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भारत के नौ सबसे गरीब राज्यों का स्वास्थ्य के मामले में प्रदर्शन बदतर है। देश में होने वाला 70 फीसदी बाल मृत्यु, 75 फीसदी पांच वर्ष की आयु के भीतर बच्चों की मृत्यु और 62 फीसदी मातृ-मृत्यु इन्हीं राज्यों में होते हैं। ताज्जुब की बात यह है कि इन राज्यों के लिए तय स्वास्थ्य मद की पूरी राशि खर्च भी नहीं हो पाती।

यह जानकारी राज्य बजट पर वर्ष 2017 भारतीय रिज़र्व बैंक के आंकड़ों पर इंडियास्पेंड द्वारा किए गए विश्लेषण में सामने आई है। यहां यह जान लेना भी जरूरी है कि इन नौ राज्यों में देश की 58.1 करोड़ या 48 फीसदी आबादी रहती है।

आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि:

a. इन राज्यों में मातृ मृत्यु दर अनुपात यानी प्रति 100,000 जन्मों पर माताओं की मृत्यु का अनुपात राष्ट्रीय औसत (167) की तुलना में 32 फीसदी ज्यादा (244) है।

b. इन राज्यों में 38 फीसदी बच्चे कम वजन के और 40 फीसदी बच्चे स्टंड यानी आयु की तुलना में कम कद के हैं। ये आंकड़े भी राष्ट्रीय औसत की तुलना में ज्यादा है। इस संबंध में राष्ट्रीय औसत क्रमश: 36 फीसदी और 38 फीसदी है। वर्ष 2015-16 के राष्ट्रीय स्वास्थ्य डेटा से यह जानकारी सामने आई है।

c. भारत में होने वाले कुल बाल मृत्यु में से 58 फीसदी उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान में होती है। इन राज्यों में 37.2 करोड़ आबादी रहती है, जो अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, स्वीडन और ग्रीस की संयुक्त आबादी से ज्यादा है।

नौ गरीब सबसे बड़े राज्य, सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल और परिवार कल्याण पर हर साल अपने सामाजिक-क्षेत्र के व्यय का औसतन 4.7 फीसदी खर्च करते हैं। यह आंकड़े 4.8 फीसदी के राष्ट्रीय औसत से कम है। सामाजिक क्षेत्र व्यय में पानी की आपूर्ति और स्वच्छता, आवास और शहरी विकास शामिल है। हम बता दें कि आधिकारिक रुप से इन राज्यों को ‘हाई फोकस’ राज्य कहा जाता है, जिसका मतलब है कि उन्हें विशेष ध्यान देने की जरूरत है।

भारत के सबसे गरीब 9 राज्यों में स्वास्थ्य पर सामाजिक-क्षेत्र के व्यय का 4.7% खर्च किया गया

NOTE: * - Actual Figures; ** - Maternal mortality ratio in these states (Andhra Pradesh, Himachal Pradesh, Jammu and Kashmir, Manipur, Meghalaya, Mizoram, Nagaland, Sikkim, Telangana and Tripura) is 126 deaths per 100,000 births as per the Sample Registration System (SRS) Report published in 2011-13

भारत के सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात के रूप में स्वास्थ्य पर औसत खर्च पहले से ही ब्रिक्स देशों में सबसे कम है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने 8 मई, 2017 की रिपोर्ट में बताया है।

बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, ओडिशा, राजस्थान, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और असम ‘हाई फोकस’ राज्य हैं।

संस्था ‘अकाउन्टबिलिटी इनिश्यटिव ’ से जुड़ी वरिष्ठ शोधकर्ता अवनी कपूर ने इंडियास्पेंड से बात करते जानकारी दी कि “2005 में भारत सरकार ने देखा कि कुछ राज्य विभिन्न संकेतकों में खराब प्रदर्शन कर रहे हैं। इसलिए, इन राज्यों को ‘हाई फोकस’ राज्यों के साथ जोड़ा गया और उन संकेतकों को सुधारने के लिए अतिरिक्त संसाधन दिए गए।”

