पटना/गया (बिहार): बिहार के गया ज़िले के फतेहपुर ब्लॉक के बापू ग्राम के रहने वाले 14 साल के विनय मांझी को पड़ोस में ही रहने वाला एक व्यक्ति यह कह कर राजस्थान के जयपुर ले गया था कि वह उसे वहां काम दिलवा देगा।

विनय का परिवार भूमिहीन है। उसके पिता रामप्रसाद मांझी मज़दूरी करते थे। घर में पैसों की क़िल्लत रहती थी, इसलिए उसे जयपुर ले जाने का प्रस्ताव आया तो वह मना नहीं कर पाए। विनय जब जयपुर पहुंचा, तो उसे एक चूड़ी फ़ैक्टरी में मज़दूरी पर लगा दिया गया। वहां दिन में 15 घंटे तक उससे चूड़ियां बनवाई जाती।

विनय मांझी अपनी मां के साथ

“फ़ैक्टरी में खाता था और वहीं सोता था। भरपेट खाना भी वहां नहीं मिलता था और ज़्यादा से ज़्यादा काम करने को कहा जाता। कभी-कभी मारपीट भी की जाती,” विनय ने बताया।

विनय ने वहां चार महीने तक काम किया, लेकिन उसे उसकी मज़दूरी के बदले एक पैसा भी नहीं दिया गया। एक स्थानीय एनजीओ की मदद से उसे फ़ैक्टरी से आज़ाद कराया गया और पिछले साल फ़रवरी में वह अपने घर लौट पाया।

विनय की कहानी बिहार के लिए कोई अनोखी या नई नहीं है। यहां के सैकड़ों ग़रीब व पिछड़ी जातियों के बच्चों की यही स्थिति है। इनके ग़रीब माता-पिता को पैसे का लालच देकर बिचौलिए बच्चों को राजस्थान की चूड़ी फ़ैक्टरियों में काम कराने के लिए ले जाते हैं, जहां इनके साथ अमानवीय व्यवहार होता है।

चूड़ी फ़ैक्टरियों में काम करने वाले 85% बच्चे बिहार के हैं, राजस्थान में बाल अधिकारों पर काम करने वाली एक ग़ैर-सरकारी संस्था टावर सोसाइटी के बबन मिश्रा ने बताया।

बाल तस्करी के बढ़ते मामले

बिहार में 18 साल से कम उम्र के बच्चों की तस्करी के मामलों में बेतहाशा इज़ाफा हुआ है। साल 2016 में 18 साल से कम उम्र के 196 बच्चों की तस्करी हुई थी, जो साल 2017 में बढ़ कर 395 और 2018 में 539 पर पहुंच गई, नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक़। तस्करी के इन मामलों के कोर्ट में निबटारे के आंकड़े भी चिंताजनक हैं।

साल 2016 और 2017 में बच्चों की तस्करी के अभियुक्तों पर अपराध साबित करने का आंकड़ा शून्य था जबकि 2018 में 8 मामलों में अभियुक्तों को सज़ा हुई।

Year Trafficked Children Below 18 Cases Ragistered Disposed off Cases
2016 196 43 0
2017 395 121 0
2018 539 127 8

Source: NCRB

तस्करी का शिकार पिछड़ी जातियों के बच्चे

बालश्रम के लिए तस्करी होने वाले बच्चों की जातीय पृष्ठभूमि देखें तो पता चलता है कि इनमें पिछड़ी जातियों की तादाद ज़्यादा है। बच्चों की तस्करी के सबसे ज़्यादा मामले गया से सामने आए हैं, बिहार के श्रम विभाग की तरफ़ से मुहैया कराए गए आंकड़ों का विश्लेषण करने पर यह बात सामने आई।

