रायगड़ा, मलकानगिरी (ओडिशा): एक पेड़ की छांव के नीचे एक पत्थर पर बैठी, मोमिता बत्रा और कर्मा मंडली स्कूल के अपने पहले दिन को याद कर हंसी-मज़ाक कर रहे थे। ये दोनों लगभग पाँच साल की थीं, जब उन्होंने गाँव के बड़े लड़कों से स्कूल जाने के फ़ायदों के बारे में सुना। ये लड़के स्कूल जाते थे, जिनमें मोमिता और कर्मा के भाई भी थे। उन्होंने अपने माता-पिता से स्कूल भेजने के लिए कहा, लेकिन उन्होंने साफ़ मना कर दिया था।

ये लड़कियां अपनी कहानी बताती हैं। आसपास का एकमात्र स्कूल, कई किलोमीटर दूर, एक रिहायशी स्कूल था। बत्रा ने हंसते हुए कहा, "हमने कुछ कपड़े लिए और एक दिन भागकर स्कूल पहुंच गए। स्कूल का रसोइया हमारे गाँव का था। उसने हमें स्कूल में भर्ती कराया और बाद में हमारे माता-पिता को इस बारे में बताया।” ये लड़कियां अब 14 साल की हो चुकी हैं और केवल कुछ ही महीनों के बाद इनके सेकेंडरी स्कूल के बोर्ड इम्तेहान हैं। ये लड़कियां सिर्फ़ छुट्टियों में ही अपने गांव पोडीगुडा जाती हैं, जो दक्षिणी ओडिशा के पहाड़ी इलाके में स्थित है। अब हॉस्टल ही इनका घर है।

ओडिशा के मलकानगिरि ज़िले में स्थित पोडीगुडा गांव, 13 विशेष रूप से कमज़ोर आदिवासी समूहों (पीवीटीजी) में से एक, बोंडास जनजाति बहुल इलाक़ा है। यहां के बहुत से माता-पिता अब अपनी बेट़ियों को स्कूल भेजने से इंकार नहीं करते (2011 की जनगणना के अनुसार, इस समुदाय में महिला साक्षरता की दर 22% थी)।

यहां से लगभग 160 किमी दूर, एक मां अपनी बेटी की मौत का ग़म मना रही थी। वो भी लगभग 14 साल की ही थी, जो सरकारी रिहायशी स्कूल, सिखापाली में मृत पाई गई थी। “यह एक लड़कियों का स्कूल, एक आश्रम स्कूल था। हमने सोचा कि वो यहां सुरक्षित रहेगी, इसीलिए हमने उसे वहाँ भेजा,” उसने अपनी साड़ी के पल्लू से आँसू पोंछते हुए कहा। उसका परिवार बंगाली मूल का है और कई पीढ़ियों से ओडिशा में रह रहा है।

मलकानगिरी की स्थानीय पुलिस के मुताबिक, लड़की ने कथित तौर पर प्रधानाध्यापक द्वारा यौन उत्पीड़न के बाद अपनी जान ले ली थी, जिसे गिरफ्तार कर लिया गया था लेकिन अब वह ज़मानत पर बाहर है। हालांकि, लड़की के माता-पिता का कहना है कि उसकी हत्या की गई है, लेकिन कहते हैं कि सच्चाई सामने लाने या इंसाफ पाने के लिए वो कुछ नहीं कर सकते।

पिछले कई दशकों से रिहायशी स्कूल, ओडिशा सरकार के लिए स्कूली शिक्षा को दूरस्थ छोटी-छोटी आदिवासी बस्तियों में ले जाने की चुनौती का जवाब है, जहाँ लड़कियां विशेष रूप से शिक्षा से वंचित हैं और घर चलाने की ज़िम्मेदारी उठाने के लिए मजबूर हैं । इसका मकसद युवाओं को माओवादियों के प्रभाव में आने से रोकना भी है।

2016-17 तक, आदिवासी समुदायों की लगभग 550,000 लड़कियां सरकारी रिहायशी स्कूलों में रह रही थीं। हालांकि, इन हॉस्टल में कई बार मौतें और यौन शोषण के मामले भी सामने आए हैं। 2017 में मयूरभंज में, 100 लड़कियां, अपने साथ होने वाले दुर्व्यवहार की शिकायतें लेकर 15 किमी पैदल चलकर कलेक्टर के पास गई थीं। जुलाई 2019 में कंधमाल ज़िले में एक नाबालिग लड़की गर्भवती हो गई थी। अभी कुछ दिन पहले ही अंगुल ज़िले में 250 लड़कियों ने भोजन और स्वच्छता की कमी की वजह से अपने हॉस्टल रूम ख़ाली कर दिए थे।

