पटना: बिहार में 16 नवंबर को नई सरकार का गठन हो गया। नीतीश कुमार ने सातवीं बार राज्य के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।

नई सरकार के सामने स्वास्थ्य, बेरोज़गारी, गरीबी, कुपोषण, प्रदूषण और पीने का साफ़ पानी पहुंचाना जैसी गंभीर चुनौतियां हैं। ये ऐसी चुनौतियां हैं जिनसे निपटे बिना बिहार का विकास संभव नहीं है।

इन चुनौतियों से निपटने के लिए क्या किया जाना चाहिए, इंडियास्पेंड ने इसको लेकर कई विशेषज्ञों से बात की है। इस रिपोर्ट में हम स्वास्थ्य, रोजगार, पेयजल आदि की मौजूदा स्थिति और इसके समाधान के बारे में बताएंगे।

स्वास्थ्य

स्वास्थ्य के मामले में बिहार की स्थिति अन्य राज्यों के मुक़ाबले बेहद ख़राब है। राज्य में 40 मेडिकल कॉलेज की ज़रूरत है, लेकिन अभी सिर्फ़ 9 मेडिकल कॉलेज चल रहे हैं। बिहार में कुल 38 ज़िला अस्पताल होना चाहिए, लेकिन अभी 36 अस्पताल हैं। इसी तरह, 212 सब-डिविज़नल अस्पतालों की आवश्यकता है, लेकिन अभी 44 अस्पताल ही चल रहे हैं। यहां 838 कम्युनिटी हेल्थ सेंटर्स की ज़रूरत है, लेकिन राज्य में एक भी कम्युनिटी हेल्थ सेंटर नहीं है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या 3,314 होनी चाहिए, लेकिन अभी केवल 533 केंद्र ही संचालित हो रहे हैं, बिहार सरकार की वेबसाइट बताती है।

विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में बिहार देश में 20वें स्थान पर है। राज्य में एएनएम के 59.5% पद ख़ाली हैं। कम्युनिटी और प्राइमरी हेल्थ सेंटरों में नर्स के 50.7% पद ख़ाली हैं। ज़िला अस्पतालों में विशेषज्ञ डॉक्टर के 59.7% पद ख़ाली हैं, विश्व बैंक और नीति आयोग की इस रिपोर्ट में बताया गया है।

"राज्य में प्रभावी स्वास्थ्य योजना और प्रबंधन सुनिश्चित करने के लिए स्वास्थ्य विभाग की क्षमता के पुनर्गठन और निर्माण की तत्काल आवश्यकता है," जॉर्ज इंस्टीट्यूट ऑफ ग्लोबल हेल्थ, इंडिया के सीनियर रिसर्च फ़ेलो और पब्लिक हेल्थ एक्सपर्ट, डॉ. विकाश आर केशरी ने कहा।

"राज्य सरकार को आबादी के मुताबिक़ सरकारी और निजी स्वास्थ्य प्रणालियों की मौजूदा क्षमता का मूल्यांकन करना चाहिए। इसके आधार पर, सार्वजनिक क्षेत्र के साथ-साथ निजी क्षेत्र की चिकित्सा व्यवस्था को विकसित करने के लिए एक स्पष्ट रोडमैप बनाना चाहिए," डाॅ केशरी ने कहा। "सबसे ज़रूरी बात कि सरकार को पब्लिक हेल्थ सिस्टम की हर स्तर पर जवाबदेही सुनिश्चित करनी चाहिए," उन्होंने आगे कहा।

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (बिहार चैप्टर) के सचिव डॉ सुनील कुमार ने सदर अस्पताल और मेडिकल कॉलेजों को उन्नत करने का मशविरा दिया।

"सदर अस्पतालों को मल्टीस्पेशलिटी अस्पताल और मेडिकल कॉलेजों को सुपर स्पेशलिटी सेंटर के रूप में विकसित करना चाहिए। साथ ही प्राइमरी हेल्थ सेंटर्स और एडिशनल प्राइमरी हेल्थ सेंटर्स को भी सभी ज़रूरी सुविधाओं से लैस करना चाहिए," डाॅ सुनील कुमार ने कहा। उन्होंने चिकित्सकों और चिकित्सा कर्मचारियों के रिक्त पदों को भरने का भी सुझाव दिया।

