मुंबई: बलात्कार की शिकार एक नाबालिग पीड़ित को न चाहते हुए भी बच्चे को जन्म देना पड़ा। उस पीड़ित बच्ची ने कोर्ट से गर्भपात कराने की इजाजत मांगी थी, लेकिन मद्रास हाई कोर्ट ने 1971 के मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी (एमटीपी) अधिनियम के तहत गर्भपात की उसकी मांग ठुकरा दी।

पीड़ित बच्ची की पहली जांच जब हुई, तब उसे 19 सप्ताह का गर्भ था। कानून के मुताबिक 19वें सप्ताह में गर्भपात किया जा सकता है, लेकिन डॉक्टर ने ऐसा करने से मना कर दिया। मामला कोर्ट में गया। सुनवाई भी हुई लेकिन तब तक उसकी गर्भावस्था 20 सप्ताह की सीमा को पार कर चुकी थी, जिसके बाद एमटीपी अधिनियम के तहत गर्भपात कराने की अनुमति नहीं है।

इस मामले का उल्लेख नई दिल्ली के एक एनजीओ प्रतिज्ञा के वकील अनुभा रस्तोगी और रौनक चंद्रशेखर ने 28 सितंबर, 2019 की रिपोर्ट में किया था। प्रतिज्ञा नाम का यह एनजीओ भारत में सुरक्षित गर्भपात और महिलाओं के अधिकारों पर काम करता है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि अलग-अलग अदालतों ने अप्रैल 2016 से जुलाई 2019 के बीच 82 मामलों में से 17% मामलों में नाबालिग बलात्कार पीड़ितों को गर्भपात कराने की अनुमति देने से इनकार किया है। हालांकि, एमटीपी अधिनियम, 20 सप्ताह तक गर्भपात की अनुमति देता है, लेकिन अप्रैल 2016 से जुलाई 2019 के बीच देश भर की अदालतों में 20 सप्ताह से कम अवधि के गर्भ को समाप्त करने की 40 याचिकाएं दायर की गई थीं। इसका कारण डॉक्टरों की ओर से गर्भपात करने से इनकार करना था। इनमें से 33 याचिकाएं बलात्कार पीड़ितों की थीं।

महाराष्ट्र और राजस्थान में महिलाओं के यौन और प्रजनन संबंधी स्वास्थ्य अधिकारों के लिए काम करने वाला एक एनजीओ है सम्यक । सम्यक का काम पुणे से संचालित होता है। इसके एक्जेक्युटिव डायरेक्टर आनंद पवार कहते हैं, "महिलाओं को सुरक्षित गर्भपात की अनुमति नहीं देकर, आप उन्हें दो विकल्पों के साथ छोड़ रहे हैं। पहला है मौत (असुरक्षित और अवैध गर्भपात के कारण) और दूसरा है गर्भावस्था के मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक परिणाम, जिनके लिए वे तैयार नहीं हैं।"

रिपोर्ट में कहा गया है कि, सुरक्षित गर्भपात के लिए महिलाओं की पहुंच सीमित होने के दो प्रमुख कारण हैं। पहला महिलाओं और डॉक्टरों के बीच कानून के बारे में जागरूकता की कमी और दूसरा पुराने एमटीपी अधिनियम में स्पष्टता की कमी । इसके अलावा, डॉक्टरों के गर्भपात से इनकार करने का कारण लिंग भेद गर्भपात को रोकने वाला कानून और बाल यौन शोषण के मामले की कानूनी प्रक्रियाएं हैं। हालांकि, इन कानूनों में गर्भपात पर रोक का उल्लेख नहीं है। रिपोर्ट में आगे बताया गया है कि गर्भपात को लेकर अदालत के फैसले में देरी और गर्भपात से जुड़ी तोहमत महिलाओं के स्वास्थ्य को भी खतरे में डालते हैं।

इसका नतीजा यह है कि भारत में होने वाले गर्भपात में से 56% असुरक्षित तरीके से किए जाते हैं। इंडियास्पेंड ने नवंबर, 2017 की रिपोर्ट में बताया था कि असुरक्षित गर्भपात के कारण, भारत में रोजाना 10 महिलाओं की मौत हो जाती है।

संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, दुनियाभर में, लगभग 47,000 महिलाएं हर साल असुरक्षित गर्भपात के कारण जान गंवा देती हैं।