दिसंबर 2018 में 10 दिन की यात्रा से शुरु कर, इस रिपोर्टर ने, मलकानगिरी और रायगड़ा ज़िलों के पांच स्कूलों और सात गांवों में विशेष रूप से लड़कियों के लिए ओडिशा के रिहायशी स्कूलों की स्थितियों की जांच की।

कई महीनों तक छात्रों, अभिभावकों, स्कूल स्टाफ़ और गैर-सरकारी संगठनों के प्रतिनिधियों के साथ कई महीनों तक बातचीत के बाद, हमने पाया कि आदिवासी लड़कियों की शिक्षा पर सरकार के ख़ास ध्यान और निवेश के बावजूद, रिहायशी स्कूलों की हालत अच्छी नहीं है।

इन स्कूलों का माहौल पहली पीढ़ी के छात्रों के लिए अजीब और सहानुभूति पूर्वक नहीं है, जिसका प्रतिकूल असर उनके व्यक्तिगत विकास पर पड़ रहा है। छात्रों को बार-बार इस बात का अहसास कराया जाता है कि उन्हें शिक्षा और रहने के लिए जगह मुफ़्त दी जा रही है इसलिए उन्हें इसके लिए आभारी होना चाहिए और सुविधाओं और सेवाओं में कमी की शिकायत नहीं करनी चाहिए - जो हमने पाया, वे अक्सर करते हैं।

लड़कियां विशेष रूप से कमज़ोर हैं और उनके पास बिना किसी डर के शिकायत करने के बहुत कम विकल्प हैं। जो कि समस्याओं का निपटारा या न्याय की आशा कम रखती हैं। विशेषज्ञों की राय है कि जीवन और शिक्षा का घटिया स्तर प्रदान कर रिहायशी स्कूल, वर्ग और जाति विभाजन और भेदभाव को कायम रख रहे हैं, और ये ओडिशा की शिक्षा चुनौतियों का समाधान नहीं है।

रिहायशी स्कूली शिक्षा

ओडिशा की कुल महिला साक्षरता दर, 64% देश के कुल औसत 65% के लगभग बराबर ही है, लेकिन पिछले दो दशकों में लगातार बढ़ोत्तरी के बावजूद, ओडिशा की अनुसूचित जनजातियों में यह दर 41.2% ही है।

राज्य ने इस अंतर को माना है। इससे निपटने के लिए राज्य ने आदिवासी समुदायों के बच्चों के लिए शिक्षा की एक संस्थागत प्रणाली पर ज़ोर दिया है और ख़ुद को रिहायशी स्कूलों के मामले अग्रणी बताया है। 2016-17 में, सरकार ने कम दाखिलों की वजह से गांवों के 828 स्कूलों को बंद कर दिया। ये सभी स्कूल आदिवासी बहुल ज़िलों के थे। राज्य सरकार ने इन स्कूलों के फ़ंड को रिहायशी स्कूलों में लगा दिया, जिससे माता-पिता को अपने बच्चों को घर से दूर भेजने के लिए मजबूर होना पड़ा।

जुलाई 2019 में विधानसभा में दिए एक बयान में, अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अनुसूचित जाति (एससी) विकास मंत्री जगन्नाथ सरका ने कहा कि इन हॉस्टल में एससी और एसटी समुदायों की 330,000 लड़कियां थीं। उन्होंने सदन को आश्वस्त किया कि इन लड़कियों की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त उपाय किए जा रहे हैं।

मलकानगिरि स्थित गैर-लाभकारी संगठन सेंटर फ़ॉर यूथ एंड सोशल डेवलपमेंट (CYSD) के शिक्षा समन्वयक बिकाश कुमार दंडासेना ने कहा, "आदिवासी समुदायों में एक सोच पनपाई जा रही है कि अच्छी शिक्षा के लिए हॉस्टल ही एकमात्र स्थान है। लेकिन बच्चे वास्तव में यहां सुरक्षित नहीं है ... डर का माहौल है और जिसकी वजह से कई घटनाएं होती हैं।"

अगस्त 2015 में द इकोनॉमिक टाइम्स की एक आरटीआई याचिका के जवाब के मुताबिक ओडिशा में 2010 से 2015 के बीच रिहायशी स्कूलों में 155 मौतें और यौन शोषण के 16 मामले सामने आए, हालांकि कुछ ज़िलों ने अभी तक जवाब नहीं दिया ।

