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पूर्वी उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले के फत्तेपुर गांव में स्कूल जाती आठ साल सयदन अहमद (बांये)। सयदन कहती है कि वह ठीक से पढ़ नहीं सकती है। राज्य के सरकारी स्कूलों में शिक्षा की बुरी गुणवत्ता और उच्च अनुपस्थिति संकट का मुख्य कारण है।

बहराइच और मिर्जापुर जिला (उत्तर प्रदेश): आठ वर्ष की सयदन अहमद बीसवीं सदी के कवि द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी की एक कविता बड़ी तेजी से सुनाती है। कविता के बोल हैं, “पथ मेरा आलोकित कर दो, नवल प्रात: की नवल रेश्मियों से, मेरे उर का तम हर दो।” लेकिन जब हमने सरकारी स्कूल के चौथी कक्षा में पढ़ने वाली सयदन से दूसरे पन्ने पर लिखे वाक्यों को पढ़ कर सुनाने कहा तब उसने बताया कि उसने कविता तो याद कर ली है दूसरे पन्ने पर लिखे वाक्यों को वह ठीक से पढ़ नहीं सकती है।

सयदन अहमद के पिता इकलाख अहमद पेशे से ड्राइवर है। 37 वर्षीय इकलाख अहमद कहते हैं, “सरकारी स्कूल में बच्चे ठीक से सीख नहीं पाते हैं। अगले साल मैं बेटी का दाखिला निजी स्कूल में कराउंगा। ” सायदन का परिवार पूर्वी उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले के फत्तेपुर गांव में रहता है।

उत्तर प्रदेश में प्राथमिक स्कूल जाने की उम्र के सभी बच्चों में आधे से ज्यादा (50.4 फीसदी) की तरह, सयदन सरकारी प्राथमिक स्कूल में पढ़ने जाती है और और राज्य में कई बच्चों की तरह, वह कक्षा के स्तर पर नहीं पढ़ सकती है। हम बता दें कि राज्य में 6 से 14 वर्ष के बीच के बच्चों को नि: शुल्क शिक्षा प्रदान की जाती है।

हालांकि उत्तर प्रदेश के दो जिलों में लोगों ने माना कि शिक्षा उनके बच्चों के भविष्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन फोर्थलायन और इंडियास्पेंड के एक सर्वेक्षण में शामिल केवल 2 फीसदी मतदाताओं ने राज्य विधानसभा चुनावों के दौरान शिक्षा को सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे के रूप में माना है।

दो जिलों में बातचीत के दौरान, कुछ ग्रामीण शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार करने के लिए राज्य के सरकारी तंत्र के साथ जुड़ने लिए तैयार थे। यह एक ऐसे राज्य की कहानी है, जो 6 से 15 वर्ष के बीच बाल आबादी में 5.2 करोड़ या 21 फीसदी का योगदान करते हैं।

राज्य में शिक्षा की कम गुणवत्ता ( और नौकरियों की कमी ) भारत के भविष्य के कार्यबल को जोखिम में डालता है और उत्तर प्रदेश में उच्च बेरोजगारी की झलक दिखाई देती है।

वर्ष 2015-16 में, उत्तर प्रदेश में, प्रति 1,000 में 58 बेरोजगार थे, जबकि इसी संबंध में राष्ट्रीय औसत 37 था। उत्तर प्रदेश में, 18 से 29 आयु वर्ष के बीच प्रति 1,000 लोगों पर 148 के आंकड़ों के साथ युवा बेरोजगारी दर उच्च था, जबकि राष्ट्रीय औसत 102 का था, जैसा कि 2015-16 श्रम मंत्रालय के आंकड़ों में बताया गया है।

फोर्थलायन और इंडियास्पेंड के सर्वेक्षण के अनुसार, सर्वेक्षण में शामिल किए गए कम से कम 20 फीसदी मतदाताओं ने कहा कि नौकरियां चुनाव में मुख्य मुद्दा है। वर्ष 2001 से 2011 के बीच 20 से 29 आयु वर्ग के 58 लाख लोगों ने नौकरी की तलाश में उत्तर प्रदेश से पलायन किया है लेकिन, इनमें से कम शिक्षा प्राप्ति के कारण इन्हें अनौपचारिक क्षेत्र में कम वेतन वाली नौकरियां मिल पाई हैं।

उत्तर प्रदेश में क्या है दांव पर ?

