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वाइब्रेंट गुजरात के दौरान राज्य सरकार ने करीब 21000 आपसी सहमति पत्र कंपनियों के साथ किए है। जिसके जरिए करीब 415 अरब डॉलर के निवेश गुजरात में आने की उम्मीद है। सोचिए 21 हजार आपसी सहमति पत्र पर कितनी मात्रा में पेपरवर्क करना पड़ा होगा। इस तरह के आयोजन में जितनी बड़ी संख्या होती है, उसे उतना ही सफल माना जाता है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या यह बाते मतलब रखती हैं, या उससे बड़ी बात यह है कि क्या वास्तव में इससे राज्य में बड़ा निवेश आने में मदद मिलती है। दोनो के लिए जवाब शायद हां है।

लेकिन इस तरह के विवाद में पड़ने से पहले हम कुछ आंकड़ों पर नजर डालते हैं। उदाहरण के तौर पर नीचे दिए चार्ट से स्पष्ट होता है कि महाराष्ट्र की गुजरात की तुलना में कम प्रयास कर करीब उसी के बराबर निवेश पाने में सफलता हासिल की है।

यदि कुल पूंजी निवेश को सफलता का सूचकांक माना जाय, तो यह भी जानना जरूरी है कि समझौते के बाद कितने सौदे जमीनी हकीकत बने। साल 2012-13 में इस आधार पर गुजरात से ज्यादा महाराष्ट्र में निवेश किया गया है। हालांकि उसके पिले साल गुजरात महाराष्ट्र से थोड़ा आगे जरूर था। यह आंकड़े निवेश के आधार पर ऊंपर-नीचे होते रहते हैं। लेकिन यह भी समझना जरूरी है कि निवेश के लिए महाराष्ट्र ने गुजरात जैसे इनवेस्टमेंट समिट का कभी आयोजन नहीं किया है।

यह जानकर और आश्चर्य होता है, कि इस मामले में तमिलनाडु का प्रदर्शन भी काफी अच्छा रहा है। खास तौर पर जब उसका एक मुख्य मंत्री घूस लेनेके मामले में जेल की सजा भी काट चुका है। तमिलनाडु का सकल जीडीपी 4,47,944 करोड़ रुपये है। जो कि गुजरात की 4,27,219 करोड़ रुपये से ज्यादा है। यहीं नहीं महाराष्ट्र की तो इन सबसे कहीं ज्यादा 8,25,832 करोड़ रुपये है। यह सभी आंकड़े साल 2012-13 के आधार पर दिए गए है। इन आंकड़ों से साफ है कि महाराष्ट्र की राज्य जीडीपी, तमिलनाडु और गुजरात को मिलाकर भी ज्यादा है। लेकिन ईमानदारी से बात की जाय, तो यह कोई ब्रेकिंग न्यूज नहीं है।

राज्य निवेश के लिए आपस में प्रतिस्पर्धा करते रहते हैं। ऐसे में गुजरात की इस बात की सराहना करनी चाहिए कि वह निवेश पाने के लिए कड़ी कोशिश कर रहा है। इसी तरह पश्चिम बंगाल जैसे दूसरे राज्य भी है। राज्य निवेश के लिए बड़े पैमाने पर अभियान चलात हैं। इसके जरिए वह भारत में निवेश के माहौल को बेहतर करने की कोशिश करते हैं। जो कि खुद में अपनी क्षमता से कम हासिल कर पाया है। अतुल्य भारत भले ही जारी है, लेकिन निवेश हासिल करनेके लिए बोलने से ज्यादा कुछ सफल उदाहरण निवेशकों के सामने पेश करने होंगे।

अगर पश्चिम बंगाल की बात करें, तो उसने हाल ही में एक भव्य सम्मेलन का आयोजन किया था। जिसमें उसने दावा किया है कि इसके जरिए राज्य में 2.43 करोड़ रुपये निवेश आने का दावा किया गया है। जो कि गुजरात में आने वाले निवेश का करीब 10 वां हिस्सा है। लेकिन आशा की बात यह है कि पश्चिमबंगाल के पास कुछ कहने के लिए है। खास तौर से ऐसा राज्य जिसे पिछले चार दशक से निवेशकों के हितैषी के रुप में नहीं जाना जाता है।

बंगाल को जिस तरह का रिस्पांस मिला है, उसे देखते हुए ऐसी उम्मीद है कि आने वाले दिनों में दूसरे राज्यों में निवेश को लेकर प्रतिस्पर्धा छिड़ सकती है। हालांकि यह सभी सच है कि समझौते के जरिए जारी होने वाले आंकड़े जमीनी हकीकत तुरंत नहीं बनते हैं। ऐसे में असल समस्या निवेश में बढ़ोतरी की है, साथ ही उसके जरिए पैदा होने वाले नए रोजगार के अवसर पर टिकी है। बुरी बात यह है कि असफल कवायद एक तरह से भ्रम को पैदा करती है। जैसे पिछले कुछ वर्षों से गुजरात को सामना करना पड़ रहा है।

