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मुंजाबा शिंगारे (गुलाबी शर्ट में) और सालाराम वाजे (सफेद शर्ट में) महाराष्ट्र के ठाणे जिले में वांगणी में रहने वाले 300 दृष्टिहीन लोगों के एक समुदाय का हिस्सा हैं। इस समुदाय के अधिकांश सदस्य ट्रेन में गाना गा कर या माल-फेरी बेचने के जरिए अपनी आजीविका अर्जित करते हैं। यह निश्चित रुप से भारत की 50 लाख दृष्टिहीन लोगों की जिंदगी में मौजूद चुनौतियों को दर्शाते हैं।

हर दिन शाम के 7 बजे जब लोग काम से घर वापस आ रहे होते हैं तब 42 वर्षीय मुंजाबा शिंगारे के काम करने का वक्त शुरु होता है। शिंगारे मुंबई से 60 किमी पूर्व ठाणे जिले के वांगणी गांव के अपने घर से निकलते हैं। वे रेलवे स्टेशन तक पहुंचने के लिए टाउन सेंटर से 10 मिनट की पैदल दूरी तय करते हैं। उनके पास 7.5 किलोग्राम की उनकी ढोलकी होती है। प्लेटफॉर्म तक पहुंचने के लिए वे सात व्यस्त रेलवे पटरियों को पैदल पार करते हैं। सात बजे की कुर्ला जाने वाली ट्रेन पकड़ते हैं, जो मुंबई के सबसे व्यस्त स्टेशनों में से एक है।

उनकी दृष्टिहीनता बार-बार उनकी यात्रा को खतरनाक मोड़ पर लाती रहती है। वह ट्रेनों में बेशुमार भीड़, विकलांगों के लिए जरूरी सुविधाओं की कमी और पुलिस उत्पीड़न का सामना करते हुए भजन, कीर्तन या भक्ति संगीत गा कर अपना जीवन यापन करते हैं। वह मुंबई के केंद्रीय उपनगरीय ट्रेन नेटवर्क पर सबसे व्यस्त स्टेशन डोंबिवली में ट्रेन बदल कर रात 11.30 बजे घर लौटते हैं। जब हमने उनसे पूछा कि रात में पटरियों को पार करना अधिक खतरनाक है तो उनका जवाब था, “हम अंधे हैं इसलिए अंधेरे से अंजान नहीं हैं।”

अम्बरनाथ तालुका (प्रशासनिक प्रभाग) के वांगणी में रहने वाले 300 दृष्टिहीन लोगों में से मुंजाबा शिंगारे एक हैं। यहां एनका एक समुदाय है, जिसकी देख-रेख ग्राम पंचायत द्वारा होता है । इस अनूठे समुदाय के अधिकांश सदस्य ट्रेन में गाना गा कर या माल फेरी बेचने के जरिए अपनी आजीविका अर्जित करते हैं।

1990 के दशक के बाद से दृष्टिहीन लोग, जो नौकरी ढूंढने मुंबई आए थे, उन्होंने धीरे-धीरे वांगणी में रहना शुरु किया। वहां रहने के लिए कम पैसे में जगह मिल जाती थी। वर्ष 2008 में, एक स्थानीय राजनीतिज्ञ रवींद्र पाटिल ने उन्हें मुफ्त आवास प्रदान करने की एक योजना की घोषणा की और वांगाणी ने राज्य भर से अधिक नेत्रहीन लोगों को आकर्षित करना शुरू किया। वर्ष 2010 में पाटील की हत्या हो गई और इसका प्रभाव उस आवास योजना पर भी पड़ा।

भारत में विकलांग व्यक्तियों की स्थिति को जानने के लिए तीन आलेखों की श्रृंखला के इस तीसरे और आखिरी भाग के लिए हमने वांगणी का दौरा किया और रोजगार और आजीविका के मुद्दों को समझने के लिए और इस अनूठे समुदाय के बीच एक सर्वेक्षण किया। उनका अनुभव भारत में 50 लाख दृष्टिहीन लोगों के द्वारा रोज सामना करने वाली चुनौतियों की एक झलक दिखाता है।

भारत की 2.68 करोड़ विकलांग आबादी में से 18.6 फीसदी दृष्टिहीन हैं। इनमें से 1.57 करोड़ लोग काम करने की उम्र यानी 15 से 59 साल के बीच के हैं। फिर भी, भारत के 60.4 फीसदी विकलांग ( 94.9 लाख ) लोग या तो काम के बिना हैं या उनके पास मामूली रूप से काम है। वर्ष 2011 के जनगणना के आंकड़े तो यही बताते हैं।

वांगणी में...

