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  • किसी भी शहरी इलाके के संपन्न परिवार के बच्चों की तुलना में शहरी गरीब बच्चों की मृत्यु अधिक होती है। आकंड़ों के मुताबिक शहरी संपन्न एवं गरीब बच्चों की मृत्यु दर में 40 फीसदी का अंतर है।
  • शहरी इलकों में 10 वर्ष से कम उम्र के बच्चों, विशेष कर लड़कियों को ग्रामीण बच्चों के मुकाबले अधिक बीमार होते देखा गया है। आंकड़ों के अनुसार शहरी इलाकों के बच्चे, ग्रामीण इलाको के बच्चों से 20 फीसदी अधिक बीमार पड़ते हैं।
  • शहरी क्षेत्रों में लगभग दो मिलियन लोग बेघर हैं। बेघर लोगों में 10 में से एक बच्चा है। इनमें से करीब आधे से अधिक बच्चे यौन शोषण के शिकार हैं।
  • बेघर बच्चों में से करीब एक तिहाई बच्चे नशे की लत का शिकार हैं। इनमें से 96 फीसदी लड़के हैं।

इंडियास्पेंड ने विभिन्न श्रोतों से आकंड़े इकट्ठा कर एक तस्वीर दिखाने की कोशिश की है कि एक शहरी गरीब परिवार का बच्चा या बिना परिवार का बच्चा कैसा होता है। अधिकारी रुप से यदि किसी भी व्याक्ति की रोज़ाना आय 47 रुपए से कम है तो वह गरीब की श्रेणी में आता है। हम आज अपने लेख के पहले भाग में स्वास्थ्य, आवासहीनता एवं नशे की आदत पर चर्चा करेंगे। कल इस लेख के दूसरे भाग में शिक्षा, अपराध एवं बाल श्रम पर चर्चा की जाएगी।

हमने इस लेख में प्राइसवॉटरहाउसकूपरस ( पीडब्लूसी), एक कंसल्टेंसी एवं बच्चों के प्रतिपालन करने वाली संस्था एवं सेव द चिल्ड्रेन ( बच्चों के लिए काम करने वाली संस्था ) द्वारा जारी किए गए एक रिपोर्ट फॉरगटनवॉयस–दवर्ल्डऑफअरबनचिल्ड्रेनइनइंडिया से आकंड़ों को शामिल किया है।इसके अलावा जनगणना , राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन ( एनयूएचएम ), राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) , बाल अधिकार संरक्षण ( एनसीपीआरसीआर ) एवं राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो ( एनसीआरबी) के आंकड़ों को भी शामिल किया गया है।

शहरी गरीब बच्चों की हालत बद्तर

शहरी गरीब बच्चों की तस्वीर देश के सबसे वंचित लोगों के रुप में उभरती है। कई मामलों में शहर में रह रहे गरीब बच्चों की स्थिति ग्रामीण इलाकों के बच्चों से भी अधिक बुरी है। शहरी गरीब बच्चों की स्थिति इस बात का संकेत देती हैं कि वह कभी भी भारत की जनसांख्यिकीय लाभांश का हिस्सा नहीं बन सकते जो कि कहता है कि देश का आर्थिक विकास 472 मिलियन लोग जिनकी उम्र 18 वर्ष से कम हैं, उनके ही द्वारा चलाया जाता है। यह विश्व में युवा लोगों की सबसे अधिक संख्या है।

( मोटे तौर पर गिना हुआ) शहरी क्षेत्र के गरीब बच्चे

पीडब्यूसी की रिपोर्ट के अनुसार 377 मिलियन भारतियों में से 32 फीसदी बच्चे 18 वर्ष से कम उम्र के हैं। इसके अलावा 8 मिलियन से अधिक बच्चे जिनकी उम्रछह वर्ष से कम है 49,000 झुग्गी-बस्तियों में रहते है। इन आंकड़ों के अलावा कई बच्चे हैं जो गरीबी का जीवन जी रहे हैं लेकिन उनकी गिनती अधिकारिक रुप से गरीबों में नहीं होती क्योंकि हर रोज़ की आय 47 रुपए से अधिक है। 1992 के यूनिसेफ रिपोर्ट के अनुसार 15 से 18 मिलियन बच्चे झुग्गियों में रहते हैं। इन आंकड़ों से साफ है कि शहरी गरीब बच्चों की गिनती स्पष्ट नहीं है। रिपोर्ट में जिन 49,000 झुग्गियों का ज़िक्र किया गया है वह अधिकारिक रुप से गिने गए हैं। कई हज़ार बच्चे ऐसे हैं जिनकी गिनती नहीं की गई है। 2011 की जनगणना के अनुसार झुग्गी बस्ती में करीब 13.7 मिलियन लोग रहते हैं।

