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चंडीगढ़: प्रचण्ड सर्दी के महीनों के लिए जलावन इकट्ठा करना और उसका भंडारण करना हिमालय क्षेत्र में साल भर तक चलने वाला काम है, जहां घरों में परंपरागत रुप से खाना पकाने और खुद को गर्म रखने के लिए पुराने पद्धति के स्टोव और चूल्हे का इस्तेमाल किया जाता है।

अब, चंडीगढ़ स्थित एक ऑस्ट्रेलियाई उद्यमी ने बुखरी ( लकड़ी जला कर बनने वाला हीटर ) स्टोव तकनीक में कुछ बदलाव कर उसे मौजूदा हिमालयी परिस्थितियों के अनुकूल बनाया है। जल्द ही इसे हिमाचल प्रदेश और लद्दाख के कुछ हिस्सों में व्यावसायिक रूप उतारा जाएगा।

आसानी से जलने वाले इस 'रॉकेट स्टोव' में लकड़ियों के इस्तेमाल में कम से कम 50 फीसदी कटौती और गर्म रखने की दक्षता में 70 फीसदी इजाफा देखा गया है। हालांकि, हिमालय के संदर्भ में किसी भी सार्थक तरीके से तापक इकाई के रूप में प्रौद्योगिकी पहले से लागू नहीं हुई है, जैसा कि हिमालयन रॉकेट स्टोव के आविष्कारक रसेल कोलिन्स ने इंडियास्पेंड को बताया है।

सबसे महत्वपूर्ण रूप से, यह स्वच्छ प्रौद्योगिकी काले कार्बन का उत्सर्जन 80 से 90 फीसदी कम कर देता है। हम बता दें कि काला कार्बन कालिख का एक हिस्सा और कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन के बाद वर्तमान ग्लोबल वार्मिंग के लिए दूसरा सबसे खतरनाक कारक है।

काले कार्बन से बड़ी तेजी से ग्लेशियर पिघलते हैं और यह बारिश के पैटर्न को बदल डालता है, जो दक्षिण एशिया के जल और खाद्य सुरक्षा को जोखिम में डालता है।

कैसे काम करता है यह नया स्टोव

दहन से उत्सर्जन को कम करने के लिए, हिमालयी रॉकेट स्टोव दो-बॉक्स और डबल-बर्नर सिस्टम का उपयोग करता है। पहला ईंधन बॉक्स एक परंपरागत लकड़ी जलने वाला कक्ष है, जो गर्मी का उत्पादन करता है और धुएं को जारी करता है। धुआं एक चिमनी में जाता है फिर चक्रीय और शेष ज्वलनशील पदार्थों को लेते हुए और ऑक्सीजन के संपर्क में आकर इसे पूरी तरह से जलाता है। इस तरह, यह न केवल ईंधन की प्रति यूनिट स्टोव अधिक ऊर्जा का उत्पादन करता है, बल्कि यह धुएं की नगण्य मात्रा का उत्सर्जन करता है। पारंपरिक बुखरी में केवल एक बॉक्स है।

कोलिन्स का कहना है कि इस हीटर की लागत लगभग 15,000 रुपए होगी। इसके विपरीत, आमतौर पर इस्तेमाल किए जाने वाले शीट-धातु बुखारी में 2,000 रुपए का खर्च आता है, लेकिन यह केवल एक मौसम तक ही चलता है।

स्थान पर निर्भर करते हुए, जलावन की लागत 5000 से 40,000 रुपए तक होती है जो जो रॉकेट स्टोव इस्तेमाल करने के करीब आधा हो जाता है, हालांकि अधिकांश लोग जो जलावन का प्रयोग करते हैं, वे इसे जंगल से लाते हैं।

कोलिन्स को वर्ष 2017-18 में 2,000 से अधिक इकाइयां बेच पाने की उम्मीद है। कई लोगों ने एडवांस बुकिंग करा रखी है। उच्च अग्रिम लागत को कम करने के लिए कोलिन्स हिमाचल प्रदेश सरकार के साथ सब्सिडी के लिए प्रारंभिक स्तर पर बातचीत कर चुके हैं।

लेह के निवासी शोजैंग नमगिएल ने वर्ष 2016 की सर्दियों में हिमालयी रॉकेट स्टोव का परीक्षण किया है। वह कहते हैं, “रॉकेट स्टोव धुएं का कम उत्सर्जन करता है, जबकि अधिक गर्मी प्रदान करता है।” फोन के माध्यम इंडियास्पेंड को दिए एक साक्षात्कार में नमगिएल ने बताया, “"केवल शुरुआत में लकड़ी में आग लगाते समय ही थोड़ा धुआं होता है। पहले दो-तीन मिनट के बाद यह साफ हो जाता है और काला या भूरे रंग का धुआं नहीं दिखता है। ”

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, दुनिया भर में घरेलू धुएं और कालिख के कारण 40 लाख लोगों की मौत समय से पहले होती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन यह भी कहता है कि “पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों में निमोनिया से होने वाली मौत में से 50 फीसदी घरेलू वायु प्रदूषण के कारण होती है। और इस प्रदूषण के लिए कालिख युक्त धुआं सबसे बड़ा कारण है। ”

