नई दिल्ली: भारत में किशोरों और किशोरियों में दुबलेपन के आंकड़ों को विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्ल्यूएचओ के मानकों पर नहीं मापा जा रहा है जिसकी वजह से यह आंकड़े दोषपूर्ण हैं, हाल ही में सामने आए एक शोध में यह बात सामने आई। यह शोध जून 2020 में पीएलओसएस वन मेडिकल जर्नल में छपा है।

“15 से 19 साल की उम्र तक के लोगों में दुबलेपन के आंकड़े, अगर एनएफ़एचएस की तुलना में आधे से भी कम हैं तो यह 15 से 54 या 49 साल की उम्र के लोगों के आंकड़ों के पूरे औसत को बिगाड़ देते हैं,” इस शोध की मुख्य शोधकर्ता माधवी भार्गव ने इंडियास्पेंड से कहा।

दरअसल, कुपोषण के आंकड़ों को जुटाते वक़्त भारत में किशोरावस्था की परिभाषा में ही ख़ामियां हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की परिभाषा में 10 से 19 साल तक के लड़के/लड़कियां किशोरावस्था के दायरे में आते हैं जबकि भारत में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ सर्वेक्षण यानी एनएफ़एचएस के सर्वे में इसकी कोई परिभाषा नहीं है और 15 से 19 साल तक की उम्र के लोगों को व्यस्क माना गया है और पांच साल से कम उम्र को बच्चा। जबकि 6 से 14 साल के आयु वर्ग का कहीं कोई ज़िक्र नहीं है। एनएफ़एचएस 15 से 19 साल की उम्र के किशोरों के लिए व्यस्कों का बॉडी मास इंडेक्स इस्तेमाल करता है जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन हर उम्र के लिए अलग/ विशिष्ट बॉडी मास इंडेक्स के इस्तेमाल का सुझाव देता है।

विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में किशोरावस्था के स्वास्थ्य से जुड़े आंकड़ों की भारी कमी है। पांच साल की उम्र तक के बच्चों के आंकड़े तो उपलब्ध हैं लेकिन किशोरों के बारे में बहुत ही कम जानकारी है।

इस शोध में दुबलेपन के आंकड़े दोगुने से भी अधिक पाए गए। धारणा के विपरीत किशोरों में भी स्टंटिंग पाई गई। देश के दो बड़े राज्यों उत्तर प्रदेश और बिहार में दुबलापन लड़कों और स्टंटिंग लड़कियों में ज़्यादा पाई गई। स्टंटिंग के मामलों में दोनों ही राज्य देश के 15 सबसे ख़राब प्रदर्शन करने वाले राज्यों में रहे, बिहार देश में दूसरे नंबर पर और उत्तर प्रदेश छठे नंबर पर। हालांकि दोनों ही राज्यों में दुबलेपन के आंकड़ों में सुधार नज़र आया।

किशोरावस्था की परिभाषा

विश्व स्वास्थ संगठन के पैमानों में किशोरावस्था 10 से 19 साल मानी गई है जबकि भारत में हर 10 साल बाद पोषण से जुड़े आंकड़े जारी करने वाले एनएफ़एचएस के आंकड़ों में किशोरावास्था का कोई ज़िक्र नहीं है। इन आंकड़ों में 15 से 19 साल की उम्र के लोगों को व्यस्कों में माना जाता है जबकि 6 से 14 साल की उम्र के आयु वर्ग के पोषण से जुड़े आंकड़ों का कहीं कोई ज़िक्र नहीं होता है।

शोधकर्ताओं ने एनएफ़एचएस के 15 से 19 साल की उम्र के सीमित आंकड़ों का विश्लेषण किया और पाया कि एनएफ़एचएस के सर्वे इस उम्र के किशोरों को वयस्कों में शामिल करते हैं और इनके लिए वयस्कों के मापदंड इस्तेमाल किए जाते हैं।

यानी 15 से 19 साल के लोगों का बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई) वयस्कों के पैमानों पर मापा जाता है, जोकि इस उम्र के लोगों के लिए ठीक नहीं है, और इससे पोषण के आंकड़ों की सही तस्वीर सामने नहीं आती है। बीएमआई से पता चलता है कि शरीर का वज़न, क़द के अनुसार कितना है, इसे लंबाई और वज़न का अनुपात कहा जाता है।

