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बे मौसम बरसात और असंतुलित मौसम की करवटों नें भारत के कृषक वर्ग की कमर तोड़ दी है | और देश की कृषि , अर्थशास्त्र और राजनीति अपनी चूल से बिखर गयी सी लगती है –मध्य- भारत , जो कि भारत में मानसून का केंद्रीय महत्व का क्षेत्र है –में अति बरसात में वृद्धि और मध्यमान बारिश में गिरावट दर्ज हो रही है |यह लक्षण स्थानीय और वैश्विक पर एक जटिल कुदरती मौसम और मानसून का प्रमुखतम हिस्सा है| यह चिंतनीय तथ्य भारतीय और वैश्विक स्तर पर उजागिर हूई वैज्ञानिक अध्यन का परिणाम है|

जैसा कि हाल में इंडियास्पेंड ने रिपोर्ट किया कि गत 3 वर्षों मे जो अनिमियत मौसम की मार भारतीय कृषि व्यवस्था ने झेंली हैं, वो कहीं भारत की कृषि की लाइफलाइन मानसून में किसी दीर्घकालीन बदलाव की ओर तो संकेत नहीं है |

उपरी तौर से देश में हुआ औसत मानसून सामान्य प्रतीत होता दिख रहा है लेकिन ऐसे देश में , जिसमें लगभग 56% कृषि भूमि कार्य मानसून पर निर्भर हो – मानसून में भारी बदलाव कृषि भूमि को कभी अत्यन्त गीली – कभी दलदली कर असंतुलित मानसून, उपज में भारी गिरावट ला सकता है | ऐसी परीस्थितियों में देश में कृषि –रोजगार , ग्रामीण – अर्थशास्त्र तद्स्वरूप जटिल सामाजिक स्थित्याँ परीस्थित्यां उत्पन्न हो सकती है, यह मालूम ही है की लगभग 600 मिलियन की रोजी रोटी कृषि कार्य पर ही निर्भर है |

पिछले एक दशक में भारतीय कृषि के क्रमशः गहराते संकट के प्रमुख कारणों में कृषि भूमि की अल्प उत्पादकता, बाजार में लागत मूल्य का भी न मिलना, बढ़ते कर्ज / घटती आमदनी , कीटों / पेस्ट्स की बढती प्रतिरोधक क्षमता और असामान्य और डगमगाता मानसून है |साथ ही साथ निरन्तर बढती किसानों द्वारा आत्महत्या की दुर्घटनाएं एक गंभीर मानवीय और राजनीतिक मामला बनता जा रहा है |

भारत की धरती पर बर्फ , ओलावृष्टि , ऊपर तलीय जल , नंदियों, नहरें, आकाशीय जल को मिलाकर कुल जल वर्षा –अन्ततःविभिन्न रूपों –ओला ,बर्फ, जल नदी , नाले , वर्षा जल में बदल जातें है –उसकी संपूर्ण मात्रा 85% है-जिसके फलस्वरूप मौसम में असन्तुलित बदलाव और अनिश्चयात्मक मानसून भारत की कृषि को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है |

पिछले 60 में सामान्य औसत मानसूनी वर्षा में गिरावट ;मौसम तीव्र परिवर्तन के दौर में |

जुलाई – अगस्त में प्राकृतिक दैवीय परम्परों के अनुक्रम औसत वर्षा -1951 इस्वी से क्रमष कम हुई| लेकिन इन वर्षा- सत्रों में अचानक तेज परिवर्तन के लक्षण जैसेविनाशकारी बाढ़ का स्वरुप और बढ़ गया – साथ में सूखे की दौर की आवृतियाँ भी बढ़ी |

उपरोक्त तथ्य स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के एक शोध पेपर से प्रकाश में आयेँ है-जिसकी शोध्कत्री ने इंडियन मेट्रोलॉजिकल डिपार्टमेंट यानि कि भारतीय मौसम विभाग द्वारा एकत्र आंकड़ों से किया गया, पिछले दो दसकों -1951-1980 और 2011 से २०११ के तुलनात्मक अध्यन करने के उपरान्त ऊपर लिखे निष्कर्ष पाये|

