( चिनहट लेबर हब में काम का इंतजार करते मजदूर )

लखनऊ: राम बारन के फोन की घंटी जोर से बजती है। घंटी का रिंगटोन कुछ इस तरह है: “राम लला हम अएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे।” ध्वस्त बाबरी मस्जिद के स्थल पर राम मंदिर बनाने के लिए यह दक्षिणपंथी हिंदू योजना का हिस्सा था, जो कि सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) द्वारा समर्थित है।

एक धारीदार स्वेटर पहने और सिर के चारों ओर मफलर लपेटे, 48 वर्षीय, बारन ने बताया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘कट्टर’ समर्थक होने के बावजूद, वह बीजेपी द्वारा संचालित केंद्र सरकार की ओर से नौकरियां प्रदान करने में असमर्थता से निराश है।

बारन पढ़े-लिखे नहीं हैं, रोज काम ढूंढना पड़ता है। वह कहते हैं, "उन्होंने मुझे असफल कर दिया है।" कपड़े में लपेटे हुए एक लंच बॉक्स के साथ, वह रोज 9 किमी की यात्रा करते हैं। दो बसों को बदल कर 22 रुपए किराए के रूप में देकर वह शहर के सबसे बड़े श्रम केंद्र, चिनहट औद्योगिक क्षेत्र पहुंचते हैं, जहां वह हर दिन एक अस्थायी रूप से काम पाने का इंतजार करते हैं।

राम बारन, एक दिहाड़ी मजदूर हैं और श्रम हब पर इक्ट्ठा हुए कई लोगों से एक हैं, जो सत्तारूढ़ सरकार के काम-काज को लेकर निराश हैं।

श्रीवास्तव ऑटोमोबाइल्स नामक एक इलेक्ट्रिक-रिक्शा कारखाने में काम छूट जाने या वहां से निकल जाने के बाद, करीब दो सालों से बारन की यही दिनचर्या है। यह कारखाना, कई उन लघु-स्तरीय कंपनियों में से एक है, जहां से नवंबर 2016 में, प्रधानमंत्री मोदी द्वारा नोटबंदी के बाद, या तो कर्मचारियों को निकाला गया या फिर कंपनी बंद कर दी गई। बारन ने कहा, "मुझे नौकरी के लिए प्रति माह 12,000 रुपये मिलते थे। लेकिन नोटबंदी के बाद, साहब ने मुझे काम छोड़ने के लिए कहा। वह एक अच्छे आदमी हैं और हम नहीं चाहते थे कि उन्हें हम उन्हें छोड़ दें, लेकिन उनके पास अपने श्रमिकों को भुगतान करने के लिए कोई पैसा नहीं था।"

बारन करीब 3,000 मजदूरों में से एक थे जिन्होंने भारत की सबसे अधिक आबादी वाले और राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण राज्य, उत्तर प्रदेश (यूपी) की राजधानी में नोटबंदी के बाद चिनहट औद्योगिक क्षेत्र में वित्तीय स्थिरता और नुकसान पर क्षोभ व्यक्त किया।

कुछ कार्यकर्ता ( उनमें से ग्रैजुएट, इंजीनियर और पोस्ट ग्रेजुएट ) फटे हुए कपड़े पहने हुए थे। कुछ लोगों ने ब्लेजर और लुंगी पहना था। अधिकांश के एक हाथ में बीड़ी और दूसरे में एक छोटा लंच बॉक्स था। कई महिलाएं भी यहां थीं, जिन्होंने मुख्य रुप से ढीली शर्ट के साथ रंगीन साड़ी पहनी और कंधे पर बच्चा था। लेबर राइट एक्टिविस्ट, आशीष अवस्थी ने कहा, “पूरे लखनऊ के लेबर हब में से करीब 400,000 मजदूरों में से करीब 40 फीसदी मजदूर ही काम ढूंढ पाते हैं।”

श्रम विभाग के अध्यक्ष पंडित सुनील भराला ने यूपी में नौकरियों की कमी से इनकार किया। उन्होंने बेरोजगारी में वृद्धि का उल्लेख करते हुए कहा, ऐसा "कुछ भी नहीं है" । उन्होंने इस विषय पर टिप्पणी से इनकार कर दिया।

यह 11 रिपोर्ट्स की श्रृंखला में से छठी रिपोर्ट है।

यह 11 रिपोर्ट की श्रृंखला में पांचवी रिपोर्ट है, जो भारत के अनौपचारिक क्षेत्र में रोजगार को ट्रैक करने के लिए देश भर के श्रम केंद्रों से तैयार किया गया है। इससे पहले के रिपोर्ट आप यहां, यहां, यहां, यहां और यहां पढ़ सकते हैं। श्रम केंद्रों से हमारा मतलब ऐसे स्थान से है, जहां अकुशल और अर्ध-कुशल श्रमिक अनुबंध की नौकरियों की तलाश में जुटते हैं। ये श्रम केंद्र देश के अनपढ़, अर्ध-शिक्षित और योग्य-लेकिन-बेरोजगार लोगों को भारी संख्या में अवसर देते हैं। अगर आंकड़ों में देखें तो, भारत के 92 फीसदी कर्मचारियों को रोजगार देता है, जैसा कि सरकारी डेटा का उपयोग करके 2016 के अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के एक अध्ययन से पता चलता है।

