‘साइंस एडवांस’ पत्रिका में प्रकाशित एक नए अध्ययन के मुताबिक, वर्ष 2040 तक भारत में गंभीर बाढ़ के खतरे का सामना करने वाली आबादी में छह गुना वृद्धि हो सकती है। आंकड़ों को देखें तो 1971 और 2004 के बीच इस जोखिम का सामना कर रहे 3.7 मिलियन लोगों की संख्या बढ़ कर 25 मिलियन हो सकती है।

आंध्र प्रदेश, बिहार और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों से ज्यादा लोग भारी बाढ़ का सामना करेंगे, ऐसी आशंका है। हालांकि हरियाणा, उत्तराखंड,हिमाचल प्रदेश और झारखंड जैसे राज्यों ने अब तक ऐसी परिस्थिति नहीं देखी है, लेकिन आशंका है कि 2040 तक इन राज्यों की एक बड़ी आबादी गंभीर बाढ़ से पीड़ित होगी।

राज्य के अनुसार गंभीर बाढ़ के जोखिम उठाती आबादी

Source: Science Advances: January 2018

अध्ययन के निष्कर्ष के अनुसार, वर्तमान स्तरों के लिए बाढ़ के जोखिम को नियंत्रित करने के लिए भारत ( और अन्य कमजोर देशों ) को अधिक बाढ़ संरक्षण उपायों की ओर ध्यान देना चाहिए। अधिक व्यापक बाढ़ के परिणामस्वरूप जीवन और संपत्ति की संभावित हानि को देखते हुए इस केंद्रीय संदेश को गंभीरता से लेना चाहिए।

1996 और 2005 के बीच, भारत को हर साल 4,745 करोड़ रुपए (713 मिलियन डॉलर) का नुकसान हुआ है। 2018-19 (और 2017-18) में जलवायु परिवर्तन कार्य योजना और राष्ट्रीय अनुकूलन फंड के लिए केंद्र का आवंटन 150 करोड़ रुपए था - बाढ़ से वार्षिक नुकसान का 3 फीसदी।

ये नुकसान पहले से ही एकल शहरों के साथ बढ़ रहे हैं, जैसे 2014 में श्रीनगर और 2015 में चेन्नई को कुछ दिनों के अंतराल में 5000 करोड़ रुपए और 15,000 करोड़ रुपए से अधिक का नुकसान उठाना पड़ा है। और ये सिर्फ तात्कालिक नुकसान थे। बाढ़ के बाद होने वाली महामारी से स्वास्थ्य पर अधिक सार्वजनिक और निजी खर्चों की जरुरत होती है ।

अत्यधिक बारिश के कुप्रभावों से खरीफ और रबी मौसम में किसानों की आय में 13.7 फीसदी और 5.5 फीसदी की कमी आएगी, जैसा कि आर्थिक सर्वेक्षण, 2017-18 में अनुमान लगाया गया है। दिल्ली में ‘इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी’ के सिविल इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर अश्विनी कुमार गोसाइन ने इंडियास्पेंड से बात करते हुए कहा कि "बाढ़ से अधिक नुकसान जलवायु की मौजूदा परिवर्तनशीलता से निपटने के लिए भारत की अपर्याप्तता को दर्शाता है।"

संयुक्त राष्ट्र कार्यालय से आपदा जोखिम में कमी की रिपोर्ट में बताया गया है कि विश्व स्तर पर, देशों ने 10 साल से 2015 तक बाढ़ के कारण हताहतों की संख्या को कम किया है । इस संबंध में इंडियास्पेंड ने अक्टूबर 2017 की रिपोर्ट में बताया है। इसके विपरीत, भारत में बाढ़ की मृत्यु दर बढ़ रही है।

