Juvenile 620

निर्भया सामूहिक बलात्कार मामले में 31 अगस्त , 2013 को तीन साल की सजा मिलने के बाद किशोर दोषी ( तौलिए से ढका ) को ले जाते पुलिसकर्मी

दिल्ली में निर्भया सामूहिक बलात्कार और हत्या में दोषी नाबालिग अपराधी को इस सप्ताह रिहा किया जाएगा या नहीं, इस पर दिल्ली उच्च न्यायालय का फैसला आना बाकी है लेकिन नाबालिग अपराधियों को व्यस्क अपराधियों की तरह की सज़ा मिले की नहीं, इस मुद्दे पर देश भर में बहर छिड़ गई है। मुद्दा है कि नाबालिग अपराधियों को सज़ा नहीं देने ने उनके द्वारा किए जाने वाले अपराध के मामलों में वृद्धि हो सकती है।

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार भारतीय दंड संहिता ( आईपीसी) के तहत पंजीकृत किशोर अपराधों में 47 फीसदी की वृद्धि हुई है। 2010 में जहां नाबालिग द्वारा की गई अपराधों की संख्या 22,740 थी वहीं 2014 में यह मामले बढ़ कर 33,526 हो गए हैं।

बाद के मसले को सुलझाने के लिए, दो दिनों पहले ही केंद्र सरकार ने दोषी किशोर को कुछ और दिन हिरासत में रखने के लिया याचिका दायर की है।

लेकिन किशोर अपराधों पर मिले आंकड़े पांच सवाल उठाते हैं और जिनके जवाब से चीज़े उतनी स्पष्ट नहीं दिखाई देती हैं जितनी वह लगती हैं।

नाबालिग अपराध मामले बनाम पंजीकृत आपराधिक मामले, 2010 से 2014

1) क्या कहते हैं एनसीआरबी के आंकड़े?

स्वागता राहा, वरिष्ठ अनुसंधान सहायक, सेंटर फॉर चाइल्ड एंड लॉ, नैश्नल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया, बैंगलुरु, कहती हैं, “एक बात को ध्यान में रखने की आवश्यकता है वह यह है कि भारत में अपराध पर आंकड़े पुलिस द्वारा दायर प्रथम सूचना रिपोर्ट ( एफआईआर ) पर आधारित होते हैं न की वास्तविक दोषसिद्धि पर।”

हालांकि किशोर अपराध में 47 फीसदी की वृद्धि हुई है लेकिन पिछले पांच वर्षों में कुल अपराधों में से प्रतिशत के रूप में किशोरों द्वारा किए गए अपराधों की सूचना 1 फीसदी से 1.2 फीसदी के बीच है।

किशोर मामले बनाम कुल आपराधिक मामले (2010-14)

इसके अलावा, पिछले पांच वर्षों में नाबालिग दोषियों में मुजरिम या दोबारा अपराध दोहराने वाले की संख्या में गिरावट हुई है। 2010 में जहां यह आंकड़े 12.1 फीसदी थे वहीं 2014 में यह 5.4 फीसदी दर्ज की गई है।

किशोर जुर्म ( 2010-14 )

2) क्या 16-18 साल के किशोर अपराधियों पर व्यस्क कानून के तहत मुकदमा चलना चाहिए? या परीक्षण की उम्र कम की जानी चाहिए?

निर्भया मामले के बाद किशोर की आयु घटाने को लेकर ज़ोरदार बहस छिड़ी है।

अक्टूबर 2015 में, दिल्ली में 16 एवं 17 वर्ष की आयु के लड़कों द्वारा एक ढ़ाई वर्ष की बच्ची के बलात्कार का मामले सामने आया था। इस घटना को देखते हुए दिल्ली के मुख्यमंत्री, अरविंद केजरीवाल ने बलात्कार के मामले में दोषियों की उम्र 18 वर्ष से घटा कर 15 वर्ष करने का प्रस्ताव रखा था।

कानूनी और बाल अधिकारों के विशेषज्ञों के मुताबिक यह अच्छा विचार नहीं है।

करुणा नंदी, सुप्रीम कोर्ट की वकील, कहती हैं, “भारत सरकार ने वयस्क आपराधिक न्याय प्रणाली में प्रवेश के लिए 18 साल की उम्र बनाया है और यही सही है। बाल अधिकार सम्मेलन की भी यही सिफारिश है और इसके लिए दिए गए कारण भी सही लगते हैं। जघन्य अपराधों के लिए आयु घटा कर 16 करना गलत है।”

