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  • दिल्ली एवं एन.सी.आर क्षेत्र में कम से कम 8,044 बच्चे ( 5 से 17 वर्ष के बीच )कपड़े बनाने की फैक्ट्री में काम करते हैं।
  • इनमें से 87 फीसदी बच्चे दूसरे के घरों में काम करते हैं जबकि 13 फीसदी ‘अड्डों’ (छोटे व्यापारिक इकाइयां ) पर काम करते हैं।
  • यदि स्कूल जाने का मौका दिया जाए तो शायद इनमें से 82 फीसदी बच्चे स्कूल जाना पसंद नहीं करेंगे।

यह कुछ मुख्य बिंदु हैं जो बच्चों के अधिकार के लिए काम करने वाली संस्था, ‘सेव द चिल्ड्रेन’ के अध्ययन के दौरान सामने आए हैं।

दूसरों के घरों में काम करने वाले बच्चों में से कम से कम 90 फीसदी बच्चों का दाखिला स्कूल में हो रखा है। लेकिन 22 फीसदी बच्चों का मन शिक्षा की ओर नहीं है। छोटे अड्डों में काम करने वाले बच्चों का या तो दाखिला नहीं हुआ है या फिर वह स्कूल नहीं जाते।

लगभग 78 फीसदी बच्चे मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा के प्रति जागरुक दिखे। साथ ही उन्हें यह जानकारी भी थी कि बाल श्रम करना गैर कानूनी है। हालांकि 92 फीसदी बच्चों ने बताया कि वह अपने काम से खुश हैं। इस अध्ययन के दौरान यह महसूस किया गया कि शायद बच्चे जो अनुभव कर रहे हैं वह ठीक से बता नहीं पा रहे या फिर उन्होंने बाहर की दुनिया का काफी छोटा हिस्सा देखा और अनुभव किया है या फिर इतनी छोटी उम्र में काम के बदले हाथों में पैसे देख कर खुश हैं।

लगभग 40 फीसदी उत्तरदाता अपने काम में अधिक समय तक रहने की इच्छा नहीं जताई। इन्होंने बताया कि अगर मौका मिले तो यह डॉक्टर, इंजीनियर और वकील बनना चाहेंगे।

भारत में हैं सबसे अधिक बाल श्रमिक

2011 की जनगणना के मुताबिक किसी भी अन्य देश की तुलना में भारत में सबसे अधिक बाल श्रमिक हैं। जनगणना में यह आकंडे 11.7 मिलियन बताए गए हैं। हालांकि कैलाश सत्यार्थी के, बाल श्रम के खिलाफ काम करने के लिए, नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद इस गंभीर समस्या को एक नई दिशा ज़रुर मिली है।

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में 5 से 17 वर्ष के बीच बाल श्रमिकों की संख्या 168 मिलियन है जोकि विश्व की बाल जनसंख्या का 11 फीसदी है।

2011 के जनजणना के मुताबिक 11.7 मिलियन की संख्या के साथ भारत बाल श्रमिकों के मामले में विश्व में काफी उंचे स्थान पर है।

सेव द चिल्ड्रेन संस्था द्वारा किए गए अध्ययन में पूर्वी दिल्ली , दक्षिण दिल्ली और दक्षिण पूर्वी दिल्ली में काम कर रहे बच्चों को लिया गया। भारत के कानून के मुताबिक 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को काम पर नहीं रखा जा सकता है।

कपड़ा फैक्ट्री में काम करने वाले ज़्यातर बच्चे उत्तर प्रदेश, बिहार , झारखंड एवं पश्चिम बंगाल के रहने वाले थे। संस्था द्वारा किए गए सर्वेक्षण में 170 बच्चों को लिया गया जिसमें से 102 लड़कियां थी। इनमें से 60 फीसदी बच्चे अपने परिवार की आर्थिक मदद के लिए काम कर रहे थे।