कुपोषण

बिहार में 5 साल से कम उम्र के बच्चों बड़ी आबादी कुपोषण का शिकार है। कुपोषण के कारण बच्चों में बौनेपन के मामले में बिहार सबसे ऊपर है।

"नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफ़एचएस)-4 (2015-2016) के मुताबिक़ बिहार में 5 साल से कम उम्र के 48.3% बच्चे बौनेपन का शिकार हैं जबकि कंप्रिहेंसिव नेशनल न्यूट्रीशन सर्वे (सीएनएनएस) (2016-2018) के अनुसार 42% बच्चों में बौनापन है। ये प्रतिशत देश के किसी भी राज्य के मुकाबले सबसे ज़्यादा है," 23 अगस्त 2020 को महिला और बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने लोकसभा में ये जानकारी दी।

विश्व बैंक, नीति आयोग और स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय की रिपोर्ट में वर्ष 2015-2016 के मुक़ाबले साल 2017-2018 में बिहार को हेल्थ आउटकम इंडैक्स स्कोर कम मिला, जो बताता है कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में बिहार में बहुत काम करने की ज़रूरत है।

बच्चों में कम वज़न की बात करें तो बिहार दूसरे स्थान पर है। "एनएफएचएस-4 के अनुसार, बिहार के 43.9% बच्चों व सीएनएनएस के अनुसार, 38.7% बच्चों का वज़न सामान्य से कम है," 23 सितंबर 2020 को लोकसभा में पेश आंकड़ों के मुताबिक़।

बिहार में 5 साल से कम उम्र के जितने बच्चों की मौत होती हैं, उनमें से 72.7% मौतों की वजह कुपोषण है। राष्ट्रीय स्तर पर ये प्रतिशत 69.2 है, इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च, पब्लिक हेल्थ फ़ाउंडेशन ऑफ़ इंडिया और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रीशन की ओर से तैयार की गई एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए टाइम्स ऑफ इंडिया की पिछले साल 20 सितंबर की इस रिपोर्ट में बताया गया।

"जो भी संसाधन मौजूद हैं, वे बच्चों को स्वस्थ रखने के लिए पर्याप्त हैं, ज़रूरत है सिर्फ उनके बारे में लोगों को जागरूक करने की। आशा और जीविका दीदी की मदद से पोषाहार को लेकर डोर टू डोर कैंपेन चलाना चाहिए और पोषक तत्वों को लेकर लोगों को शिक्षा दी जानी चाहिए," बिहार के जाने-माने शिशु रोग विशेषज्ञ डॉक्टर अरुण शाह ने इंडियास्पेंड को बताया।

कुपोषण की समस्या को दूर करने के लिए केंद्र सरकार आंगनबाड़ी सेवा, पोषण अभियान, प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना जैसी स्कीमें चला रही हैं। वित्त वर्ष 2020-2021 के लिए केंद्र सरकार ने इन योजनाओं के लिए कुल 26,982 करोड़ रुपए आवंटित किए हैं।

"महिलाओं को ये बताने की ज़रूरत है कि नवजात शिशु को जन्म से लेकर अगले 6 महीने तक सिर्फ मां का दूध पिलाना चाहिए। इसके बाद हल्का अन्न मसलन दलिया, खिचड़ी, सूजी आदि खिलाया जा सकता है, लेकिन तब भी मां की दूध पिलाना जारी रखना होगा। बच्चों को अन्न के साथ कम से कम दो साल तक मां का दूध पिलाते रहना चाहिए," डॉ शाह कहते हैं।

"स्वच्छता और साफ़-सफ़ाई का भी कुपोषण से सीधा संबंध है। अगर स्वच्छता का पालन नहीं होगा और साफ़-सफ़ाई नहीं रखी जाएगी, तो इससे बच्चे बीमार पड़ेंगे और उनके शरीर में उपलब्ध पौष्टिक तत्वों की मात्रा कम हो जाएगी। खाना खाने से पहले बच्चों के लिए साबुन से हाथ धोना सुनिश्चित करना होगा। ये सब काम युद्धस्तर पर करने की ज़रूरत है," उन्होंने आगे कहा।

