लखनऊ/गोरखपुर: कोरोनावायरस महामारी के इस दौर में जब लोग अस्पताल जाने से बच रहे हैं, उत्तर प्रदेश के गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज के इंसेफ़लाइटिस वार्ड के बाहर लोगों की भीड़ जुटी है।

कोई दो दिन पहले आया है तो कोई 10 दिन से यहां डेरा जमाए है। इस भीड़ में मुन्‍ना कुमार गौड़ भी शामिल हैं, जिनके 4 साल के बेटे को चमकी बुखार की शिकायत है। मुन्ना कुमार लगभग 120 किलोमीटर की दूरी तय कर बिहार के गोपालगंज से यहां आए हैं।

“10 जून की शाम को मेरे बेटे को झटके आए और वो गिर पड़ा। हम उसे लेकर गोपालगंज के अस्पताल गए, वहां बताया गया कि इसे चमकी बुख़ार है तुरंत गोरखपुर ले जाओ। फिर हम बच्चे को लेकर यहां आ गए। 11 तारीख से वह भर्ती है, भगवान करे सब सही हो,'' गोपालगंज ज़िले के बसडिला गांव के रहने वाले मुन्‍ना कुमार ने उम्मीद जताई।

मुन्‍ना कुमार गौड़ की ही तरह इंसेफ़लाइटिस वार्ड के बाहर बैठे अन्य परिजन भी अपने बच्चों की सलामती की दुआ कर रहे हैं।

उत्तर प्रदेश का पूर्वांचल क्षेत्र पिछले 42 साल से (1978 से) इंसेफ़लाइटिस का दंश झेल रहा है। हर साल बरसात की शुरुआत के साथ यहां इंसेफ़लाइटिस के मरीज़ों की संख्या बढ़ने लगती है। उत्तर प्रदेश में इंसेफ़लाइटिस की चर्चा करते हुए गोरखपुर की बात करना इसलिए भी ज़रूरी हैं क्योंकि यह क्षेत्र इंसेफ़लाइटिस के मरीज़ों का केंद्र है। गोरखपुर के बाबा राघव दास (बीआरडी) मेडिकल कॉलेज में गोरखपुर, देवरिया, कुशीनगर, संत कबीरनगर, महाराजगंज, सिद्धार्थ नगर, बस्ती, बलरामपुर, आज़मगढ़ और ग़ाज़ीपुर से इंसेफ़लाइटिस से पीड़ित बच्चे इलाज के लिए आते हैं।

इसके अलावा बिहार के सीमावर्ती क्षेत्र जैसे गोपालगंज, मैरवां, सीवान से भी मरीज़ यहां आते हैं। इस क्षेत्र में इंसेफ़लाइटिस की वजह से हर साल कई बच्चे विकलांग हो जाते हैं और बहुत से बच्चों की मौत हो जाती है।

इस साल कोरोनावायरस की वजह से दो साल पहले शुरु किया गया दस्तक अभियान ठीक से नहीं चल पाया, जिसकी वजह से इस साल मरीज़ों की संख्या बढ़ोत्तरी होने की आशंका है। “इस बार हम लोग दस्‍तक अभियान की एक चौथाई ज़िम्मेदारी ही निभा पाए,” ऑल इंडिया आशा बहू कल्याण सेवा समिति की अध्यक्ष चंदा यादव ने बताया।

इस अभियान के तहत राज्य के पांच साल से कम उम्र के सभी बच्चों में एनीमिया की जांच, छह महीने से पांच साल तक की उम्र के गंभीर कुपोषित बच्चों की पहचान और नौ महीने से पांच साल तक की उम्र के बच्चों को विटामिन-ए का घोल दिया जाता है।

“जिस तरह से टीकाकरण अभियान चलना चाहिए था, सुअर बाड़े हटने चाहिए थे, फ़ॉगिंग होनी चाहिए थी, पीने के साफ़ पानी की व्यवस्था होनी चाहिए थी वो नहीं हो पाया है,” इंसेफ़लाइटिस उन्मूलन अभियान के चीफ़ कैंपेनर डॉ. आरएन सिंह ने कहा।

कोरोनावायरस के दौरान इंसेफ़लाइटिस से बच्चों को बचाने के इंतज़ाम

इस साल इंसेफ़लाइटिस की चुनौती और बड़ी है क्योंकि स्वास्थ्य विभाग कोविड-19 की लड़ाई भी लड़ रहा है।