कई साल से अलग-अलग घटनाओं की ख़बरें सामने आई हैं - साल 2010 में सरकार को हॉस्टल के लिए एक हेल्पलाइन शुरु करने के लिए मजबूर होना पड़ा। सरकार ने 2017 में लड़कियों के हॉस्टल के लिए नए दिशा-निर्देश जारी किए और सरकार SC / ST स्कूलों के हॉस्टल के लिए इन्हें अपडेट करने पर काम कर रही है।

1976 में स्थापित एक सरकारी निकाय, बोंडा डेवलपमेंट एजेंसी (बीडीए) के परियोजना अधिकारी, देवेन्द्र चंद्र महारी ने अपने कार्यालय में एक मोटी फ़ाइल निकाली। जिस पर लिखा था, “स्कूलों और हॉस्टल में बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के दिशा-निर्देश, अंतर्गत एसटी और एससी विकास विभाग, ओडिशा सरकार।” ये साल 2014 में अधिकारियों को सौंपी गई थी। इसमे्ं तत्कालीन आयुक्त-सह-सचिव का सरकार को लिखा एक पत्र भी था, जिसमें कहा गया था, “कई रिहायशी स्कूलों में और उनके हॉस्टल मैस में यौन उत्पीड़न और यौन दुर्व्यवहार की घटनाएं बढ़ रही हैं, जिससे छात्रों में परेशानी बढ़ रही है ”।

दिशा-निर्देशों में, प्रोटेक्शन ऑफ़ चिल्ड्रन फ़्रॉम सेक्सुअल ऑफ़ेंस (पॉक्सो) एक्ट 2012 के तहत अनिवार्य रिपोर्टिंग और कार्रवाई, स्कूल और हॉस्टल के अंदर सुरक्षित माहौल और स्टाफ़ और छात्रों के बीच बातचीत के बारे में जानकारी शामिल है। महारी ने कहा कि बीडीए के तहत आने वाले शैक्षणिक परिसरों को उनके पालन के लिए सख़्त निर्देश दिए गए थे।

फिर भी, जनवरी 2019 में, राज्य के हालात की वजह से नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स (एनसीपीसीआर) ने यौन हिंसा के मामलों की जांच के लिए कहा था, जैसा कि द टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपनी रिपोर्ट में बताया। “आयोग, ओडिशा के विभिन्न ज़िलों में रिहायशी स्कूलों में नाबालिगों के यौन उत्पीड़न के हाल के मामलों से चिंतित है। दुर्व्यवहार के इस तरह के नियमित एपिसोड अपने परिवारों से दूर रहने वाले बच्चों की भलाई के बारे में संदेह की भावना पैदा करते हैं।”

ओडिशा में आदिवासी समुदायों के साथ काम करने वाले गैर-लाभकारी संगठन, अग्रगामी की सह-संस्थापक विद्या दास ने कहा कि स्थिति कई स्तरों पर खतरनाक है। उन्होंने कहा, "हमारे पास एक अधिकारी है जो हमें बता रहा है कि आदिवासी बच्चे एक मुक्त वातावरण में नहीं पढ़ सकते हैं, और उन्हें एक नियंत्रित वातावरण की आवश्यकता है जहां वे सीखने में सक्षम होंगे, इसलिए उन्हें हॉस्टल में भेजें। बहुत सारे बच्चे भाग जाते हैं, लेकिन जब वे बाहर आते हैं तो बात नहीं करते हैं। बहुत सारी घटनाएं हैं। हमें जो पता चलता है वह तो एक बहुत ही कम संख्या है। कुछ महीनों के भीतर उन्हें चुप करा दिया जाता है।"

कुछ शिकायतें

दिसंबर 2018 में स्कूल का आख़िरी दिन, सिखपाली आश्रम गर्ल्स हाई स्कूल की छात्राएं सलवार-कमीज़ और फ़्रॉक पहने थीं, क्रिसमस की छुट्टी के लिए उन्हें लेने आने वाले अपने अभिभावकों का इंतेज़ार कर रही थीं।

दिमंबर 2018 में जब सिखपाली आश्रम गर्ल्स हाई स्कूल की छात्राएं क्रिसमस की छुट्टी के लिए उन्हें लेने आने वाले अपने अभिभावकों का इंतेज़ार कर रही थीं। उसी साल, 14 वर्षीय एक छात्रा हॉस्टल में मृत पाई गई थी।