कई कारण हैं जो वांगणी को नेत्रहीनों के लिए आदर्श जगह बनाते हैं। यह रहने के लिए एक सस्ती जगह है, और मुंबई की केंद्रीय उपनगरीय रेलवे नेटवर्क से इसकी कनेक्टिविटी है। काम करने के लिए यहां रहने वालों को मुम्बई या पुणे आने-जाने में आसानी है। यहां ज्यादातर नेत्रहीन लोग रेलवे स्टेशन से कम दूरी पर रहते हैं, जिससे वे पैदल ही स्टेशन तक आते-जाते हैं।

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मुंबई से 60 किमी पूर्व ठाणे जिले के वांगानी स्टेशन पर मुंजाबा शिंगारे (बाएं)। शिंगारे ने अपने बैचलर ऑफ आर्ट्स के पहले वर्ष में कॉलेज छोड़ दिया। लेकिन उन्होंने टाइपिंग में एक कोर्स पूरा करने के अलावा, संगीत में तीन परीक्षाएं पास की हैं। वे अब ट्रेनों में भजन-कीर्तन गा कर जीवन यापन करते हैं।

पुराने निवासी, आने वाले नए लोगों को फेरी लगाने और अपना काम शुरु करने और ट्रेन में रास्ता दिखाने में हाथ पकड़ कर मदद करते हैं।

वांगणी की सरपंच केतकी शेलर के पति किशोर शेलार ने इंडियास्पेंड से बात करते हुए बताया कि,“वांगानी के स्थानीय लोगों ने यहां रह रहे दृष्टिहीन लोगों की हमेशा मदद की है। ”

उन्होंने कहा कि शहर को हाल ही में एक ब्रेल लाइब्रेरी मिली है, जो ‘नेशनल एसोसिएशन फॉर ब्लाइंड’ से पुस्तक संग्रह करता है। उन्होंने कहा कि उनकी सरपंच पत्नी यह सुनिश्चित करती है कि विकलांगों के कल्याण के लिए बजट का सही उपयोग हो।

शिंगारे का सफर

शांत और दुबला-पतला दिखने वाले शिंगारे कहते हैं कि उन्होंने स्नातक के पहले वर्ष में कॉलेज छोड़ दिया लेकिन संगीत में तीन परीक्षाएं पास कर ली हैं। इसके साथ उन्होंने टाइपिंग में कोर्स भी पूरा किया है। अपने अकादमिक और व्यावसायिक प्रशिक्षण के आधार पर नौकरी पाने में नाकाम रहने पर, वे वांगाणी चले गए। वह कहते हैं, “मैं 12 वीं पूरा करने के बाद क्षेत्रीय परिवहन कार्यालय में नौकरी के लिए आवेदन करने के बाद निराश हूं। अधिकारी ने टिप्पणी की थी, 'अगर हम उन्हें (विकलांगों को) नौकरियां देते हैं तो इसका मतलब होगा कि हम लोग जैसे आदमियों के पास कम नौकरियां होंगी। ”

बिना किसी को बताए शिंगारे ने बीड जिले के केज तालुका के अपने घर को छोड़ दिया । 376 किमी दूर वांगणी आ गए। उन्होंने 47 किलोमीटर की दूरी पैदल तय की। बसों की सीटों के नीचे, छुप-छुप कर यात्रा की, क्योंकि उनके पास टिकट के लिए कोई पैसे नहीं थे। और वे मुंबई से 30 किलोमीटर दूर कल्याण पहुंच गए। कुछ महीने इधर-उधर भटकने के बाद वे 1999 में वांगणी पहुंचे और तब से यहीं रह रहे हैं।