"पंचायत और गांव के स्तर पर पोषाहार हफ्ते का पालन करते हुए लोगों को कुपोषण के बारे में बताना चाहिए। गांव में ही किसी ग़रीब परिवार के स्वस्थ बच्चे को हर महीने सार्वजनिक तौर पर पुरस्कृत करना चाहिए। इससे दूसरे परिवार भी अपने बच्चों को पौष्टिक भोजन देने को प्रेरित होंगे," स्टेट हेल्थ एंड फैमिली वेलफ़ेयर इंस्टीट्यूट के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ विजय कुमार ने इंडियास्पेंड को बताया।

ग़रीबी और बेरोज़गारी

प्रति व्यक्ति आमदनी के मामले में बिहार, देश में 33वें स्थान पर है। यहां प्रति व्यक्ति सालाना आमदनी 43,844 रुपए है, बिहार बजट - 2020 के मुताबिक़।

बिहार आर्थिक सर्वेक्षण:2019-20 के अनुसार बिहार में ग़रीबी की दर 33.7% है, जो राष्ट्रीय औसत से ज़्यादा है। रिपोर्ट के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में ग़रीबी का स्तर शहरों के मुक़ाबले ज़्यादा है। बिहार देश का अकेला राज्य है जहां लगभग 90% आबादी गांवों में ही रहती है।

"बिहार में आर्थिक गतिविधियां बढ़ाने के लिए अतिरिक्त प्रयास करने की ज़रूरत है ताकि प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत के बराबर पहुंच सके," रिपोर्ट में टिप्पणी की गई है।

"मुझे नहीं लगता है कि ग़रीबी को किसी ख़ास स्कीम के जरिये खत्म किया जा सकता है। अलबत्ता ब्राज़ील का एक उदाहरण है, जो कारगर हो सकता है। ब्राज़ील में गरीबों को नगदी देकर मदद दी गई, लेकिन इस शर्त के साथ कि उसका इस्तेमाल बच्चों की पढ़ाई में करना होगा। इससे आगे चलकर बच्चा एक ह्युमन कैपिटल बनता है और बेहतर रोज़गार पा सकता है। बिहार सरकार को ऐसी किसी स्कीम विचार पर करना चाहिए," गरीबी उन्मूलन के सवाल पर प्रैक्सिस: इंस्टीट्यूट ऑफ पार्टिसिपेटरी प्रैक्टिसेज़ के इंटरनल प्रोग्राम एनिशिएटिव के डायरेक्टर, अनिंदो बनर्जी ने इंडियास्पेंड से कहा।

रोज़गार के मामले में भी बिहार की स्थिति बहुत ठीक नहीं है। इस साल अप्रैल-मई में बिहार में बेरोज़गारी की दर 46% थी, जो राष्ट्रीय औसत से दोगुनी थी। इस अवधि में राष्ट्रीय स्तर पर बेरोजगारी की दर 23.5% रही, सेंटर ऑफ मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की रिपोर्ट के मुताबिक़।

रोज़गार की कमी के कारण बिहार से पलायन अधिक होता है। "कमाई करने के लिए बिहार के 50% घरों से पलायन होता है," इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पॉपुलेशन साइंस की एक रिपोर्ट के अनुसार।

"कृषि क्षेत्र से बिहार में सबसे ज़्यादा रोज़गार पैदा होते हैं, लेकिन इस सेक्टर में बीते 15 साल में बहुत ठोस काम नहीं हुआ है। कृषि क्षेत्र में सबसे बड़ी समस्या भंडारण की व्यवस्था नहीं होना है। पूरे राज्य में एक साल में जितना खाद्यान पैदा होता है, उसके मुकाबले राज्य में केवल 3% खाद्यान के स्टोरेज की क्षमता है। लेकिन, इन स्टोरेज सुविधाओं तक भी आम किसानों की पहुंच भी नहीं है। सरकार को चाहिए कि वह पंचायत स्तर पर किफ़ायती और विकेंद्रीकृत भंडारण क्षमता विकसित करे," अनिंदो बनर्जी ने कहा।