साल 2015-2016 में बिहार के 1101 बच्चे बाल श्रम से मुक्त कराए गए थे। इनमें अकेले गया ज़िले के बच्चों की तादाद 160 थी। इन 160 बच्चों में मांझी यानी मुसहर समुदाय (बिहार की सबसे ग़रीब जाति) के 76 बच्चे शामिल थे। इसी तरह साल 2016-2017 में दूसरे राज्यों की फ़ैक्टरियों से 1050 बच्चों को छुड़ाया गया था जिनमें गया ज़िले के बच्चों की संख्या 284 थी। इनमें मांझी समुदाय के 118 बच्चे थे, श्रम विभाग के पास उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक़।

साल 2014 से 2019 तक केवल गया मूल के 978 बच्चों को राजस्थान और दूसरे राज्यों की फ़ैक्टरियों से मुक्त कराया गया, चाइल्ड वेलफ़ेयर बोर्ड (गया) के हवाले से मिले आंकड़ों के मुताबिक़। गया से बालश्रम के लिए बच्चों की तस्करी सबसे ज़्यादा होती है, बिहार के समाज कल्याण (सोशल वेलफ़ेयर) विभाग के डायरेक्टर राज कुमार ने माना।

सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं

ग़ौरतलब है कि बाल मज़दूरी और तस्करी रोकने के लिए बिहार सरकार की तरफ से आधा दर्जन से ज़्यादा योजनाएं चल रही हैं। इन योजनाओं में आर्थिक मदद से लेकर बच्चों की पढ़ाई-लिखाई सुनिश्चित करना तक शामिल है लेकिन फिर भी बच्चों की तस्करी के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। उधर, सरकार इससे इंकार करती है।

"पहले की अपेक्षा हालात में सुधार आया है। ग़रीब तबक़े के बच्चों को आंगनबाड़ी केंद्रों में भेजा जा रहा है और बच्चे बड़े होते हैं, तो आगे की उनकी पढ़ाई में आर्थिक मदद दी जा रही है," राज्य के समाज कल्याण मंत्री रामसेवक सिंह ने कहा। "बालश्रम से मुक्त कराए गए बच्चों का पुनर्वास भी कराया जा रहा है," उन्होंने बताया।

दिल्ली की एक शोध संस्था एकाउंटिब्लिटी इनिशिएटिव ने साल 2018 में गया के 6 गांवों के 342 बच्चों को इंटिग्रेटेड चाइल्ड प्रोटेक्शन स्कीम के लाभार्थियों के रूप में चिन्हित किया था। एक साल बीत जाने के बाद भी इन 342 बच्चों में एक को भी इस स्कीम का लाभ नहीं मिला।

इसी तरह फ़ैक्टरियों से मुक्त कराए गए बच्चों को सेंट्रल सेक्टर स्कीम-2016 के अंतर्गत फ़ैक्टरी मालिकों की तरफ से मुआवज़ा देने का भी नियम है। इसके लिए जिस राज्य से बच्चों को मुक्त कराया जाता है, वहां के प्रशासन की तरफ़ से रिलीज़ सर्टिफ़िकेट जारी किया जाने का प्रावधान है। लेकिन, ज़्यादातर बच्चों को इस स्कीम का लाभ नहीं मिल पा रहा है। “अधिकतर मामलों में फ़ैक्टरी मालिकों के साथ स्थानीय पुलिस की मिलीभगत होती है, जिस कारण इस तरह के सर्टिफ़िकेट जारी ही नहीं हो पाते हैं,” राज्य के समाज कल्याण विभाग के एक अधिकारी ने नाम ज़ाहिर ना करने की शर्त पर बताया।

31 अक्टूबर 2019 को बिहार के कैमूर ज़िले के श्रम अधीक्षक की तरफ़ से बिहार के श्रम आयुक्त को लिखी चिट्ठी से पता चलता है कि 6 अगस्त 2018 को जयपुर से मुक्त कराए गए 123 बाल श्रमिकों में से 6 बाल श्रमिक कैमूर के अधौड़ा के थे। इनका रिलीज़ सर्टिफ़िकेट जयपुर प्रशासन की तरफ़ से जारी नहीं किया गया था जिससे उन्हें इस स्कीम का लाभ नहीं मिला।