गोरखपुर के बाबा राघव दास मेडिकल कॉलेज का इंसेफ़लाइटिस वार्ड। फ़ोटोः रणविजय सिंह

“हम इंसेफ़लाइटिस को कंट्रोल करने के लिए दस्तक और संचारी रोग अभियान चलाते हैं। यह दोनों प्रोग्राम जैसे चलते आए हैं, वैसे चलते रहेंगे। हम संगठित तरीके से दस्तक अभियान जुलाई से शुरू करेंगे,” उत्तर प्रदेश के चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सेवा महानिदेशालय में इंटिग्रेटेड ड‍िज़ीज़ सर्विलांस प्रोग्राम (आईडीएसपी) के ज्वाइंट डायरेक्टर डॉ. विकासेन्‍दु अग्रवाल ने बताया।

क्या इस साल इंसेफ़लाइटिस से लड़ाई पिछले साल के मुकाबले चुनौती पूर्ण रहने वाली है? डॉ. विकासेन्‍दु कहते हैं, “इस साल के अभी तक के आंकड़े बता रहे हैं कि इंसेफ़लाइटिस कंट्रोल में हैं। मैं आशा करता हूं कि जो ट्रेंड पिछले दो साल से चल रहा है, वही चलता रहेगा और हम इसे काबू में रख पाएंगे।”

हर साल कम होते मरीज़

डॉ. विकासेन्‍दु जिन आंकड़ों का हवाला दे रहे हैं उनके मुताबिक़, यूपी में इस साल 15 जून तक एक्यूट इंसेफ़लाइटिस सिंड्रोम (एईएस) के 179 मरीज़ आए हैं, जिनमें से 2 की मौत हुई है। जबकि, 2019 में 15 जून तक एईएस के 442 मामले आए थे, जिसमें से 14 की मौत हुई थी। जापानी इंसेफ़लाइटिस (जेई) के मामलों में भी पिछले साल के मुकाबले कमी आई है। प्रदेश में 15 जून 2020 तक जापानी इंसेफ़लाइटिस के 8 मरीज़ मिले हैं, जबकि पिछले साल 15 जून तक प्रदेश में जापानी इंसेफ़लाइटिस के 24 मामले सामने आए थे। यह आंकड़े उत्तर प्रदेश के चिकित्‍सा एवं स्वास्थ्य सेवा महान‍िदेशालय की ओर से जारी किए गए हैं। इस साल के आंकड़ों पर कोरोनावायरस महामारी का भी असर है। लोग इसकी वजह से अभी अस्पताल आने से भी डर रहे हैं।

Source: http://dgmhup.gov.in/

यह आंकड़े 2018 से जारी उसी ट्रेंड का हिस्सा हैं, जिसके तहत यूपी में 2018 से ही साल दर साल इंसेफ़लाइटिस के मामले कम हो रहे हैं। कुछ महीने पहले राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने दावा किया था कि उनकी सरकार इंसेफ़लाइटिस से होने वाली मौतों को 90% तक कम करने में सफ़ल रही है, एक मार्च 2020 की इंडिया टुडे की इस रिपोर्ट के अनुसार। उन्होंने व्यापक टीकाकरण अभियान का भी ज़िक्र किया जो कुछ प्रभावित ज़िलों में 31 मार्च तक चलना था। जब मुख्यमंत्री इस अभियान का ज़िक्र कर रहे थे तब देश में कोरोनावायरस महामारी का ख़तरा इतना बड़ा नहीं था। टीकाकरण अभियान पूरा हो पाता उससे पहले ही राज्य में स्कूलों को बंद करना पड़ा।

उत्तर प्रदेश में इंसेफ़लाइटिस के मामलों में कमी का यह ट्रेंड इस साल भी बरकरार रहेगा इस बारे में विशेषज्ञों को संदेह है। इस साल अभी तक इंसेफ़लाइटिस के मामलों का पीक (उच्चतम स्तर) नहीं आया है। इंसेफ़लाइटिस का पीक जुलाई से शुरू होता है और अगस्त तक बना रहता है। साल 2017 के अगस्त महीने में ही गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में ऑक्सीज़न की कमी से बड़ी संख्या में बच्चों की मौत हुई थी। इनमें से ज़्यादातर बच्चे इंसेफ़लाइटिस के मरीज़ थे।