उनकी शादी अब उषा नाम की एक लड़की से हो गई है। उषा भी दृष्टिहीन हैं । उनके दो बच्चे हैं। वे किराए के मकान में रहते हैं और महीने के 5,000 रुपए कमाते हैं। वह ‘टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज’ (टीआईएसएस) और अन्य ट्रस्ट के समर्थन से स्थापित वांगणी में एक मसाज सेंटर का प्रबंधन भी करते हैं। लेकिन इससे उन्हें आमदनी न के बराबर होती है। और हर महीने बदलती रहती है। फिर भी, वह सामुदायिक काम करने के लिए कुछ समय ही निकाल लेते हैं।

शिंगारे कहते हैं, “हालात आसान नहीं हैं, और जल्दबाजी में अपनी बेटी की शादी करने के लिए पछता रहे हैं।” उनकी बेटी ने दसवीं कक्षा में अच्छे नंबर पाए थे। लेकिन आगे पढ़ने के लिए डोनेशन देने में वे सक्षम नहीं थे।

एक तरह की जिंदगी!

इंडियास्पेंड ने वांगाणी की दृष्टिहीन समुदाय के 20 सदस्यों से मुलाकात की, जिसमें से 15 पुरुष और 5 महिलाएं थी। हमने उनसे सरकार की योजनाओं के बारे में, उनकी शिक्षा, आजीविका और जागरूकता के बारे में पूछा।

इनमें से कई लोगों की कहानी शिंगारे की तरह है। इनमें से 62 फीसदी ने दस साल की स्कूली शिक्षा पूरी की है। नियमित रूप से काम करने के लिए संघर्ष किया है।

28 वर्षीय आशीष हॉसी महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र के लातूर से शिक्षा में डिप्लोमा डिग्री ली है। चार साल तक केंद्र सरकार के सर्व शिक्षा अभियान में नौकरी पाने की कोशिश भी की है। अपने मूल मराठवाड़ा में निजी स्कूलों में उनसे 8 से 10 लाख रुपए की रिश्वत मांगी गई जिसके कारण उन्होंने वहां आगे कोशिश नहीं की।

सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक के साथ नौकरी पाने के लिए हॉसी के प्रयासों का कोई परिणाम नहीं निकल पाया है क्योंकि दूसरे शहरों में परीक्षा केंद्रों में परीक्षा में लिखने के लिए लोग नहीं मिल रहे थे। वर्तमान में वे एक ऑर्केस्ट्रा में काम कर रहे है। वे कहते हैं कि यह काम भी कुछ खास नहीं चल रहा है।

वांगणी के कई नेत्रहीनों ने भेदभाव का अनुभव किया है। 51 वर्षीय कृष्णा खोपडे को एम्प्लॉइमन्ट इक्स्चैन्ज के माध्यम से हिंदुस्तान पेट्रोलियम में नौकरी के लिए चुना गया था, लेकिन प्रस्ताव वापस ले लिया गया क्योंकि उनके भावी नियोक्ता ने कहा कि वे चाहते हैं हैं कि काम उसी को दिया जाए जो थोड़ा-बहुत देख सके। निराश होकर उन्होंने नियमित नौकरी की कोशिश बंद कर दी और अब फेरी वाले के रूप में काम करते है।

ज्यादातर दृष्टिहीन असंगठित क्षेत्र में रोजगार का सहारा लेते हैं और 20 में से 15 प्रति माह 5,000 रुपए से कम कमाते हैं। अधिकांश लोगों की कमाई 2000 से 3,000 रुपए के बीच है। यह चार सदस्यों वाले परिवार में प्रति व्यक्ति प्रति दिन 30 रुपए से कम है, जिसे गरीबी रेखा के नीचे माना जाता है। हम बता दें कि इंडियास्पेंड के सर्वेक्षण में 20 लोगों को शामिल किया गया, जिसमें से 15 लोगों ने कहा कि वे माल-फेरी बेच कर जीवन यापन करते हैं। ज्यादतर लोगों का जीवन संघर्ष से भरा है।

सर्वेक्षण में शामिल किए गए लोगों में से 16 ने कहा कि परिवार में एक से अधिक सदस्य ( आमतौर पर पति-पत्नि दोनों ) अक्षम हैं। कई विकलांग लोगों का परिवार आमतौर पर पड़ोसियों और समुदाय के सदस्यों की उदारता पर निर्भर रहता है।