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Source: Ministry of Human Resource Development, District Information System for Education, 2015-16, Economic & Political Weekly, National Sample Survey, June 2015

माता-पिता और बच्चों को नहीं लगता है कि वे शिक्षा व्यवस्था को बदल सकते हैं।

हालांकि उत्तर प्रदेश में प्राथमिक विद्यालयों में लगभग सार्वभौमिक नामांकन है, लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता और उच्च अनुपस्थिति, शिक्षा के लिए बड़ी चुनौती है।

वर्ष 2016 में उत्तर प्रदेश में घरों में किए गए सर्वेक्षण में शामिल कक्षा 1 में पढ़ने वाले आधे छात्र ( 49.7 फीसदी ) अक्षर पढ़ने में सक्षम नहीं थे, जबकि 44.3 फीसदी नौ तक संख्या पहचान करने में सक्षम नहीं थे, जैसा कि‘एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशनल रिपोर्ट’ में बताया गया है। यह रिपोर्ट नागरिकों के द्वारा ग्रामीण भारत में सीखने की स्थिति का मूल्यांकन है।स्थिति पर में बताया गया है।

दो जिलों के छह स्कूलों में जब इंडियस्पेंड ने दौरा किया तब औसतन आधे छात्र उपस्थित थे।

मिर्जापुर जिले में माता-पिता ने कहा कि उन्हें पता है कि उनके बच्चे स्कूल में ज्यादा सीख नहीं रहे हैं, लेकिन उन्होंने कभी सोचा नहीं था कि वे या तो चुनाव के माध्यम से या स्थानीय शिक्षकों और अधिकारियों के साथ बैठक कर मौजूदा प्रणाली को बदल सकते हैं।

फत्तेपुर के 38 वर्षीय श्यामानाराण विश्वकर्मा के तीन बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं। वह कहते हैं, “उन्हें 1 से 100 तक गिनती नहीं आती है, उन्हें 20 का पहाड़ा भी नहीं पता है।”

सयदन के पिता, अहमद कहते हैं कि उन्होंने दो बार स्कूल का दौरा किया है और शिक्षकों से कहा है कि उनके बच्चे ठीक से नहीं सीख रहे हैं। लेकिन शिक्षकों ने बताया कि वे अपने काम कर रहे हैं और बच्चों को पढ़ा रहे हैं और अभिभावक होने के नाते उन्हें भी इसमें मदद करनी चाहिए।

अहमद कहते हैं, “हम गरीब परिवार से हैं। मैंने भी स्कूल में दाखिला लिया था, लेकिन ज्यादा ध्यान नहीं दे पाया। हमें और भी काम करने पड़ते हैं। ”

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इकलाख अहमद, दाएं से दूसरे, कहते हैं, वे अपनी बच्चियों को सरकारी स्कूल से निकाल कर निजी स्कूल में डाल देंगे। उनका मानना है कि सरकारी स्कूल में बच्चे ज्यादा सीख नहीं पाते हैं।

शिक्षकों ने इंडियास्पेंड से बात करते हुए बताया कि सीखने के निम्न परिणाम का मुख्य कारण स्कूल में छात्रों की कम उपस्थिति है। साथ ही अभिभावकों की घर में बच्चों की मदद करने में कम रुचि से भी यह संकट बढ़ रहा है।

सयदन के पिता इकलाख अहमद पूछते हैं, “हमें शिक्षा अधिकारियों या उम्मीदवारों को क्या कहना चाहिए? इस संबंध में न किसी को कोई परवाह है और न ही कोई बात करता है। जब भी वे यहां आते हैं तो वोट मांगते हैं और चले जाते हैं। ”

साक्ष्य के आधार पर नीति के माध्यम से गरीबी कम करने की कोशिश में 146 प्रोफेसरों के एक नेटवर्क ‘अब्दुल जमील पोवर्टी एक्शन लैब ( जे-पाल ) के शोधकर्ता और गैर सरकारी संगठन ‘प्रथम’ द्वारा आयोजित अध्ययन, ‘2010 रैंडमाइजड एवेल्यूशन ऑफ इंटरवेंशनस टू इंगेज क्मयूनिटीज इन एजुकेशन’ में पाया गया है कि “सार्वजनिक सेवाओं को प्रभावित करने में नागरिकों को बाधाओं का सामना करना पड़ता है। ”

अध्ययन में आगे बताया गया है कि, सार्वजनिक सेवाओं में सुधार के लिए हस्तक्षेप के परिणाम मिश्रित हैं।