मजदूरी के लिए खोया बचपन

छोटे अड्डों पर बाल श्रमिकों का सबसे अधिक शोषण होता है। एक दिन में इन बच्चों को 12 से 14 घंटे काम करना पड़ता है। यह बच्चे जहां काम करते हैं उनका रहना-सोना वहीं होता है। अड्डे के मालिक के मर्जी से साल में एक या दो बार अपने परिवार से मिल पाते हैं।

इन बच्चों के मुकाबले घरों में काम करने वाले बच्चे थोड़ी सहुलियत में ज़रुर जीते हैं। अगर इनका दाखिला स्कूल में हुआ है तो यह दिन में तीन से चार घंटे काम करते हैं। यदि बच्चों का दाखिला स्कूल में नहीं हुआ है तो यह पूरा दिन घरों में काम करते हैं। अध्ययन में पाया गया कि घरों में काम करने वाले करीब 92 फीसदी बच्चों का नमांकन स्कूलों में हुआ है और यह नियमित तौर पर स्कूल भी जाते हैं।

कपड़ा फैक्ट्री में काम करने वाले बच्चे धागा काटने, पत्थर - चिपकाने, सिंगार , कढ़ाई , जरी का काम लेकर पैकेजिंग और वितरण का काम भी करते हैं।इनमें कुछ अनाड़ी, कुछ अर्धकुशल एवं कुछ कुशल कारीगर बच्चे शामिल हैं।

घरों में काम करने वाले ज़्यादातर बाल श्रमिकों को प्रति महीने 500 रुपए से कम मिलते हैं। हालांकि पैसे बच्चों के माता-पिता को दिए जाते हैं, कभी-कभार कुछ खर्चों के लिए बच्चों के हाथ में कुछ पैसे दिए जाते हैं।

इसलिए तकनीकी तौर पर बच्चों को उनके काम के लिए भुगतान नहीं दिया जाता है।

अड्डों पर काम करने वाले 45 फीसदी बच्चों को मासिक वेतन 2,501 रुपए से लेकर 5,000 रुपए तक मिलता है जबकि 45 फीसदी की तनख्वाह 5,000 रुपए से अधिक होत है। इनमें से ज़्यादातर बच्चों को उनके काम के अनुसार पैसे दिए जाते हैं।

काम में होने वाले जोखिम पर बात नहीं करते

शोधकर्ता को एक अड्डे के मालिक ने बताया कि 35-40 वर्ष तक पहुंचते-पहुंचते हमारा शरीर जवाब देने लगता है। बारीक काम करते-करते हाथ और आंखें दोनों ठीक तरह से काम नहीं करती। बच्चे शरीर दर्द , पीठ दर्द और कमजोर नेत्र दृष्टि की शिकायत करते हैं। साथ ही उनके लिए काम करने वाले तेज उपकरण , कटर, सुई और मशीनों से हमेशा खतरा भी बना रहता है।

घरों एवं अड्डों पर काम करते वक्त बच्चों के लिए कोई मेडिकल सहायता नही होती।

सेव द चिल्ड्रेन संस्था ने अपने अध्ययन में अड्डों में होने वाले शारीरिक, मौखिक और यौन शोषण के कुछ उदाहरणों का भी ज़िक्र किया है। करीब 11 फीसदी घर पर काम करने वाले बच्चों के साथ दुर्व्यवहार की सूचना दी गई है जबकि अड्डों पर काम करने वाले बच्चों का प्रतिशत 6 फीसदी ही देखा गया है।

इसका मतलब यह कतई नहीं लगाया जा सकता कि बच्चों के साथ होने वालेदुर्व्यवहार की संख्या कम है। यह हो सकता है कि बच्चों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार घटना की रिपोर्ट कम की जाती हो।

(सालवे इंडियास्पेंड के साथ नीति विश्लेषक और शर्मा सिम्बायोसिस, पुणे से एक अनुसंधान प्रशिक्षु है )

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में indiaspend.com पर 3 जुलाई 2015 को प्रकाशित हुआ है


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