पीडब्लूसी एवं सेव ऑर चिल्ड्रेन की रिपोर्ट के अनुसार शहरी गरीब बच्चे खराब स्वास्थ्य, स्वच्छ पानी की पहुंच, अपर्याप्त शिक्षा, शहरी आपदाओं, एवं सुरक्षा की कमी के प्रति अतिसंवेदनशील होते हैं।

देश की 833 मिलियन जनता अब भी ग्रामीण इलाकों में रहती है। लेकिन दिन पर दिन ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति बिगड़ने ने बड़ी संख्या में लोग शहर की ओर पलायन कर रहे हैं। साल 2000 से 2011 के बीच करीब 91 मिलिन लोग गांव से शहर कीतरफ आए हैं। यह आंकड़े जर्मनी या इजीप्ट की कुल जनसंख्या से भी अधिक हैं। इस अवधि के दौरान ग्रामीण इलाकों के मुकाबले शहरों की जनसंख्या में 2.5 गुना अधिक तेजी से वृद्धि हुई है।

गांव से शहर की ओर विस्थापित हुए लोगों का जीवन संघर्ष भरा होता है। शहर में ज़िंदगी सड़कों से शुरु होते हुए झुग्गी तक जाती है। और यहां से निकल कर बाहर जाने का रास्ता और अधिक संघर्ष से भरा होता है। इस संघर्षपूर्ण जीवन में सबसे अधिक नुकसान बच्चों का ही होता है।

बच्चों के स्वास्थ्य की खस्ता हालत

पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों का मृत्यु दर ( प्रत्येक 1,000 जीवित बच्चों के प्रति हुई मृत्यु ) 7.5 दर्ज किया गया है। यह आंकड़े विश्व के तीन सबसे गरीब देश, गाम्बिया , लाओस और हैती के बराबर होने साथ शहरी औसत शिशु मृत्यु दर ( 51.9 ) से भी अधिक है। ( हालांकि ग्रामीण इलाकों की तुलना में यह आंकड़े ज़रुर कम हैं। ग्रामीण इलाकों में शिशु मृत्यु दर 82 दर्ज किया गया है )।

राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन रिपोर्ट के मुताबिक “शहरी गरीब बच्चों में से 46 फीसदी से भी अधिक बच्चों का वज़न सामान्य से कम होता है। साथ ही करीब 60 फीसदी बच्चों को पहले एक साल के भीतर दिए जाने वाले प्रतिरक्षण नहीं मिल पाता है”।

रिपोर्ट के मुताबिक “झुग्गी-बस्तियों का बदहाल वातारण एवं घनी आबादी, स्थिति तो और बद्तर बनाती है। ऐसी स्थिति में फेफरों की बीमारियां जैसे अस्थमा एवं तपेदिक होने की संभावना अत्यधिक बढ़ जाती है। अन्य शहरी इलाकों के मुकाबले शहरों के झुग्गी-बस्ती इलाकों में वेक्टर जनित रोग एवं मलेरिया जैसी बीमारी होने का खतरा दोगुना रहता है”।

शहरों की बढ़ती आबादी एवं यह सारी गंभीर समस्याओं को मध्यनज़र साल 2013 में राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन 2013 आरंभ किया गया था।

इंडियास्पेंड ने पहले ही अपनी खास रिपोर्ट में बताया है कि किस प्रकार ग्रामीण इलाकों में रह रहे लोगों का स्वास्थ्य शहरी लोगों के मुकाबले अधिक अधिक बेहतर पाया गया है। एनएसएसओकी इस रिपोर्ट के अनुसार शहरी बच्चे अधिक बीमार रहते है। यहां बीमार का तात्पर्य ऐसी बीमारी से है जिसका इलाज कर एक महीने के भीतर ठीक किया जा सके।

Youngest Children (per 1000) “Ailing” Most
AgeRuralUrban
MaleFemaleCombinedMaleFemaleCombined
0-4 years11986103111117114
5-9 years655058877180
10-14 years434745575356
15-29 years355746385948

Source: Ministry of Statistics and Programme Implementation

विस्थापित होने के कारण होते हैं बेघर

साल 2011 की जनगणना के अनुसार 1.9 मिलियन लोग आवासहीन यानि बेघर हैं जिसमें से करीब 0.7 मिलियन शहरों में रहते हैं। इनमें से 10 फीसदी ( 70,000 ) लोगों की उम्र 6 वर्ष से कम है।