अस्पष्ट और पुराना एमटीपी अधिनियम

एमटीपी अधिनियम के तहत, गर्भधारण के 20 सप्ताह बाद तक गर्भावस्था को उस स्थिति में समाप्त किया जा सकता है, अगर इससे मां को खतरा है या गर्भावस्था बलात्कार का परिणाम है या अगर बच्चे की गंभीर शारीरिक या मानसिक दोषों के साथ जन्म लेने की संभावना है या फिर मामला गर्भनिरोधक विफलता का है।

नाबालिगों के लिए, माता-पिता से लिखित सहमति की आवश्यकता होती है और अविवाहित महिला गर्भपात के कारण के रूप में गर्भनिरोधक विफलता का हवाला नहीं दे सकती हैं। प्रतिज्ञा रिपोर्ट में कहा गया है कि गर्भपात पर 20 सप्ताह की सीमा 1971 से उस पुरानी अवधारणाओं पर आधारित है, जब गर्भपात सर्जरी के ज़रिये होता था। लेकिन अब गर्भपात की अच्छी गोलियां हैं और वैक्यूम एस्पाइरेन्श , जैसी तकनीक है जो भ्रूण को हटाने के लिए सक्शन का उपयोग करती है, इसलिए गर्भावस्था के 20 सप्ताह की समय सीमा के बाद भी अपेक्षाकृत सुरक्षित गर्भपात हो सकता है।

गाइनिकोलोजिस्ट और एशिया सेफ एबॉर्शन पार्टनरशिप की सह-संथापक, सुचित्रा दलवी कहती हैं, “नौवे महीने में, जब प्रसव का समय नजदीक होता है, तब भ्रूण का आकार बड़ा होता है। लेकिन जब भ्रूण का आकार छोटा होता है तब गर्भवती महिलाओं के लिए खतरा सबसे कम होता है। इसलिए, एक प्रशिक्षित और योग्य व्यक्ति द्वारा सुरक्षित तरीके से किए गए गर्भपात के दौरान किसी भी समय महिला के जीवन के लिए कोई खतरा नहीं है। कम से कम प्रसव के दौरान होने वाले जोखिम से गर्भपात का जोखिम बड़ा नहीं है!”

अधिनियम कहता है कि गर्भावस्था को 20 सप्ताह के बाद भी समाप्त किया जा सकता है यदि यह "गर्भवती महिला के जीवन को बचाने के लिए तत्काल आवश्यक है।" हालांकि, तत्काल खतरा डॉक्टरों ही तय करते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि, यह 20 सप्ताह की अवधि बीत जाने के बाद गर्भपात करने करने के लिए डॉक्टरों को सजग बनाता है।

रिपोर्ट के सह-लेखक रस्तोगी कहते हैं कि वर्तमान तकनीकी विकास को ध्यान में रखते हुए एमटीपी अधिनियम को अपडेट और संशोधित करने की जरुरत है। ऐसी संभावना है कि 20 सप्ताह के बाद भ्रूण की असामान्यताओं का पता चले, जिससे गर्भपात कराने का फैसला लेना पड़े। रस्तोगी आगे बताते हैं कि जब तक महिला का स्वास्थ्य खतरे में नहीं है, तब तक किसी भी अवस्था में उसकी गर्भपात की मांग को गंभीरता से लेना चाहिए।

दलवी कहती हैं कि असुरक्षित गर्भपात से गंभीर संक्रमण, भविष्य में बांझपन, पेट में दर्द, आंतों मे चोट, आंतरिक जख्म और यहां तक ​​कि मौत भी हो सकती है। मेडिकल जर्नल, ‘द लैंसेट’ में जनवरी 2018 में छपे इस लेख के अनुसार, पेट की मालिश, कई तरह की जड़ी-बुटियों के मिश्रण और योनि में लकड़ी डालना अवांछित गर्भ को समाप्त करने के लिए सामान्य तरीके हैं।

1 जून, 2016 से 30 अप्रैल, 2019 के बीच गर्भपात की अनुमति के लिए 194 महिलाओं ने सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दायर कीं। इनमें करीब 97 मामले बलात्कार पीड़ितों के थे, जिनमें से 82 की उम्र 18 वर्ष से कम थी। 88 मामलों में गर्भपात की मांग का कारण, असामान्य भ्रूण बताया गया था।