विश्व स्वास्थ संगठन के मापदंड के साथ एनएफ़एचएस के आंकड़ों के पुनर्विश्लेषण में पाया गया कि 15 से 19 साल की उम्र के किशोरों में दुबलेपन के आंकड़े दोगुने से भी ज़्यादा मापे गए हैं। शोध में यह भी पाया गया कि किशोरों/किशोरियों में स्टंटिंग बहुत ज़्यादा है यानी उम्र के अनुसार इनका क़द छोटा है, स्टंटिंग को कुपोषण का एक मुख्य पैमाना माना जाता है।

एनएफ़एचएस जो पैमाने अपनाता है, उसमें वयस्क पुरुषों को 15 से 54 साल और वयस्क महिलाओं को 15 से 49 साल के बीच परिभाषित किया गया है। 15 से 19 साल के किशोरों/किशोरियों भी इसी श्रेणी में शामिल किया गया है। यानी इस श्रेणी में आने वाले सभी लोगों का बीएमआई अगर 18.5 किग्रा/एम2 से कम है तो उन्हें दुबला कहा जाता है, 25-29.9 किग्रा/एम2 के बीच अधिक वज़न का और 30 किग्रा/एम2 से ज़्यादा को मोटा माना गया है।

विश्व स्वास्थ संगठन के अनुसार 5-19 की उम्र के लोगों के लिए यह मापदंड उनकी उम्र और लिंग के हिसाब से होने चाहिए। शोधकर्ताओं ने इस उम्र के लिए विश्व स्वास्थ संगठन के 2007 के विकास मापदंडों का इस्तेमाल कर दुबलेपन, मोटापे और स्टंटिंग के आंकड़ों का पुनर्विश्लेषण किया।

“किशोरों/किशोरियों के स्वास्थ्य से जुड़े आंकड़ों की भारी कमी है, देश में व्यापक आंकड़े जारी करने वाली सरकारी एजेन्सियां जैसे एनएफ़एचएस, पांच साल की उम्र तक के बच्चों के आंकड़े देती है, पर किशोरों के बारे में बहुत ही कम,” टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइन्सेज़ के स्कूल ऑफ़ हेल्थ सिस्टम स्टडीज़ के योगेंद्र घोरपड़े ने बताया।

छोटे कद और दुबलेपन के आंकड़ों में भारी अंतर

साल 2005-06 में एनएफ़एचएस-3 के अनुसार 58.1% किशोर और 46.8% किशोरियां दुबले थे, इन आंकड़ों को जब इस शोध में विश्व स्वास्थ संगठन के पैमानों पर मापा गया तो असल में किशोरियों में दुबलापन 9.9%, और किशोरों में 23.3% पाया गया। इसी प्रकार 2015-16 के एनएफ़एचएस-4 के अनुसार यह आंकड़ा किशोरों में 45% और किशोरियों में 42% था, जबकि शोध के दौरान हुए पुनर्विश्लेषण में यह आंकड़ा किशोरों में 16.5% और किशोरियों में 9% पाया गया।

स्टंटिंग कुपोषण का सबसे बड़ा सूचक है, एनएफ़एचएस-4 के अनुसार भारत में 5 साल तक की उम्र के 38.4% बच्चे इसका शिकार हैं। “सरकार की योजनाओं का सारा ध्यान भी इन्ही पर केंद्रित है, पर छह से 14 साल तक की उम्र के स्टंटिंग से जुड़े ना तो कोई आंकड़े हैं और ना ही इसके बारे में कोई ज़िक्र किया जाता है,” माधवी ने बताया।

आंकड़े बताते हैं कि पांच साल की उम्र के बाद भी स्टंटिंग बरकरार रहती है, यह किशोरों में काफ़ी ज़्यादा है और आगे चलकर यह उनके वयस्क जीवन को भी कुपोषण की ओर धकेल रही है।

साल 2005-2006 के लिए विश्व स्वास्थ संगठन के पैमानों पर पुनर्विश्लेषित किए गए एनएफ़एचएस-3 के आंकड़ों के अनुसार, 15 से 19 साल के लोगों में 29% स्टंटेड थे, इसमें 25.2% लड़के और 31.2% लड़कियां थीं। साल 2015-16 यानी एनएफ़एचएस-4 के लिए यह आंकड़ा 34% था, लड़कों के लिए 32.2% और लड़कियों के लिए 34.4%। दुबलेपन के आंकड़ों की तुलना में स्टंटिंग लड़कियों में ज़्यादा ज़्यादा पाई गई।