40 वर्षीय आशा और 60 वर्ष के उनके पति मनोहर वाघमारे का परिवार कुछ ऐसा ही है। मनोहर को दो साल की उम्र में लकवा मार गया था। वह और आशा दोनों दृष्टिहीन हैं। आशा ने मुंबई के अंधेरी में एक ऊन के कारखाने में काम किया था, लेकिन 20 साल पहले मनोहर से शादी करने के बाद वांगणी आ गई। इसके बाद से उसके पास कोई नौकरी नहीं है । इस जोड़े को अब तक आय का कोई जरिया नहीं मिला। शिंगारे और पड़ोसी ही उनकी देखभाल करते हैं।

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40 वर्ष की आशा और 60 वर्ष की उनके पति मनोहर वाघमारे वांगणी के रहने वाले हैं। दो साल की उम्र में मनोहर को लकवा मार गया था। वह और आशा दोनों ही नहीं देख सकते हैं। इनके पास आय का कोई स्रोत नहीं हैं और उनके पड़ोसी ही उनकी देखभाल करते हैं।

जिंदगी एक पहेली

वर्ष 2016 तक अधिकांश वांगानी निवासियों ने स्थानीय रेलवे पटरियों को पैदल चल कर पार किया, क्योंकि वहां ओवरब्रिज नहीं था। नेत्रहीनों के लिए रास्ता पार करने का यह सबसे खतरनाक जगह थी। कई लोगों को रास्ता पार करने में चोटें भी आईं और घायल भी हुए।

वांगानी के 270 नेत्रहीन लोगों के सर्वेक्षण के आधार पर ‘डिसबिलिटी , सीबीआर (कम्यूनिटी वेस्ड रीहबिलटैशन ) एंड इन्क्लूसिव डेवलपमेंट (डीसीआईडी) जर्नल’ में 2016 के इस पेपर के अनुसार, 64.7 फीसदी ने अपनी सबसे बड़ी चिंता के रूप में जीवन और सुरक्षा के लिए डर का जिक्र किया है।

वर्ष 2012 में, टीआईएसएस के छात्र अतुल जैसवाल ने मीडिया समर्थक प्रयासों से रेलवे के अधिकारियों का ध्यान आकर्षित किया और रेलवे स्टेशन के पश्चिमी किनारे तक एक पुल बनाने के लिए 1.5 करोड़ रुपए मंजूर किए गए।

इस पुल का उद्घाटन दिसंबर 2016 में हुआ था, लेकिन वांगानी के अधिकांश नेत्रहीन लोग पुल जोड़ने वाले क्षेत्र से दूर रहते हैं और पुल तक जाने के लिए भीड़ भरे बाजार के एक सड़क से गुजरना होता है इसलिए नेत्रहीण लोग अभी भी रेलवे पटरियों को पार करना पसंद करते हैं।

कई योजनाएं लेकिन वास्तविक धरातल पर नहीं

राष्ट्रीय कौशल विकास निगम द्वारा प्रशिक्षण और औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों के तकनीकी और व्यावसायिक पाठ्यक्रमों सहित, राष्ट्रीय कार्य योजना के अंतर्गत विकलांगों के लिए कई योजनाएं हैं।

अन्य कई योजनाएं वित्त प्रदान करती हैं, जैसे कि राष्ट्रीय विकलांग वित्त और विकास निगम की छोटे स्तर की वित्त योजना जो 18 वर्ष की आयु से ऊपर और 40 फीसदी से अधिक विकलांगता के साथ वाले लोगों को 50,000 रुपए तक के ऋण प्रदान करती है।

जैसवाल ने दो साल तक वांगानी समुदाय के साथ काम किया है। वे कहते हैं कि टीआईएसएस ने कई वांगानी निवासियों को सूक्ष्म वित्त योजना के लिए आवेदन करने में मदद की है। रुपया प्राप्त करने में बहुत कम सफलता मिली और रुपया मिलने में एक से तीन साल का वक्त लगा है।

इंडियास्पेंड के सर्वेक्षण में शामिल सभी लोगों के पास विकलांगता कार्ड थे, लेकिन उनमें से ज्यादातर को योजना के बारे जानकारी नहीं थी या फिर केवल ‘संजय गांधी निराधार योजना’ के संबंध में जानकारी थी। इस योजना के तहत लाभार्थियों को 600 रुपए प्रति माह या एक परिवार के भीतर दो योग्य सदस्यों को 900 रुपए प्रति माह प्रदान किया जाता है।