82 गर्भवती नाबालिग बलात्कार पीड़ितों में से 13 को गर्भपात की अनुमति नहीं दी गई थी। इंकार का कारण यह था कि गर्भावस्था 20 सप्ताह से ज्यादा की थी।

रस्तोगी इस बात पर जोर देते हैं कि एमटीपी एक्ट में संशोधन किया जाना चाहिए , जिससे गर्भधारण के 12 सप्ताह बाद तक वैवाहिक स्थिति और उम्र की परवाह किए बिना सभी महिलाओं को गर्भपात की स्वीकृति मिल सके। “कानूनी गर्भपात 24 सप्ताह तक सुरक्षित है, इसलिए इसकी समय सीमा 24 सप्ताह तक बढ़ाई जानी चाहिए और बलात्कार और भ्रूण संबंधी विसंगतियों के मामलों में यह सीमा लागू नहीं होनी चाहिए।” रस्तोगी चाहते हैं कि कानून में संशोधन को जल्द हो।

इस बारे में इंडियास्पेंड ने नवंबर 2017 में रिपोर्ट किया था कि 2014 के एक ड्राफ्ट बिल, में बलात्कार के मामलों में 24 सप्ताह के गर्भपात की अनुमति देने और भ्रूण में असामान्यताओं के मामले में पूरी तरह से सीमा हटाने की का ज़िक्र है, लेकिन इसे अभी तक संसद ने पास नहीं किया है, ।

कम उम्र में प्रसव के प्रभाव को किया जाता है नजरअंदाज

रिपोर्ट के अनुसार, जबकि अधिनियम के तहत गर्भवती महिला के शारीरिक स्वास्थ्य को गर्भपात के लिए वैध आधार माना जाता है, लेकिन मानसिक स्वास्थ्य, और एक अनचाहे गर्भावस्था के सामाजिक-आर्थिक पहलू, (विशेष रुप से बलात्कार पीड़ित ) पर विचार नहीं किया गया है। संयुक्त राष्ट्र की घोषणा के मुताबिक यौन हिंसा के पीड़ितों को गर्भपात से इनकार करना मानव अधिकारों का उल्लंघन है।

भारत में, अदालत के फैसलों में इस बात को ध्यान में नहीं रख जाता है कि बच्चे के जन्म से एक युवा लड़की के स्वास्थ्य पर क्या हानिकारक प्रभाव पड़ेगा। फरवरी 2018 में डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के अनुसार, विश्व स्तर पर 15 से 19 वर्षीय लड़कियों के लिए मौत का प्रमुख कारण बच्चे के जन्म में जटिलता है।

दालवी कहती हैं, “गर्भावस्था से छोटी लड़कियों को जोखिम बहुत अधिक है, क्योंकि उनका शरीर बहुत छोटा है। सामान्य डिलीवरी संभव नहीं है। निश्चित रूप से प्रसव से ज्यादा बेहतर गर्भपात है। साथ ही, उस उम्र में, बलात्कार के कारण गर्भावस्था से मानसिक स्वास्थ्य पर भी प्रभाव पड़ता है।”

सम्यक के पवार कहते हैं कि गर्भपात कानूनी है, इसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। उदाहरण के लिए,2012 के बायोमेड सेंट्रल अध्ययन के अनुसार, बिहार और झारखंड में 50% से भी कम महिलाएं जानती थीं कि कानूनी रुप से गर्भपात कराया जा सकता है।

स्त्री रोग विशेषज्ञों की कमी

2003 में स्वास्थ्य मंत्रालय के दिशा निर्देशों के अनुसार कोई गर्भपात केवल एक पंजीकृत स्त्री रोग विशेषज्ञ और प्रसूति रोग विशेषज्ञ द्वारा किया जा सकता है। ये विशेषज्ञ वे हो सकते हैं, जिसने एक वर्ष का अभ्यास पूरा किया है या कम से कम 25 गर्भपात में सहायता की हो। दिशा निर्देशों के अनुसार, अगर स्त्री रोग विशेषज्ञों में ऐसी काबिलियत है तो वह केवल पहली तिमाही में यानी गर्भधारण के 12 सप्ताह बाद तक गर्भपात करा सकती है।