सेव द चिल्ड्रेन एवं अंतर्राष्ट्रीय विकास विभाग ( ब्रिटेन सरकार ) द्वारा साल 2013-14 में हैदराबाद, कोलकाता , भुवनेश्वर और जयपुर के शहरों में किए गए एक अध्ययन के अनुसार सड़कों पर रहने वाले 52 फीसदी बच्चों के परिवार अपनामूल स्थान छोड़ कर शहरों में बस गए हैं जबकि 14.5 फीसदी ऐसे लोग हैं जो काम की तलाश में शहरों की ओर आए हैं।

Prevalence of Homeless Children (Under 18)
CityChildren living on the streetChildren working on the streetChildren from street familiesTotal number of street children
Kolkata3,1727,0809,77820,030
Hyderabad1,7844,5933,74310,120
Bhubaneswar4582,5924843,533
Jaipur5191,9911,9594,469

Source: Save The Children

करीब 46.3 फीसदी बेघर बच्चे शहरों के पाइपों, तिरपाल के नीचे, फ्लाईओवर के नीचे या पूजा स्थलों पर रह कर गुज़ारा करते हैं। जबकि 32 फीसदी बच्चे खुले आसमान के नीचे ही रहते हैं।

करीब 54.5 फीसदी बेघर बच्चे यौन शोषण के शिकार रिपोर्ट किए गए हैं। इनमें से 66 फीसदी लड़के एवं 67 फीसदी लड़कियां हैं। इन बेघर बच्चों में नशे की लत भी एक गंभीर समस्या पाई गई है। यह बच्चे गांजा, चिल्लम से लेकर कई खतरनाक मादक पादार्थों के आदि पाए गए हैं।

नशे की लत – एक गंभीर समस्या

साल 2013 में बाल अधिकार संरक्षण के लिए राष्ट्रीय आयोग द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार सड़कों पर रहने वाले तीन में से एक बच्चा नशे की लत का शिकार है।

रिपोर्ट के अनुसार, “ हाल ही में युवाओं में नशे की लत में वृद्धि पाई गई है। इनमे अधिकांश लोग छोटी उम्र से ही मादक पदार्थों का इस्तेमाल करने लग जाते हैं। आम तौर पर बच्चे मादक पदार्थों का इस्तेमाल उत्सुकता पूर्वक या किसी के बहकावे में आकर या फिर इससे होने वाले नुकसान की जानकारी के अभाव में करते हैं। बच्चों एवं युवाओं में बढ़ती नशे की लत एक गंभीर समस्या बनती जा रही है”।

देश के 27 राज्य एवं दो संघ केंद्रीय शासित राज्यों के नगरों एवं शहरों में 135 जगहों पर 4,024 उत्तरदायी के साथ किए गए अध्ययन के अनुसार लगभग 83 फीसदी बच्चों में तंबाकू खाने की आदत देखी गई है जबकि 68 फीसदी बच्चे शराब एवं 36 फीसदी बच्चे भांग लेने के आदि पाए गए हैं।

Substance Abuse Among Street Children (5-18 Years)
Substance% of Respondents Reporting UseFrequency of use (days in a month)
Tobacco83.2Almost daily
Alcohol67.713
Cannabis35.417
Inhalants34.7Almost daily
Pharma opioids18.116
Injectables12.613
Sedatives7.916
Heroin, smack, brown sugar7.917

Source: National Commission for Protection of Child Rights

नशे की लत के शिकार बच्चों में 95.8 फीसदी बच्चे लड़के एवं 4.2 फीसदी लड़कियां दर्ज की गई हैं। अध्ययन किए गए कुल उत्तरदायी में से 69.8 फीसदी शहरी इलाकों में रहते हैं। इनमें से अधिकांश बच्चे, करीब 58.8 फीसदी स्कूल नहीं जाते जबकि 28 फीसदी औपचारिक स्कूल एवं 12.9 फीसदी ओपन स्कूल जाते हैं।

साल 2012 की यूनिसेफ रिपोर्ट कहती है “आम तौर पर शहरी क्षत्रों के बच्चे ग्रामीण इलाकों के बच्चों से बेहतर होते है। बेहतर स्वास्थ्य , सुरक्षा, शिक्षा और स्वच्छता शायद उनकी बेहतर स्थिति के कारण हो सकते हैं। लेकिनशहरी विकास से यह सोच को असमान हो गई है। कई मिलियन बच्चे अधिकारहीन हैं एवं उनके लिए हरेक दिन संघर्षपूर्ण एवं चुनौती भराबन गया है”।

( कल इस लेख का दूसरा भाग प्रकासित किया जाएगा जिसमें शिक्षा, अपराध एवं बाल श्रम पर चर्चा की जाएगी )

सालवे एवं तिवारी इंडियास्पेंड के साथ नीति विश्लेषक हैं।

( यह लेख मूलत: अंग्रेज़ी में 25 जुलाई 15 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है )


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