IndiawithKashmirLegendTभारतीय प्रायद्वीप में संभावित मानसूनी वर्षा जल के फैलाव का परिशेत्र उच्चतम बरसाती महीनों (जुलाई – अगस्त ) के समय | इन महीनों में प्राकृतिक – दैव परम्परा के अनुक्रम में मध्य भारत और हिमालयन क्षेत्रों / पश्चिमी घाटों के उपर वृष्टि होती रहती है |

rainfall_variabilityयह चार्ट स्पष्ट रूप से दिखाता है कि किस तरह से जुलाई अगस्त में होने वाले वर्षा जल का मध्यमान और दिन प्रति दिन होने वाली वर्षा जल में पर्रिवर्तनियता / असंतुलित घटत बढ़त पिछले दो दशक में चिंतनीय बदलाव के दौर में हैं |

हमारे अध्ययन कृषि कार्य को ध्यान में रखते हुए दो “समय दौर” बहुदिन वृष्टि जन्य शीतकालीन दौर और अति सूखा दौर के उपर केन्द्रित हैं | हम गहन दृष्टि से देखते हैं कि “कितनी बार” और कितने दिनों तक उपरोक्त समय के दौर ठहरते हैं और इस बात का परिवेक्षण करते हैं कि इन समय / दौरों की कब और कितनी तीव्रता है |इस स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी की ग्रेजुएट शोधकत्री दीप्ति सिंह जो कि उक्त अध्ययन की प्रमुख लेखक हैं ने इंडियास्पेंड को बताया कि “हमारा अध्ययन जिसका मुख्य आधार पिछली 6 दशाब्दियों (60 वर्ष)” में एकत्रित वो ऐतिहासिक आंकड़ों का परिवेक्षण है , जिनके कारण हम बहुत महत्वपूर्ण शीत परिवर्तनों को परिलक्षित कर पाते हैं, वो हैं शीत दौरकी वतावर्णीय तीव्रता और सूखे दौरों में क्रमित बढ़त” |

wet_spells_310मध्य भारत के उपर शीत कालीन दौर की सक्रियता के क्रमशः बढ़ते दौर् | लगातार तीन दिन या उससे अधिक समय दौर को हम “शीत दौर“ मानते हैं |

dry_spells_310 इस ग्राफ में हम सूखे दौर की आवृत्तियों में क्रमिक बढ़त के स्पष्ट चिन्न देखते हैं जो कि प्रत्येक वर्ष मध्य भारत के उपर अपने सूखे दौर का दुष्प्रभाव छोड़ते हैं | लगातार तीन दिन या उसे अधिक समय के दौर जिसमें औसत से कम वर्षा होती है उनको हम सूखा ग्रस्त मानते हैं |

इमेजेज: दीप्ति सिंह

कृषि उत्पादन समय चक्र में सूखे के दौर प्रारम्भिक फसल उत्पात्ति में सकारात्मक रूप से महत्वपूर्ण होते हैं परन्तु लम्बे समय के सूखे दौर फसल उत्पादन का चौतरफा विनाश करते हैं, हमारे उक्त्त अध्ययन के परीणामस्वरूप जो तथ्यउभरकर सामने आये वो सब उस समय पुष्ट हुए जब हमने भारत के विभिन्न क्षेत्रों में कृषि कार्य में लिप्त किसानों के साथ शोधात्मक विमर्श साक्षात्कार लिया |

अत्यंत गंभीर साक्ष्यों की जरुरत – लेकिन सभी जगह समान संकेत / ट्रेंड्स

हमारे अध्ययन का मुख्य स्रोत भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) का प्रतिदिन वर्षा का उच्च आंकड़ा आधारित सूचकांक – जिसको मौसम विज्ञानी - डाटा सेट “कहते हैं या जिसको सामान्य बोल चाल की भाषा में” विस्तृत वृष्टि के आंकड़ों की श्रेणी बद्ध सूची कह सकते हैं | इस डाटा सेट के इस्तेमाल स्वरुप इस बात के प्रमाण मिले कि भारतीय कृषि मौसम के कारण गंभीर बढती अनिश्चय के दौर से गुजर रही है |