सर्वेक्षण में शामिल 20 में से केवल दो ने वास्तव में राशि प्राप्त की थी। इस योजना के तहत लाभ हासिल करना आसान नहीं है। शिंगारे कहते हैं, “इसे हासिल करने के लिए आय प्रमाण पत्र, एक अधिवास प्रमाण पत्र और कई अन्य दस्तावेजों की आवश्यकता होती है, और आवेदन की प्रक्रिया पूरी करने में साल में छह महीने लगते हैं।”

वांगाणी में दृष्टिहीन लोगों पर किया गया सर्वेक्षण

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Source: IndiaSpend interviews

पहल और विफलता

वर्ष 2013 में जैसवाल और टीआईएसएस के अन्य छात्रों ने वांगणी समुदाय के 15-20 महिलाओं के साथ मिलकर ‘स्वयं सहायता समूह’ का गठन किया और उनके लिए आजीविका के विकल्प ढूंढने की कोशिश की। उन्होंने शिल्प वस्तुओं का निर्माण करने का निर्णय लिया और अंत में पेपर बैग बनाना चुना। उन्हें उत्पाद का निर्माण करने के लिए एक सामुदायिक हॉल मिला और निजी कंपनियों के परिसर में स्टालों की स्थापना की गई। लेकिन जब बिक्री और लाभ बढ़ाने में विफल रहे तो उनका उत्साह ठंडा पड़ गया। एक साल बाद यह परियोजना बंद हो गई।

सरपंच के पति किशोर शेलार ने इंडियास्पेंड को बताया कि चाक और लिफाफे बनाने के लिए एक और पहल इसलिए बंद हो गया, क्योंकि फिनिशिंग बाजार मानकों के अनुसार नहीं था।

फिर भी, समुदाय नई परियोजनाओं की कोशिश कर रहा है। कुछ ने मिलकर एक दिव्यांग सामाजिक संगठन (दिव्यांग सामाजिक कल्याण संगठन) नामक एक समूह का गठन किया है । एक कपास की बाती बनाने वाली मशीन खरीदने के लिए धन जुटाया गया है।

दृढ़ निश्चय के कारण ही यह समुदाय जीवित है। इंडियास्पेंड से शिंगारे की मुलकात के कुछ दिनों बाद उन्होंने हमें फोन कर यह जानने की कोशिश की कि क्या हम उनके नए परियोजना के तहत बनने वाले लिफाफे को बाजार तक पहुंचाने में मदद कर सकते हैं?

जैसवाल कहते हैं, “ऐसा नहीं है कि दृष्टिहीन लोग समाज में काम करने के योग्य नहीं हैं; यह समाज है जो अभी तक उनके साथ काम करने के लिए योग्य नहीं हुआ है। "

कई सरकारी कार्यक्रमों ने विकलांगों को सरकारी नौकरियों में मुफ्त परिवहन से लेकर आरक्षण तक के लाभों के साथ प्रदान करने का आशय दिया है। हालांकि, विकलांगों में से 51 फीसदी के पास आईडी कार्ड नहीं हैं, जो इन लाभों तक पहुंचने के लिए आवश्यक है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने तीन आलेखों की श्रृंखला के पहले लेख में बताया था।

पूर्वाग्रहों के कारण अक्सर उन तक शिक्षा की पहुंच मुश्किल होती है, जो कि रोजगार और आत्मनिर्भरता के लिए सबसे विश्वसनीय मार्ग है, जैसा कि लेख के दूसरे भाग में हमने बताया है। वांगाणी के सामुदायिक अनुभव से पता चलता है कि विकलांगता में शिक्षा से भी रोजगार की गारंटी नहीं है । यही वजह है कि कई अक्षम लोग जोखिम भरा और कम वेतन में काम करते हैं।

भारत में विकलांग व्यक्तियों की स्थिति पर तीन आलेखों की श्रृंखला का यह तीसरा और अंतिम लेख है।

(सालवे विश्लेषक हैं और यदवार प्रमुख संवाददाता हैं। दोनों इंडियास्पेंड के साथ जुड़ी हैं। )

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 07 अप्रैल 2017 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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