला स्वास्थ्य समिति के आंकड़ों के अनुसार, पिछले दो साल में इस ब्लॉक में 39 लोगों की मौत कैंसर से हो चुकी है। सहरबा में 6, मेनहा में 5, सत्तर में 16, खादीपुर, खोनहा और कटैया में 4-4 लोगों की मौत कैंसर की वजह से हो चुकी है। मरने वाले 39 लोगों में से 21 (54%) को लिवर कैंसर था।

क्या आर्सेनिक है कैंसर का कारण

सत्तर कटैया में बड़ी संख्या में कैंसर पाए जाने के बाद ज़िला प्रशासन ने पानी की जांच करवाई। पब्लिक हेल्थ इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट (पीएचईडी) ने 43 घरों के जलस्रोतों (चापाकल) का सैंपल लिया। रिपोर्ट में इलेक्ट्रिक्ल कंडक्टिविटी, फ़्लोराइड, नाइट्रेट, आरसेनिक, सीसा और आयरन की मात्रा को सामान्य पाया गया। पीएचईडी की रिपोर्ट कहती है कि किसी भी घर के पानी में आर्सेनिक डिटेक्शन लाइन से ऊपर नहीं पाई गई।

बिहार के कुल 38 में से 22 (58%) ज़िले आर्सेनिक से प्रभावित हैं। इन 22 ज़िलों में आर्सेनिक की मात्रा 0.01 माइक्रोग्राम प्रति लीटर से ज़्यादा पाई गई है, 5 मार्च, 2020 को लोकसभा में पानी में आर्सेनिक की मात्रा पर पूछे गए एक सवाल के जवाब में केंद्रीय जल शक्ति मंत्रालय में राज्य मंत्री रतन लाल कटारिया ने बताया।

स्वतंत्र शोधकर्ताओं और स्वयंसेवी संस्थाओं के अलग-अलग अध्ययनों में यह बात सामने आती रही है कि बिहार के एक बड़े भू-भाग में आर्सेनिक की अधिक मात्रा मौजूद है। 2007 में प्रोफेसर अशोक कुमार घोष और उनकी टीम ने अपने अध्ययन में पाया था कि गंगा नदी के दियारा क्षेत्र में आर्सेनिक की मात्रा 10 माइक्रोग्राम प्रति लीटर से 50 माइक्रोग्राम प्रति लीटर तक है। तब प्रो. घोष. अनुग्रह नारायण कॉलेज, पटना में कार्यरत थे। फिलहाल वे महावीर कैंसर संस्थान में रिसर्च यूनिट के हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट हैं।

“महावीर कैंसर संस्थान में हॉस्पिटल बेस्ड रजिस्ट्री के आधार पर मैं कह सकता हूं कि बिहार में कैंसर की तीन मुख्य वजह हैं- तंबाकू, आर्सेनिक और यूरेनियम। ये तीनों ही कारसोजेनिक हैं यानी कैंसर करने की क्षमता रखने वाले। यूरेनियम इस लिस्ट में नया जुड़ा है। मैनचेस्टर यूनिवर्सिटी के साथ एक संयुक्त अध्ययन में हमने बिहार के अलग-अलग ज़िलों से ग्राउंड वाटर की रैंडम सैंपलिंग में पानी में यूरेनियम की मात्रा भी पाई। यह हमारे लिए चिंता की बात होनी चाहिए,” प्रो. घोष ने इंडियास्पेंड को बताया।

प्रो. घोष के अनुसार बिहार में कई आर्सेनिक स्पॉट हैं। “बक्सर में आर्सेनिक की मात्रा 1900 माइक्रोग्राम प्रति लीटर है। पटना में कहीं-कहीं आर्सेनिक की मात्रा 900 माइक्रोग्राम प्रति लीटर है। पहले आर्सेनिक सिर्फ गंगा से सटे ज़िलों में पाया जाती थी। आज की स्थिति ये है कि पूरे बिहार के ग्राउंड वाटर में आर्सेनिक मौजूद है,” प्रो. घोष ने कहा।

“हमारे गांव (कटैया) में आर्सेनिक है या नहीं, यह जांच का विषय है। पर जो हमें स्पष्ट दिखता है, वह है पानी में आयरन की मौजूदगी। बर्तन में पानी रखने पर बर्तन पर दाग पड़ जाते हैं। इससे कम से कम दो बातों का अंदाज़ा तो हम लगा ही सकते हैं। पहली यह कि हर घर नल योजना के तहत सत्तर कटैया को साफ़ पानी नहीं मिल रहा है। दूसरा, पीएचईडी की जांच में भू-जल को सामान्य बताया गया है जो कि संभवत: ठीक नहीं है,” गौतम राय के भाई संजीव राय ने कहा।