विशेषज्ञों को आशंका: इस साल बढ़ सकते हैं मामले

क्या इस साल भी इंसेफ़लाइटिस के मामलों में कमी आएगी, इंसेफ़लाइटिस उन्मूलन अभियान के चीफ़ कैंपेनर डॉ. आरएन सिंह को इस पर संदेह है। “2018-19 में हमें इंसेफ़लाइटिस के मामले में बहुत अच्छ‍े नतीजे मिले थे। मामले भी कम हुए और मौतें भी कम हुईं। अगर यह (कोरोनावायरस) महामारी न फैलती तो इस साल भी स्थिति ऐसी ही रहती, लेकिन अब थोड़ा संदेह लगता है,” उन्होंने कहा।

इंसेफ़लाइटिस उन्मूलन अभियान के चीफ़ कैंपेनर डॉ. आरएन सिंह। फ़ोटोः रणविजय सिंह

“2018-19 में जैसी जागरूकता फैलाने की कोशिश की गई थी, वो इस बार नहीं हो पाई। सबका ध्‍यान कोरोनावायरस पर है। ऐसे में जिस तरह से टीकाकरण अभियान चलना चाहिए था, सुअर बाड़े हटने चाहिए थे, फ़ॉगिंग होनी चाहिए थी, पीने के साफ़ पानी की व्यवस्था होनी चाहिए थी वो नहीं हो पाया है। इससे फ़र्क तो पड़ेगा ही,” डॉ. आरएन सिंह ने कहा।

उत्तर प्रदेश सरकार 2018-19 में इंसेफ़लाइटिस पर काबू पाने के पीछे 'दस्तक' अभियान को श्रेय देती है। 2017 में गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में बच्चों की मौत के बाद सरकार ने 2018 में दस्तक अभियान की शुरुआत की थी। इस अभियान के तहत आशा और अन्य स्वास्थ्य कर्मियों को घर-घर जाकर लोगों को इंसेफ़लाइटिस के बारे में जानकारी देनी होती है। साथ ही जापानी इंसेफ़लाइटिस का टीका लगवाने, घर के आस-पास सफाई रखने, शुद्ध पेयजल का प्रयोग करने और बीमार होने पर अस्पताल जाने के लिए लोगों को प्रेरित करना भी इनका काम है। पिछले दो साल (2018-19) में यूपी की करीब 1.75 लाख आशा वर्कर्स ने इस ज़िम्मेदारी को बख़ूबी निभाया है, जिसका असर आंकड़ों पर भी दिखता है।

इस साल भी मार्च के महीने में इस अभियान को चलाया जाना था, लेकिन ठीक उसी वक्‍त पर कोरोनावायरस के मामले आने लगे और आशा और अन्य स्वास्थ्य कर्मियों को कोरोनावायरस की ड्यूटी में लगा दिया गया।

“हम लोग उस हिसाब से काम नहीं कर पाए जैसा पिछले वर्षों में किया था। हमें गांव लौट रहे प्रवासियों की जानकारी रखने और उनके बीच कोरोनावायरस को लेकर जागरुकता फैलाने की ज़िम्मेदारी दे दी गई। इस वजह से हम दस्‍तक अभियान की एक चौथाई ज़िम्मेदारी ही निभा पाए,” ऑल इंडिया आशा बहू कल्याण सेवा समिति की अध्यक्ष चंदा यादव ने बताया।

ऑल इंडिया आशा बहू कार्यकत्री कल्‍याण सेवा समिति की अध्‍यक्ष चन्‍दा यादव। फ़ोटोः रणविजय सिंह

दस्‍तक अभियान के बारे में कुछ और आशा बहुओं ने भी यही जवाब दिया। यानी इंसेफ़लाइटिस पर क़ाबू पाने के लिए सरकार जिस अभियान पर निर्भर थी वो कोरोनावायरस की वजह से पूरी तरह लागू नहीं हो पाया। ऐसे में विशेषज्ञों को आशंका है कि इंसेफ़लाइटिस के पीक टाइम में मामले बढ़ सकते हैं।

राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 13 मई को इंसेफ़लाइटिस को लेकर एक बैठक की थी। इस बैठक में यह बात सामने आई कि इस साल 1 से 15 मार्च के बीच चले टीकाकरण अभियान में प्रदेश के 38 ज़िलों में 11.36 लाख लोगों को जापानी इंसेफ़लाइटिस से बचाव का टीका लगाया गया है। बता दें, जापानी इंसेफ़लाइटिस (जेई) का टीका उपलब्ध‍ है, लेकिन एक्यूट इंसेफ़लाइटिस सिंड्रोम (एईएस) की कोई दवा या टीका नहीं है। यही कारण है कि साल दर साल जापानी इंसेफ़लाइटिस के मामले कम होते जा रहे हैं।