जे-पाल के अध्ययन में तीन तरह के हस्तक्षेप को रेखांकित किया गया था। पहली ग्रामीणों, शिक्षकों, और प्रशासकों की बैठक करना और ग्राम शिक्षा समितियों की भूमिका पर जानकारी प्रचारित करना। दूसरा बच्चों के बीच साक्षरता परीक्षण के लिए स्वयंसेवकों को प्रशिक्षित करना और रिपोर्ट तैयार करना, और तीसरा बच्चों को स्कूल कक्षाएं प्रदान करने के लिए स्वयंसेवक प्रशिक्षित करना।

पाया गया कि कई अभिभावकों ने बैठकों में हिस्सा लिया और वे शिक्षा के स्तर में सुधार करना चाहते थे। लेकिन ये तीन हस्तक्षेप स्कूल में ग्राम शिक्षा समिति या माता-पिता की भागीदारी बढ़ाने या स्कूल के प्रदर्शन में सुधार करने में सफल नहीं रहे हैं। बच्चे जो कक्षाओं में थे, उनका प्रदर्शन बेहतर जरूर था।

अध्ययन में कहा गया है कि, “अभिभावक शायद सक्रिय भूमिका में होने के बाद भी प्रणाली को प्रभावित करने की क्षमता के संबंध निराशावादी थे या प्रणाली को प्रभावित करने के लिए पर्याप्त दबाव करने में आभिभावकों की आपस में साझेदारी नहीं थी। ”

यूपी के बहराइच के पास गिरजापुर के स्कूल तक पहुंचने में 11वीं में पढ़ने वाली विनिता को सायकल से 7 किमी की यात्रा करनी पड़ती है। विनिता पूछती हैं, “अगर हम कहें तो भी क्या बदल जाएगा। मैं नियिमित रुप से स्कूल नहीं जा सकती, क्योंकि घर में भी काफी काम रहता है और कभी-कभी इतनी दूर तक जाने के लिए हमारे पास कोई साथ भी नहीं होता है। ”

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यूपी के बहराइच के पास गिरजापुर के अपने स्कूल तक आने में 11वीं में पढ़ने वाली विनिता को साईकल से 7 किमी की यात्रा करनी पड़ती है। विनिता कहती है, अगर स्कूल पास हो तो ज्यादा लाभ मिलेगा।

इसके अलावा, कई अभिभावक साक्षर नहीं हैं और वे कहते हैं कि उन्हें नहीं पता स्कूल में सुधार किस प्रकार लाया जा सकता है। हम बताते चलें कि उत्तर प्रदेश की साक्षरता दर या, पढ़ने और अपना नाम लिख पाने की क्षमता का प्रतिशत 70 है।

बहराइच जिले में बिसुनापुर प्राथमिक विद्यालय के पास रहने वाली तुकिया देवी कहती हैं, “मैंने कभी सोचा ही नहीं कि स्कूल में किस प्रकार सुधार लाया जा सकता है। मैं पढ़ी-लिखी नहीं हूं और मुझे पता भी नहीं कि हमें क्या करना चाहिए। ”

सरकारी तंत्र के बाहर शिक्षा के अवसरों में सुधार करना आसान

‘जे –पाल’ अध्ययन सुझाव देते हैं कि, स्थिति में सुधार के लिए एक व्यक्ति दूसरे की मदद करे लेकिन इसके लिए एक किस्म का जुनून चाहिए। सामूहिक कार्रवाई के जरिये संस्थानों और प्रणाली में सुधार करने की कोशिश से बेहतर है कि लेग एक दूसरे की मदद करें।

निजी स्कूल में पढ़ाने वाले बिसुनपुर गांव प्रधान के पति 32 साल के भोंदू प्रसाद कहते हैं कि वह गांव के बच्चों के लिए कुछ करना चाहते हैं-“ बच्चों के स्कूल के बाद ट्यूशन के माध्यम से या छोटे बच्चों की मदद के लिए बड़े बच्चों को प्रशिक्षत करने से काफी मदद मिल सकती है।”

जनवरी 2017 में, डेटा का उपयोग कर शिक्षा के परिणामों में सुधार के लिए समुदाय के हस्तक्षेप पर ब्रूकिंग्स संस्थान द्वारा जारी पेपर में लिंडसे रीड और तामार मनुएल्यान एटिंक लिखते हैं, “ निजी स्कूलों में दाखिला लेने और सरकारी स्कूलों में सीखने के परिणाम पर अभिभावकों की अलग-अलग प्रतिक्रिया हो सकती है। सरकारी स्कूलों में सीखने के परिणाम निम्न देखे गए हैं। ”