“पुनर्विश्लेशण के बाद सामने आए यह आंकड़े एऩएफ़एचएस के रिपोर्ट किए गए आंकड़ों से अलग तस्वीर दिखाते हैं, इसकी उम्मीद भी नहीं थी कि किशोरों/किशोरियों में भी स्टंटिंग इतनी ज़्यादा हो सकती है,” माधवी ने बताया। उन्होंने आगे कहा कि इस उम्र श्रेणी में दुबलेपन से कहीं ज़्यादा बड़ी समस्या है स्टंटिंग और बढ़ते मोटापे की तरफ़ जाता हुआ ट्रेंड।

इस शोध में 15 से 19 साल की उम्र में मोटापे में बढ़त देखी गई, इस उम्र के लोगों में साल 2005-06 में मोटापा किसी भी राज्य में 10% से ज़्यादा नहीं देखा गया था पर 2015-16 में ऐसे चार राज्य है जहां मोटापा 10% के पार चला गया।

किशोर और किशोरियां भारत की आबादी का 20% हिस्सा है, जनगणना 2011 के अनुसार। यह आंकड़े इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि एनएफ़एचएस की रिपोर्ट भारत सरकार के पोषण से जुड़े सबसे अहम सर्वेक्षणों में से है। इस रिपोर्ट के आंकड़ों के विश्लेषण से ही देश में पोषण संबंधी नीतियां तय की जाती हैं। किशोरों/किशोरियों के स्वास्थ्य से जुड़ी योजनाएं और इन पर होने वाला ख़र्च कुपोषण के आंकड़े देख कर ही तय किया जाता है।

“अगर किशोरों में कुपोषण के सही आंकड़े ही मौजूद नहीं होंगे, तो ज़ाहिर है कि पोषण योजनाओं का ध्यान इनपर केंद्रित ही नहीं होगा,” माधवी ने बताया।

“स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय का पूरा ध्यान, ख़ासकर पोषण के मामले में गर्भवती महिलाओं, स्तनपान कराने वाली महिलाओं, शिशुओं और पांच साल साल तक के बच्चों पर केंद्रित है। इतना ही ध्यान किशोरों और खासकर किशोरियों पर भी दिया जाना चाहिए। आंकड़ों में इसके प्रति लापरवाही देखी जा सकती है,” योगेंद्र ने बताया।

किसी भी व्यक्ति के जीवन के पहले 1,000 दिनों यानी लगभग तीन साल तक, शारीरिक विकास सबसे ज़्यादा तेज़ी से होता है, इस दौरान रह गयी कमियों को पूरा करने के लिए इसके बाद के 7,000 दिन यानी 19 साल, बहुत ज़रूरी होते हैं, और इसीलिए इस उम्र में सही पोषण ज़रूरी होता है। किशोरावस्था पोषण में सुधार का एक महत्वपूर्ण मौक़ा होता है और इसके अशुद्ध आंकलन से हम वह मौक़ा खो रहे हैं, शोध में कहा गया है।

क्या कहते हैं उत्तर प्रदेश और बिहार के आंकड़े

इस शोध में पाया गया कि दोनों राज्यों में लड़कियों में स्टंटिंग लड़कों से ज़्यादा पाई गई, हालांकि दुबलापन लड़कों में ज़्यादा और लड़कियों में कम पाया गया।

इस शोध के दौरान पाया गया कि देश में साल 2005-06 के 15 से 19 साल की उम्र के लोगों में स्टंटिंग 29% के राष्ट्रीय औसत से ज़्यादा 15 राज्यों में पाई गई। पूर्वोत्तर के राज्यों को छोड़कर, बिहार (37.6%) दूसरे और उत्तर प्रदेश (30%) छठे नम्बर पर था।

इस शोध में पाया गया कि उत्तर प्रदेश और बिहार में 10 साल में 15 से 19 साल की उम्र के बीच आयु वर्ग में स्टंटिंग के आंकड़े और भी ख़राब हो गए। साल 2015-16 का स्टंटिंग का राष्ट्रीय औसत था 34.1% और 11 राज्यों में यह आंकड़ा राष्ट्रीय औसत से ज़्यादा था। पूर्वोत्तर के राज्य हटाकर, बिहार (44.1%) यहां भी दूसरे नम्बर था और छठे नम्बर पर था उत्तर प्रदेश (38.2%).