सत्तर कटैया के ग्रामीणों को संदेह है कि उनके भू-जल में भी हो न हो आर्सेनिक की मात्रा अधिक होगी। वे पीएचईडी विभाग की जांच से संतुष्ट नहीं दिखते।

सहरसा ज़िला स्वास्थ्य समिति और नागरिक संगठनों ने बिहार स्वास्थ्य विभाग से सत्तर कटैया में शोध करवाए जाने गुज़ारिश करते रहे हैं। लेकिन अब तक कोई भी शोध नहीं किया गया है। जब तक कोई शोध नहीं होता सत्तर कटैया में कैंसर एक अबूझ पहेली बनी रहेगी।

लोक-लज्जा, लापरवाही और आर्थिक तंगी

जब से आशा देवी को पता चला है कि उनके पति सेवकर सदा को कैंसर है, उन पर दुखों का पहाड़ टूट गया है। पति मज़दूरी करते थे। पति को कैंसर होने के बाद अब आशा देवी मज़दूरी करती हैं। उनके पांच छोटे-छोटे बच्चे हैं। पति और बच्चों सबकी ज़िम्मेदारी अब आशा देवी पर आ गई है।

“मेरे पति को कैंसर है, कोई देखने वाला नहीं है। जिस दिन काम मिलता है तो कुछ पैसा मिलता है। उसी से सत्तू, नून-तेल खरीदते हैं। आजकल तो रोज़ काम भी नहीं मिल रहा है। बहुत दिक्कत हो रही है। पता नहीं कब तक चल पाएगा ऐसे,” आशा देवी ने कहा।

यह पूछने पर कि उनके पति का इलाज कहां से चल रहा है, आशा कहती हैं, “कहीं से नहीं, पैसा ही नहीं है तो कहां जाएंगे इलाज कराने?”

कैंसर मरीज़, सेवकर सदा। फ़ोटो ऋषिकेश शर्मा

सत्तर कटैया क्षेत्र में ज़्यादातर कैंसर पीड़ित पिछड़ी व अनुसूचित जातियों से ताल्लुक रखते हैं। आर्थिक स्थिति के मामले में ये तबक़ा काफ़ी कमज़ोर है इनके लिए कैंसर के इलाज ख़र्च उठाना संभव नहीं है। इंदिरा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान, पटना की विशेष जांच टीम ने भी इस बात को अपनी रिपोर्ट में दर्ज किया। आईजीआईएमएस की टीम का हिस्सा रहीं डॉ़ ज्योत्सना रानी ने अपने ऑब्ज़र्वेशन में लिखा, “इस (सहरबा में कैंसर के विशेष जांच शिविर) कैंप में महिला मरीज़ोें के बीच स्तन कैंसर के मामले सबसे ज़्यादा पाई गई। शुरूआती लक्षणों को छिपाना, देर से चिकित्सक के पास जाने के कारण महिलाओं में कैंसर एडवांस स्टेज में डिटेक्ट हो पाता है। इसलिए हमें महिलाओं को बच्चेदानी के मुख का तथा स्तन कैंसर के लक्षणों और उसके लिए उपलब्ध स्क्रीनिंग जांच के लिए जागरूक करने की ज़रूरत है।”

इसी बीच सत्तर कटैया के कैंसर मरीज़ों के लिए राहत की ख़बर है। अब दरभंगा मेडिकल कॉलेज परिसर में कैंसर के अस्पताल को मंज़ूरी मिल गई है। यहां कैंसर मरीज़ों के लिए 100 बेड का एक सह-अस्पताल बनाया जाएगा। अभी कैंसर मरीज़ों को इलाज के लिए पटना जाना पड़ता है जो यहां से लगभग सात घंटे की दूरी पर है। दरभंगा की दूरी पटना के मुक़ाबले लगभग आधी है।

कैंसर मरीज़ सीता देवी की बेटे, मनोज यादव - फ़ोटोः ऋषिकेश शर्मा

आईजीआईएमएस के डॉ. घनश्याम कुमार ने सत्तर कटैया में कैंसर मरीज़ों के इलाज में कोताही बरतने संबंधी तीन बातें कही। पहला, यह कि गांव में कैंसर को लेकर जागरूकता की कमी है। दूसरा, वे ऑपरेशन से डरते हैं। तीसरा, आर्थिक तंगी के आगे वे बेबस हैं।

