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दक्षिण-पश्चिम राजस्थान के सालगांव में 17 वर्षीय नीता राठौड़ एक समुदाय सेविका हैं। नीता क्रिएटिव लर्निंग में प्रशिक्षित हैं और टीम बालिका के रूप में काम करती हैं। पढ़ाने के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित स्वयंसेविका को टीम बालिका कहा जाता है। टीम बालिका मानसिक विकास के सही स्तर को देखते हुए बच्चों को पढ़ाती हैं। क्लास 3,4 या 5 के लिए सीखने के स्तर पर बच्चों का चयन किया जाता है। कक्षा में नामांकन के पहले एक टेस्ट के जरिए ऐसा तय किया जाता है।

राजस्थान के सिरोही जिले का सालगांव : दक्षिण-पश्चिम राजस्थान के इस इलाके में एक सरकारी स्कूल की एक कक्षा में कक्षा 3, 4 और 5 के 25 छात्र गोला बना कर खड़े हैं। वे पूरे जोश के साथ एक पाठ सुना रहे हैं। ये वही पाठ है, जिसे एक ‘टीम बालिका’ ने उन बच्चों को सुनाया है। बच्चों को पढ़ाने के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित स्वयंसेविका को टीम बालिका कहा जाता है।हर बार उनके पाठ दोहराने के साथ उनकी आवाज धीरे-धीरे बढ़ती चली जाती है।

गांव के सरकारी स्कूलों में एक गैर सरकारी संगठन ‘एजुकेट गर्ल’ द्वारा चलाया जाने वाला यह कार्यक्रम पढ़ाई की एक नई शैली का प्रारंभिक सत्र है। पढ़ाई की यह नई शैली राष्ट्र स्तर पर गणित और भाषा के मामले में लगातार पिछड़ रहे बच्चों के स्तर को सुधारने का एक प्रयास है। यहां यह जान लेना भी जरूरी है कि सार्वभौमिक शिक्षा के क्षेत्र में 1.2 लाख करोड़ रुपए (17.7 बिलियन डॉलर) के निवेश के बावजूद अपने देश में छात्र पूरी तरह से रोजगार प्राप्त करने के लिए तैयार नहीं हो पाते हैं।

पारंपरिक ब्लैकबोर्ड, चॉक और रट्टा मारने की बजाय राजस्थान के अजमेर, बूंदी, जालोर, पाली, राजसमंद और सिरोही के छह जिलों में बच्चों को नई शैली के साथ पढ़ाया जा रहा है।

छात्रों को शब्दों की बजाय चित्रों के जरिये समझाया जाता है। कई तरह की पहेलियां उन्हें शब्दों को खोजने में मदद करती हैं। वर्णमाला काट कर एक साथ रखते हुए और अन्य कई अनूठे तरकीबों से उन्हें सिखाया जाता है। पढ़ाई की इन नई शैली से छात्रों में कुछ नया सीखने और करने का हौसला बढ़ रहा है।

यह शैली काम कर रही है। वर्ष 2015 में राजस्थान के 3399 ग्रामीण स्कूलों में, कक्षा 3, 4 और 5 के 79695 छात्रों के साथ इस नई शैली को आजमा के देखा गया। उनके साथ एक सप्ताह में स्कूल घंटों के दौरान लिंग और सामाजिक पृष्ठभूमि को नजरअंदाज करते कम से कम दो बारऐसे रचनात्मक-शिक्षण सत्रों का आयोजन किया गया। इन सत्रों से, हिंदी में 45 फीसदी, अंग्रेजी में 26 फीसदी और गणित में 44 फीसदी तक अंकों की बढ़ोतरी देखी गई।

छह राजस्थान जिलों में स्कोर सुधार, 2015-16

Source: Educate Girls

एक दरी पर अन्य बच्चों से साथ बैठा हुआ 9 वर्ष का राहुल चौहान पूरी तरह से अपनी किताब में हाथी और हिरण की कहानी पढ़ने में लीन है। राहुल को कहानी पढ़ने में बहुत मजा आ रहा है। राहुल बताता है, “चित्रों के कारण कहानी पढ़ने में मजा आता है। मैं यह कहानी इसलिए सीख रहा हूं कि स्कूल के बाहर जाकर दूसरों को बता सकूं।”

