नई दिल्ली: ऐसे वक्त में जब लगभग पूरा उत्तर भारत प्रदूषण की समस्या का सामना कर रहा है, पश्चिम भारत के एक राज्य, गुजरात से औद्योगिक प्रदूषण पर काबू पाने के लिए एक अच्छी ख़बर आई है। गुजरात के सूरत में एक पायलट प्रोजेक्ट चलाया जा रहा है - इमिशन ट्रेडिंग सिस्टम यानी ईटीएस। ये सिस्टम औद्योगिक इकाइयों से पैदा होने वाले ख़तरनाक पर्टिकुलेट यानी प्रदूषण फैलाने वाले कणों को घटा देता है।

गुजरात प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (GPCB) ने इमिशन ट्रेडिंग सिस्टम की शुरुआत जुलाई 2019 में राज्य की औद्योगिक नगरी, सूूरत में एक पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर की। योजना के पहले ही मूल्यांकन में इसके परिणाम सकारात्मक निकले। औद्योगिक इकाइयों से निकल कर प्रदूषण फैलाने वाले कणों में 29% की गिरावट दर्ज की गई। अपने तरह की एक अलग ये योजना ना केवल भारत में बल्कि दुनियाभर में पहली बार लागू की गई है। ये योजना केवल भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया के तमाम देशों में पहली बार शुरु की गई है।

सूरत की इंडस्ट्रियल हब की 158 इकाइयों ने इस "कैप एंड ट्रेड" योजना के लिए हस्ताक्षर किए हैं। इंडस्ट्रियल क्लस्टर एक सीमा निर्धारित करते हैं कि सामूहिक रूप से पार्टिकुलेट प्रदूषण का कितना उत्सर्जन किया जाएगा। औद्योगिक इकाइयां या तो इस उपकरण को अपने प्लांट में लगाती हैं या फिर उनके पर्टिकुलेट का क्रेडिट उन लोगों से ख़रीद सकती हैंं जिन्होने ये उपकरण लगाया हुआ है और उनका उत्सर्जन कम है। दो महीने के परीक्षण के बाद 15 सितंबर, 2019 को इसकी लाइव ट्रेडिंग शुरू हुई।

18 अक्टूबर, 2019 को जारी इस योजना के मूल्यांकन में कहा गया है कि बाजार-आधारित इस योजना का लचीलापन, इसमें शामिल औद्योगिक इकाइयों को कठोर सरकारी नियमों का पालन करने में लगने वाली लागत को कम करने में मदद करता हैं और वो भी पर्यावरण के मानकों से समझौता किए बिना। उदाहरण के तौर पर, औद्योगिक इकाइयां प्रदूषण नियंत्रण करने के उपकरण लगाने में होने वाले सालाना ख़र्च में एक तिहाई से ज़्यादा की रकम बचा सकती हैंं और अपने मुनाफ़े को बढ़ा सकते हैं।

सभी 158 औद्योगिक इकाइयों (ज़्यादातर कपड़ा उद्योग और डाई मिल) के सर्वेक्षण के आधार पर, एनर्जी पॉलिसी इन्स्टटूट ऑफ द यूनवर्सटी ऑफ शिकागो (EPIC-India) और यूएसए के येल यूनिवर्सिटी के इकोनोमिक ग्रोथ सेंटर (EGC-Yale) के रिसर्चर्स समेत कईं संस्थानों ने इस योजना के लाभ-हानि का विश्लेषण किया, जिन्होंने इस योजना को अमल में लाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।

ईपीआईसी के डायरेक्टर और रिपोर्ट के सह-लेखक माइकल ग्रीनस्टोन ने एक बयान में कहा, "पहली नज़र में पाया गया है कि इस योजना से कम्पनियों का मुनाफ़ा बढ़ने से आर्थिक रफ़्तार में तो बढ़ोत्तरी होगी ही साथ ही वायु प्रदूषण में कटौती से लोग भी सेहतमंद रहेंगें। यह भारतीय पर्यावरण नीति को दुनियाभर के स्तर पर ला रहा है।”