पारंपरिक बुखारियों से अलग हिमालयी रॉकेट स्टोव एक बड़ी समस्या का समाधान करेगा और वह है लकड़ी की कमी। लकड़ियों की कमी से जलावन एकत्रित करने में अधिक समय जाता है जो प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से महिलाओं और बच्चों को प्रभावित करता है और शिक्षा प्राप्त करने के लिए उनके अवसरों को सीमित करता है।

ठंड में भारत के उत्तरी राज्यों में ईंधन के लिए लकड़ी का उपयोग पैटर्न- 2011

Source: NITI Aayog

हिमालयी राज्यों में घरेलू ताप की निरंतर जरूरत के कारण सक्षम बर्नर बहुत महत्वपूर्ण हैं। इस क्षेत्र में जम्मू और कश्मीर से हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, नेपाल, सिक्किम, भूटान और पश्चिम बंगाल के कुछ हिस्सों, असम और अरुणाचल प्रदेश तक शामिल हैं, जो 308 लाख लोगों का घर है।

हिमालयी क्षेत्र के लिए रॉकेट स्टोव प्रौद्योगिकी लाने वाले कोलिन्स कहते हैं, “ इन ठंडे क्षेत्रों में आग के लिए इस समय बायोमास के अलावा कोई व्यवहार्य विकल्प नहीं है, जिसमें सूखा गोबर, छर्रों, लकड़ी शामिल हैं। ”

कई तत्काल-आवश्यक समाधानों में स्वच्छ स्टोव भी शामिल

वर्ष1996 और 2010 के बीच भारत के काले कार्बन उत्सर्जन में 2.5 फीसदी की वृद्धि के लिए बड़े पैमाने पर बायोमास का हिस्सा है, और हिमालय में पाए जाने वाले करीब आधे काले कार्बन उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है । ऑटोमोबाइल, बिजली उत्पादन और उद्योग में डीजल जलने से भी बड़ी मात्रा में काले कार्बन का उत्सर्जन होता है । एक ओपन-ऐक्सेस ऑनलाइन जर्नल ‘नेचर कम्युनिकेशंस’ में वर्ष 2016 में प्रकाशित एक पेपर में इस बारे में विस्तार से बताया गया है।

काला कार्बन सूर्य के प्रकाश को अवशोषित करता है और इसे गर्मी में परिवर्तित करता है। हिमालय के संदर्भ में, ऊंची ऊंचाई पर वायुमंडल की गर्मी के लिए यह उतना ही ठोस कारण हो सकता है, जिस तरह कि बर्फ के ढेर और ग्लेशियरों के पिघलने के लिए कार्बन डाइऑक्साइड होता है, जैसा कि 2008 की नेचर रिपोर्ट में कहा गया है।

काला कार्बन वार्षिक मॉनसून को बाधित करने के लिए भी जाना जाता है। हरियाणा के गुड़गांव में ‘एमिटी सेंटर फऑर एटमोसफेरिक एंड साइंस टेक्नोलोजी’ के निदेशक पी. सी. एस. देवारा ने इंडियास्पेंड से बात करते हुए बताया कि इसके छोटे कण वर्षा को कम करता है।

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Source: Climate and Clean Air Coalition

अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी के मुताबिक, काला कार्बन उत्सर्जन कम करने से ग्लोबल वार्मिंग की बढ़ती रफ्तार पर जल्द रोक लगा सकता है । यहां तक ​​कि कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ 2) जैसे दीर्घकालिक ग्रीनहाउस गैसों के कुछ प्रभावों को भी कम किया जा सकता है।

दक्षिण एशिया के लिए यह बहुत जरूरी है।

हिंदू कुश-काराकोरम-हिमालय पर्वतमाला के हिमनदों में स्थित 60,000 वर्ग किमी बर्फ दक्षिण एशिया में रहने वाली दुनिया की आबादी के एक चौथाई के लिए पानी का स्रोत है।

तेजी से ग्लेशियर पिघलने से पानी की उपलब्धता को खतरा है। साथ ही इस क्षेत्र में रहने वाले लाखों लोगों के लिए खाद्य सुरक्षा का जोखिम भी है। उच्च ऊंचाई वाले कस्बों और गांव भी हिमनदी झील के विस्फोट के कारण बाढ़ के लिए अतिसंवेदनशील हो जाते हैं।

एक सरकारी संस्थान ‘जी.बी पंत नेशनल इंस्ट्यूट ऑफ हिमालयन एंवायर्नमेंट एंड सस्टेनबल डेवलप्मेंट’ के एक वैज्ञानिक जे.सी. कुनियाल कहते हैं, “ लकड़ी से जलने वाले ऐसे आधुनिक स्टोव, जो बहुत कम धुएं का उत्सर्जन करते हैं और बहुत कम कालिख बनती है, परिवेश में काले कार्बन की मात्रा को काफी कम कर सकते हैं। ”

हालांकि, कुनियाल यह भी कहते हैं कि काले कार्बन के अन्य स्रोत, जैसे कि जंगल की आग, कचरे और वाहनों के उत्सर्जन को भी नियंत्रित किया जाना चाहिए।

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Source: Nature, National Green Tribunal (India)

(पाटिल विश्लेषक हैं और इंडियास्पेंड के साथ जुड़ी हैं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 13 सितंबर 2017 में indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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