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महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में किसान पुंडलिकराव उकार्दे के गांव में घर के बाहर बंधी दो गाएं और बछड़े। उकार्दे कहते हैं, “एक दशके पहले हमारे पास दस गाय और भैंसे थीं लेकिन अब सिर्फ दो रह गई हैं।” फोटो: पूर्वी कुलकर्णी

पशु क्रूरता और वध को रोकने लिए पशु व्यापार पर लगाए गए प्रतिबंध पर महाराष्ट्र के छोटे किसानों की नाराजगी जाहिर हो रही है। इस पर हमारे दो लेखों की श्रृंखला के इस दूसरे और अंतिम भाग में हमने कृषि चक्र में पशुओं के महत्व को समझने की कोशिश की है। इस पूरी पर्स्थिति को व्यापक रुप से समझने के लिए हमने औरंगाबाद और लातूर में दो किसानों से मुलाकात की है।

औरंगाबाद तालुका और जिले के करमद गांव में, पुंडलिकराव उकार्दे अपने दो बैलों के साथ अपने खेतों की जोताई कर रहे हैं। खेतों में काले चने की बुआई हो रही है।

Pundalikrao sowing black gram

बैलों की मदद से खेत जोतते किसान पुंडलिकराव उकार्दे। महाराष्ट्र के औरंगाबाद तालुका और जिले में रहने वाले उकार्दे के पास बहुत जमीन नहीं है। उकार्दे को आधा खेत जोतने में तीन घंटे का समय लगता है।

उकार्दे 61 वर्ष के हैं और इस उम्र में भी कड़ी मेहनत से नहीं थकते हैं। वे सिर्फ एक पंक्ति की ही जोताई कर पाए थे, तभी उनकी स्वदेशी बीज ड्रिल टूट गई।

उकार्दे मशीन को खोलते हैं और लगभग 15 मिनट में डिस्क बांध लेते हैं, पेंच कसते हैं और मशीन ठीक कर लेते हैं। वह अगले तीन घंटे तक और काम करते हैं। वह कहते हैं, “यह हमलोगों के लिए खास समय है। इस समय आपको गांव में कोई बेकार नहीं दिखेगा।”

किसान पुंडलिकराव अपने बेटे शिवकुमार की मदद से बीज ड्रिल मशीन ठीक कर रहे हैं। महाराष्ट्र में औरंगाबाद तालुका और जिले में अपने एक एकड़ की जमीन की जोताई करते वक्त उकार्दे की बीज ड्रिल टूट गई थी। वह कहते हैं, “यह हमलोगों के लिए महत्वपूर्ण समय है। इस समय आपको गांव में कोई बेकार नहीं दिखेगा।” सारे प्रयासों के बाद, 5-6 महीने में फसल तैयार होगी।

इन सब प्रयासों के बाद, 5-6 महीने में फसल तैयार होगी। इससे कितनी कमाई होगी, ये बहस का अलग विषय है। खरीफ के मौसम में, उकार्दे अपने पांच एकड़ जमीन में से तीन एकड़ पर कपास, काले और हरे चने की खेती करते हैं। शेष दो एकड़ में, वह सब्जियां और अनार की खेती करेंगे।

एक एकड़ जमीन पर कपास के उत्पादन की लागत

cotton

Source: As estimated by Punalikrao Ukarde, former deputy sarpanch of Karmad village, Aurangabad taluka and district

उकार्दे को बीज, उर्वरक, कीटनाशक, सिंचाई, उपकरण और श्रम में अच्छी खासी लागत लगती है। फिर वह अपने तीन एकड़ खेत से उपजे हुए कपास, हरे और काले चने बेचेंगे। लागत निकालकर उनके हाथ में प्रति वर्ष लगभग 1000 रुपए रह जाते हैं। इसमें गेहूं और ज्वार से भी आय शामिल है, जो वह रबी के मौसम में इसी खेत पर उगाते हैं।