12 और 20 सप्ताह के बीच गर्भपात के लिए, दो रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिश्नर को यह साबित करना होगा कि मामला गर्भपात कानून के तहत स्वीकार्य है।

रिसर्च संगठन, अकाउन्टबिलिटी इनिशटिव की ओर से राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन पर 2019-20 की रिपोर्टके अनुसार, ग्रामीण भारत में स्त्री रोग विशेषज्ञों और प्रसूति रोग विशेषज्ञों की 75% कमी है। सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में 85% विशेषज्ञों के पोस्ट (5,624 में से 4,757) खाली हैं।

गर्भपात करने वाले योग्य पेशेवरों की कमी पर, पवार सलाह देते हैं कि उप-जिला अस्पतालों में डॉक्टरों को गर्भपात करने की अनुमति दी जानी चाहिए। पवार यह भी चाहते हैं कि इसके अलावा आयुर्वेदिक, यूनानी, प्राकृतिक चिकित्सा, सिद्ध और होम्योपैथिक डॉक्टरों को उप-जिला अस्पतालों की में गर्भपात करने की अनुमति दी जाए। हालांकि वह यह भी मानते हैं कि इन चिकित्सकों को प्रशिक्षित करने की आवश्यकता होगी।

डॉक्टरों में जानकारी की कमी

यौन >अपराधों से बच्चों के संरक्षण की धारा 19 (पोकसो) अधिनियम 2012 के तहत किसी भी व्यक्ति को अगर नाबालिग के गर्भवती होने की जानकारी है तो वह पुलिस को सूचना दे सकता है, भले ही लड़की की सहमति ना हो। हालांकि, प्रतिज्ञा रिपोर्ट के लेखकों ने पाया कि कानूनी कार्यवाही में शामिल होने से बचने के लिए, डॉक्टर नाबालिगों का इलाज करने और गर्भपात करने से इनकार करते हैं।

जैसा कि पोकसो एक्ट सहमति सेक्स और यौन बलात्कार के बीच अंतर नहीं करता है, वैसे ही हर कम उम्र की गर्भावस्था को एक जैसा ही माना जाता है।

पवार इसे समझाते हैं, " गर्भपात करने से पहले पोकसो अधिनियम के तहत उत्पीड़न का डर होता है। डॉक्टर महिलाओं को अतिरिक्त-कानूनी प्रक्रियाओं का सामना करना पड़ता है - जैसे कि शपथ पत्र दाखिल करना, आदि, जिसका अधिनियम में कोई प्रावधान नहीं है।"

रिपोर्ट में कहा गया है कि इस वजह से, यौन हिंसा की शिकार, अपनी गर्भावस्था की रिपोर्ट करने के लिए अनिच्छुक होती हैं।

डॉक्टरों ने गर्भपात से इंकार करने के लिए 1994 की पूर्व धारणा और प्रसव पूर्व निदान तकनीक अधिनियम (पीसीपीएनडीटी) का भी हवाला दिया। मूल रूप से लिंग भेद गर्भपात पर नकेल कसने के लिए इसे लाया गया था और इसे देश में गिरते लिंगानुपात का कारण माना जाता था। पीसीपीएनडीटी एक्ट के तहत रेडियोलॉजिस्ट को भ्रूण के लिंग के बारे में नहीं बताना चाहिए।

नई दिल्ली स्थित नारीवादी मानवाधिकार संगठन क्रिआ की सितंबर 2019 की रिपोर्ट के अनुसार, “पीसीपीएनडीटी अधिनियम में कोई प्रावधान गर्भपात पर रोक नहीं लगाता है, फिर भी डॉक्टर इससे इंकार करते हैं, खासकर दूसरी तिमाही के बाद। पीसीपीएनडीटी के तहत मुकदमा चलने के डर के कारण डॉक्टर गर्भपात से मना करते हैं।”

अदालत में देरी

इसी तरह यदि मामला एमटीपी अधिनियम के तहत कानूनी है तो गर्भपात करने के लिए मेडिकल बोर्ड की स्वीकृति की आवश्यकता नहीं होती है। लेकिन अदालतों में अक्सर पीड़ित महिला के अपने स्त्री रोग विशेषज्ञ की चिकित्सा सलाह की अनदेखी होती है और मोडिकल बोर्ड की मंजूरी का इंतजार किया जाता है। बोर्ड में अदालत की ओर से नियुक्त स्त्री रोग विशेषज्ञ शामिल होती हैं। प्रतिज्ञा की रिपोर्ट के अनुसार, गर्भावस्था को लंबे समय तक रखने के प्रभावों पर बोर्ड विचार नहीं करता है और गर्भपात की अनुमति तभी देता है, जब महिला के जीवन को लेकर तत्काल कोई खतरा है।

