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भारत की निचली अदालतों में कम से कम 25 मिलियन मामले लंबित हैं जिनका निपटारा करने में कम से कम 12 वर्ष का समय लगेगा। प्रति माह 43 मामलों के साथ हर राज्य की निपटारे की दर अलग है।

एक नज़र गुजरात पर डालते हैं। यदि वर्तमान निपटारा दर के साथ चले तो राज्य के नीचली अदालतों में लंबित मामलों का निपटारा करने में 287 वर्ष लग जाएंगे जबकि गुजरात में न्यायधीशों की संख्या अधिक है।

राज्य अनुसार लंबित मामले निपटाने में लगने वाला समय

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस संतोष हेगड़े कहते हैं कि गुजरात की निचली न्यायपालिका के साथ कुछ गलत होता दिखाई देता है। हेगड़े कहते हैं कि "या तो राज्य का उच्च न्यायालय इस ओर ध्यान नहीं दे रहा है या फिर हर किसी को सिस्टम की कार्य-प्रणाली की आदत हो गई है।"

कर्नाटक, जो हेगड़े का गृह स्थान भी है, में नीचली अदालतें बेहतर ढ़ंग से काम करती दिख रही हैं। पिछले महीने की दर पर, कर्नाटक की नीचली अदालतों में तीन साल के भीतर सभी लंबित मामलों के निपटाने के लिए सक्षम होगा।

महाराष्ट्र एवं पश्चिम बंगाल में एक दिन में निपटाए जाने वाले मामलों की तुलना में दायर किए जाने वाले मामलों की संख्या अधिक है। और इन मामलों का संचित कार्य में जुड़ जाना ज़ाहिर है।

इंडियास्पेंड ने आपको पहले ही अपनी खास रिपोर्ट में पहले ही बताया है कि किस प्रकार न्यायपालिका अपने ही बोझ तले दबे जा रही है।

जानबूझकर होती है देरी

कर्नाटक के नीचली अदालत का एक न्यायधीश, एक महीने में 113 मामलों का निपटारा करता है। इस आंकड़े से गुजरात के न्यायधीश कहीं मेल नहीं खाते हैं। एक महीने में गुजरात के नीचली अदातल के एक न्यायधीश केवल 19 मामलों का ही निपटारा कर पाते हैं।

एक महीने में 13 से भी मामलों का निपटारा करने के आंकड़े के साथ मिजोरम और त्रिपुरा जैसे राज्यों का देश में सबसे कम मामला निपटारा दर है।

राज्य अनुसार एक न्यायाधीश द्वारा निपटाए जाने वाले औसत मामले

दीपक दास, कानून के एसोसिएट प्रोफेसर, हिदायतुल्ला राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय के अनुसार देश भर की नीचली अदालतों में मामले लंबित रहने के मुख्य कारणों में टालमटोल की रणनीति, लगातार न्यायधीशों के तबादले एवं अपने ग्राहकों से अधिक पैसे बनाने के उदेश्य से विवादों का हल निकालने के लिए वकीलों की अनिच्छा शामिल है।

दास कहते हैं कि, “न्यायपालिका में लगातार राजनीतिक हस्तक्षेप सिस्टम के लिए हानिकारक है। न्याय अब राजनीतिक जुड़ाव को देख कर दिया जाता है।”

गुजरात की जिला एवं सत्र अदालतों में 1,096 न्यायाधीश हैं। आंकड़ों की बात करें तो देश भर में न्यायाधीशों की संख्या में मामले में गुजरात पांचवें स्थान पर है। इस संबंध में टॉप चार राज्य महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश , राजस्थान और बिहार है।

महाराष्ट्र में न्यायाधीशों की संख्या 2,452 है।

फिर भी इन दोनों राज्यों में अन्य राज्यों के मुकाबले लंबित मामलों की संख्या सबसे अधिक है।

राज्य और मुकदमेबाजी की दर से लंबित मामले

Source: National Judicial Grid Data, Census 2011. Data for AP & Telangana have been added to arrive at litigation rate.

दास कहते हैं कि, “देश की प्रक्रियात्मक कानून इतनी जटिल है कि यह बाधा के रुप में सामने आता है।”

इंडियास्पेंज ने अपनी रिपोर्ट में पहले भी बताया है कि निदरलैंड की जनसंख्या से भी अधिक भारत में विचाराधीन कैदियों की संख्या हैं।

पैसे से नहीं होता समस्या का समाधान

न्यायिक बुनियादी ढांचे के विकास के लिए एक केन्द्र प्रायोजित योजना के तहत वित्तीय सहायता जारी करके केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों के संसाधनों में वृद्धि की है।

उत्तर प्रदेश को केंद्र से अधिकतम वित्तीय सहायता प्राप्त हुई है। विधि और न्याय मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार 2012 से पिछले चार वित्तीय वर्षों, केद्र द्वारा उत्तर प्रदेश को 394.5 करोड़ रुपये दिए गए हैं।