जलवायु परिवर्तन पर भारत की राज्य कार्य योजना "विश्व स्तर पर सबसे बड़ी उप-राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन नीतिगत प्रयास है", जैसा कि एक जलवायु जोखिम लचीलापन और अनुकूलन सलाहकार, एक्लाईमेटाइज में पॉलिसी और गवर्नेंस लीड अनु जोगेश ने इंडियास्पेंड से बात करते हुए बताया। वह कहती हैं, “लेकिन जैसी कि जरुरत है, परियोजनाओं को कार्यान्वित करने के लिए सीमित नौकरशाही की ऊंचाई वाले राज्य जलवायु केंद्रों के बीच एक पृथक प्रयास को छोड़ने के बजाय इसके लिए युद्धस्तर पर कार्रवाई करके जलवायु परिवर्तन जैसी समस्या को मुख्यधारा में लाने की आवश्यकता है।

‘डायनेमिक्स ऑफ द क्लाइमेट सिस्टम पॉट्सडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इफेक्ट रिसर्च’ और नए अध्ययन के सह-लेखक के एंडर्स लेवेर्मैन ने इंडियास्पेंड को बताया कि "यह एक वैज्ञानिक सवाल नहीं है कि क्या किसी देश का सुरक्षा स्तर क्षेत्रीय रूप से विविध या समरूप होना चाहिए, लेकिन एक सामाजिक निर्णय होना चाहिए।जोखिम झेलने वाला समाज अधिक सुरक्षा की कामना करता है और अधिक भुगतान करने के लिए तैयार रहता है।"

मुख्यधारा में जलवायु परिवर्तन?

जैसा कि हमने बताया, अगर परिस्थितियों को कम करने के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया तो भारत 2040 तक बाढ़ के जोखिम के संपर्क वाली आबादी में छह गुना बढ़ोतरी देख सकता है।

जोगेश कहते हैं, “हालांकि, जलवायु परिवर्तन विज्ञान के अनुमानों के बारे में सभी अनिश्चितता के साथ, "नीति निर्माताओं को विज्ञान की नीतियों को धरातल पर काम करने लायक बनाने में और उसके लिए बजट जुटाने में मुश्किलें हो सकती हैं।"

यही कारण है कि वह स्पष्ट विकास सह-लाभ पर ध्यान केंद्रित करके और मौजूदा घरेलू बजटों से ही साधन जुटाने के लिए जलवायु परिवर्तन को मुख्यधारा देने की जरूरत है।

इसमें उन विभागों के बजट का अनुकूलन शामिल होगा जिनकी जलवायु, जैसे कि कृषि, जल, शहरी विकास और वानिकी जैसी विविधताओं से प्रभावित होने की आशंका है।

उदाहरण के लिए, यह अब स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन बारिश पैटर्न बदल रहा है। गोसाईं कहते हैं, “ बारिश की आवृत्ति बढ़ गई है, बाढ़ की आशंका और क्षेत्रों के जलप्लावित की आशंका बढ़ गई है। दूसरी बात, मानसून के दौरान बरसात के दिनों के अंतराल में वृद्धि हुई है, इस प्रकार, बारिश पर निर्भर कृषि के लिए चिंताओं में वृद्धि हुई है, जो भारत की 60 फीसदी फसली जमीन पर प्रचलित है। इसे वास्तविकता में कारक बनाने के लिए कृषि नीति का अनुकूलन करने से किसानों को नुकसान से बचाने में मदद मिलेगी।

‘यूकेज डिपार्टमेंट फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट फ़िक्स्ड एक्शन ऑन क्लाइमेट टुडे’ (एक्ट) प्रोग्राम के परामर्श से, बिहार में राज्य के कृषि रोड मैप 2017-2022 में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को संबोधित करने के लिए विशेष प्रयास शामिल हैं, जैसे फसलों को बढ़ावा देने (मक्का और मसूर के पारंपरिक किस्म) जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के लिए अधिक लचीले हैं।

एक्ट ने बिहार सरकार को व्यावसायिक रणनीतियों के विकास के लिए भी यह सुनिश्चित करने में मदद की है कि यह वैकल्पिक फसल नीति कारगर है।

भारत में ऑक्सफोर्ड पॉलिसी मैनेजमेंट के क्षेत्रीय कार्यक्रम विकास प्रबंधक आदित्य वानश बहादुर कहते हैं "जब तक किसानों को किसी अन्य फसल में जाने में लाभ नहीं मिलता, फसल का पैटर्न नहीं बदलेगा।"