सबसे गरीब राज्यों ने अपने बजट की तुलना में कम पैसे खर्च किए

नौ गरीब राज्यों में से सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल और परिवार कल्याण पर कुल व्यय के अनुपात में राजस्थान ने सबसे ज्यादा (5.6 फीसदी) बिहार ने सबसे कम (3.8 फीसदी) खर्च किया है, जैसा कि 2014-15 के वास्तविक खर्च पर आरबीआई के आंकड़ों में बताया गया है।

नौ‘हाई फोकस’ राज्यों में से सात से कम व्यय की सूचना दी

कपूर कहते हैं, “अपने संकेतकों को बेहतर बनाने के लिए ‘हाई फोकस’ राज्य सामाजिक क्षेत्र में बड़ी मात्रा में राशि आवंटित करता है, लेकिन वास्तविकता में वे आवंटित राशि की तुलना में एक कम राशि खर्च करते है। इसलिए, उचित परिणामों को जानने के लिए वास्तविक खातों पर विचार करना आवश्यक है।”

कुछ ‘हाई फोकस’ राज्य अपने अलग रखे हुए बजट की तुलना में कम राशि खर्च किया है, वहीं अन्य राज्यों ने कुल व्यय के अनुपात के रूप में स्वास्थ्य सेवा और परिवार कल्याण पर दूसरे बड़े राज्यों से ज्यादा खर्च किया है। लेकिन इसका उनके स्वास्थ्य सेवा सूचकों के साथ कोई संबंध नहीं था।

उदाहरण के लिए, राजस्थान में 6.86 करोड़ लोग रहते हैं। इस राज्य ने वर्ष 2011-13 में 100,000 जन्मों पर 244 लोगों की मृत्यु की एमएमआर की सूचना दी है। यह आंकड़े बांग्लादेश और नेपाल की तुलना में भी खराब है। यह दोनों देश प्रति व्यक्ति आय के अनुसार गरीब हैं। इसके विपरीत, एक और बड़े राज्य आंध्र प्रदेश (8.46 करोड़ लोगों) ने सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल और परिवार कल्याण पर कुल व्यय का 4.1 फीसदी खर्च किया, लेकिन 92 एमएमआर की सूचना दी है,जैसा कि सरकरी आंकड़ों में बताया गया है।

वर्ष 2008 के बाद से, राजस्थान ने अपना खर्च 0.8 फीसदी बढ़ाया और इसकी एमएमआर में 23 फीसदी की कमी हुई, जबकि आंध्र प्रदेश के खर्च में 0.5 फीसदी की वृद्धि हुई और एमएमआर में 31 फीसदी की कमी आई।

असम, जहां 3.12 करोड़ लोग रहते हैं और जो स्वास्थ्य पर अपने कुल व्यय का 4.2 फीसदी खर्च करता है, वहां 100,000 जन्मों में 300 मृत्यु का एमएमआर है। यह आंकड़े रवांडा और सूडान के बराबर है। जबकि केरल, जहां 3.34 करोड़ की आबादी है और 5.3 फीसदी खर्च करता है, वहां का एमएमआर 61 है। यह आंकड़े श्रीलंका और पोलैंड के बराबर है।

वर्ष 2015-16 में मध्यप्रदेश ने 51 शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) यानी प्रति 1,000 जीवित जन्मों पर 51 मृत्यु की सूचना दी है। मध्यप्रदेश ने 5 फीसदी की अनुमानित बजट की तुलना में स्वास्थ्य देखभाल पर कुल व्यय का 4.3 फीसदी खर्च किया है। और जैसा कि 21 जनवरी, 2016 को इंडियास्पेंड ने रिपोर्ट में बताया है-“राज्य की स्थिति दुनिया के कुछ सबसे गरीब देशों जैसे गांबिया और इथियोपिया से भी बद्तर है।”

स्वास्थ्य पर अधिक खर्च करने से संस्थागत जन्म में सुधार नहीं

जिन ‘हाई फोकस’ राज्यों का हमने अध्ययन किया, वहां सभी जन्मों में से 72.6 फीसदी जन्म स्वास्थ्य देखभाल संस्थानों में हुए हैं। यह आंकड़े निश्चित रुप से एक स्थिर सुधार दर्शाते हैं, लेकिन अब भी यह 78.9 फीसदी के राष्ट्रीय औसत से नीचे है। वर्ष 2015-16 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस -4) के आंकड़ों से ऐसा पता चलता है।