आश्रम स्कूल, सरकारी रिहायशी स्कूल हैं, जो अनुसूचित जनजाति के लड़कों और लड़कियों को माध्यमिक शिक्षा प्रदान करते हैं। इन प्रयासों में मदद के लिए, ट्राइबल अफ़ेयर्स के केंद्रीय मंत्रालय ने वर्ष 1990 में एक योजना शुरु की - जो अब ओडिशा सहित 22 राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों में लागू है (इन राज्यों को आश्रम स्कूल बनाने के लिए अनुदान देने की)।

चौदह वर्षीय कमलेश्वरी दुर्गा शॉल ओढ़कर अपने बिस्तर पर बैठी अपने भाई का इंतेज़ार कर रही थी। वह धुर्वा जनजाति से संबंध रखती है। उसने बताया कि उसके घर के आसपास उसकी उम्र की लगभग कोई लड़की नहीं थी (लगभग सभी की शादी हो चुकी थी)। दुर्गा ने कहा, “पढ़ाई करना मेरी खुद की मर्ज़ी है। मैं अपनी माँ और भाई को गौरवान्वित महसूस कराना चाहती हूँ।” दुर्गा ने बचपन में ही अपने पिता को खो दिया था।

मरने वाली उसकी सहपाठी थी। वे कभी-कभार बातचीत करते थे, दुर्गा ने उसे एक शांत लड़की के रूप में याद किया, जो आमतौर पर खुद में मगन रहती थी। किसी को भी नहीं पता था कि उसकी मौत कैसे हुई। दुर्गा ने बताया कि पुलिस ने उनसे पूछा था कि क्या प्रिंसिपल ने कभी उनके साथ दुर्व्यवहार या ग़लत बातें की थीं, जिसका जवाब उन्होंने नहीं में दिया। उन्होंने कहा कि उन्हें इस घटना के बाद कोई काउंसलिंग या सुरक्षा प्रशिक्षण नहीं मिला।

स्कूल की हेडमिस्ट्रेस मनोरमा स्वैन ने इस बात को ग़लत बताया। उन्होंने कहा कि चाइल्डलाइन इंडिया फ़ाउंडेशन के अधिकारी एक सत्र के लिए यहां आए थे। बच्चों के लिए नियमित रूप से जीवन कौशल सत्र आयोजित किए जाते हैं जिसमें दुर्व्यवहार की जानकारी शामिल होती है। उन्होंने कहा, "हम लगातार लड़कियों के बारे में चिंतित है, लेकिन मुझे लगता है कि अगर शिक्षक और कर्मचारी अपना काम ठीक से करते हैं, तो हॉस्टल को अच्छी तरह से चलाया जा सकता है।" घटना के बाद से, स्कूल सख़्त हो गया है और पुरुषों को बिना पूर्व अनुमति के परिसर में प्रवेश करने की इजाज़त नहीं देता है।

दुर्गा और उसके दोस्तों ने कहा कि अगर कुछ भी ग़लत हुआ या कोई मुश्किल आई तो वे अपने माता-पिता को उस बारे में नहीं बताते थे।

जिन स्कूलों में इंडियास्पेंड की टीम गई, वहां भी बाकी के आश्रम स्कूलों की तरह ही, हॉस्टल में गद्दे नहीं थे। लड़कियों ने कहा कि वो अपने कपड़े ख़ुद ही धोती हैं और अपने कमरों की सफ़ाई भी ख़ुद ही करती हैं। जब उनसे पूछा गया कि क्या उन्हें किसी समस्या का सामना करना पड़ता है तो उन्होंने फिर दोहराया, "हमें कोई समस्या नहीं है।"

30 मिनट की बातचीत के अंत में, जब उनसे पूछा गया कि अगर कभी उनके सामने कोई समस्या आई तो क्या वो किसी को इस बारे में बताएंगें, तो दुर्गा चुप हो गई। उसने अपना सिर झुकाया, अपने हाथों को देखा और चुपचाप ना में अपना सिर हिला दिया।

आश्रम स्कूलों में दाखिला लेने वाले कई छात्रों से इस रिपोर्टर ने बात की, उनमें से सिर्फ़ दो ने कहा कि उन्होंने शिक्षकों की कमी के बारे में शिकायत करने के लिए, हेल्पलाइन का इस्तेमाल किया था। वे सभी हॉस्टल में उपलब्ध लैंडलाइन के बारे में जानते थे, लेकिन उन्होंने बताया कि वे केवल सप्ताह में एक बार ही इसका इस्तेमाल अधिकारियों को ये रिपोर्ट करने के लिए करते हैं कि सब कुछ ठीक है।