समस्या बड़ी है। ऐसा इसलिए है कि बड़े पैमाने पर किया गया निवेश अच्छा होता है। बड़े नाम एक तो भारी मात्रा में निवेश करने की बात करते हैं, साथ ही उससे प्राथमित और द्वितियक स्तर पर नौकरियों के अवसर उत्पन्न होने की संभावना बढ़ जाती है। हालांकि यह सब होने में काफी समय लगता है। इनवेस्टर समिट जैसे आयोजनों से मीडिया भी उन समझौतो के बारे में जोर-शोर से लिखती है। इससे शायद थोड़े समय के लिए नागरिकों को भी लगता है कि राज्य सरकार उनके लिए काफी काम कर रही है। लेकिन इससे एक अलग सवाल भी खड़ा होता है, कि इन घोषणाओं से जमीनी स्तर पर कितना बदलाव आता है। नई नौकरियां कितनी पैदा होती है। इसकी एक अलग कहानी है।

इस तरह के आयोजन में ज्यादातर आते हैं या नहीं भी आते हैं, तो भी एक जमावड़ा लग जाता है। खास तौर पर ऐसे राज्य में जहां पर बेहतर इंफ्रास्ट्क्चर को लेकर मौके होते हैं। महाराष्ट्र, गुजरात और तमिलनाडु ऐसे ही राज्य हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि निवेशकों को आकर्षित करने के लिए इस तरह के भव्य आयोजन की जरूरत नही है। लेकिन असल समझौते बंद दरवाजों के पीछे होते हैं।

लेकिन अगर देखा जाय तो बड़े निवेशक इतनी आसानी से निवेश नहीं करते हैं, उन्हें यह पता होता है, कि कठिन करोबारी माहौल में कारोबार करना इतना आसान नही है। जिसके लिए खास तौर से भारत की पहचान है। उदाहरण के तौर पर रिलायंस एक लाख करोड़ रुपये के नए निवेश की घोषणा करता है। लेकिन इस घोषणा को अमल में लाने के लिए जरूरी है कि कपनी को निवेश के लिए बेहतर कारोबारी माहौल मिले। हालांकि इसके तहत कारोबारी को शायद वित्तीय इंसेटिव नहीं मिलना चाहिए।

निवेशकों को आकर्षित कर उन घोषणाओं को जमीनी हकीकत बनाने के लिए मूल समस्याओं को दूर करने की जरूरत है। ऐसा क्यो है कि बड़ कॉरपोरेट के लिए को वरिष्ठ अधिकारी सिंगल विंडो क्लीयरेंस के लिए तैयार बैठे रहते हैं, लेकिन एक नया कारोबार शुरू करने वाले छोटे कारोबारी को क्लीयरेंस के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ता है।

छोटे कारोबारी और आंत्रेप्रेन्योर समय की मांग हैं। एक पहल अच्छे माहौल को पैदा कर सकती है। जहां नए कारोबारियों को विकसित किया जा सके। गुजरात ने इस दिशा में कदम उठाए हैं। आईआईएम अहमदाबाद, द सेंटर फॉर इंनोवेशन, इनक्यूबेशन एंड आंत्रेप्रेन्योरशिप, डीए-आईआईसीटी सेंटर फॉर आंत्रेप्रेन्योरशिप एंड एजुकेशन इसी दिशा में उठाए गए कदम हैं। दूसरे राज्यों को भी इस दिशा में कदम उठाना चाहिए।

लेकिन यह सब करने के बावजूद सबसे बड़ी चुनौती कारोबार करना आसान करने के कदम उठाने की है। इसके लिए स्थानीय और नागरिक स्तर पर कदम उठाने होंगे। एक और चिंता की बात है कि विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार भारत का ईज ऑफ डूंइंग बिजनेस में 189 देशों में 142 वां स्थान है। यह हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती है, अगर इस दिशा में कदम उठाए जाते हैं, तो सबसे बड़ा फायदा युवाओं को होगा। ऐसे में इनवेस्टमेंट समिट की उन लोगों तक पहुंच बनाने की जरूरत है, जिनकी वहां तक पहुंच नहीं है।

गोविंदराज इथीराज Indiaspend.org. के संस्थापक हैं। यह स्टोरी प्रमुख रुप से बूमलाइवलाइव डॉट इन में आई थी। इसमें इंडिया स्पेंड के अभीत सिंह सेठी ने भी इनपुट दिया है।

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