इस साल मार्च में लॉकडाउन के कारण उत्तर प्रदेश के बाद सबसे ज़्यादा प्रवासी मजदूर बिहार लौटे थे। "देशभर में कुल 10,640,612 मज़दूर अपने गृह राज्य को लौटे थे, जिनमें से 1,500,612 लोग बिहार लौटे थे," इस साल सितंबर में लोकसभा में पूछे गये एक सवाल के जवाब में सरकार ने बताया।

इंडियास्पेंड ने अक्टूबर में एक रिपोर्ट में बताया था कि गृह राज्य में काम नहीं मिलने से बिहार के मज़दूर फिर से दूसरे राज्यों में पलायन करने लगे हैं। रिपोर्ट में ये भी बताया गया था कि मनरेगा योजना मज़दूरों का पलायन रोकने में कामयाब नहीं हो पा रहा है। ये रिपोर्ट यहां पढ़ी जा सकती है।

"कंस्ट्रक्शन साइट्स से लेकर कृषि तक में बड़े पैमाने पर ऐसी तकनीक का इस्तेमाल हो रहा है, जो मजदूरों को विस्थापित करता है। ऐसी तकनीक से बचने की ज़रूरत है, जो मज़दूरों का काम छीन लेता है," अनिंदो बनर्जी ने आगे कहा।

प्रदूषण

पिछले साल 5 मार्च को ग्रीनपीस ने दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों की जो सूची जारी की थी उसमें सातवें नंबर पर बिहार की राजधानी पटना, 13वें नंबर पर मुज़फ़्फ़रपुर और 18वें पायदान पर गया ज़िले शामिल थे।

साल 2018 में किसी भी महीने में पटना में पार्टिकुलेट मैटर (पीएम)-2.5 सामान्य से कम नहीं रहा है, ग्रीनपीस ने मार्च 2019 में जारी इस रिपोर्ट में बताया।

"हमने अपने शोध में पाया है कि जिन शहरों का अनप्लांड डवेलेपमेंट हुआ है, वहां का तापमान 6 से 7 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाता है, क्योंकि अनप्लांड शहरों में न तो हरियाली होती है और न ही जलाशय बनाए जाते हैं। जब तापमान बढ़ता है, तो वो ह्यूमिडिटी बढ़ाता है जिससे प्रदूषक तत्व एक जगह जमा रह जाते हैं। इसलिए अनप्लांड डेवलपमेंट को रोकने की सख्त जरूरत है," साउथ बिहार सेंट्रल यूनिवर्सिटी में एनवायरमेंट साइंस विभाग के प्रोफेसर प्रधान पार्थ सारथी ने इंडियास्पेंड को बताया।

पिछले साल नवंबर के आखिरी हफ्ते में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने जो आंकड़े दिये थे, उसके मुताबिक पटना में पीएम-2.5 की मात्रा सामान्य से चार गुना ज़्यादा थी। पीएम-2.5 फेफड़ों के कैंसर, अस्थमा और सांस की दूसरी बीमारियों का कारण बन सकता है।

पटना में साल 2018 में वायु प्रदूषण में वाहनों की हिस्सेदारी 19% थी, जो 2030 तक बढ़कर 25% पर पहुंच सकती है, बिहार स्टेट पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड की एक रिपोर्ट के अनुसार। इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि साल 2018 में पटना में पीएम-2.5 का उत्सर्जन 20 हजार टन था, जो 2030 तक 28,000 टन पर पहुंच जाएगा। पटना में प्रदूषण पर इंडियास्पेंड की विस्तृत रिपोर्ट यहां पढ़ सकते हैं।

"बिहार के उत्तरी हिस्से में हिमालयन फुटहिल्स है, जिसकी वजह से प्रदूषक तत्व वायुमंडल में बहुत ऊपर नहीं जा पाते हैं। ऐसे में प्रदूषण पर बहुत नियंत्रण नहीं हो सकता है, लेकिन इसके बावजूद कुछ ज़रूरी कदम उठाकर प्रदूषण के स्तर को कम किया जा सकता है। बिहार में सबसे ज़्यादा प्रदूषण वाहनों से फैलता है। दिल्ली की तरह यहां भी ऑड-ईवन सिस्टम को लागू किया जाना चाहिए। वाहनों की संख्या कम करने के लिए सरकार एक से अधिक वाहन लेने पर ज़्यादा टैक्स लगा सकती है," प्रो पार्थ सारथी ने आगे कहा।