स्टंटिंग के विपरीत दुबलेपन के आंकड़ों में सुधार नज़र आया है। साल 2005-06 में, बिहार में 15 से 19 साल के 14.5% लोग दुबले थे, इसमें 10.9% लड़कियां और 27% लड़के थे। उत्तर प्रदेश में यह औसत 13.5% था, लड़कियों में 7.5%, लड़कों में 19.8%।

साल 2015-16 में, बिहार में यह औसत 9.3% हो गया, लड़कियों में 8.3% और लड़कों में 17.4%। उत्तर प्रदेश में इसका औसत 19.6% रहा, लड़कियों में 9.6% और लड़कों में 10.7%।

शोध के दौरान यह भी पता चला कि 2005 से 2015 के बीच किशोरों/किशोरियों में मोटापे के मामलों में बढ़त देखी गयी, लेकिन बिहार जैसे राज्य में- जहां दुबलापन काफ़ी ज़्यादा है- वहां मोटापे आंकड़े 2015-16 में भी 4% के अंदर ही रहे। साल 2005-06 में, बिहार में 15 से 19 साल के 1.6% लोग मोटे थे, इसमें 1.9% लड़कियां और 0.4% लड़के थे। साल 2015-16 में, बिहार में यह आंकड़ा 2.5% रहा, लड़कियों में 2.5% और लड़कों में 3.2%। इसी तरह उत्तर प्रदेश में 2005-06 में यह आंकड़ा 2.9% था, लड़कियों में 3.6%, लड़कों में 2.2%। साल 2015-16 में उत्तर प्रदेश में इसका औसत 3.8% रहा, लड़कियों में 3.8% और लड़कों में 3.9%।

किशोरावस्था के लिए अलग योजनाओं की ज़रूरत

शोध के अनुसार पिछड़े राज्यों और ग्रामीण इलाक़ों में रहने वाले ग़रीब किशोर, किशोरियां निरंतर कुपोषण का शिकार बने हुए हैं, यह इनके शारीरिक विकास में रुकावट डाल रहा है और इनके शरीर को ग़ैर-संचारी रोगों से लड़ने के लिए कमज़ोर बना रहा है।

15 से 19 साल की उम्र के लोगों में पोषण से जुड़ी समस्याएं, बच्चों और वयस्कों दोनों से मिलती-जुलती होती हैं। पोषण की कमी से शारीरिक और मानसिक विकास रुक जाता है, काम करने की क्षमता कम हो जाती है और पीढ़ियों से चला आ रहे कुपोषण और ग़रीबी का कुचक्र चलता रहता है।

“आठवीं कक्षा के बाद मिड-डे मील मिलना बंद हो जाता है, आईसीडीएस या आंगनबाड़ी के तहत कुछ जगहों पर किशोरियों को अनीमिया के लिए आयरन की गोली और कहीं-कहीं पोषाहार और विटामिन-ए की गोलियां भी दी जाती हैं, पर इसमें भी किशोरों पर ध्यान नहीं दिया जाता,” योगेंद्र ने बताया।

उन्होंने यह भी कहा की इन्हें स्वास्थ्य और निजी स्वच्छता के बारे में जानकारी दी जानी चाहिए पर वह भी सिर्फ़ कुछ गिने-चुनें केंद्रों पर किया जाता है। इसलिए सबसे ज़रूरी है कि आईसीडीएस पर ध्यान दिया जाए, नियमित निरीक्षण किया जाए, और समाज को इन सुविधाओं की उपलब्धि के बारे में जागरूक किया जाए।

ज़रूरत है कि किशोरों/किशोरियों के स्वास्थ पर ध्यान दिया जाए और इन पर केंद्रित योजनाएं बनाई जाएं। “हमें सिर्फ़ पांच साल की उम्र तक के बच्चों में कुपोषण की चिंता है, पर कुपोषण 19 साल तक और वयस्कों में भी होता है, जिसके बारे में कोई जानकारी या योजनाएं नहीं हैं। यही कुपोषित वयस्क जब बच्चे पैदा करते हैं, तो उन बच्चों के भी कुपोषित होने की आशंका काफ़ी ज़्यादा होती है, और यह कुचक्र चलता जाता है”, योगेंद्र ने बताया।

भारत के युवा देश के मानव संसाधन की एक बड़ी ताक़त हैं। अगर देश के कुपोषित और स्टंटेड किशोर-किशोरियां, स्टंटेड युवाओं में तब्दील होते रहे तो इस आयु वर्ग की 20% जनसंख्या होने का जो लाभ भारत के पास है वह इसे खो देगा, इस शोध में कहा गया है।

(साधिका, इंडियास्पेंड के साथ प्रिन्सिपल कॉरेस्पॉंडेंट हैं।)

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