प्रोफ़ेसर बी एन गोस्वामी पुर्व निदेशक इन्दिआन इंस्टिट्यूट ऑफ़ ट्रॉपिकल मीटियोरॉलजि निदेशक और उनके इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस (आईआईएससी) बंगलौर की शोध सहयोगियों ने भी अध्ययन में पाया कि पिछले पचास वर्षों में मध्य भारत में चिंतनीय बढ़त के संकेत मिले जो कि पारंपरिक मानसून के समय में अतिसक्रीय आवृत्ति वाले सूखे समय और शीत कालीन दौर में स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं |

एक दूसरे शोध अध्यन में डॉ एम् एन राजीवन निदेशक आई० आई० टी० एम्० पुणे और पूर्व नेशन एटमोस्फियरिक लेबोट्री तिरुपति के सहयोगी वैज्ञानिकों ने शोध उपरान्त पाया की प्रतिदशाब्दी 6% की असंतुलित बढ़त - घटत की अति वृष्टि काल के दौरान दृष्टि गोचर हो रही है |

उक्त अध्यन के लिए डॉ राजिवन और उनके सहयोगियों नें 104 वर्षों के पीरियड (1901-2004) का अध्यन आई० एम० डी० के डाटासेट को इस्तेमाल करके पाया की प्रति वर्ष और दशक में भी उक्त मानसूनी सूखे दौर के लक्षण और शीत दौर प्रकट होते रहे हैं |

गोस्वामी और राजिवन दोनों का कहना है कि 5 MM से 100 MM प्रतिदिन वर्षा को मोडेरेट / मध्यमा और 100 से 150 MM प्रतिदिन को हैवी / भारी और 150 से कम या ज्यादा को वैरी हैवी / अत्यंत ज्यादा वृष्टि कहते हैं|

94.4 CM की अति वृष्टि हमने वर्ष 2005 की मुंबई की बाढ़ , जो की मात्र 24 घंटे की बरसात में रिकॉर्ड की गयी या कुछ वैसा ही दृश्य हमने बारमेर डेजर्ट (2006) में और लेह हिल्स (2010) में देखा |

इंडियास्पेंड नें अपनी पूर्व रिपोर्ट्स में कहा है कि मौसम वैज्ञानिकों नें भविष्य में ब्रम्हपुत्र और इंडस नदियों में विनाशकारी बाढ़ आने की बात कही है |

यद्यपि वैज्ञानिक परीक्षणों के तरीके – टूल्स विभिन्न हो सकते हैं परन्तु जब सुपर कम्प्यूटर्स पर नकली अति न्यूनतम सूखे / वर्षा की स्थितयां कृतिम तरीके से उत्पन्न की गयी तो प्रयोग के अंत में आइ० एम० डी० डाटासेट से परिक्षण परिणाम में समानता मिली:

अति वृष्टि / अति सूखा का मौसमी प्रभाव ग्लोबल वार्मिंग के साथ ही बढ़ता / घटता या असंतुलित होता रहा , जब की मौसम और कृषि वैज्ञानीक कहते हैं कि उपरोक्त परिणाम को और संतोष जनक होने के लिए हमें और गहरे साक्ष्यों की जरुरत होगी फिर भी ग्लोबल वार्मिंग और अतिवृष्टि / सूखा में एक गहरा अंतर सम्बन्ध स्पष्ट दीखता है |

मानसूनी अतिवृष्टि / सूखा के विभिन्न परिवर्तन स्तरों से स्थानीय भू शेत्रों के तापमानों में सम्बन्ध होना जरुरी नहीं है

तीव्र जलवायु परिवर्तन के दौर साधारणतः सामन्य तौर पर मध्यमान वर्षा स्तर से हमेशा अंतर्संबंधित नहीं प्रतीत होते बल्कि कभी –कभी अतिवृष्टि के स्तर से पूरी तरह उल्टे भी होते हैं | नवीनतम कृषि शोध बताती है कि अत्यंत जटिल eco- इवेंटस के साथ- साथ स्थानीय भूतापीय परिवर्तन अतिवृष्टि / सूखे के प्रारंभिक लक्षण हो सकते हैं |