7.21 करोड़ की आबादी वाला तमिलनाडु सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल और परिवार कल्याण पर अपने कुल बजट खर्च का 4.7 फीसदी खर्च करता है । यहां संस्थागत जन्मों के लिए 99 फीसदी का आंकड़ा रहा है। जबकि 3.3 करोड़ की आबादी वाला राज्य झारखंड 4 फीसदी खर्च करता है और 61.9 फीसदी संस्थागत जन्म रिपोर्ट करता है।

भारत में पांच वर्ष की आयु के भीतर होने वाले मौतों में सबसे ऊपर उत्तर प्रदेश (78), मध्यप्रदेश (65), छत्तीसगढ़ (64), बिहार (58) और असम (56) है। इस संबंध में इंडियास्पेंड ने मार्च, 2017 में विस्तार से बताया है।

पिछले 10 वर्षों में ओडिशा में संस्थागत जन्म में 118 फीसदी की वृद्धि दर्ज हुई है, लेकिन इसी अवधि के दौरान आईएमआर में 63 फीसदी से अधिक की गिरावट नहीं हुई है।

इन राज्यों में बद्तर स्वास्थ्य संकेतकों का कारण स्वास्थ्य देखभाल की बुनियादी सुविधाओं और मानव संसाधनों की कमी हो सकता है।

पर्याप्त डॉक्टर और स्वास्थ्य संस्थान की कमी

आरबीआई की रिपोर्ट के अनुसार, बिहार में 81 फीसदी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों (सीएचसी) की कमी है। यह सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) ग्रामीण इलाकों में रेफरल और विशेषज्ञों के रूप में माध्यमिक स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करता है। वहीं झारखंड में 66 फीसदी प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल केंद्रों (पीएचसी) की कमी है। यह केंद्र ग्रामीण क्षेत्रों में एक योग्य सार्वजनिक-क्षेत्र के चिकित्सक तक पहुंच का पहला बिंदु होता है।

भारत के स्वास्थ्य प्रबंधन सूचना प्रणाली के मुताबिक ‘हाई फोकस’ राज्यों में 13 फीसदी सीएचसी की कमी है।

राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन पर ‘अकाउन्टबिलिटी इनिश्यटिव’ के बजट सार के अनुसार, मार्च 2016 में बिहार में, सीएचसी में 93 फीसदी विशेषज्ञों की कमी थी, जबकि छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश और झारखंड के लिए यह आंकड़े क्रमश: 90 फीसदी, 84 फीसदी और 84 फीसदी रहे हैं।

सभी नौ राज्यों में बुनियादी ढांचे की कमी इस तथ्य से भी बदतर है। अमीर परिवारों की पहुंच स्वास्थ्य देखभाल कार्यक्रमों तक है, जबकि कई गरीब परिवारों को उच्च प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष लागतों के कारण बाहर रखा गया है, जैसा कि एक ऑनलाइन वैज्ञानिक पत्रिका ‘PLOS-ONE’ में वर्ष 2012 के अध्ययन में बताया गया है।

ऐसी बुनियादी सुविधाओं की कमी अपर्याप्त खर्चों को बढ़ाती है और कम स्वास्थ्य उपलब्धियां प्रदान करती है। प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल खर्च में वृद्धि, बच्चे और शिशु मृत्यु दर कम करता है, जैसा कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा वर्ष1999 का यह शोध पत्र बताता है।

वर्ष 2012 पर PLOS-ONE का अध्ययन कहता है, “बेहतर मातृ एवं नवजात शिशु देखभाल पर समुदाय-आधारित शिक्षा को और नवजात संक्रमणों के लिए घर आधारित उपचार को बढ़ावा देने से ‘हाई फोकस’ राज्यों में बच्चों की स्थिति को सुधारा जा सकता है।

(राव इंटर्न हैं और इंडियास्पेंड के साथ जुड़ी हैं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 3 जुलाई 17 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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