रायगढ़ ज़िले के एक स्कूल में छात्राओं ने कहा कि उन्होंने भी कभी अपने माता-पिता से शिकायत नहीं की। 15 वर्षीय निद्रावदी नंदरुका ने हंसते हुए कहा, "वे कहेंगे कि हम हॉस्टल से पीछा छुड़ाने के लिए झूठ बोल रहे हैं।" वहां मौजूद सभी पांचों लड़कियों ने उससे सहमति जताई।

शिक्षा की गुणवत्ता

2017 में, मीडिया ने 10वीं की परीक्षा पास करने और अपने "पिछड़े" समुदाय के लिए इतिहास बनाने पर डोंगरिया कोंध की 14 लड़कियों की तारीफ़ की । 2011 की जनगणना के अनुसार, इस जनजाति में सिर्फ 3% महिलाएँ ही साक्षर थीं।

2017 में 10वीं की परीक्षा पास करने वाली डोंगरिया कोंध समुदाय की 14 लड़कियों में से एक पूर्णिमा हुइका, सबसे अच्छे नंबरों से पास होने वालों में से एक थी। नतीजे आने के बाद पूर्णिमा ने रायगढ़ में एकलव्य मॉडल रिहायशी स्कूल (ईएमआरएस) में दाखिला लिया।

अनुसूचित जनजातियों के छात्रों को मुफ्त, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने साल 1997 में ईएमआरएस शुरु किये थे। इनमें दाखिले के लिए छात्रों को प्रवेश परीक्षा पास करनी होती है।

जब इंडियास्पेंड ने दिसंबर 2018 में दौरा किया, तो शर्मीली पूर्णिमा अपनी परीक्षाओं की तैयारी कर रही थी। "मैंने बहुत सारे इंटरव्यू दिए हैं," उसने हंसते हुए कहा और अपने समुदाय की दो अन्य लड़कियों का परिचय कराया, उन्हें भी आदिवासी समुदायों के बच्चों को समर्पित इस स्कूल में दाखिला मिला था। ।

14 साल की पिंकी वाडाका और मिनोटी निशिका, बिस्सम कटक निर्वाचन क्षेत्र से हैं, उन्होंने कहा कि उनके गांवों के अधिकांश बच्चे स्कूल से बाहर हो गए थे, लेकिन वे पढ़ाई जारी रखना चाहती थीं। “हमें पढ़ना पसंद है; इसीलिए हम यहाँ हैं,” वाडका ने कहा। “जब मैं गांव में होती हूं, तो गांव की हूं। मैं सभी नियमों और परंपराओं का पालन करती हूं। जब मैं बाहर हूं, मैं किसी अन्य बाहरी व्यक्ति की तरह हूं।”

पिंकी वाडाका (बाएं) और मिनोटी निशिका, दोनों रायगड़ा में एकलव्य मॉडल रिहायशी स्कूल में पढ़ती हैं और डोंगरिया कोंध जनजाति की हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार इस समुदाय की महिला साक्षरता दर सिर्फ़ 3% है।

कुछ महीने बाद एक टेलीफोन पर बातचीत के दौरान, स्कूल के प्रिंसिपल, संतोष कुमार पात्रा ने कहा कि हुइका के बैच के 61 छात्रों में से 20 छात्र परीक्षा में पास होने में सफ़ल हुए थे, मगर हुइका उनमें से एक नहीं थी।

पात्रा ने इसके लिए शिक्षकों की कमी को ज़िम्मेदार ठहराया। हुइका के बैच के लिए, भौतिकी, गणित, वनस्पति विज्ञान और ओड़िया के लिए कोई शिक्षक नहीं थे। पात्रा ने कहा, "हम इन रिक्तियों को भरने के लिए विभाग को लिखते-लिखते थक गए हैं। वे चाहते हैं कि हम केंद्रीय विद्यालय और नवोदय विद्यालय के साथ बराबरी पर रहें, लेकिन उनके विपरीत, एकलव्य स्कूलों में केवल आदिवासी समुदायों के बच्चे हैं- इसलिए एक अतिरिक्त प्रयास और सहायता की आवश्यकता है। जो अभी नहीं है।”

(केंद्रीय विद्यालय की स्थापना सरकारी कर्मचारियों के बच्चों को बिना रुकावट के अच्छी गुणवत्ता की शिक्षा देने के उद्देश्य से हुई थी, लेकिन बाद में अन्य श्रेणियों के लिए भी इसमें दाखिले शुरु कर दिए गए और फ़ीस में सब्सिडी जारी रही। दूसरी ओर, नवोदय विद्यालय, रिहायशी स्कूल हैं जो एक प्रवेश परीक्षा पास करने के बाद ग्रामीण बच्चों को मुफ़्त गुणवत्ता की शिक्षा प्रदान करते हैं)