साफ़ पानी

पीने का साफ़ पानी बिहार के लिए एक बड़ी चुनौती है क्योंकि यहां के ग्राउंडवाटर में फ़्लोराइड, आर्सेनिक, आयरन, नाइट्रेट और यूरेनियम पाया जाता है। ये तत्व शरीर के लिए बेहद ख़तरनाक होते हैं।

राज्य के 22 ज़िलों में आर्सेनिक, 19 जिलों में आयरन, 13 ज़िलों में फ़्लोराइड और 10 ज़िलों में नाइट्रेट मौजूद है, 22 सितंबर 2020 को लोकसभा में पेश आंकड़ों के अनुसार। इंटरनेशनल जर्नल ऑफ एनवायरमेंटल रिसर्च एंड पब्लिक हेल्थ में इस साल प्रकाशित हुए एक शोध पत्र में राज्य के 10 ज़िलों के ग्राउंडवाटर में यूरेनियम मिलने की बात कही है।

फ्लोराइड युक्त पानी पीने और पौष्टिक आहार नहीं मिलने से कुपोषण का शिकार एक बच्चा। फ़ोटो: उमेश कुमार राय

केंद्रीय जलशक्ति मंत्रालय ने आर्सेनिक और फ्लोराइड से प्रभावित 2,120 बसाहटों की शिनाख्त की है, जहां 'हर घर नल का जल योजना' के अंतर्गत पाइप के जरिए परिशोधित पानी की सप्लाई की जानी है। मंत्रालय के अनुसार कई बसाहटों तक साफ़ पानी पहुंचाया जा चुका है। लेकिन, इंडियास्पेंड ने 7 नवंबर को अपनी इस रिपोर्ट में बताया था कि मंत्रालय के दावे के इतर प्रभावित इलाकों के लोगों को साफ़ पानी नहीं मिल रहा है।

साफ़ पानी को लेकर काम करने वाली संस्था इंडियन नेचुरल रिसोर्स इकोनॉमिक्स एंड मैनेजमेंट (इनरेम) फ़ाउंडेशन के एग्ज़ीक्यूटिव डायरेक्टर सुंदरराजन कृष्णन ने इंडियास्पेंड के साथ बातचीत में नल-जल योजना को प्रभावी माना, लेकिन इसे लागू करने में व्यवस्था की खामियों को बड़ा रोड़ा बताया।

"अभी जो स्कीम चल रही है, वो ठीक है। क्योंकि जो स्कीम चल रही है, वो पूरी नहीं हो पाएगी, तो हम आगे का रास्ता तय नहीं कर पाएंगे," उन्होंने बताया।

"एक वाटर फ़िल्टर प्लांट किसी गुणवत्ता प्रभावित इलाके में लगा दिया और वार्ड व पंचायत लेवल पर जिम्मेवारी दे दी, लेकिन सिस्टम उस प्लांट को संभाल ही नहीं पाया, तो ये तकनीकी विफ़लता नहीं, बल्कि व्यवस्था की विफलता है। लेकिन, ऐसा नहीं है कि ये सिर्फ बिहार के साथ हो रहा है। दुर्भाग्य से हर राज्य को इसी रास्ते से गुजरना है," सुंदरराजन ने कहा।

"जो प्लांट लग रहे हैं, उनकी देखरेख की जिम्मेवारी तय करनी चाहिए। प्लांट की मालिकाना जिम्मेदारी स्थानीय लोगों को दे देनी चाहिए। साथ ही प्लांट लगाने वाले ठेकेदारों पर भी कड़े नियम लगाने चाहिए। प्लांट में आई खराबियों को दुरुस्त नहीं करने पर ठेकेदार पर जुर्माना लगाना चाहिए। ये कुछ कदम हैं, जो प्लांट को स्थाई तौर पर संचालित रखने में काफी मददगार साबित हो सकते हैं।"

(उमेश, पटना में स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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