हमने फ़ैक्टरियों से छुड़ाए गए आधा दर्जन बाल श्रमिकों के अभिभावकों से बात की। सभी ने बताया कि उन्हें सरकारी स्कीम का कोई लाभ नहीं मिला।

जयपुर की चूड़ी फ़ैक्ट्री से मुक्त कराने के बाद आनंद मांझी अपने पिता के साथ

गया के शेरघाटी ब्लॉक के नीमा जमुआइन गांव के 16 साल के आनंद मांझी को पिछले साल जयपुर की चूड़ी फ़ैक्टरी से मुक्त कराया गया था। उनके पास खेती के लिए ज़मीन नहीं है, जिस कारण आनंद को नौकरी दिलवाने की बात कहकर बिचौलिया ले गया, तो उन्होंने मना नहीं किया था, आनंद के पिता सुदेसर मांझी ने कहा। “आनंद के जयपुर से लौटने के बाद अभी तक सरकार की तरफ़ से एक रुपए की भी मदद नहीं मिली है,” उन्होंने बताया।

बालश्रम को लेकर ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले जानकारों का कहना है कि ग़रीब और पिछड़े तबके को जब तक आर्थिक तौर पर मज़बूत नहीं बनाया जाएगा, तब तक इस समस्या से मुक्ति नहीं मिल सकती है। उनके मुताबिक कमज़ोर वर्ग के लोगों को पैसे का लालच देकर उनके बच्चों को जयपुर या दूसरे शहरों में ले जाया जाता है।

“मुझे जयपुर ले जाने से पहले बिचौलिए ने मेरे पिताजी को 500 रुपए एडवांस दिया था,” विनय ने बताया।

शिक्षा और जागरुकता की कमी

“पिछड़े समुदायों में शिक्षा के साथ ही जागरूकता की भी भारी कमी है. शिक्षा और जागरूकता के साथ ही इन समुदायों तक सरकारी योजनाओं का लाभ पहुंचा कर उन्हें आर्थिक रूप से मज़बूत बनाना भी बहुत जरूरी है,” बाल अधिकारों पर काम करनेवाली संस्था 'एक किरण आरोह' की ऋतु प्रिया ने कहा।

“बाल श्रम से मुक्त कराए गए बच्चों के लिए योजनाएं तो बहुत हैं, लेकिन इन योजनाओं का कार्यान्वयन ठीक से नहीं हो रहा है,” गया में बाल श्रमिकों के लिए काम करनेवाली ग़ैर-सरकारी संस्था 'सेंटर डायरेक्ट' के पीके शर्मा ने कहा। “ दूसरी बात यह है कि बाल श्रम से कई विभाग प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जुड़े हुए हैं। समाज कल्याण विभाग ने मानव तस्करी रोकने और पीड़ितों के पुनर्वास के लिए राज्य-स्तरीय कार्ययोजना तैयार की थी जिसका नाम था अस्तित्व। इसे दिसंबर 2008 में ही लाया गया था। इसमें राज्यस्तरीय, ज़िलास्तरीय कमेटी तथा एंटी ह्यूमन ट्रैफ़िकिंग टास्क फ़ोर्स बनाने की बात थी। इतना ही नहीं इसमें प्रोसीक्यूशन मॉनीटरिंग कमेटी बनाई जानी थी। और तो और ग्रामीण स्तर पर भी एंटी ट्रैफिकिंग इकाइयां गठित होनी थी,” उन्होंने बताया।

“पूरे भारत में बिहार इकलौता राज्य था, जहां ऐसी अनूठी कार्ययोजना लाई गई थी। इसके बावजूद बाल श्रम के लिए बिहार से बच्चों की तस्करी थम नहीं रही है। इससे साफ़ है कि सरकारी तंत्र ठीक से काम नहीं कर रहा है और ना ही अपनी जवाबदेही समझ रहा है,” उन्होंने कहा।

(उमेश, पटना में स्वतंत्र पत्रकार हैं और 101Reporters.com के सदस्य हैं।)

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