प्रारंभिक सत्र के बाद, सीखने के स्तर के आधार पर छात्रों के तीन समूह आयोजित किए गए। समूह का निर्माण, शुरुआत में ही क्लास की बजाय एक टेस्ट द्वारा निर्धारित किया गया है। इसलिए, अक्षर पहचान के लिए कक्षा 4 का छात्र भी कक्षा 3 के छात्र के साथ बैठ सकता है।

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सालगांव का रहने वाला पांचवी कक्षा का 9 वर्षीय राहुल चौहान सीखने की इस नई शैली से अभिभूत है।इस नई शैली में चित्रों के साथ कथ्य, कम शब्द, शब्द पहेली, वर्णमाला के कट आउट और भी कई अन्य चीजे शामिल हैं। यह नई शैली ‘एजुकेट गर्ल्स’ द्वारा छात्रों में सीखने की जिज्ञासा बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। चित्रों की वजह से राहुल को कहानी बहुत पसंद आती है, लेकिन स्कूल के बाहर बताने के लिए भी वह कहानी को पढ़ना चाहता है।

पढ़ाई की यह नई रणनीति सबसे पहले 2005 में एक गैर लाभकारी संस्था ‘प्रथम’ द्वारा शुरु की गई थी। ‘प्रथम’ संस्था प्राथमिक शिक्षा में सुधार की दिशा में काम करती है। इसके बाद यह तरीका ‘एजुकेट गर्ल्स’ द्वारा अपनाया गया है। इसे "सही स्तर पर अध्यापन" कहा जाता है।

सही स्तर पर शिक्षण कमजोर छात्रों को आगे बढ़ने में मदद करता है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो ग्रामीण भारत भर के स्कूलों के लिए महत्वपूर्ण है। याद रहे, ‘प्रथम’ द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट 2014 में शिक्षा की वार्षिक स्थिति (ASER 2014) के अनुसार ग्रामीण भारत में कक्षा 5 के 52 फीसदी से अधिक छात्र कक्षा 2 की हिंदी की किताबें नहीं पढ़ सकते हैं। रिपोर्ट यह भी कहती है कि कक्षा 5 में, चार में से मुश्किल से एक छात्र अंग्रेजी का वाक्य पढ़ सकता है या गणित में दो अंकों की संख्या घटा सकता है।

सीखने के परिणाम में गिरावट

Source: Annual Status Report on Education, 2014

‘एएसईआर-2014’ के लिए ‘प्रथम’ ने 16,497 गांवों में 569229 बच्चों से मुलाकात की। ऐसा नहीं है कि कक्षा 5 के बाकी आधे बच्चों और हजारों कमजोर बच्चों का बुद्धि स्तर कम है। उनके सीखने की शुरुआत ही कमजोर होती है, क्योंकि उनके माता-पिता अशिक्षित होते हैं। और फिर सीखने में धीमी गति का चक्र चलता ही जाता है- विशेष रूप से भाषा की समझ में कमजोर नींव उन्हें अपने शिक्षकों को समझने में पीछे रखती है।

भारत में हर बच्चा स्कूल में, हर एक को प्रयाप्त शिक्षा नहीं

वर्ष 2000 से वर्ष 2015 के बीच, भारत के स्कूलों में शुद्ध नामांकन दर में वृद्धि हुई है। संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) की वर्ष 2015 की रिपोर्ट के अनुसार, स्कूल में नामांकन दर 86 फीसदी से बढ़ कर 99 फीसदी हुई है। हालांकि, सीखने का निम्न स्तर प्राथमिक स्कूलों में हुए नामांकन की इस प्रगति को फीका करता है।

संस्था‘प्रथम’ की सीईओ रुक्मिणी बनर्जी ने इंडियास्पेंड से बात करते हुए बताया कि छह से 14 वर्ष के कम से कम आधे भारतीय बच्चे गणित, हिंदी और अंग्रेजी पढ़ने और समझने में उम्मीद से कहीं दो-तीन साल पीछे हैं। हकीकत यह है कि छात्र अगर न भी सीख पाते हैं तो भी उन्हें अगली कक्षा में भेजा जा रहा है। बनर्जी कहती हैं-“सीखने की वक्र रेखा समतल है। स्कूल में प्रत्येक अतिरिक्त वर्ष शिक्षा में मूल्य संवर्धन से मेल नहीं खाता है।”