Ukarde

बाएं से दाएं: किसान पुंडलिकराव उकार्दे के खेत पर बुआई के उर्वरक डायमोनियम फॉस्फेट (डीएपी) के साथ मिश्रित काली ग्राम बीज की रखी एक बोरी। महाराष्ट्र में, औरंगाबाद तालुका और जिले के करनाद गांव के बाहर किसान पुंडलिकराव उकार्डे और उनकी पत्नी कांताबाई।

उकार्दे के परिवार में सात सदस्य हैं । पूरा परिवार आय के लिए पूरी तरह से कृषि पर निर्भर है। उकार्दे हमसे पूछते हैं, "हम इतनी ही आय में अपने स्वास्थ्य, बच्चों की शिक्षा और अन्य सभी खर्चों का ख्याल कैसे रख पाएंगे?"

एक समय था, जब वह अपने दस गाय और भैसों का दूध बेच कर कहीं ज्यादा कमाते थे। गोबर को खेतों उपजाऊ बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। आज की तारीख में उकार्दे की पशुशाला लगभग खाली है। उनके पास केवल दो स्वदेशी गाएं हैं, जो रोजाना लगभग 1से 2 लीटर दूध देती हैं , जो केवल परिवार के लिए है।

उकार्दे याद करते हुए बताते हैं, “1990 और 2000 के दशक के शुरुआती दिनों में गांव के ज्यादातर लोगों के पास कम से कम छह भैंसें थीं। गांव में एक सहकारी डेयरी भी थी। इस डेयरी से प्रतिदिन 450 लीटर दूध की आपूर्ति होती थी।”

उकार्दे कहते हैं कि कई सालों से सरकार ने फसलों की तरह ही दूध का खरीद मूल्य नाममात्र बढ़ाया है। उकार्दे ने सात सालों तक सहकारी समीति की अध्यक्षता की है।

आखिरकार, सहकारी समिति ने नुकसान उठाना शुरू कर दिया और इसे निजी कंपनी को बेच दिया गया।

वह कहते हैं, "यहां तक ​​कि गांव में जो दूध की आपूर्ति करते थे, वे अब खुद के लिए पैक किए गए दूध खरीद रहे हैं।"

लगातार सूखे ने न केवल फसलों को नुकसान पहुंचाया है, बल्कि गांव की आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था को भी नष्ट कर दिया।

कुछ साल पहले एक 8,00,000 लीटर क्षमता वाला तालाब उकार्दे ने अपने खेत के पास बनवाया था। वह तालाब पिछले तीन वर्षों में नहीं भरा है।

Farm pond constructed seven years ago by the Ukardes at a cost of Rs. 1.6 lakh. Owing to drought, it hasn't filled in the past three years.

महाराष्ट्र में औरंगाबाद तालुका और जिला के कमराद गांव में उकार्दे ने 8,00,000 लीटर क्षमता का तालाब बनवाया था। वह कहते हैं, "सूखे के कारण पिछले 2-3 सालों में तालाब नही भरा है। हमें हमारे फसलों के लिए पानी के टैंकर खरीदने पड़ते हैं। "

वह कहते हैं, “कुएं का पानी भी अब सूख गया है। हमारे लिए पर्याप्त पीने का पानी भी नहीं बचा है। हमें हमारी फसलों के लिए पानी के लिए टैंकर खरीदने पड़ते हैं। ”

कुछ साल पहले जल संग्रहण अवसंरचना के साथ, उकार्दे ने सात साल पहले एक एकड़ पर अनार उगाने शुरु कर दिया है। एक एकड़ पर 200 पेड़ लगाए जा सकते हैं और प्रत्येक पेड़ से 20 किलोग्राम अनार मिलते हैं। वह कहते हैं, "अनार ही एकमात्र लाभदायक फसल है जिसने कृषि में हमारी मदद की है। इस फैसले के कारण मैं 1 लाख रुपये बचाने में सफल रहा हूं। लेकिन फसल को बहुत पानी चाहिए और, सूखे के समय, कुओं और तालाब में कम पानी के साथ, अनार खेती की लागत बहुत बढ़ जाती है। सूखे के अलावा, प्राकृतिक आपदाओं जैसे ओले , तूफान और यहां तक ​​कि कीटनाशकों से काफी नुकसान हो सकता है। "