नंदी कहती हैं कि इन तीन बिंदुओं पर विचार करना चाहिए –

  • किशोर न्याय प्रणाली मौजूद होने के कारण जो कम उम्र में अपराध करते हैं वह बड़े होने पर ज़िम्मेदार वयस्क बनते हैं। यह प्रणाली दोषियों को उनके द्वारा हुए नुकसान का एहसास दिलाना चाहती है एवं अपराधी का पुनर्वास सुनिश्चित करती है। यदि बाल अपराधियों को वयस्क आपराधिक न्याय प्रणाली में भेजा जाता है तो इससे छोटे उम्र के बच्चों का आपराधिक नेटवर्क के साथ नए कठोर अपराधी बनने का डर होगा।
  • 18 वर्ष तक के बच्चों के दिमाग पर किए गए अनुसंधान से पता चलता है कि उनके लिए आवेगों को नियंत्रित करना एवं साथियों के दबाव को झेल पाना कठिन होता है। उनके दिमाग के विकास में भी सुधार किया जाना सक्षम हैं।
  • किशोर न्याय प्रणाली को ठीक से अपराधियों को अच्छे नागरिक में बदलने के संसाधन के रुप में बनाने की आवश्यकता है जिससे बाल अपराधियों को अपनी गलतियों का एहसास हो और उनके पश्चाताप एवं सुधार की गुंजाइश हो।

नंदी के विचारों से राहा भी सहमत हैं।

राहा का कहना है कि, “हम दृढ़ता से यह मानते हैं कि 18 वर्ष से कम उम्र के सभी व्यक्तियों को किशोर न्याय प्रणाली के तहत के साथ निपटाया जाना चाहिए। इसका कारण उनका कम दोष एवं सुधार का जिम्मा है। उनके साथ वयस्कों के तरह ही पेश आना संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन होने के साथ संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन के तहत बाल अधिकारों पर अपने दायित्वों का भी उल्लंघन होगा।”

2013 में, भारतीय जनता पार्टी ( भाजपा) के नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने "किशोर" की परिभाषा पर पुनर्विचार करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से आयु की बजाए “मानसिक और बौद्धिक परिपक्वता" पर विचार करने का अनुरोध किया था।

इनकी याचिका को सुप्रीम कोर्ट द्वारा खारिज कर दिया गया था, जिसने कहा कि अधिनियम के प्रावधानों के संवैधानिक निर्देशों और अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों के अनुपालन में हैं।

3) क्या किशोर न्याय विधेयक 2014 लागू किया जाना चाहिए?

किशोर न्याय विधेयक 2014 ( बच्चों की देखभाल और संरक्षण), मेनका गांधी ने अगस्त 2014 में संसद में पेश किया था। मई 2015 में यह लोकसभा द्वारा पारित किया गया था लेकिन राज्यसभा में लंबित है।

विधेयक में कुछ अहम परिवर्तन का प्रस्ताव दिया गया है, इनमें से सबसे महत्वपूर्ण 16 से 18 वर्ष की आयु के बीच के दोषियों द्वारा किए जाने वाले जघन्य अपराध के मामले में उन्हें व्यस्कों की तरह ही पेश आने के बदलाव प्रस्तावित हैं।

सीसीएल का मानना है कि इस प्रावधान से समानता की संवैधानिक गारंटी, जीवन के अधिकार और बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन का उल्लंघन होगा।

इसके अलावा, प्रस्तावित परिवर्तन, जघन्य अपराधों पर डेटा की एक त्रुटिपूर्ण व्याख्या पर आधारित है।

16-18 वर्ष आयु वर्ग के बीच, 844 हत्या के ( समग्र हत्या के मामलों की 1.2 फीसदी ) एवं 1,488 बलात्कार ( समग्र बलात्कार के 3.08 फीसदी) के मामले दर्ज की गई है। विशेषज्ञों का कहना है कि यह किशोर कानूनों में कठोर परिवर्तन के लिए आधार नहीं हो सकता है।

राहा कहते हैं कि, “बलात्कार के आंकड़ों को पढते समय हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि ‘यौन अपराध अधिनियम, 2012 से बच्चों की सुरक्षा’ के तहत आयु को 16 से 18 वर्ष तक बढ़ाने की बात की गई है। इससे किशोरों के बीच आम सहमति से किसी भी रुप में बनने वाली किसी यौन गतिविधि अपराध के तहत आता है। हमने ऐसे कई मामले देखे हैं जहां गर्लफ्रेंड के परिवारों द्वारा लड़कों के खिलाफ शिकायत दर्ज की गई है।”

इंडियास्पेंड ने पहले ही अपनी रिपोर्ट में बताया है कि पिछले पांच वर्षों में जागरूकता की वजह से अधिक मामले दर्ज होने के अलावा बलात्कार कानूनों में परिवर्तन के कारण दर्ज मामलों की संख्या में 151 फीसदी की वृद्धि हुई है।