पहले से ही जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का सामना कर रहे महाराष्ट्र (सूखा / पानी की कमी), असम (विपत्तिपूर्ण बाढ़) और केरल (तटीय क्षरण / समुद्र स्तर की वृद्धि) जलवायु परिवर्तन पहल में मुख्य भूमिका निभा रहे हैं। बहादुर का मानना ​​है यह केवल समय की बात है इससे पहले कि भारत भर में राज्य इस प्रभाव को महसूस करते हैं, इसलिए हर राज्य को यह दिखाना चाहिए कि उनकी नीतियां जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से निपटने में कैसे मदद कर सकती हैं।

बाढ़ के जोखिम से बचने के लिए स्थानीय नीतियों जरूरत

भारत में राष्ट्रीय स्तर की सुरक्षा नीति है, लेकिन यूके और जर्मनी जैसे विकसित देशों के विपरीत क्षेत्रीय या शहर के स्तर पर कोई नहीं नहीं, जैसा कि ‘वैश्विक डेटाबेस फल्ड प्रोटेक्शन स्टैंडर्ड’ (फ्लोप्रोस) में बताया गया है, जिसने 2016 में अपना पहला संकलन जारी किया था।

भारत में जलवायु परिवर्तन पर एक महत्वाकांक्षी राज्य कार्य योजना और साथ ही जिला आपदा प्रबंधन योजनाएं भी हैं।

‘लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स’ और ‘पॉलिटिकल साइंस ग्रैंथम रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑन क्लाइमेट चेंज एंड एंवार्यन्मेंट’ के इस 2015 रिपोर्ट के मुताबिक "प्रत्येक राज्य में योजनाओं के अनुकूलन के लिए क्षेत्रीय प्राथमिकताओं को चिह्नित करने की जरूरत हौ और मुख्यधारा अनुकूलन निर्णय लेने में सहायता करना है, हालांकि इसके बारे में अधिक स्पष्टता की आवश्यकता है। स्थानीय हितधारकों का प्रशिक्षण और अनुकूलन योजनाओं में सहभागिता विकास भी आवश्यक है। "

विभिन्न क्षेत्रों और बाढ़ का सामना करने वाले शहरों के लिए स्थानीय सुरक्षा नीतियों की जरूरत है।

उदाहरण के लिए, उन शहरों में, जिन्होंने अपनी हरियाली को सुरक्षित रखा है। मिट्टी अधिक वर्षा अवशोषित करती है, बहाव को कम करती है और शहर की निकास नाली पर कम दबाव डालता है। उन शहरों में जहां हरियाली पर अतिक्रमण हुआ है, वहां 50 साल पहले भारी बारिश के दौरान बारिश के पानी का अवशोषण लगभग 50 फीसदी होता था, आज हालात बदतर हैं, उन शहरों में निकास नाली पर दबाव बहुत अधिक हो गया है, जैसा कि गोसाई समझाते हैं।

जल संसाधन मंत्रालय के केन्द्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) में रिवर मैनेजमेंट के सदस्य प्रदीप कुमार इंडियास्पेंड को बताते हैं, “निकास नालियों के माध्यम से आने वाली बढ़ती समुद्र की लहरों के कारण, तटीय शहरों का जोखिम लगातार बढ़ रहा है, साथ ही खराब जल निकासी ( शहरी बाढ़ का एक बड़ा कारण ) भी एक खतरनाक पहलू है।”

गोसाईं सलाह देते हैं कि शहर के स्तर पर सुरक्षा संस्थान स्थापित करने के लिए पहला कदम जल निकासी से निपटने के लिए मौजूदा नालियों की क्षमता की जांच के लिए शहरों में हाइड्रोलिक मॉडल तैयार करना चाहिए। गोसाईं की टीम ने हाल ही में दिल्ली सरकार के अनुरोध पर दिल्ली के लिए हाइड्रोलिक मॉडल पूरा किया है।

गोसाईं आगे कहते हैं, “ क्षेत्र के लिए हाइड्रोलिक मॉडलिंग के अध्ययन की जिम्मेदारी शहरी विकास विभाग पर दी गई है। शहर के स्तर पर, जिम्मेदारी नगरपालिका निकायों पर है।