पॉपुलेशन बेस्ड कैंसर रजिस्ट्री उपलब्ध नहीं

एशिया पैसिफ़िक जर्नल ऑफ़ कैंसर प्रिवेन्शन का अनुमान है कि भारत में साल 2026 तक 18 लाख नए कैंसर के मरीज़ होंगे। शोधकर्ताओं ने यह अनुमान भारत सरकार के ही नेशनल कैंसर रजिस्ट्री प्रोग्राम के तहत उपलब्ध पॉपुलेशन बेस्ड कैंसर रजिस्ट्री (पीबीसीआर) के आधार पर लगाया है। ग़ौरतलब है कि पीबीसीआर की सुविधा अभी तक बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में नहीं है। जबकि इन राज्यों में भारत की कुल आबादी का 32% हिस्सा रहता है। जर्नल ने हॉस्पिटल बेस्ड कैंसर रजिस्ट्री (एचबीसीआर) के आधार पर बिहार में 2026 तक 1.36 लाख कैंसर मरीज़ होने का अनुमान लगाया है। यह आंकड़ा 2011 के 86 हज़ार के आंकड़े से 50 हज़ार ज़्यादा है। शोध में दावा किया गया कि अगर आंकड़े मौजूदा ट्रेंड के लिहाज़ से ही जारी रहे तो बिहार देश में सबसे ज्यादा कैंसर प्रभावित राज्यों की सूची में उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश के बाद पांचवें स्थान पर पहुंच जाएगा।

बिहार में पॉपुलेशन बेस्ड कैंसर रजिस्ट्री (पीबीसीआर) की उपलब्धता नहीं है। बिहार में हॉस्पिटल बेस्ड कैंसर रजिस्ट्री (एचबीसीआर) के आधार पर कैंसर के आंकड़ें इकट्ठा किए जाते हैं। एक अस्पताल के साथ कैंसर मरीज़ों के पंजीकरण की कुल संख्या को हॉस्पिटल बेस्ड कैंसर रजिस्ट्री (एचबीसीआर) कहते हैं। वहीं एक क्षेत्र में कुल कैंसर मरीज़ों की पंजीकृत संख्या को पॉपुलेशन बेस्ड कैंसर रजिस्ट्री (पीबीसीआर) कहा जाता है। कैंसर विशेषज्ञों के मुताबिक, बिहार में पीबीसीआर रजिस्ट्री न होने के कारण कैंसर के पैर्टन के अध्ययन में मुश्किलें आती हैं।

बिहार के संदर्भ में इंदिरा गांधी इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज़ (आईजीआईएमएस), पटना के डिपार्टमेंट ऑफ मेडिकल ऑनकोलॉजी में असिसटेंट प्रोफेसर डॉ. अविनाश पांडेय और टीम ने पूर्वी भारत में कैंसर ट्रेंड का अध्ययन किया। उन्होंने 1 जनवरी 2014 से 31 दिसंबर 2016 तक आईजीआईएमएस, पटना में रजिस्टर होने वाले कुल 6,629 कैंसर मरीज़ों को अपने अध्ययन का आधार बनाया। डॉ. अविनाश पांडेय और उनकी टीम ने पाया कि बिहार में कैंसर पीड़ितों की औसतन आयु 49 वर्ष है। आईजीआईएमएस की कुल 6,629 कैंसर रजिस्ट्रियों में सबसे ज़्यादा, 1,404 कार्सिनोमा गॉलब्लेडर (औसत उम्र 55 वर्ष), उसके बाद 1,275 सिर और नाक के कैंसर (औसत उम्र 53 वर्ष) और 1018 ब्रेस्ट कैंसर (औसत उम्र 46 वर्ष) के मामले ।

डॉ. अविनाश पांडेय ने अपने शोध पत्र में स्पष्ट रूप से लिखा कि राज्य में गॉलब्लेडर और सिर और नाक के कैंसर के मामले प्रति वर्ष बढ़ रहे हैं और यह चिंता की बात है।

“हालांकि बिहार में गॉलब्लेडर कैंसर के मुख्य कारणों पर पुख्‍ता शोध अब तक मौजूद नहीं है लेकिन गंगा नदी और बिहार के अलग-अलग हिस्सों में भू-जल में आर्सेनिक की मात्रा की तरफ़ संदेह जाता है। वहीं सिर व नाक के कैंसर का रिश्ता तंबाकू सेवन से है,” डॉ. अविनाश पांडेय ने इंडियास्पेंड को बताया।

लॉकडाउन ने बढ़ाई कैंसर मरीज़ों की मुश्किलें

एक तरफ़ जब पूरे देश में अनलॉक-4 लागू किया जा रहा है, बिहार में अभी भी पूर्ण लॉकडाउन जारी है। राज्य सरकार ने 6 सितंबर तक लॉकडाउन बढ़ा दिया था। लॉकडाउन के दौरान कैंसर के मरीज़ों को दवाइयां मिलने काफ़ी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है।

