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लगातार दो वर्ष सूखा पड़ने के बाद, एक खेतीहर मजदूर एवं 10 बकरियों और दो गायों का मालिक 25 वर्षीय बब्बन चव्हाण, अपने परिवार को छोड़ कर मुंबई पलायन करने को मजबूर है। मुंबई के निर्माण उद्योंग में काम करते हुए वह रोज़ाना सामान्य से तीन गुना अधिक 900 रुपए कमा लेता है।

डेनिम, सफेद टी-शर्ट और कॉलेज जाने वाले किसी मुंबई के लड़के की तरह आत्मविश्वास से भरे 25 वर्षीय बब्बन चव्हाण, घाटकोपर में सूखा पीड़ित शरर्णाथियों के लिए बने बांस और तिरपाल के बने प्रवासी शिविर में कुछ अलग दिखाई देता है।

पहनावा और आत्मविश्वास, चौव्हाण की वास्तविकता को झुठलाती है।

एक खेतीहर मजदूर और दस बकरियों एवं दो गायों के मालिक, चौव्हाण ने 15 वर्ष की आयु से ही काम करना शुरु कर दिया था। एक अकुशल निर्णाम कर्मचारी से वह एक कुशल मिस्त्री बन गया है। दो वर्ष पहले लगातार दो वर्ष से सूखा पड़ने के कारण – 30 वर्षों में सबसे बद्तर सूखा – चौव्हाण को अपनी पत्नी, चार बच्चे, बूढ़े माता-पिता को छोड़ कर अपने घर से 550 किमी दूर उत्तर-पूर्व मुंबई पलायन करना पड़ा है।

चौव्हाण, सूखाग्रस्त मराठवाड़ा के मध्य में लातूर के दक्षिणी जिले में उदगीर तालुक में अपने गांव, काउल्खेड़ से जनवरी महीने में मुबंई आया है।

यह अप्रैल महीने में, मुंबई से लातूर भेजी गई पानी-ट्रेन यात्रा की तुलना में 200 किमी लंबी है।

इंडियास्पेंड से बात करते हुए चौव्हाण कहते हैं कि, “चूंकि हम उदगीर शहर से केवल 5 किमी की दूरी पर रहते हैं इसलिए बच्चों को नगर-निगम द्वारा भेजे गए टैंकर के माध्यम से पानी मिल जाता है। पानी मेरे पशुओं के लिए पर्याप्त नहीं है और मैं अपनी आंखों के सामने उन्हें मरते हुए नहीं देख सकता हूं। इसलिए, मैने उन्हें अपने हिस्से का पानी दे दिया है और मैं यहां कमाने आया हूं।”

पांचवी तक पढ़े चौव्हाण युवा, मजबूत और प्रेरित है। वह अपने घर का पूणनिर्माण करना चाहता है और पूरा वर्ष अपने घर पर ही बिताना चाहता है। वह अपने काम के स्थान पर मिस्त्री से सुपरवाइज़र बनना चाहता है। चौव्हाण की इच्छा है कि उसके बच्चे पढ़ें और शहर में नौकरी करें।

चौव्हाण कहता है, “मैं नहीं चाहता कि मेरे बच्चे उस स्थिति से गुज़रें जिस स्थिति से मैं गुज़र रहा हूं।”

मुंबई में चौव्हाण, कुशल कारिगर के रुप में प्रतिदिन 900 रुपए कमाते हैं। चौव्हाण कहता है कि, “मैं शायद यहां सबसे अधिक कमाता हूं, शायद अकुशल श्रमिकों से अधिक जिनकी यहां बहुमत है। उदगीर के 300 रुपए रोज़ाना की तुलना में यहां तीन गुना अधिक कमा लेता हूं।”

चौव्हाण और उनका परिवार उन हज़ारों प्रवासियों में से एक हैं जो मुंबई और अन्य शहरों में हर वर्ष जाते हैं। मराठवाड़ा में पड़ते सूखे के कारण इस वर्ष उनकी संख्या अधिक बढ़ गई है।

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Photos by Jayant Nikam.

घाटकोपर में अपने अस्थायी मकानों में रहते हुए, अधिकतर निर्माण कार्य करते हुए इनकी आय, ग्रामीण गरीबी रेखा के नीचे से शहरी गरीबी रेखा से 82 फीसदी अधिक बढ़ गई है, जैसा कि मराठवाड़ा प्रवासियों पर इंडियास्पेंड द्वारा किए गए सर्वेक्षण के आधार पर हमारे इस लेख के पहले भाग में बताया है।

इस लेख के तीसरे भाग में हम बताएंगे कि क्यों घाटकोपर में प्रवासियों की संख्या सामान्य से पांच गुना अधिक है।

चौव्हाण के परिवार एवं घाटकोपर में उनके जैसे ही कई परिवारों से बात करने पर पता चलता है कि किस प्रकार आंशिक शिक्षा से वे आधुनिक नौकरियों के लिए तैयार नहीं हो पाए हैं और अपने अस्तित्व के लिए उन्हें पलायन करना पड़ा है। लेकिन पिरामिड के तल पर उनके अस्तित्व होने के बावजूद उनकी आकांक्षाएं कम नहीं हुई है, जैसा कि उनके हांथों में फोन होना इस बात का संकेत देता है।