ऐसे मुशिकल भरे समय में, केवल उत्पादक जानवरों को रखना और उनके बूढ़े होने के बाद उन्हें बेचना, एक आम बात थी। उकार्दे से जब हमने मवेशी बिक्री पर सरकार के नए नियमों के संबंध में पूछा तो उन्होंने कहा, “हम अपने सभी मवेशियों को उनके शहर के घरों में छोड़ने के लिए तैयार हैं। वे चाहें तो उनकी देखभाल कर सकते हैं। ”

अपने टूटे हुए चश्मे को ठीक करते हुए उकार्दे कहते हैं, “ हम उम्मीद कर रहे थे कि किसानों को उनके उपज के लिए सही कीमत मिलेगी। हमें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह सरकार बीजेपी की है, कांग्रेस की है या शिवसेना या एनसीपी की है। आमाचाय घामाचा दाम मिलला पही (हमें अपने पसीने की कीमत मिलनी चाहिए)।”

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने हाल ही में कहा है कि ‘गाय संरक्षण’ कृषि संकट और किसानों के आत्महत्याओं को रोकने की कुंजी है। लेकिन यह स्पष्ट है, सूखे जैसे संकट में उकार्दे जैसे किसानों द्वारा पशुओं का उपयोग किस प्रकार होता है। किसान नए मवेशी बाजार के नियमों की शर्तों के मुताबिक नहीं रह सकते हैं।

इंडियास्पेंड ने मराठवाड़ा के भीतरी और दूर-दराज के क्षेत्र में अपनी यात्रा के दौरान पाया कि इस नियम से मराठवाड़ा में एक समय रहने वाले छोटे पशु बाजारों का व्यापार धीमा हुआ है। किसान और व्यापारी, दोनों ही अब बाजार से दूर हो रहे हैं।

लातूर जिले के हलली-हंडरगुली गांव के एक उपगांव पाटिलवाड़ा के एक 65 वर्षीय किसान नीलकांत चिमांदारे कहते हैं कि ज्यादातर छोटे किसानों के पास अनुत्पादक मवेशी बनाए रखने के लिए कोई संसाधन नहीं हैं। वह अनुमान लगा कर बताते हैं कि एक दिन में एक बैल पर कम से कम 50 लीटर पानी और 20 किलो चारे का खपत होता है। चार-पांच जानवरों के चारे के लिए कम से कम एक एकड़ भूमि की जरूरत है-“कई लोगों के पास चारा या ज्वार पैदा करने के लिए संसाधन नहीं होते हैं। उन्हें दूसरों से खरीदना पड़ता है। ”

चिमांदारे अपने पशुओं को खिलाने पर होने वाले खर्च के सवालों से परेशान हैं, “वह हमारे बच्चों की तरह हैं। हम अपने पशुओं को खिलाने वाले खाने का हिसाब नहीं रखते हैं। केवल गोशाला और अन्य पशु-प्रजनन इकाइयों में निर्धारित मात्रा में पानी और चारा निर्धारित किया जाता है। ”

चिमांदारे के पास दो बैल हैं-“यंत्रीकरण के बावजूद वे अब भी खेती के लिए उपयोगी हैं। ट्रैक्टरों को बुवाई से पहले टिलिंग के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन कभी-कभी वे किराए के लिए उपलब्ध नहीं होते हैं। खेती के लिए मिट्टी को ढीला करने के लिए केवल बैल का उपयोग किया जा सकता है।”

(कुलकर्णी एक स्वतंत्र लेखक हैं और मुंबई में रहती हैं। वह सामाजिक उद्यम और मजदूर किसान शक्ति संगठन से जुड़ी रही हैं।)

पशुओं पर क्रूरता और पशुओं के वध को रोकने के लिए नए पशु कानून से कानून से पशु बाजार पर क्यों बढ़ गया है दवाब, क्यों मुश्किल में हैं किसान, इसपर दो लेखों की श्रृंखला का यह दूसरा और अंतिम भाग है। पहला भाग आप यहां पढ़ सकते हैं।

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 11 जुलाई 2017 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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