पात्रा ने कहा कि सबसे बड़ी बाधा यह थी कि शिक्षकों को अनुबंध पर रखा गया था, कम वेतन दिया और नौकरी की सुरक्षा नहीं दी। उन्होंने कहा कि उन्हें निराश छोड़ दिया। जबकि एकलव्य विद्यालयों के लिए धनराशि केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा जारी की जाती है, उनकी निगरानी राज्य सरकार की ज़िम्मेदारी है। पर्यवेक्षक सभी सहमत थे कि समग्र रूप से रिहायशी स्कूलों की निगरानी अनियमित और अच्छी नहीं थी।

दास ने कहा, "हमने देखा है कि शिक्षा बहुत खराब है। ठीक है, रिहायशी स्कूल बहुत खराब हैं, लेकिन कम से कम बच्चों को पढ़ना और लिखना आना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं है। पढ़ाई में गुणवत्ता की कमी है।”

सीवाईएसडी के दंडासेना के अनुसार, छात्रों को पाठ को समझने में सक्षम होने के लिए पहले ओड़िया भाषा सीखने की चुनौती का सामना करना पड़ता है। उन्होंने आगे बताया, "इस वजह से वे उम्र के हिसाब से शिक्षा हासिल करने में विफल रहते हैं और यह स्कूल छोड़ने के मुख्य कारणों में से एक है।"

एक बार जब वे राज्य भाषा सीख लेते हैं, तो वे अपनी स्वयं की आदिवासी भाषाओं को भूल जाते हैं या उनका उपयोग करना पसंद नहीं करते हैं। दास ने कहा, "वे अपने ही गांवों को हीन भावना से देखना शुरू कर देते हैं और वे पूरी तरह से अलग हो जाते हैं।"

उच्चतम क्वालिटी से कम

रायगड़ा ज़िले के कोलनारा ब्लॉक में लड़कियों के लिए एक प्राथमिक सेवाश्रम स्कूल में, छात्राएं फ़र्श पर बैठी थीं, दिसंबर का महीना और बारिश भी होने के बावजूद इन लड़कियों के पास ना तो स्वेटर थे और ना ही छाते। स्कूल की केयरटेकर और कुक जयंति हपरिका ने कहा, “सबसे बड़ी चुनौती छोटे बच्चे हैं। पांच साल की उम्र के बच्चों को उनके माता-पिता यहां भर्ती करा देते हैं। वे भाषा नहीं समझते हैं। वे यह भी नहीं जानते कि थाली कैसे पकड़ें या स्नान कैसे करें। हमें उन्हें शुरु से सब कुछ सिखाना होता है। ”

रायगड़ा ज़िले के कोलनारा ब्लॉक में लड़कियों के लिए एक प्राथमिक आश्रम स्कूल में, छात्राएं फ़र्श पर बैठी हैं, दिसंबर के सर्द महीने में बारिश पड़ने के बावजूद इनके पास ना तो कोई स्वेटर है और ना ही छाते।

52 वर्षीय प्रधानाध्यापक प्रमोद कुमार पात्रा ने कहा कि स्कूल को, भोजन, वर्दी से लेकर प्रसाधन तक सभी खर्चों के लिए प्रति माह 800 रुपये प्रति छात्र मिलते हैं। उन्होंने कहा, "कुछ छात्रों के घर स्कूल के आसपास हैं लेकिन उनके माता-पिता फिर भी भोजन और रहने की सुविधा के कारण उनका यहाँ दाखिला करा देते हैं।" एक हॉस्टल वार्डन प्रभारी के साथ 140 छात्रों पर एक हॉस्टल वार्डन इंचार्ज नियुक्त है।

दास ने बताया कि जब बच्चे अपने माता-पिता से अलग हो जाते हैं (चाहे माता-पिता यह स्वेच्छा से करें या ना) और उन्हें उनकी सांस्कृतिक स्थितियों से पूरी तरह अलग दूसरी सांस्कृतिक स्थितियों में रखा जाता है तो मनोवैज्ञानिक उथल-पुथल अपरिहार्य हैं। उन्होंने कहा, "लेकिन यह भी ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि स्कूल बहुत बुरी तरह से चलाए जा रहे हैं। वे एक दान कार्य की तरह चलाए जा रहे हैं। जैसे कि इन बच्चों का कोई महत्व ही नहीं है, यही कारण है कि उन्हें रिहायशी स्कूलों में रखा जाता है, जहां शिक्षक उनकी परवाह नहीं करते हैं। रिहायशी स्कूलों में उन्हें दी जाने वाली आर्थिक सहायता भी न्यूनतम है, सिर्फ़ किसी तरह से ज़रूरत पूरी करने के लिए।”