पिछले वर्ष की ‘एएसईआर’ की रिपोर्ट से तुलना करने पर पिछले पांच वर्षों में सीखने की गुणवत्ता में आई गिरावट का पता चलता है। हालांकि, सार्वभौमिक शिक्षा के लिए भारत के राष्ट्रीय कार्यक्रम सर्व शिक्षा अभियान पर 1.2 लाख करोड़ रुपये (17.7 बिलियन डॉलर ) खर्च किया गया है। इस संबंध में इंडियास्पेंड ने मार्च 2016 में विस्तार से बताया है।

वर्ष 2009 में, कक्षा 2 के 11.3 फीसदी से अधिक छात्र 1 से नौ तक अंक की पहचान करने में सक्षम नहीं थे। पांच वर्ष बाद ‘एएसईआर -2014’ के अनुसार, ऐसे छात्रों के अनुपात में 19.5 फीसदी की वृद्धि हुई है।

भारत के सरकारी स्कूलों या सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों की प्राथमिक कक्षाओं में 66 फीसदी छात्रों की शिक्षा में तब तक सुधार संभव नहीं है, जब तक सिखाने के तरीकों में गुणात्मक बदलाव न कर दिए जाएं।

बनर्जी कहती हैं, “हर बच्चे को सिर्फ स्कूल भेजना ही पर्याप्त नहीं है। भारत के हर बच्चे को स्कूल भेजने के साथ-साथ उनके सीखने पर भी ध्यान देने की सख्त जरुरत है।”

प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी, नतीजा बुरा

‘एजुकेट गर्ल’ प्राथमिक स्तर पर शिक्षा में खामियों को दूर करने की पहल कर रही है। सालगांव में बच्चों के लिए शिक्षक नहीं, बल्कि ‘एजुकेट गर्ल’ के साथ जुड़ी 17 वर्षीय स्वंयसेविका नीता राठौड़ बच्चों को पढ़ा रही हैं।‘एजुकेट गर्ल’ जैसी संस्था एक ओर तो राठौड़ जैसी स्वंयसेविका यानी टीम बालिका को प्रशिक्षित कर रही है वहीं दूसरी ओर शिक्षकों को भी नई शैली की रचनात्मक शिक्षण पद्धति से परिचित कराती है। वैसे सालगांव के स्कूलों में प्रशिक्षित शिक्षकों का अभाव है। यह इस तथ्य को दर्शाता है कि पांच प्राथमिक स्कूल के शिक्षकों में से एक से कम पर्याप्त रुप से प्रशिक्षित हैं। इंडियास्पेंड ने इस संबंध में मई 2015 में विस्तार से बताया है।

‘एजुकेट गर्ल’ का कार्यक्रम भी भारत में मौजूद सामान्य शिक्षण पद्धति से प्रभावित है। जैसे कि अंग्रेजी में सुधार का प्रभाव गणित और हिंदी पर भी पड़ता है क्योंकि यह भाषा ग्रामीण राजस्थान में नहीं बोली जाती है।

राठौड़ उसी स्कूल की पूर्व छात्रा रही हैं और शिक्षक बनने के लिए उत्सुक थी। यही कारण था कि वह पूरे उत्साह के साथ स्वंयसेविका बनी। जबकि वह अंग्रेजी बोलने में कमजोर थी ही, अंग्रेजी की समझ भी अच्छी नहीं थी।लेकिन वहां कोई दूसरा विकल्प उपलब्ध नहीं था।

हेडमास्टर अशोक कुमार कहते हैं, सालगांव सरकारी स्कूल में कोई नियमित अंग्रेजी शिक्षक नहीं था । यह फिर इस तथ्य को दर्शाता है कि भारत में 556000 प्राथमिक स्कूल शिक्षकों की कमी है।