सयदन के पिता अहमद कहते हैं कि अप्रैल में नए शैक्षणिक वर्ष की शुरुआत के साथ वह अपनी बच्ची का दाखिला निजी स्कूल में कराएंगे। निजी स्कूल में हर महीने उन्हें 400 रुपए की लागत आएगी। अहमत गाड़ी के ड्राइवर हैं और उनकी महीने की तनख्वाह 4,000 रुपए से 10,000 रुपए के बीच की है।

मिर्जापुर जिले में नियमतापुर कलां गांव के 32 वर्षीय नवनीत कहते हैं, “हर कोई अपने बच्चों के लिए बढ़-चढ़ कर करना चाहता है। वे उन्हें सरकारी स्कूल क्यों भेजेंगे ? ”

मिर्जापुर जिले में नियमतापुर कलां गांव के प्रमुख श्यामलाल कौशल कहते हैं, “जिनके पास पैसे नहीं हैं, केवल वे ही अपने बच्चों को सरकारी स्कूल भेजते हैं। यहां तक कि सरकारी स्कूल के शिक्षक भी अपने बच्चों का दाखिला निजी स्कूल में कराते हैं। ”

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मिर्जापुर जिले का नियमतापुर कलां गांव। गांव के प्रमुख कहते हैं, जिनके पास पैसे नहीं हैं, केवल वे ही अपने बच्चों को सरकारी स्कूल भेजते हैं।

उत्तर प्रदेश में कुल बच्चों में से आधे ( 46.5 फीसदी ) निजी प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ते हैं। शिक्षा के लिए जिला सूचना प्रणाली के अनुसार ये आंकड़े वर्ष 2007 के आंकड़ों की तुलना में 80.6 फीसदी ज्यादा हैं।

8 वर्षों में निजी प्राथमिक स्कूल नामांकन में 80 फीसदी वृद्धि

Source: District Information System for Education, 2015-16; Figures for grades I to V

जिनके पास स्कूलों का विकल्प ही नहीं, वे क्या करें ?

निजी स्कूलों की ओर झुकाव से सरकारी स्कूलों को ज्यादा मदद नहीं मिलती है, जो अक्सर गरीब तबकों के लिए एकमात्र विकल्प होता है। जैसे कि मिर्जापुर के बरहत्ता गांव में सीबी देवी के लिए है। देवी ईंट भट्टी में काम करती हैं और पांच बच्चों की मां हैं।

देवी कहती हैं, “उतना ही करेंगे जितनी हैसियत है। ” देवी के चार बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं। देवी की 15 वर्ष की सबसे बड़ी बेटी ने कक्षा 8 तक सरकारी स्कूल में पढ़ाई की है, क्योंकि पढ़ाई मुफ्त थी। अब वह भी ईंट की भट्टी में काम करती है।

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मिर्जापुर जिले के बरहत्ता गांव में कक्षा 1 से 8 तक पढ़ने वाले बच्चे। उत्तर प्रदेश में अभिभावकों का मानना है कि सरकारी स्कूल के शिक्षक अच्छी तरह से पढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध नहीं हैं। जबकि शिक्षकों का कहना है कि छात्र नियमित रूप से स्कूल नहीं आते हैं।

कई दूरदराज क्षेत्रों में, जैसे कि नेपाल सीमा पर बहराइच जिले में कटारनियाघाट अभयारण्य, जहां ज्यादातर गरीब थारू आदिवासियों का निवास है, वहां ज्यादा निजी स्कूल नहीं हैं। इसलिए लोगों के पास सरकारी स्कूल के अलावा कोई विकल्प नहीं है।

जिले भर में निजी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के अनुपात में व्यापक भिन्नता है। वर्ष 2016 एएसईआर की रिपोर्ट के अनुसार, श्रावस्ती में निजी स्कूलों 22.9 फीसदी बच्चे पढ़ते है, जबकि गौतम बुद्ध नगर के लिए ये आंकड़े 74.1 फीसदी हैं।

वर्ष 2014 के अध्ययन में पाया गया कि सार्वजनिक और निजी स्कूलों के बीच की खाई कम हो सकती है यदि उम्र, लिंग, भाई-बहन की संख्या, माता-पिता की शिक्षा का स्तर और धन जैसे कारकों पर विचार किया जाए। अध्ययन में सुझाव दिया गया है कि निजी स्कूलों में पढने वाले बच्चों के माता-पिता संभवत: अधिक साक्षर हैं, कम भाई बहन हैं और माता-पिता का अधिक ध्यान प्राप्त करते हैं । सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की तुलना में इनका आर्थिक स्तर ऊंचा होता है।