बढ़ रही घटनाओं को प्रबंधित करने की तैयारी

आने वाले वर्षों में भारत के सामने आने वाली सभी बाढ़ का जोखिम जलवायु परिवर्तन के कारण नहीं होगा। इसके कुछ कारण इंसानों के कार्य-व्यापार से जुड़ा है।

गोसाई ने कहा, "पर्यावरण के परिप्रेक्ष्य से, बाढ़, बाढ़ के मैदान और भूमि के क्षेत्र में उपज की क्षमता लाती है। लेकिन जब लोग बाढ़ के क्षेत्र में बसे हुए हैं, और बाढ़ के दौरान ज़िंदगी और संपत्ति के घाटे को नुकसान झेलते हैं, तो परंपरागत पर्यावरण का यह सोच बदल जाता है कि हम जीवन और संपत्ति के नुकसान को कम करने के लिए बाढ़ कैसे रोकते हैं?”

कुमार कहते हैं, “उदाहरण के लिए, 50 साल पहले, यमुना नदी में पानी की समान मात्रा में बाढ़ नहीं आई क्योंकि बाढ़ के क्षेत्र में विस्तारित आबादी का अतिक्रमण नहीं हुआ था। अतिक्रमण बाढ़ के मैदान प्रबंधन को एक संवेदनशील मुद्दा बनाता है।”

वह आगे कहते हैं, “तटबंध बाढ़ के मैदानों में रहने वाले लोगों की सुरक्षा में मदद कर सकते हैं। सीडब्ल्यूसी ने स्थानीय समुदाय से लोगों द्वारा लगाए गए तटबंधों को प्रोत्साहित किया है, जिनके पास भूमि की रक्षा करने में रुचि है।

लेकिन ऐसे समय आएंगे जब भारी बारिश से नदियां अपने तटबंधों को तोड़ेगी। जैसा कि अगस्त 2017 को बिहार में हुआ जब 150 से अधिक लोग मारे गए और 1 करोड़ से अधिक प्रभावित हुए और राजस्थान और गुजरात में जुलाई 2017 में देखा गया, जब राज्यों ने 300 से ज्यादा मारे गए थे। इसलिए सीडब्ल्यूसी भी क्षमता निर्माण को प्रोत्साहित कर रहा है कि लोगों को बताया जा सके कि बाढ़ के साथ कैसे रहना है ।बाढ़ की आशंका से घिरे क्षेत्रों को प्रदर्शित करने के लिए भूजल के नक्शे बनाकर बाढ़ चेतावनी सेवाओं में सुधार किया जा रहा है, जिससे लोगों को सुरक्षित स्थान पर जाने और अपने माल-मवेशियों को सुरक्षित स्थान पर जाने के लिएपर्याप्त समय मिले।

कुमार कहते हैं, "हम पहले 24 घंटों में चरम घटनाओं के लिए चेतावनी जारी करते थे। हम अब 72 घंटे पहले चेतावनी जारी कर रहे हैं। चुनौती यह है कि, राज्यो ने उन सूचनाओं पर कार्य नहीं किया, जो हम उन्हें प्रदान करते हैं।"

केंद्र और सक्रिय राज्यों के ठोस प्रयासों के बिना, भारत के लाखों लोग प्रभावित होंगे।

(बाहरी स्वतंत्र लेखक एवं संपादक हैं और माउंट आबू में रहती हैं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 10 फरवरी 2018 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

हम फीडबैक का स्वागत करते हैं। हमसे respond@indiaspend.org पर संपर्क किया जा सकता है। हम भाषा और व्याकरण के लिए प्रतिक्रियाओं को संपादित करने का अधिकार रखते हैं।

__________________________________________________________________

"क्या आपको यह लेख पसंद आया ?" Indiaspend.com एक गैर लाभकारी संस्था है, और हम अपने इस जनहित पत्रकारिता प्रयासों की सफलता के लिए आप जैसे पाठकों पर निर्भर करते हैं। कृपया अपना अनुदान दें :