प्रवासियों पर इंडियास्पेंड द्वारा किए गए सर्वेक्षण से पता चलता है कि:

* एक चौथाई से अधिक प्रवासी सातवीं कक्षा से अधिक नहीं पढ़े हैं।

* करीब 60 फीसदी प्रवासियों के पास मोबाईल फोन है, लेकिन केवल 5 फीसदी ही स्मार्ट फोन का इस्तेमाल करते हैं।

कम शिक्षा, कम इंटरनेट का इस्तेमाल, कोई वित्तीय योजना नहीं

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Source: IndiaSpend Primary Surveys – Migrants In Mumbai, May 2016

घाटकोपर में रहने वाले अधिकांश परिवार बंजारे,अर्ध हिन्दू जनजाति के हैं।

रामभाऊ राठौड़, मराठवाड़ा से आए एक बंजारा नेता, के इंडियास्पेंड से बात करते हुए बताया कि, “बंजारा परिवारों को पारंपरिक रूप से सीमांत भूमि मालिक हैं, उनके लिए खेती आजीविका का स्रोत नहीं हो सकता है। शिक्षा की कमी के कारण, समुदाय में कई लोग बेरोजगार हैं।”

प्रवासी गन्ना चक्र पर आश्रित होते हैं। मानसून के दस्तक देते ही, नवंबर में अपने गांवों से गन्ने की खेती के लिए दक्षिण की ओर पलायन करते हैं एवं और चार से पांच महीने में परिवार के लिए 50,000 रुपये की एकमुश्त राशि कमाते हैं।

निर्माण क्षेत्र में अस्थायी लेकिन अपेक्षाकृत उच्च भुगतान नौकरी पाने के लिए गर्मियों में, वे बड़े शहरों में बस जाते हैं (चार महीनों के लिए)।

इस बार, खाली बांधों के कारण सिंचाई मुश्किल थी और इसलिए गन्ने की फसल का मौसम केवल दो महीने ही रहा। इसलिए, कई लोगों की कमाई आधी हुई है। उनके पास, 45 दिन पहले मुंबई आने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहा था।

मुबंई में भोजन के लिए लाइन में खड़े प्रवासी

सर्वेक्षण किए गए प्रवासियों में से करीब आधे 1.4 एकड़ ज़मीन के मालिक थे, जोकि भारत में औसत भूमि स्वामित्व (2.9 एकड़) का आधा है और महाराष्ट्र के औसत भूमि स्वामित्व (3.6 एकड़) का एक-तिहाई है (कृषि जनगणना 2010-11 के अनुसार)।

औसत कृषि भूमि क्षेत्र

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Source: IndiaSpend Primary Surveys – Migrants In Mumbai, May 2016; Agricultural Census 2010-11; figures in acre.

घर पर,एक भी प्रवासियों के पास, सिंचाई के लिए कुंआ या बोरवेल नहीं है। इनमें से आधे लोगों के पास मवेशी हैं,प्रति परिवार औसतन तीन से चार (गाय, भैंस, बकरी) हैं।

दीपक हांडे, क्षेत्र जहां प्रवासी शिविर की स्थापना की गई है वहां के नगर निगम पार्षद ने इंडियास्पेंड से बात करते हुए बताया कि, “मराठवाड़ा में लगातार सूखा पड़ने के कारण कई लोग पहली बार मुंबई पलायन करते दिखे हैं।”

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घाटकोपर में प्रवासियों के लिए बनाए गए शिविर में पानी की आपूर्ति के लिए नगर निगम द्वारा भेजे गए टैंकरों से अधिक पानी बर्बाद होता है। प्रवासी कहते हैं कि केवल 50 परिवारों के साथ भी पानी के स्थल पर हंगामा रहता है। इस समय, पानी के लिए 350 परिवार लड़ते हैं।

जब हम उनसे मिले तो चौव्हाण ने अपने घर वापस लौटने की इच्छा जताई। वह अपने माता-पिता से मिलना एवं बच्चों के साथ खेलना चाहता है। चौहान का मानना है कि चार महीने में वह करीब 45,000 रुपए कमा चुका है, जोकि पिछले मानसून फसल के मौसम में कमाए गए 15,000 रुपए, से तीन गुना अधिक है।

चौव्हाण कहता है, “हम वापस लौटेंगे।”

“यदि पानी समय से और पर्याप्त होता है तो हम अपने गांव मे ही रहेंगे।”

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श्रेया मित्तल और सुकन्या भट्टाचार्य , सिम्बायोसिस स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स से स्नातक हैं एवं इंडियास्पेंड के साथ इंटर्न हैं। दोनों ने इस सर्वेक्षण में योगदान दिया है।

फोटोग्राफर: जयंत निकम , शारी अकादमी ऑफ फोटोग्राफ़ी, मुम्बई

यह तीन श्रृंखला लेख का दूसरा भाग है। पहला भाग यहां पढ़ सकते हैं।

(वाघमारे इंडियास्पेंड के साथ विश्लेषक हैं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेज़ी में 14 जून 2016 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।.

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