रिपोर्ट में बताया गया है कि, इस "खतरे" को अधिनियम में ही परिभाषित नहीं किया गया है, और इसकी परिभाषा व्यक्तिगत मान्यताओं से प्रभावित हो सकती हैं। एक बोर्ड की स्थापना और बोर्ड के फैसले की प्रतीक्षा में बीता समय गर्भावस्था को 20 सप्ताह की अवधि से आगे बढ़ा सकता है, जैसा कि हमने पहले नाबालिग बलात्कार पीड़िता के मामले के बारे में बताया है।

एक अन्य उदाहरण बिहार में एक एचआईवी पॉजिटिव बलात्कार पीड़ित का मामला है, जिसका गर्भपात करने से पटना मेडिकल कॉलेज ने इंकार कर दिया था, हालांकि, वह गर्भावस्था के 18वें सप्ताह में थी। हिंदुस्तान टाइम्स में अगस्त 2017 की रिपोर्ट के अनुसार 2017 में पटना हाई कोर्ट की ओर से देरी के परिणामस्वरूप, उसे बच्चे को जन्म देने के लिए मजबूर होना पड़ा था।

भ्रूण का अधिकार बनाम मां का अधिकार

प्रतिज्ञा रिपोर्ट में कहा गया है, एक महिला की भलाई के लिए मेडिकल प्रक्रिया के बजाय एक अनचाहे गर्भावस्था को समाप्त करने के साधन के रूप में गर्भपात की धारणा भ्रूण के खिलाफ महिला को खतरे में डालती है। "हालांकि, भ्रूण के अधिकारों को विज्ञान या कानून में आधार नहीं मिलता है।"

दलवी के अनुसार, "मानव अधिकारों के परिप्रेक्ष्य में देखें तो सभी मानव स्वतंत्र और समान पैदा होते हैं और दूसरे शब्दों में कहें तो हम पैदा होने के बाद से ही मानव हैं। जब तक भ्रूण किसी के शरीर के अंदर है, तब तक वह व्यक्ति जन्म लेने वाले भ्रूण की तुलना में ज्यादा प्राथमिकता वाला है। हालांकि, कई देशों ने व्यवहार्यता की एक सीमा निर्धारित की है- वह चरण जिसके बाद भ्रूण महिला के शरीर के बाहर स्वतंत्र रूप से जीवित रह सकता है। यह आमतौर पर 28 सप्ताह का माना जाता है, हालांकि कुछ तकनीकी विकास के कारण यह कुछ स्थानों पर पहले हो सकता है। हालांकि एक भ्रूण को कभी भी व्यक्ति नहीं माना जाता है, जबकि वह महिला के शरीर के अंदर होता है। ”

लेकिन हर कोई इससे सहमत नहीं है। हमने नवंबर 2017 की रिपोर्ट में बताया था कि कुछ डॉक्टरों में 20 सप्ताह के बाद भ्रूण के गर्भपात को लेकर नैतिक असमंजस है।

सितंबर 2019 में हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट के सामने आए एक हलफनामे में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की ओर से कहा गया कि महिलाओं को गर्भपात का पूर्ण अधिकार नहीं है। सरकार एमटीपी अधिनियम की धारा 5 को हटाना चाहती थी, जो कहती है कि 20 सप्ताह की अवधि के बाद भी गर्भपात किया जा सकता है यदि मां का जीवन खतरे में है।

स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय में अंडर सेक्रेटरी (प्रजनन और बाल स्वास्थ्य) भामा नारायणन और मंत्रालय के प्रवक्ता ने एमटीपी अधिनियम में संशोधन के मुद्दे पर हमारे कई फोन और ईमेल का जवाब नहीं दिया। अगर वे जवाब देते हैं तो हम इस रिपोर्ट को अपडेट करेंगे।

यह आलेख हेल्थचेक पर यहां पहली बार प्रकाशित हुआ था।

( इकबाल इंडियास्पेंड में इंटर्न हैं।)

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