16 से 18 साल के बीच आयु के बच्चों द्वारा हत्या और बलात्कार के मामले

राहा कहती हैं कि प्रस्तावित किशोर न्याय विधेयक, 2014 के कई धाराएं "समस्याग्रस्त" हैं एवं वैधानिक और अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों का उल्लंघन करती है।

उद्हारण के तौर पर-

खंड 15(1): यदि जघन्य अपराध करने वाले किशोर की उम्र 16 या इससे अधिक है तो बोर्ड इस तरह के अपराध , अपराध के परिणामों और वह अपराध जिन परिस्थितियों में समझने की क्षमता प्रतिबद्ध करने के लिए उसकी मानसिक और शारीरिक क्षमता के संबंध में एक प्रारंभिक आकलन का संचालन करेगा ।

सीसीएल के अनुसार बिल के तहत प्रदान की " मनमानी और तर्कहीन ", प्रक्रिया , अनुच्छेद 14 और संविधान के 21 के तहत मौलिक गारंटी का उल्लंघन करता है।

यहां तक ​​कि चिकित्सा विशेषज्ञों ने भी प्रस्तावित आकलन को दोषपूर्ण बताया है।

शेखर पी शेषाद्रि और रघु एन मणि , प्रोफेसरों, बच्चे और किशोर मनोचिकित्सा विभाग , निमहांस , बेंगलुरु ने हाल ही में हिंदुस्तान टाइम्स में लिखते है कि, “एक किशोर के मन की सीमा की पहचानना, जिस पर केवल एक जघन्य अपराध करने का आरोप है, केवल एक मनमाना राय होगा जिसमें वैज्ञानिक वैधता की कमी होगी। ”

इनका कहना है कि, कथित अपराध के समय में एक बच्चे की मानसिकता के प्रस्तावित आकलन वैज्ञानिक रूप से नहीं किया जा सकता है; इससे मनमाने ढंग से राय विकसित हो सकते हैं और ऐसे न्यायिक निर्णयों से बच्चे के जीवन की दिशा बदल सकती है।

4) क्या नए विधेयक सबसे वंचित पृष्ठभूमि से किशोरों को प्रभावित करेगा?

इसका जवाब हां है। कम से कम 56 फीसदी नबालिग बच्चे ऐसे परिवार से हैं जिनकी वार्षिक आय 25,000 रुपए है जबकि 53 फीसदी नबालिग बच्चे या तो अनपढ़ या प्राथमिक विद्यालय तक शिक्षित है।

किशोरों की शैक्षिक पृष्ठभूमि

किशोरों की आर्थिक पृष्ठभूमि

5) क्या सार्वजनिक भावनाओं के आह्वान मामलों को अलग से निपटाना चाहिए?

निर्भया मामले में, उनके माता-पिता द्वारा उठाए गए सवालों से तमाम लोगों की भावनाओं को हिला दिया है। निर्भया कांड में अनुमानित तौर पर नबालिग दोषी का कृत्य सबसे जघन्य था जिसे बाद में किशोर न्याय बोर्ड ने कहा कि वह साक्ष्य के आधार पर नहीं था।

नंदी कहती हैं कि भावुक हो जाना समस्या का एक हिस्सा है। नंदी आगे कहती हैं कि, “हमें इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि हम भावनात्मक रूप से जो कदम उठा रहे हैं वह बड़े पैमाने पर समाज को लाभ पहुंचाना चाहिए न कि केवल गुस्साए नागरिकों की अंतरात्मा को संतुष्ट करने के लिए कोई कदम उठाना चाहिए।”

एरलीन मनोहरन , कार्यक्रम प्रमुख, किशोर न्याय टीम , सीसीएल का कहना है कि, “हम निर्भया के माता-पिता के गुस्से और पीड़ा को नहीं समझ सकते हैं लेकिन उस भयावह घटना का अंत ठीक तरीके से हो इसमें समर्थन दे सकते हैं। लोकिन यह ज़रुरी नहीं कि जो चीज़ एक परिवार को शांति पहुंचाए वही दूसरे परिवार के लिए भी सही हो।” अन्य न्यायालय के अनुसंधान से पता चलता है कि समपन एवं गहरे बैठे क्रोध, मोहभंग , और दर्द के उपचार में अधिक प्रभावी ढंग से , उपचारात्मक उपायों के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है।

( साहा नई दिल्ली स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। )

यह लेख मूलत: अंग्रेज़ी में 15 दिसंबर 2015 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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