जो प्लांट अपने प्रदूषण को सस्ते में कम करने में सक्षम हैं वो ईटीएस के ज़रिये अपने परमिट (प्रदूषण भार के अनुपात में जारी किया गया प्रमाण पत्र) उन दूसरे प्लांट्स को बेच सकते हैं, जिसकी उत्पादन प्रक्रिया के कारण उन्हें ये महंगा पड़ता है। जून 2019 में इंडियास्पेंड को दिए एक इंटरव्यू में ग्रीनस्टोन ने सूरत में इस योजना के सफ़ल होने के बाद देश के दूसरे हिस्सों में भी इसे लागू करने की वकालत की थी।

इंडियास्पेंड ने दिसंबर 2018 की अपनी रिपोर्ट में बताया था कि हर आठ व्यक्तियों में से एक की मौत वायु प्रदूषण के कारण होती है। 2017 में 12.4 लाख लोगों की मौत वायु प्रदूषण के कारण हुई। देश विशेष रुप से छोटे प्रदूषण कणों की समस्या से जूझ रहा है जिसे पीएम-2.5 कहा जाता। पीएम-2.5 स्वास्थ्य के लिए बेहद खतरनाक होते हैं। भारत का पीएम 2.5 का स्तर दुनिया में चौथा सबसे ज्यादा और विश्व स्वास्थ्य संगठन की निर्धारित सीमा का नौ गुना है। देश के कुल पीएम-2.5 का 20 प्रतिशत उद्योगों और पावर प्लांट्स से संयुक्त रुप से आता हैं।

उत्सर्जन में 29% की कमी की व्याख्या

ईटीएस लागू होने से पहले, सूरत की इन 158 औद्योगिक इकाइयों में से कई प्लांट प्रदूषण नियमों का उल्लंघन कर रहे थे और सामूहिक रूप से हर महीने 362 टन पार्टिकुलेट प्रदूषण का उत्सर्जन कर रहे थे। इसके लॉन्च के बाद, ईटीएस ने इन प्लांटों से निकलने वाले पार्टिकुलेट उत्सर्जन पर हर महीने 280 टन की अधिकतम सीमा तय की है। यानी अगर ये औद्योगिक इकाइयां जीपीसीबी के नियमों का पालन करतीं, तक एक महीने में इतना उत्सर्जन कर पातीं। उत्सर्जन का ये स्तर पिछले स्तर के मुक़ाबले 29% कम है।

रिपोर्ट में इस बात पर ज़ोर दिया गया कि यह सीमा, जो वायुमंडल में जारी प्रदूषण की कुल मात्रा पर आधारित है, वर्तमान नियामक दृष्टिकोण में एक सुधार था, जो इस बात पर आधारित था कि फ़ैक्ट्री का उत्सर्जन कितना गंदा है, इसकी परवाह किए बिना कि कोई फ़ैक्ट्री कितने घंटे चलती है। (नियमों के तहत, उदाहरण के लिए सरकार, यूनिट बी की तुलना में उच्च-प्रदूषण के रूप में वर्गीकृत यूनिट ए पर ज़्यादा जुर्माना लगा सकती है, यूनिट बी को कम प्रदूषण के रूप में वर्गीकृत कर सकती है, भले ही यूनिट-ए ने अपने काम के कम घंटों की वजह से कुल मिलाकर कम प्रदूषण का उत्सर्जन किया हो)।

ईटीएस, प्रदूषण नियंत्रण की लागत कम करता है

जीपीसीबी के नियमों में, सरकार के प्रदूषण प्रदूषण मानकों को पूरा करने और पर्यावरणीय मंज़ूरी के लिए प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों को महंगे उपकरण लगाने की आवश्यकता है, जैसे कि बैग फिल्टर, सायक्लोन फिल्टर और इलेक्ट्रोस्टैटिक प्रेसिपेटर्स।

रिपोर्ट में प्रदूषण को रोकने के लिए इस तरह के उपकरण स्थापित करने के सूरत के प्लांट्स की औसत लागत लगभग 6.5 रुपये प्रति किलो प्रदूषण भार का अनुमान लगाया गया है।

रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि ईटीएस के तहत, जहां उपकरण लगाना अनिवार्य नहीं है, वहां प्रदूषण को निर्धारित सीमा में रखने की कीमत 2.5 रुपये किलो प्रदूषण भार आएगी। यानी प्रदूषण नियंत्रण की लागत में लगभग 60% तक की कमी।

रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि ईटीएस के तहत प्रदूषण घटाने की ये लागत धीरे-धीरे बढ़ेगी और औद्योगिक इकाइयों पर ज़्यादा बोझ नहीं पड़ेगा, तब भी नहीं जब प्रदूषण पर नियम कड़े कर दिए जाएं और उत्सर्जन की निर्धारित सीमा को कम कर दिया जाए। रिपोर्ट में कहा गया कि, "परमिट खरीदने और बेचने की सुविधा के औद्योगिक इकाइयों पर आने वाला ख़र्च थोड़ा-थोड़ा ही बढ़ेगा।"

The ETS Is Projected To Lower The Costs Of Reducing Particulate Emissions

Source: Surat Emission Trading Scheme: Evaluation Report, October 2019

प्रदूषण में कमी के साथ मुनाफे में भी बढ़ोत्तरी

ईटीएस के तहत, औद्योगिक इकाइयां कम लागत में उत्सर्जन में ज़रूरत से ज़्यादा कमी कर सकती हैं और परमिट बेचकर मुुनाफ़ा कमा सकती हैं। जिन औद्योगिक इकाइयों पर प्रदूषण कम करने का ख़र्च ज़्यादा पड़ता है, वो उपकरण लगाने की बजाय परमिट ख़रीदकर पैसा बचा सकती हैं।

रिपोर्ट के अनुसार, प्रदूषण नियंत्रण के लिए अगर प्लांट्स, सायक्लोन और बैग फिल्टर जैसे उपकरण लगाते हैं, तो उनकी अनुमानित सालाना लागत लगभग 15 लाख रुपये होगी। इसकी तुलना में, ईटीएस के तहत, प्रदूषण परमिट ख़रीदने पर ये लागत सालाना लगभग 10 लाख रुपये आएगी यानी 36% की बचत।

इसके अलावा, योजना की शुरुआत में, निर्धारित सीमा के तहत प्रदूषण भार के अनुपात में लगभग 80% परमिट उदयोगों को मुफ़्त दिए जाते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि चूंकि परमिट की एक कीमत है, इसलिए उद्योगों के लिए ये योजना फ़ायदे का सौदा है।

रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि यह मॉडल उन फ़ैक्ट्रियों की आमदनी बढ़ा सकता है, जिनसे होने वाला प्रदूषण काफ़ी कम है। क्योंकि वो अपने परमिट दूसरे उद्योगों को बेचकर पैसा कमा सकते हैं।

प्रदूषण कम करने वाले उपकरणों की ख़रीद और ईटीएस के तहत प्रदूषण परमिट पर आई लागत की तुलना करते हुए रिपोर्ट में पाया गया कि इस योजना का फ़ायदा सूरत के हर उद्योग उद्योग को होगा और पहले बेहतर स्थिति में होंगें।

कुल 158 प्लांट्स में से 75% के मुनाफ़े में लगभग 5.5 लाख रुपये सालाना और सभी प्लांट्स के मुनाफ़े में औसतन 8.6 लाख रुपये सालाना की बढ़ोत्तरी का अनुमान है। रिपोर्ट के मुताबिक, “इस योजना से उन उद्योगों को सबसे ज़्यादा फ़ायदा होगा, जिनके पास प्रदूषण घटाने के महंगे उपकरण हैं या फिर जिनके पास बेचने के लिए ज़्यादा परमिट हैं।”

रिपोर्ट में कहा गया है, "सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि ये मुनाफ़ा पर्यावरण की कीमत पर नहीं कमाया जाता।"

येल यूनिवर्सिटी और शिकागो यूनिवर्सिटी के रिसचर्स द अब्दुल लतीफ जमील पोवर्टी एक्शन लैब (जिसके संस्थापकों को हाल ही में नोबेल पुरस्कार मिला है), के रिसर्चर्स के साथ अपने विश्लेषण को समय-समय पर अपडेट करेंगें और पायलट प्रोजेक्ट ख़त्म होने के बाद जीपीसीबी के साथ मिलकर इसका पूरा आंकलन करेंगें।

(भास्कर इंडियास्पेंड के साथ रिपोर्टिंग फेलो हैं।)

यह आलेख मूलत: अंग्रेजी में 31 अक्टूबर 2019 को IndiaSpend.com पर प्रकाशित हुआ है।