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1980 में जब गुजरात सरकार ने वडोदरा में नगर निगम बाज़ार बनाने का निर्णय लिया तो उसके लिए ज़मीन वहीं के एक निवासी से ली गई थी। हम मान लेते हैं कि उस व्यक्ति का नाम मि. एक्स है। मि.एक्स का कहना है कि इस ज़मीन के बदले उसे कोई पैसे नहीं मिले हैं। मि. एक्स का परिवार उसकी पहचान नहीं बताना चाहता क्योंकि मामला अब भी अदालत में लंबित है।

गौर हो कि यह मामला पिछले 32 सालों से ऐसे ही चल रहा है।

पांच वर्ष पहले मि. एक्स की मृत्यु हो गई और अब उनके वारिस इस मामले की लड़ाई लड़ रहे हैं। पिछले तीन दशकों में, वडोदरा सिविल कोर्ट में इस मामले से संबंधित करीब 200 से अधिक सुनवाई हो चुकी है।

नाम न बताने की शर्त पर मि. एक्स के परिवार के एक सदस्य ने बताया कि, “पिछले तीन दशकों में पांच वकीलों ने हमारे मामले का प्रतिनिधित्व किया है। हमें अब भी उम्मीद है कि फैसला हमारे पक्ष में ही होगा और हमें हमारे पैसे वापस मिलेंगे।”

अब तक इस मामले पर मि. एक्स का परिवार 8 लाख रुपए खर्च कर चुका है। आने वाले समय में और पैसे लगेंगे। परिवार कहता है कि, “दो पीढ़ियां निकल चुकी है, पैसे का हिसाब रखना असंभव है।”

मि.एक्स के परिवार के वकील कहते हैं ( नाम न बताने की शर्त पर ), “इस केस में पूरे परिवार की उम्र गुज़र गई, परिवार का जमा-पूंजी तो निकल ही गई साथ ही जनता का पैसा भी बर्बाद हो गया है। पिछले 32 वर्षों में क्या हुआ, यह दिखाने के लिए हमारे पास कुछ नहीं है।”

जिस नगर निगम बाज़ार के निर्माण के लिए मि. एक्स से ज़मीन ली गई थी उस ज़मीन पर कुछ निर्माण नहीं किया गया है।

देश की नीचली अदालत में लंबित हैं कई मामले

इस लेख के पहले भाग में हमने बताया है कि किस प्रकाऱ भारत के जिला एवं सत्र न्यायालयों में 25 मिलियन मामले लंबित हैं। कानून मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, इन लंबित मामलों में से करीब 2 मिलियन मामले पिछले एक दशक से चल रहे हैं।

राज्य अनुसार पिछले 10 सालों में लंबित मामले

मामले निपटारे की वर्तमान दर से, लंबित मामलों को निपटाने में कम से कम आठ साल का वक्त लगेगा।

आंकड़े बताते हैं कि 2 मिलियन लंबित मामलों में से 1.3 मिलियन आपराधिक मामले हैं।

राज्य अनुसार, पिछले 10 सालों में लंबित सिविल और आपराधिक मामले

बिहार की नीचली अदालतों में लंबित मामलों में आपराधिक और सिविल का अनुपात सबसे अधिक, 83 फीसदी है। जबकि इस संबंध में तमिलनाडु का आपराधिक और सिविल का अनुपात 37 फीसदी, सबसे कम है।

अमन मदन , जनहित याचिका में शामिल दिल्ली उच्च न्यायालय के वकील, कहते हैं कि, “बिहार, उत्तर प्रदेश और यहां तक कि दिल्ली जैसे राज्यों में कानून और व्यवस्था की स्थिति बद्तर है। इतिहास गवाह है कि इन राज्यों में पहले भी आपराधिक दर उच्च थे और आज भी अधिक ही हैं।”

न्यायाधीशों की कम संख्या, वकीलों की बेपरवाही एवं उदासीनता और राजनीतिक हस्तक्षेप ही इन मामलों के लंबित होने के मुख्य कारण हैं।

सनत राय, अधिवक्ता , कलकत्ता उच्च न्यायालय, कहते हैं कि, “ अक्सर कई वकील अपने वित्तीय लाभ के लिए मामले को अधिक समय के लिए खीचते हैं जो हमारी न्यायिक प्रणाली की एक गंभीर समस्या है। इसके अलावा राजनीतिक हस्तक्षेप से भी न्यायालयों की गति पर प्रभाव पड़ता है।”

बिहार में हुए चारा घोटाला, विलंबित न्याय का एक बेहतर उद्हारण है। 1997 में पशुओं को खिलाए जाने वाले चारे के नाम पर पैसों की हेराफेरी करने के मामले में राष्ट्रीय जनता दल ( आरजेडी ) अध्यक्ष, लालू यादव एवं 55 अन्य लोगों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किए गए थे। लेकिन लालू प्रसाद को दोषी सिद्ध करने में सीबीआई को 16 वर्ष का समय लगा है।