आंकड़ों को देखें तो साफ पता चलता है कि एईएस के मुक़ाबले जेई के मामले बहुत कम हैं। बिहार के मामलों को छोड़कर देश में 7 जुलाई 2019 तक एईएस के 3750 केस और जेई के 465 केस आए थे। इसमें से एईएस के 184 और जेई के 66 मरीज़ों की मौत हुई थी। वहीं, यूपी में 7 जुलाई 2019 तक एईएस के 502 मामले आए थे, जिसमें से 21 की मौत हुई थी और जेई के 27 मामले आए थे, जिसमें से 2 की मौत हुई थी। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्‍याण राज्‍य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने 12 जुलाई 2019 को लोकसभा में यह जानकारी दी।

भले ही जेई के मामले लगातार कम हो रहे हों लेकिन एईएस के मामलों में कोई ख़ास कमी देखने को नहीं मिली है। एईएस फैलने के प्रमुख कारणों में प्रदूषित पानी और गंदगी शामिल हैं। गोरखपुर, महाराजगंज और देवरिया ज़िलों के कई क्षेत्रों को देखने के बाद इंडियास्पेंड की टीम ने पाया कि यहां जगह-जगह गंदगी का अंबार लगा हुआ है। जल निकासी की समुचित व्‍यवस्‍था नहीं है, ऐसे में खुद से बनाई गई नालियों में गंदगी भरी हुई है। वॉटर टेबल काफ़ी ऊपर होने की वजह से लोग ज़्यादा गहरा बोर नहीं कराते और जानकारी के अभाव में प्रदूषित पानी पीते हैं। यह सभी बातें एईएस के मामलों को बढ़ाने का काम करती हैं।

गोरखपुर के एक गांव में कुछ इस तरह गंदगी फैली थीफ़ोटोः रणविजय सिंह

अस्पतालों की तैयारी

गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज के प्रिंसिपल डॉ. गणेश कुमार इस बात पर ज़ोर देते हैं कि इंसेफ़लाइटिस के मामले लगातार कम हो रहे हैं और पिछले साल की ही तरह इस बार भी कम रहेंगे। जब उनसे इस साल अब तक आए आंकड़ों के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कोई साफ़-साफ़ जवाब नहीं दिया। लेकिन उन्होंने स्वीकार किया कि इस साल मेडिकल कॉलेज में अब तक 50 से 60 मामले आ चुके हैं। 'हिंदुस्तान' की 27 मई की रिपोर्ट के मुताबिक, मेडिकल कॉलेज में 53 मरीज़ भर्ती हुए हैं, जिसमें से 12 की मौत हुई है। इसमें बच्चों की संख्या ज़्यादा है।

उत्तर प्रदेश के देवरिया का ज‍िला अस्पताल। फ़ोटोः रणविजय सिंह

“इस साल ज़िला अस्पताल में इंसेफ़लाइटिस का एक भी मरीज़ नहीं आया है। अगर मामले आते हैं तो हम पूरी तरह से तैयार हैं। पीडियाट्रिक इंटेंसिव केयर यूनिट (PICU) ठीक तरह से काम कर रहे हैं। हम कोरोनावायरस के साथ-साथ इंसेफ़लाइटिस को भी हैंडल कर सकते हैं,” देवरिया ज़िला अस्पताल के मुख्य चिकित्सा अधीक्षक डॉ. छोटे लाल ने बताया।

पीडियाट्रिक इंटेंसिव केयर यूनिट ख़ास तौर से इंसेफ़लाइटिस के मरीज़ों के लिए ही बनाए गए हैं। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने 19 जुलाई 2019 को लोकसभा में बताया था कि जापानी इंसेफ़लाइटिस के ज़्यादा मामलों वाले पांच राज्यों- असम, बिहार, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल- के 60 ज़िलों में 10 बेड के पीडियाट्रिक इंटेंसिव केयर यूनिट बनाए गए हैं।

(रणविजय, लखनऊ में स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

हम फीडबैक का स्वागत करते हैं। कृपया respond@indiaspend.org पर लिखें। हम भाषा और व्याकरण की शुद्धता के लिए प्रतिक्रियाओं को संपादित करने का अधिकार सुरक्षित रखते हैं।