सत्तर कटैया के सिंहोली गांव के 22 साल के चंदन दास का मामला इसका उदाहरण है। दिसंबर 2019 में आंत के कैंसर का ऑपरेशन होने के बाद चंदन की हालत में लगातार सुधार आ रहा था। उसकी पाचन क्षमता भी सामान्य हो चली थी। मगर लॉकडाउन की वजह से उसे दवाइयां नहीं मिल पाईं जिससे उसकी हालत ख़राब होती चली गई। 25 जून को हालत ज़्यादा बिगड़ने के बाद आसपास के लोग चंदा इकट्ठा कर उसे पटना ले गए। मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया।

सहरबा गांव के मनोज यादव 2004 से अपनी मां सीता देवी का इलाज करवा रहे हैं। उनकी मां को मुंह और गले का कैंसर है। “2004 में जब इलाज शुरू हुआ था तो अगले दो-तीन साल में सुधार हो गया था पर कुछ साल के बाद कैंसर दोबारा वापस आ गया।”

“लॉकडाउन के दौरान मां की तबियत अचानक से ज्यादा बिगड़ी। पटना ले जाने की नौबत आ गई। गाड़ियां चल नहीं रही थी लिहाज़ा प्राइवेट एम्बुलेंस से उन्हें पटना ले जाना पड़ा। सहरसा से पटना जाने में 10 हज़ार रुपए तो किराए में ही लग गए। कोरोनावायरस के कारण महावीर कैंसर संस्थान में बहुत मुश्किल से इलाज मिल सका। फिर उतना ही किराया देकर वापस आना पड़ा,” मनोज ने बताया।

“कैंसर का इलाज इतना महंगा होगा तो ग़रीब आदमी के लिए मौत के अलावा क्या विकल्प बचता है? हम लोग सालों से सत्तर कटैया प्रखंड में कैंसर हॉस्पिटल की मांग कर रहे हैं लेकिन हमारी सुनता कौन है,” मनोज ने कहा।

“लोगों को सत्तर कटैया के गांवों का सिर्फ़ अधिकारिक आंकड़ा ही मालूम है। यहां सैकड़ों ऐसे मरीज़ हैं जो पैसे के अभाव में इलाज से वंचित हैं। वे बस चुपचाप अपनी मौत का इंतज़ार कर रहे हैं,” सिंहोल गांव के पार्षद दिनेश यादव ने कहा।

“हमने कई बार प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, स्वास्थ्य मंत्री को चिट्ठी लिखी कि यहां जांच टीम भेजकर पता लगाएं कि इस इलाक़े में कैंसर क्यों फैल रहा है। हम लोग लगातार ज़िले में एक कैंसर अस्पताल की मांग कर रहे हैं। जिन गांवों में कैंसर के केस हैं वो दलित-पिछड़ों की बस्ती हैं। ग़रीबी इतनी है कि ये लोग इलाज कराने के लिए पटना तक नहीं जा पाते," पूर्व ज़िला पार्षद, प्रवीण आनंद ने कहा।

साल 2016 में बिहार सरकार के ग्रामीण पेयजल (गुणवत्ता प्रभावित क्षेत्र) निश्चय योजना (हर घर नल का जल योजना) के अंतर्गत सभी ग्राम पंचायतों के सभी वार्डों में शुद्ध पेयजल पहुंचाया जाना था। योजना के तहत राज्य के 13 आर्सेनिक प्रभावित ज़िलों के 971 बसावटों में शुद्ध पेयजल की व्यवस्था और पांच साल के रख-रखाव और परिचालन के लिए 391.6 करोड़ की राशि स्वीकृत की गई थी। 28 अगस्त को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राज्य में हर घर नल योजना का उद्घाटन किया। साथ ही मुख्यमंत्री ने कहा कि बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में पीएचईडी विभाग द्वारा 11,501.86 करोड़ की लागत से 31,833 ग्रामीण वार्डों के 50 लाख से अधिक घरों में जलापूर्ति की जा रही है। मुख्यमंत्री ने बताया कि बिहार के 38 में से 31 ज़िले गुणवत्ता प्रभावित (आर्सेनिक, फ्लोराइड और आयरन) क्षेत्र हैं। इसमें सहरसा भी शामिल है। उन्होंने दावा किया कि आर्सेनिक और फ़्लोराइड प्रभावित क्षेत्रों में शुद्ध पेयजल पहुंचाया जा रहा है।

लेकिन सहरसा के सत्तर कटैया ब्लॉक के गांव अभी भी पीने के लिए साफ़ पानी का इंतज़ार कर रहे हैं।

(रोहिण कुमार और ऋषिकेश शर्मा, पटना में स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

हम फीडबैक का स्वागत करते हैं। कृपया respond@indiaspend.org पर लिखें। हम भाषा और व्याकरण की शुद्धता के लिए प्रतिक्रियाओं को संपादित करने का अधिकार सुरक्षित रखते हैं।