वार्षिक और दशकीय दीर्घ कालीन अतिवृष्टि / सूखे के लक्षणों में बदलाव समुद्र स्तर होने वाले तापीय परिवर्तनों से सीधे प्रभावित होते हैं और समुद्र तल से तापीय विसर्जन या अप्शोषण हमेशा समुद्र तल से जल वाष्पीकरण या जल्संघ्नीकरण से सम्बंधित होता है – जिसको तकनीकी तौर पर – LATENT हीट FLUX यानि की छद्म तापीय बहाव में उतार –चढाव- भारत के भूमध्यसागर के ऊपर से होता है | उक्त बातों का खुलासा प्रोफेसर राजिवन और उनके सहयोगियों ने किया |

हाल में यूनाइटेड नेशंस की क्लाइमेट रिपोर्ट में कहा गया की क्लाइमेट चेंज वातावरण में तापीय परीवर्तन और ब्रहत तूफानी बदलाव जैसे ALNINO – जो की समुद्री तल के टोरियल पैसिफिक समुद्र के उपर जबरदस्त तापीय आडोलन- विआडोलन (उतार-चढाव) होता है जो की मानसून भू क्षेत्रों में प्रकट हुए अतिवृष्टि/सूखे की बहु अव्रित्त्यों / तिव्र्ताओं को परिवर्तित और प्रभावित कर सकते हैं |

भारत के आई० आई० एस० सी० (बैंग्लोर) में शोध सहयक प्रोफ्फेसर डॉ अर्पिता मोंडल और प्रोफ. पी० पी० मजुमदार ने आई० एम० डी० के डाटासेट आंकड़ों को ही आधार बनाते हुए बृहद और लघु स्तर पर हुए मौसमी परिवर्तनों को ध्यान में रखते हुए – गर्मी के उपरांत आने वाले मानसून और ALNINO के प्रभाव का अध्यन किया तो पाया कि बहुत से अन्य कारन भी हो सकते हैं उपरोक्त वतावर्णीय घटना क्रम के बनाने में | साथ ही साथ अत्यंत न्यून समानता भी पाई गयी , सिवा इस बात के कि स्थानीय तापीय बदलाव नें वर्षा की तीव्रता को विभिन्न स्तरों पर प्रभावित किया |

IISc के नवीन अध्यन का भारतीय सन्दर्भ में 3 महत्वपूर्ण परिणाम है : अतिवृस्ष्टि होने की तीव्रता, उनका अन्तराल और कितनी और कब आवृत्ति होती है | भारत में मानसून को लेकर विभिन्न सूत्रों / टूल्स को लेकर अध्यन किये जाते हैं और इसके परिणाम इस बात पर निर्भर करते हैं कि ‘अतियों ,को उस अध्यन में ‘कैसे और क्या’ पर्रिभाषित किया है और उनमें बदलाव को किस ढंग से परिभाषित कर परिणाम हांसिल किये जाते हैं |

मोंडल ने अपने अध्यन से यह निष्कर्ष निकला और कहा की ‘ हमारा अध्ययन मौसम की परिवर्तनशीलता का गहरा पर्यावेक्षण करता है और हमने पाया की स्थानीय परिणाम अतिवृष्टि/ सूखे को छोटे स्पेसियल स्केल्स को प्रभावित कर सकते हैं वनस्पति बहुत बड़े स्तर पर हुए वातावर्णीय बदलाव कर सकने में सक्षम नहीं भी हो सकते हैं |

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि उक्त सभी अध्ययन मौसम के तीव्र और अन्श्चित बदलाव की ओर बढ़ रहे हैं – वो सब ग्लोबल वार्मिंग से सम्बंधित हैं – क्लाइमेट चेंज और स्थानीय बदलाओं को मिलाकर | अब देश को कृषि क्षेत्र के लिए जीवन दायक मानसून सूत्रों/प्रभाव का शीघ्र संतुलित परिक्षण और पूर्व चेतावानी सिस्टम और गंभीर शोध, उनके तुरंत क्रियान्वयन की जरुरत है |

इमेज क्रेडिट; फ्लिक्कर/संदीप एम० एम०


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