जो शिक्षक उपलब्ध हैं उनमें से कई अनुपस्थित रहते हैं या उन्हें गैर शिक्षण काम सौंपे गए हैं। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय द्वारा वर्ष 2015 में कराए गए एक अध्ययन में पाया गया था कि ग्रामीण स्कूलों में आकस्मिक दौरे के दौरान लगभग 24 फीसदी शिक्षक अनुपस्थित थे। इस संबंध में इंडियास्पेंड ने सितंबर 2016 में विस्तार से बताया है। स्कूल शिक्षक दलपत सिंह राठौड़ कहते हैं, “हमें हर तरह के काम सौंपे जाते हैं ... पशुधन की गिनती से लेकर चुनाव मतदाता सूची बनाने तक।”

व्यापक प्रशिक्षण शिविरों से कमजोर छात्रों को मदद

अगस्त 2016 तक, दक्षिण पूर्व राजस्थान के बारां जिले के मेरमा तालाब गांव में 9 वर्षीय अंकित बैरवा न तो अक्षर पहचान पाता था और न ही नौ से ऊपर के अंकों को समझ पाता था।पाठ्यक्रम के अनुसार कक्षा 2 के छात्रों को छोटी सरल कहानियों से लेकर 1 से 100 तक अंक की पहचान आनी चाहिए। बैरवा कक्षा 4 का विद्यार्थी है।

इसी समय ‘प्रथम’ ने मेरमा तालाब गांव के सरकारी स्कूल की ‘रीड इंडिया’ से पहचान कराई। यह छात्रों को गणित में उनकी नींव को मजबूत करने के लिए 30 दिनों का व्यापक प्रशिक्षण शिविर था। यह कार्यक्रम अब राजस्थान के 10 जिलों और राष्ट्र के 115 जिलों में चलाया जा रहा है। 30 दिनों के प्रशिक्षण के बाद, अंकित बैरवा छोटी कहानी को बिना किसी रुकावट के पढ़ सकते था। 999 तक की संख्या की पहचान कर सकता था और गणित में जोड़- घटाव भी कर सकता था।

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प्रथम’ द्वारा 30 दिनों के प्रशिक्षण शिविर में हिस्सा लेने के बाद दक्षिण पूर्व राजस्थान के जिला बारां में मेरमा तालाब गांव के 9 वर्षीय अंकित बैरवा ने 10 से 999 अंकों की पहचान करनी सीख ली है। अभ्यास के बाद अंकित छोटी और सरल कहानियां बिना किसी रुकावट के पढ़ सकता है और गणित के जोड़-घटाव भी आसानी से कर सकता है। इसके साथ अंकित की पढ़ाई की ओर रुचि भी विकसित हुई है।

अंकित के पिता दयाराम बैरवा कहते हैं, “कोचिंग से बच्चे में बदलाव आया है। सबसे बड़ा बदलाव सीखने की ओर रुचि में वृद्धि होना है। ” अंकित के पिता एक दिहाड़ी मजदूर हैं और कक्षा 8 तक पढ़े हैं। दयाराम कहते हैं, “दिन में मेरे पास अंकित की पढ़ाई देखने और उसकी मदद करने का समय नहीं होता है। मेरी पत्नी भी मदद नहीं कर सकती थी, क्योंकि वह शिक्षित नहीं है। अंकित का पहले स्कूल में मन नहीं लगता था, लेकिन अब वह पढ़ाई में रुचि लेने लगा है।”

बैरवा की इस छोटी सी उपलब्धि से ‘प्रथम’ ने उसके स्कूल छोड़ने की संभावना को कम कर दिया है।

कर्नाटक के यादगीर जिले में– ह्वू ड्रॉप्स आऊट ऑफ स्कूल शीर्षक से एक विस्तृत अध्ययन किया गया था। इस पर आधारित एक रिपोर्ट वर्ष 2013 में अजीम प्रेमजी फाउंडेशन की ओर जारी किया गया था। इस रिपोर्ट के मुताबिक, जब बच्चों से पूछा गया कि वह स्कूल क्यों छोड़ते हैं, तो 23 फीसदी बच्चों ने कहा कि पढ़ाई में मन नहीं लगता है।

अन्य 17 फीसदी बच्चों ने स्कूल छोड़ने का कारण परीक्षा में फेल होना बताया। जबकि 5 फीसदी बच्चों ने डर के कारण स्कूल छोड़ा था। इन सभी परिस्थितियों को पढ़ाई में कमजोर होने के साथ जोड़कर देखा जा सकता है।.