दंडासेना ने एक रविवार को जीवन कौशल शिक्षा के लिए लड़कियों के आश्रम स्कूल जाने की बात याद करते हुए कहा कि छात्रों को दोपहर 2 बजे तक भोजन नहीं मिला था।

रायगड़ा ज़िले के मुनिगुडा शहर से लगभग 6 किलोमीटर दूर एक गाँव में, 15 वर्षीय निद्रावदी नंदरुका ने कहा कि उसने आश्रम स्कूल इसलिए छोड़ दिया क्योंकि वहाँ पानी नहीं था। स्कूल ने क़िताबें उपलब्ध नहीं कराईं, इसलिए उसने समय-समय पर निर्माण स्थलों पर मज़दूरी की ताकि वो क़िताबें ख़रीद सके।

फिर भी, उसने इसे एक मामूली मुश्किल ही करार दिया। उसने कहा, "मुझे बहुत अच्छा महसूस हुआ। कोई फर्क नहीं पड़ता कि हमने क्या-क्या किया, कम से कम हम पढ़ाई तो कर पा रहे हैं। हमारी माएं ख़ुद पढ़ नहीं सकीं , इसलिए उन्हें बहुत सारी चीजें नहीं पता हैं। कम से कम हम कड़ी मेहनत कर पढ़ तो सकते हैं।”

निद्रावदी, अब हॉस्टल में नहीं रहती, वो सिर्फ़ पढ़ने के लिए स्कूल जाती है। हालांकि उसके गाँव के कई दोस्त हतोत्साहित या निराश हो चुके हैं। उसने कहा, “घर की ज़िम्मेदारियों के साथ-साथ पढ़ाई के लिए वक्त निकालना कठिन है, लेकिन मैं कोशिश कर रही हूं।”

एक अन्य निवासी, सावित्री सरका (13) ने कहा कि उसके आश्रम स्कूल में पानी के लिए सिंगल बोरवेल पर हमेशा भीड़ रहती है। वह अभी भी वहां पढ़ाई कर रही है।

भविष्य का रास्ता

मुनिगुडा से 20 किमी की दूरी पर स्थित, लगभग 21 घरों वाले पतंगपद्र गांव में, 2018 के मध्य में प्राथमिक स्कूल बंद कर दिया गया था। सभी बड़े बच्चे अब हॉस्टल में हैं और छोटे बच्चों को स्कूल जाने के लिए 3 किलोमीटर का सफ़र तय करना पड़ता है। जिससे उनकी माओं को उनकी चिंता लगी रहती है।

ओडिशा के रायगड़ा ज़िले के पतंगपद्र गांव के बच्चे, 3 किमी दूर स्थित अपने स्कूल से लौटते हुए। उनके गांव का प्राथमिक स्कूल 2018 के मध्य में बंद हो गया था।

तीन बच्चों की मां झुनु सिकोका ने कहा, "ऐसा नहीं है कि हम अपने बच्चों के लिए चिंतित नहीं हैं। लेकिन अगर हम उन्हें दूर नहीं भेजेंगे तो वे पढ़े-लिखे कैसे बनेंगे? वर्तमान प्रवृत्ति बच्चों को रिहायशी स्कूलों में भेजने की है, इसलिए हमें ऐसा करना चाहिए। हम उन्हें नहीं पढ़ा सकते। कम से कम हॉस्टल में उनका ध्यान पढ़ाई पर केंद्रित तो कराया जाएगा।”

सिकोका और कई अन्य माओं ने ये स्वीकार किया कि उन्हें इस बात से राहत है कि स्कूल उनके बच्चों की ज़िम्मेदारी ले रहा है। हालांकि, ज़्यादातर लड़कियां, 10वीं के बाद पढ़ाई छोड़ देती हैं और उनकी शादी कर दी जाती है।

कुछ अन्य गांवों में, लोग अलग तरह से सोचते हैं। रत्नागिरी ज़िले के जंगलों में स्थित 20 डोंगरिया-कोंध परिवारों के गांव केसरापड़ी के मुखिया अरजी कुतरुका ने कहा, "हम अपनी जवान बेटियों को दूर नहीं भेजना चाहते हैं।" यहां के लोगों को बाहरी लोगों से बात करने में डर लगता है। उन्होंने ज़ोर देकर इस रिपोर्टर को वहां से जल्द ही चले जाने को कहा।