उत्तर प्रदेश में बच्चों के ग्रेड स्तर पर नहीं सीखते है, 2016

Source: Annual Status of Education Report, 2016

पार्टी घोषणापत्र में शिक्षा से जुड़ी असफलताओं पर बात नहीं

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और समाजवादी पार्टी (सपा) दोनों के घोषणापत्र में शिक्षा की गुणवत्ता उल्लेख किया है। स्कूल के स्तर पर असफलताओं को ठीक करने के लिए उन्होंने कुछ ठोस कदम उठाने की बात कही है। (उत्तर प्रदेश के चुनावों में तीसरी बड़ी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी ने प्रकाशन के समय तक चुनावी घोषणा पत्र जारी नहीं किया था। )

हालांकि न तो भाजपा और न ही सपा के घोषणा पत्र में छात्र उपस्थिति में सुधार करने के लिए समाधान का सुझाव दिया गया है, जो शिक्षकों के अनुसार एक निम्न परिणाम का प्रमुख कारण है। और न ही शिक्षा को अधिक प्रभावी शिक्षण बनाने या शिक्षकों को प्रेरित करने की बात कही गई है जो अभिभावकों के लिए मुख्य मुद्दा है।

उदाहरण के लिए, भाजपा के घोषणा पत्र में मुख्य फोकस "शिक्षा के क्षेत्र की गुणवत्ता में सुधार" है लेकिन यह निवेश पर केंद्रित है - मुफ्त शिक्षा, किताबें, वर्दी, शिक्षक-छात्र और कक्षा-छात्र अनुपात।

सपा के घोषणा पत्र में एक प्रस्ताव है, जिसमें शिक्षकों का प्रशिक्षण शामिल है ( लेकिन व्याख्या के बिना यह मौजूदा स्थिति से अगल कैसे होगा )। इसके अलावा और शिक्षक मूल्यांकन, प्रौद्योगिकी के माध्यम से शिक्षा के प्रावधान, और मॉडल स्कूल भी शामिल हैं। सपा ने अपने घोषणापत्र में सरकारी स्कूल का एक विकल्प दिया है - निजी स्कूलों में गरीब परिवारों के बच्चों का प्रवेश।

हालांकि यहां भ्रम की स्थिति बनी हुई है। क्योंकि भारत के शिक्षा अधिकार अधिनियम में निजी प्राथमिक स्कूलों में कम से कम 25 फीसदी सीट पड़ोस में आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों के बच्चों के लिए सुरक्षित रखने की बात है।

इसके अलावा, माता-पिता के लिए सरकारी स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार करना एक बड़ी चुनौती है। उदाहरण के लिए, एक छात्र ने इंडियास्पेंड से बात करते हुए बताया कि, बिसुनपुरा गांव में सरकारी प्राइमरी स्कूल में बच्चों को वर्ष 2017 में, 2016-17 शैक्षणिक वर्ष के लिए तीन किताबें मिली है, यानी साल समाप्त होने से तीन महीने पहले किताबें दी गई है।

किताबें देने में देरी होने के कारण पर जब पूछा गया तो बहराइच जिले के बेसिक शिक्षा अधिकारी 20 मिनट तक नौकरशाही विधि और प्रत्येक स्कूल और छात्र तक किताबें वितरण करने की प्रक्रिया के संबंध में बताते रहे। जिसमें सभी स्तरों पर कई अलग-अलग अधिकारियों की भागेदारी होती है।

उन्होंने कहा कि वह देरी के बारे में कुछ नहीं कर सकते है, क्योंकि पुस्तकें लखनऊ में राज्य शिक्षा विभाग द्वारा ऑडर की गई थी, जिसके निविदा के लिए कानूनी मुद्दों के कारण इस शैक्षणिक वर्ष देरी हो गई थी।

यहां तक ​​कि जब अधिकारी भी मानते हैं कि प्रमुख मुद्दा सीखने का स्तर है। फिर भी हालत में सुधार के लिए कदम पर्याप्त नहीं है।

अधिकारियों का कहना है कि इसके लिए अधिकरियों को आकस्मिक मूल्यांकन का संचालन करना होगा और जिले द्वारा पूर्व निर्धारित लक्ष्य की तुलना में छात्रों के स्तर की जांच करनी होगी। शिक्षकों का प्रशिक्षण भी जरूरी हैं। लेकिन ये सब सिर्फ किताबीं बातें हैं। हकीकत में ऐसा होगा, लगता नहीं है।

(शाह लेखक / संपादक हैं और इंडियास्पेंड के साथ जुड़ी हैं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 25 फरवरी 2017 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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