राजस्थान में ‘प्रथम’ के ऑपरेशन हेड, विपल्व शिवहरे कहते हैं, “ कमजोर नींव वाले छात्र न तो शिक्षक के साथ न ही शैक्षिक गतिविधियों के साथ जुड़ पाते हैं और परिणाम स्वरुप उनका प्रदर्शन कमजोर होता है। धीरे-धीरे वे पढ़ाई में रुचि खो देते हैं और स्कूल न जाने के बहाने ढूंढने लगते हैं। ”

शिक्षण की नई शैली शिक्षकों के लिए भी अच्छा, देश भर में हो विस्तार !

इंडियास्पेंड ने कई छात्रों से मुलाकात की। उन छात्रों से मिलकर लगा कि नई शिक्षा शैली बेहतर ढंग से काम कर रही है। सिरोही जिले के लिए पूर्व सहायक जिला कार्यक्रम समन्वयक, कांतिलाल खत्री कहते हैं कि यह शैली शिक्षकों के लिए भी बेहतर रुप से काम रही है। 12 साल के अनुभव के साथ कांतिलाल ने ‘एजुकेट गर्ल’ के काम को करीब से देखा है।

खत्री कहते हैं, “जब छात्र सीखने के लिए उत्सुक होते हैं तो शिक्षक का काम आसान हो जाता है। मैंने देखा है कि कैसे सीखने में रुचि होने से शिक्षकों, विशेष रुप से पिंडवाडा और अबू रोड (दोनों राजस्थान में) जैसे आदिवासी क्षेत्रों के स्कूलों में नियुक्त शिक्षकों को मदद मिलती है। अक्सर देखा गया है कि ऐसे स्कूलों में छात्रों के विकास का स्तर कम होता है और शिक्षकों के पद खाली पड़े रहते हैं।”

खत्री का मानना है कि बहुत अच्छे परिणाम के लिए जिला प्रशासन को ‘शिक्षण की नई शैली ’ के साथ शामिल हो जाना चाहिए। संभवतः उन्हें वही रास्ता अपनाना चहिए, जो रास्ता हिमाचल प्रदेश और झारखंड जैसे राज्यों ने अपनाया है।

पिछले साल हिमाचल प्रदेश के हमीरपुर जिले में ‘प्रथम’ ने ‘व्यापक-प्रशिक्षण कार्यक्रम’ का संचालन किया। जो छात्र एक या दो गलती के साथ किताब पढ़ सकते थे, उनमें 14 फीसदी सुधार देखा गया। राज्य सरकार ने इस अवधारणा को कुछ सुधार के साथ स्वीकार कर लिया।

हिमाचल सर्व शिक्षा अभियान और राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान (नेशनल मध्य-स्कूल शिक्षा कार्यक्रम) के लिए राज्य परियोजना निदेशक, घनश्याम चंद कहते हैं, “हमने शिक्षा कार्यक्रम की अवधि में 45 दिनों की वृद्धि की है। नियमित पाठ्यक्रम से पहले दो घंटे के शिक्षण सत्र के साथ दिन की शुरुआत करते हैं।”

वह कहते हैं, “हमने पहल के दायरे का भी विस्तार किया है ताकि छात्रों को मूल्यांकन में शामिल किया जा सके। इस प्रक्रिया से किसी भी शिक्षक के पूर्वाग्रह को दूर किया जा सके और नियमित रूप से ग्रेडिंग प्रोत्साहित हो सके।”

चंद कहते हैं कि राज्य सरकार के विस्तारित कार्यक्रम ‘प्रोग्राम फॉर रिजल्ड इहैंसमेंट रिसोर्स नर्चरिंग एंड एसेसमेंट’ के लिए ‘प्रथम’ संस्था तकनीक सलाहकार के रूप में जुड़ चुकी है। ऐसे में हम यह उम्मीद तो कर सकते हैं कि प्राथमिक छात्रों को बुनियादी भाषा और गणित में उऩके कौशल को आजमाए बिना अगली कक्षा में नहीं भेजा जाएगा।

(बाहरी स्वतंत्र लेखक और संपादक हैं। राजस्थान के माउंट आबू में रहते हैं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 24 अक्तूबर 2016 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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