रत्नागिरी ज़िले के जंगलों में स्थित 20 डोंगरिया-कोंध परिवारों का गाँव केसरापड़ी। यहां के अभिभावक अपनी बेटियों को रिहायशी स्कूलों में भेजने से कतराते हैं।

यहां से कुछ ही दूरी पर, चार युवा लड़कियां कृषि का काम कर रही थीं, और बाद में चर्चा में शामिल हुईं। उनमें से कोई भी स्कूल नहीं गया था। एक ग्रामीण ने बताया कि गांव की तीन लड़कियों ने एक आश्रम स्कूल में दाखिला लिया था, लेकिन कुछ ही साल बाद छोड़ दिया।

यहां कभी ना बन पाए एक स्कूल का ढांचा है। एक वृद्ध महिला (जिसने अपना नाम नहीं बताया) ने कहा, "अगर वे इस स्कूल को बना दें तो हम अपने बच्चों का दाखिला यहां करवा दें।"

लेकिन सरकार का पूरा ध्यान ज़्यादा से ज़्यादा रिहायशी स्कूल बनाने पर है। 2018 के बजट भाषण में, इस बात की घोषणा की गई थी कि 2022 तक, 50% से अधिक एसटी आबादी वाले प्रत्येक ब्लॉक और कम से कम 20,000 आदिवासी व्यक्तियों पर एक एकलव्य मॉडल रिहायशी स्कूल होगा।

दास ने कहा, "इससे सभी के लिए शिक्षा की समस्या का समाधान नहीं होगा।" उन्होंने कहा कि गांव के स्कूलों को बंद करना अच्छा नहीं है। उन्होंने पूछा, “हर गांव का स्कूल सभी सुविधाओं और अच्छे शिक्षकों के साथ एक मॉडल स्कूल क्यों नहीं हो सकता है? इससे बोर्डिंग पर आने वाली लागत में बचत होगी, साथ ही बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने में भी मदद मिलेगी। गाँव के स्कूलों में छात्रों को कम संख्या में होने पर भी उन्हें चलने देना चाहिए, क्योंकि समुदाय बढ़ेंगे और स्कूलों की ज़रूरत होगी।"

दंडासेना ने समुदायों के विकास के लिए, निर्णय और प्रक्रियाओं में उन्हें शामिल करने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया। उन्होंने कहा, "शहरी लोगों के लिए, शिक्षा का अर्थ है पढ़ना, लिखना और बुनियादी गणित, लेकिन आदिवासी समुदायों में अलग तरह की शिक्षा, ज्ञान और कौशल है। शहरी लोग इसे नहीं समझते हैं। वे सोचते रहते हैं कि ये समुदाय शिक्षित नहीं है और उन्हें सुधार के लिए हॉस्टल में भेजने की ज़रूरत है। इस सोच को बदलने की जरूरत है।”

पोदीगुड़ा की बत्रा और मोंडली के लिए, गांव के बाहर पढ़ाई और रहने की इच्छा एक दशक बाद भी मज़बूत बनी हुई है, भले ही उनके स्कूलों में सभी विषयों के लिए पर्याप्त संख्या में शिक्षक न हों (जिसकी वो कई बार शिकायत कर चुके हैं लेकिन कोई फ़ायदा नहीं हुआ)।

सामुदायिक समारोहों के दौरान वे शायद ही कभी छुट्टियां मनाते हैं और कहते हैं कि उन्हें पारंपरिक तरीके के कपड़े पहनना पसंद नहीं है। लेकिन साथ ही, उन्हें इस बात का भी पूरा भरोसा है कि उनके माता-पिता उन्हें पढ़ाई जारी रखने देंगे और बहुत कम उम्र में उनकी शादी नहीं करेंगे।

बत्रा ने कहा, “हमें बुरा लगता है जब हम अन्य लड़कियों को देखते हैं जो पढ़ाई नहीं कर सकती। हमारी कई दोस्त पहले से ही शादीशुदा हैं। लेकिन मैं एक शिक्षक बनना चाहती हूं। कॉलेज अभी और दूर है। मैं अपने माता-पिता को वहां भेजने के लिए मना लूंगी। ”

( सरिता, एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और मानवाधिकारों, विकास और लिंगभेद जैसे विषयों पर लिखती हैं।)

ये रिपोर्ट मूलत: अंग्रेज़ी में 21 नवंबर 2019 को IndiaSpend पर प्रकाशित हुई है।

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