(C) Biswarup Ganguly

नई दिल्ली: हाल के चरम मौसम की घटनाएं, जैसे कि केरल में बाढ़, उत्तराखंड में जंगल की आग और उत्तर और पूर्व में गर्म लहरों, ने दर्शाया है कि जलवायु परिवर्तन के लिए भारत कितना कमजोर है। ऐसी घटनाओं की, जो व्यापक विनाश का कारण बनती हैं और खाद्य और पानी की उपलब्धता को प्रभावित करती हैं, औसत तापमान बढ़ने के कारण भारत में अधिक बार और गहन होने की संभावना है।

जलवायु परिवर्तन वैज्ञानिकों का एक वैश्विक निकाय, जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की एक नई रिपोर्ट 8 अक्टूबर, 2018 को जारी किया जा रहा है। यह रिपोर्ट आकलन होगी कि वैश्विक तापमान में वृद्धि को कम करने में भारत सहित सभी देशों की पहल कितनी प्रभावी है।

रिपोर्ट के शुरुआती रिसाव (यहां और यहां) इंगित करते हैं कि इसके निष्कर्ष निराशाजनक होने की संभावना है। 3 अक्टूबर, 2018 को वाशिंगटन पोस्ट में एक लेख का शीर्षक कुछ ऐसा दिया गया है, “क्लाइमेट साइंटिस्ट आर स्ट्रगलिंग टू फाइंड का राइट वर्ड्स फॉर द वेरी बैड न्यूज”, यानि जलवायु वैज्ञानिक सबसे बुरी खबर के लिए सही शब्द तलाश रहे हैं।

वाशिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट में कहा गया है कि अगले 10 वर्षों में दुनिया अपने कार्बन प्रदूषण कोटा तक पहुंच सकती है, ग्लोबल तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ने से पहले कार्बन की मात्रा को वायुमंडल में छोड़ सकता है। यह चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका के बाद दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कार्बन प्रदूषक भारत के लिए निराशाजनक समाचार हो सकता है। रिपोर्ट के लीक ड्राफ्ट का हवाला देते हुए, 30 सितंबर, 2018 को ब्लूमबर्ग ने 30 सितंबर, 2018 को बताया कि आईपीसीसी रिपोर्ट सरकारों द्वारा "कठोर" जलवायु क्रियाओं की सिफारिश करने की भी संभावना है, जिससे 2030 तक कोयले का केवल एक तिहाई उपभोग किया जा सकता है। लक्ष्य 1800 में औद्योगिक युग शुरू होने के बाद से, गर्मी को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक कम करना है। यहां भारत के लिए समस्या है: यह चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा कोयला उपभोक्ता है, जो जलवायु परिवर्तन के कारण 600 मिलियन भारतीयों के आपदाओं को खतरे में डाल देता है। कोयला वर्तमान में दुनिया के 27 फीसदी और भारत की ऊर्जा मांग का 60 फीसदी की पूर्ति करता है। आईपीसीसी की मसौदा सिफारिश का जिक्र करते हुए ब्लूमबर्ग ने 30 सितंबर, 2018 को कहा, "एक साहसी दृष्टिकोण के तहत जो वायुमंडल की रक्षा के लिए त्वरित कार्रवाई करता है, 2040 तक ऊर्जा बाजार का कोयले का उपयोग 13 फीसदी तक गिर जाएगा।"

वैश्विक तापमान को 1.5-2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए 2015 पेरिस समझौते के एक हिस्से के रूप में, भारत 2020 तक अपनी अक्षय ऊर्जा क्षमता 40 फीसदी ( 2018 में 20 फीसदी ) तक बढ़ाकर कार्बन प्रदूषण में कटौती करने पर सहमत हो गया, यह वन कवर, जलवायु-लचीला शहरों का निर्माण और ठोस अपशिष्ट प्रबंधन में सुधार बढ़ाता है। यहां वह जगह है जहां भारत आज इन प्रतिज्ञाओं पर खड़ा है:

    • वर्तमान में, भारत में अक्षय ऊर्जा क्षमता स्थापित क्षमता का 20 फीसदी है।

    • पिछले दो वर्षों से 2017 तक, देश का वन क्षेत्र 1 फीसदी बढ़ा है, जो भारत का 24 फीसदी कवर करता है। लेकिन यह आंकड़ा संभवत: अतिरंजित है और इसमें गिरावट वाले वन और वृक्षारोपण शामिल हैं, जैसा कि फैक्टचेकर ने 4 जुलाई, 2018 को बताया है।

    • नगर पालिकाओं द्वारा सालाना एकत्रित देश के ठोस कचरे का केवल 24 फीसदी संसाधित किया जाता है।

क्या ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने में मदद करने के लिए ग्रीन हाउस उत्सर्जन को कम करने के लिए भारत के राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) हैं? राष्ट्रों के जलवायु कार्यों को ट्रैक करने वाला एक स्वतंत्र वैज्ञानिक समूह, क्लाइमेट एक्शन ट्रैकर के अनुसार, ऐसा नहीं है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि पेरिस समझौते के साथ भारत की प्रतिबद्धता "पूरी तरह से सुसंगत नहीं है"। यदि भारत अपने सभी लक्ष्यों को प्राप्त करता है, तो वार्मिंग 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे हो सकती है लेकिन 1.5-डिग्री-सी सीमा के अनुरूप होने के लिए अभी भी "बहुत अधिक" होगी।