एक और उद्हारण इसी वर्ष अगस्त में सामने आया है। तमिलनाडु के तिरुवन्नामलाई जिले में पुलिस ने 20 साल के लिए एक गैर- जमानती वारंट पर अमल नहीं किया। अदालत ने जिले के पुलिस अधीक्षक ( एसपी) की आलोचना की ( बाद में एसपी को हाई कोर्ट ने राहत प्रदान की थी )।

लंबित मामले निपटाने में जम्मू-कश्मीर को लगेंगे 64 वर्ष, हिमाचल को 1 साल

पिछले 10 सालों से आदलतों में चल रहे मामलों के संबंध में उत्तर प्रदेश सबसे पहले स्थान पर है। 27 राज्यों से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार, 30 अक्टूबर 2015 तक उत्तर प्रदेश में ऐसे मामलों की संख्या 575,604 (27.4 फीसदी ) है।

मुकदमें की वर्तमान दर से (न्यायाधीश के लंबित मामलों को बंद करने की औसत दर के आधार पर की गई गणना ) देश भर के लंबित मामलों का निपटाने में कम से कम आठ साल का समय लगेगा।

10 साल से अधिक लंबित मामलों के निपटान के लिए अनुमानित वर्ष

जम्मू-कश्मीर में लंबित मामलों के निपटान में 64 वर्ष का समय लग सकता है जबकि हरियाणा एवं हिमाचल प्रदेश की अदालतें मामलों को निपटाने में एक साल का समय लेंगी।

सर्वेश कुमार शर्मा, उत्तर प्रदेश के अमरोहा जिले में एक जिला अदालत के वकील , कहते हैं कि, “हम पुरातन प्रक्रियात्मक नियमों का पालन कर रहे हैं और कार्यवाही में देरी के लिए यही कारण है।”

सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज, संतोष होगड़े का कहना है कि, “हमारे देश में भी कई मंच और प्रक्रियात्मक कानून हैं जो अदालतों की कार्यप्रणाली बढ़ाते हैं। उनकी पहचान कर उन्हें दूर हटाने की आवश्यकता है। जजों को अत्यधिक स्थगन के लिए ज़िम्मेदार बनाने के लिए कानून बनाया जाना चाहिए।”

मदन , दिल्ली उच्च न्यायालय के वकील, कहते हैं कि सत्ता में आई हर सरकार मौजूदा प्रणाली में मुद्दों को संबोधित करने के बजाए एक वैकल्पिक प्रणाली स्थापित करने की कोशिश करती है।

लगभग सभी ब्रिक्स देशों की यही कहानी है।

भारत की तरह ही ब्राज़ील में भी न्यायिक सेट -अप में कई स्तर हैं जो न्यायिक कार्यवाही को पेचीदा करते हैं। दुनिया भर में अदालतों के प्रदर्शन पर येल विश्वविद्यालय के एक अनुसंधान से पता चलता है कि 1995-96 में ब्राज़ील में प्रति न्यायाधीश पर 2,975 मामले लंबित थे।

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार 2010 में रुस में प्रति 100,000 आबादी पर 19.9 न्यायाधीश थे। 201 3 में, मीडिया के रिपोर्ट के अनुसार एक मुख्य यूरोपीय मानव अधिकार संस्था ने रूस के राष्ट्रपति से देश की न्यायिक प्रणाली में सुधार करने का आग्रह किया था।

अधिक न्यायाधीशों, अधिक जवाबदेही और फैसले के लिए एक समय सीमा

वर्तमान न्यायाधीश-जनसंख्या अनुपात प्रति मिलियन 10.5 है। हालांकि 1987 के विधि आयोग के 120 वीं रिपोर्ट प्रति मिलियन जनसंख्या पर 50 न्यायाधीशों की सिफारिश करती है।

दीपक दास, कानून के एसोसिएट प्रोफेसर, हिदायतुल्ला राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, कहते हैं कि न्यायिक प्रणाली को और अधिक पारदर्शी और जवाबदेह बनाने के लिए मामलों के निपटारे के लिए एक तय समय सीमा होनी चाहिए एवं जजों की जवाबदेही, तय समय सीमा में ही मामला समाप्त करने का लक्ष्य होना चाहिए।

यह एक तीन भाग श्रृंखला का दूसरा भाग है । आप पहल भाग यहां पढ़ सकते हैं।

( घोष 101reporters.com के साथ जुड़े हैं एवं सामाजिक मुद्दों पर लिखते हैं। himadri.25ghosh@gmail.com पर इनके साथ संपर्क किया जा सकता है। )

यह लेख मूलत: अंग्रेज़ी में 3 दिसंबर 2015 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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