केंद्रीय योजना के तहत राज्यों के लिए वित्त पोषण

सनत राय, कलकत्ता उच्च न्यायालय के एक वकील, कहते हैं, “राज्य न्यायपालिका के लिए ढांचागत विकास के लिए केंद्र सरकार द्वारा आवंटित धन अक्सर पैरवी पर निर्भर करता है। इसके अलावा, पैसे की सबसे विविध मदों के तहत खर्च किया जाता है । विकास के मामले एक कदम पीछे ही रहते हैं।”

कोलकाता एवं वडोदरा हैं सबसे बद्तर ज़िले

देश में सबसे अधिक लंबित मामलों की संख्या पश्चिम बंगाल के कोलकाता ज़िले की है। कानून मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार 16 नवंबर 2015 तक कोलकाता ज़िले में लंबित मामलों की संख्या 454,197 है। इस संबंध में दूसरा स्थान वडोदरा का है।

सिक्किम और उत्तर-पूर्वी राज्यों में जिलों लंबित मामलों की संख्या सबसे कम है। इसका कारण प्रति 1,000 लोगों पर कम मुकदमेबाजी दर है।

सबसे अधिक लंबित मामले वाले ज़िले

सबसे कम लंबित मामले वाले ज़िले

इंडियन एक्सप्रेस की इस खबर के अनुसार, भारत के मुख्य न्यायाधीश एचएल दत्तू कहते हैं कि, “हमने निर्णय लिया है कि पूरी कोशिश करेंगें कि अदालत में मामला पांच वर्ष से अधिक न रहे।”

न्यायमूर्ति हेगड़े के अनुसार, “न्याय के त्वरित वितरण के लिए मूल कानून और प्रक्रिया संबंधी कानून में बदलाव होना चाहिए। लंबित मामलों से निपटने के लिए एक ठोस योजना होनी चाहिए और यह सुनिश्चत करें कि ताजा मामलों की केवल एक न्यूनतम संख्या ही दायर हो।”

अदालतों में मामले के निपटारे में क्यों लगते हैं वर्षों? एक न्यायाधीश का जवाब

सुनीता पाधी, 15 से भी अधिक वर्ष ओडिशा में विभिन्न जिला अदालतों में काम करने वाले एक पूर्व न्यायाधीश, न्यायिक प्रणाली के साथ काम करने के अपने अनुभव सुनाती हैं एवं न्यायाधीशो के खुद के आचार-व्यवहार के संबंध में बताती हैं।

“मामले को अदालत में निपटने में सालों क्यों लगते हैं? मैं खुद के अनुभव से कह सकती हूं कि केवल ईमानदार जजों की बड़ी संख्या त्वरित न्याय सुनिश्चित कर सकते हैं। गरीब वादियों के लिए ( जो समय और पैसे वहन नहीं कर सकते हैं ), कमियों के साथ खड़े न्यायपालिका से न्याय हथियाने के लिए स्थानीय पुलिस और अदालतों को काफी हद तक अंतिम प्रभुत्व हैं।

व्यक्तिगत देखभाल और पीठासीन अधिकारियों द्वारा पर्यवेक्षण आज के समय की मांग है। अदालतों और न्यायाधीशों नियमित रूप से आत्म – मूल्यांकन और सुधार के लिए लक्ष्य तय करना चाहिए। आत्म अनुशासन और पारदर्शिता बहुत जरूरी हैं और न्यायाधीशों को सभी प्रकार के डर से मुक्त होना चाहिए जकि वर्तमान स्थिति में कुछ असामान्य है।

किसी विशेष कारण के बिना, एक आधी-अधूरी आदेश संशोधन या अपील के रूप में आगे मुकदमेबाजी को आकर्षित करती है। यह तब होता है जब, न्यायाधीश प्रभावशाली व्यक्तियों से जुड़े जटिल मामलों से छुटकारा पाने का प्रयास करते हैं । न्यायालयों को खुले तौर पर एवं सरल भाषा में जमानत के आदेश का उच्चारण करना चाहिए। आमतौर पर, न्यायाधीश के पहले ही दिन से मामले की पहचान हो जाती है। अधिकतर मामलों में, मामले को लंबित रखने या निपटारा करना, न्यायाधीशों पर निर्भर रहता है।

कुछ न्यायाधीशों लापरवाह होते हैं । कुछ आसान मामलों जैसे कि आबकारी और शराब से संबंधित मामलों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। अधिकर, न्यायाधीशों का पास-टाइम गप्पे हांकना और रिश्वत लेना होता है। फिर भी, अधिकतर न्यायाधीश लंबित मामलों को अतीत की विरासत कहते हुए देरी के प्रति उदासीन बने हुए हैं।

मुझे लगता है कि आउट ऑफ कोर्ट सेटलमेंट के ज़रिए एवं फास्ट ट्रैक अदालतों की स्थापना कर लंबित मामलों से निपटारा पाया जा सकता है। न्यायाधीशों को न्याय चाहने वालों और उनकी शिकायतों के प्रति अनुकूल एवं सहिष्णु होना चाहिए।”

आंकड़ों के लिए यहां क्लिक करें।

यह एक तीन भाग श्रृंखला का पहला भाग है।

( घोष 101reporters.com के साथ जुड़े हैं एवं सामाजिक मुद्दों पर लिखते हैं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेज़ी में 2 दिसंबर 2015 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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