भारत के लिए चार कमजोर जलवायु परिवर्तन खतरे

बढ़ती गर्मी लहर एपिसोड: यदि मौजूदा उत्सर्जन और पर्यावरण नीतियों में कोई बदलाव नहीं होती है, तो भारत के औसत वार्षिक तापमान 2050 तक 1.5-3 डिग्री सेल्सियस बढ़ने की उम्मीद है। पेरिस समझौते की तर्ज पर निवारक उपाय लागू किए जाने पर भी तापमान 1 डिग्री सेल्सियस-2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ेगा, जैसा कि जून 2018 में विश्व बैंक के एक अध्ययन में कहा गया है। 2015 में सबसे ज्यादा मौत के साथ, पिछले चार वर्षों स 2017 तक, देश भर में गर्मी की लहरों के कारण 4,800 से अधिक भारतीयों की मृत्यु हुई है। ये गर्मी-लहर घटनाएं खराब होने की संभावना है: मौजूदा उत्सर्जन परिदृश्य के तहत, वे सदी के अंत तक 75 गुना बढ़ सकते हैं, उत्तर में उत्तर प्रदेश से दक्षिणी प्रायद्वीप तक पूरे खिंचाव को पकड़ सकते हैं। उनकी आवृत्ति अगले 30 वर्षों में 3-9 घटनाओं में भी बढ़ेगी, जो सदी की अंतिम तिमाही तक 18-30 घटनाओं तक पहुंच जाएगी।

भारत में गंभीर गर्मी की लहरों की आवृत्ति सदी के अंत तक 30 गुना बढ़ेगी, भले ही भारत पेरिस समझौते का पालन करे और वैश्विक औसत तापमान वृद्धि 2 डिग्री सेल्सियस से कम हो जाए। यदि नहीं, तो कोलकाता जैसे एक आर्द्र समुद्र तटीय शहर भी हर साल अपने घातक 2015 गर्म लहरों के बराबर तापमान की स्थिति का अनुभव कर सकता है।

पानी संकट गहराना: भारत के वैश्विक औसत तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस वृद्धि के अन्य प्रभाव पानी की उपलब्धता पर हो सकते हैं। गंगा नदी बेसिन में वार्षिक प्रवाह में लगभग 20 फीसदी की कमी होने की उम्मीद है और इससे वर्तमान जल संकट खराब हो सकता है।

लगभग 600 मिलियन भारतीयों को उच्चतम पानी के तनाव का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि सालाना उपलब्ध सतह के 40 फीसदी से अधिक उपलब्ध पानी का उपयोग किया जा रहा है। सुरक्षित पानी की अपर्याप्त पहुंच के कारण हर साल लगभग 200,000 लोग मर रहे हैं, 2050 तक पानी की कमी के चलते स्थिति खराब हो सकती है।

600 मिलियन भारतीयों के लिए निम्न जीवन स्तर: 2050 तक, बढ़ते तापमान और बदलते मानसून बारिश के पैटर्न में सकल घरेलू उत्पाद का 2.8 फीसदी खर्च हो सकता है और "हॉटस्पॉट", यानी औसत तापमान और वर्षा में परिवर्तन के लिए कमजोर क्षेत्रों में रहने वाले लगभग 600 मिलियन लोगों के लिए जीवन स्तर को कम कर सकता है, जैसा कि जून 2018 विश्व बैंक के एक अध्ययन में कहा गया है।

छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश को 2050 तक भारत के शीर्ष दो जलवायु हॉटस्पॉट राज्य होने की उम्मीद है, इसके बाद राजस्थान, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र भी इनमें शामिल हैं। झारखंड, हरियाणा, आंध्र प्रदेश, पंजाब और चंडीगढ़ बाकी 10 सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले राज्य हैं। अध्ययन में कहा गया है कि सभी 10 राज्यों में, गर्म दिन और अनियमित वर्षा से किसानों पर तनाव बढ़ेगा।

रिपोर्ट में कहा गया है कि शीर्ष 10 सबसे ज्यादा प्रभावित हॉटस्पॉट जिलों में से सात महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में होंगे। रिपोर्ट कहती है कि, "ये हॉटस्पॉट न केवल उन क्षेत्रों में हैं जहां तापमान अधिक होगा, लेकिन जलवायु परिवर्तनों से निपटने के लिए स्थानीय आबादी की सामाजिक-आर्थिक क्षमता से भी उन्हें परिभाषित किया जाता है।"

पोषण संकट: हार्वर्ड विश्वविद्यालय में हार्वर्ड टी चैन स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ द्वारा सितंबर 2018 के एक अध्ययन के अनुसार, वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ 2) में वृद्धि हमारे भोजन को कम पोषक बना रही है। यह चावल और गेहूं जैसे फसलों को भी कम पोषक बना रहा है और इसके परिणामस्वरूप 2050 तक, 175 मिलियन लोगों ( वैश्विक आबादी का 1.9 फीसदी ) में जिंक की कमी और 122 मिलियन लोगों में प्रोटीन की कमी हो सकती है।

भारत दुनिया की सबसे बड़ी संख्या के साथ सबसे बद्तर प्रभावित देश हो सकता है। करीब 50 मिलियन लोगों (आंध्र प्रदेश की आबादी के आकार के बराबर ) में जिंक की कमी और 38 मिलियन लोगों ( हरियाणा और उत्तराखंड की संयुक्त आबादी के बराबर ) में प्रोटीन के कमी हो सकती है।

हार्वर्ड अध्ययन के मुताबिक भारत में अपर्याप्त पोषण के कारण 500 मिलियन से अधिक महिलाएं और बच्चे लोहा की कमी से जुड़े रोगों के प्रति संवेदनशील हो जाएंगे।

( त्रिपाठी प्रमुख संवाददाता हैं और इंडियास्पेंड के साथ जुड़े हैं। )

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 7 अक्टूबर 2018 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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