अनौपचारिक श्रमिकों के जीवन और आशाओं को ध्यान में रखते हुए, यह श्रृंखला नोटबंदी और जीएसटी के बाद नौकरी के नुकसान के बारे में चल रहे राष्ट्रीय विवादों को एक कथित परिप्रेक्ष्य प्रदान करती है। ऑल इंडिया मैन्यफैक्चरर ऑर्गनाइजेशन के एक सर्वेक्षण के अनुसार, चार साल से 2018 तक नौकरियों की संख्या में एक-तिहाई गिरावट आई है। सर्वेक्षण में 300,000 सदस्य इकाइयों में से 34,700 को शामिल किया गया था। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के आंकड़ों के अनुसार केवल 2018 में, 1.1 करोड़ नौकरियां खो गईं और इनमें से ज्यादातर असंगठित ग्रामीण क्षेत्र में थे।

बारान को विभिन्न औद्योगिक कामों के लिए प्रशिक्षित किया गया था, जैसे कि फोर्कलिफ्ट के साथ मेटल शीट उठाना। वह बताते हैं "लखनऊ और कानपुर में ऑटोमोबाइल क्षेत्र में 15 वर्षों के कार्य अनुभव के बावजूद, कोई भी मुझे काम नहीं देना चाहता है।" सामान को लोड करने से लेकर साधारण, सफाई के काम तक जो भी काम आता है, बारन अब स्वीकार करता है। कभी-कभी, वह कंस्ट्रक्शन साइट पर भी काम करता है।

औसतन, बारन हर महीने दो सप्ताह के लिए 300 रुपये प्रति दिन के हिसाब से काम करता है नोटबंदी के बाद से उनकी मासिक आय में आधी गिरावट हुई हौ और 6,000 रुपये से 8,000 रुपये के बीच रह गई है।

अधिक युवा, कम नौकरियां

जनगणना 2011 के अनुसार, 20 करोड़ लोगों का घर, यूपी प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से भारत का दूसरा सबसे गरीब राज्य है, जो साक्षरता के आधार पर 35 राज्यों में से 29वें स्थान पर है, लेकिन इसके आकार के कारण, यह किसी भी अन्य राज्यों की तुलना में यहां अधिक अशिक्षित लोग हैं। हालांकि यहां भारत की सबसे बड़ी युवा आबादी (15-24 वर्ष) है। 2011 के जनगणना के अनुसार, 4 करोड़। राज्य को लाखों नौकरियों की जरुरत है। इसके बजाय, नोटबंदी ने भारी संख्या में नौकरियों को समाप्त कर दिया और मौजूदा लोगों को कम पारिश्रमिक दिया, जैसा कि बारन के अनुभव से पता चलता है। विशेषज्ञों का मानना है कि, अब, 2019 का चुनाव आ गया है और यूपी की बेरोजगारी की समस्या बीजेपी के समर्थन में कमी के साथ परिलक्षित होने की संभावना है। इसी यूपी में 2014 में 80 लोकसभा सीट में से बीजेपी ने 73 सीटें जीतीं थी। लखनऊ स्थित राजनीतिक विशेषज्ञ, रुद्र प्रताप दुबे ( पीएचडी ) का अनुमान है कि यूपी में 15 से 24 आयु वर्ग का हर दूसरा युवा बेरोजगार है। पीएचडी धारक, डॉक्टर और इंजीनियर नियमित रूप से चपरासी और स्वीपर के पदों के लिए आवेदन करते हैं। व्यापक बेरोजगारी को दूर करने के लिए, राज्य सरकार ने दो कार्यक्रम शुरू किए, स्टार्ट यूपी इंडिया और स्टैंड यूपी इंडिया, लेकिन बहुत कम प्रभाव हुआ है। दुबे कहते हैं, “जबकि युवाओं में मोदी के राष्ट्रवादी होने को लेकर उत्साह है। ( पाकिस्तान के खिलाफ एक हवाई हमले के कारण ) लेकिन उनके पास अभी भी नौकरियां नहीं हैं। आगामी चुनावों में पार्टी के वोट शेयर में गिरावट हो सकती है क्योंकि मध्यम वर्ग ( विशेष रूप से, निम्न मध्यम वर्ग ) बीजेपी के साथ "अत्यधिक परेशान" है।

दुबे ने कहा, "ऐसा हो सकता है कि बीजेपी को युवाओं से वोट मिल सकता है। लेकिन उनके माता-पिता बीजेपी को वोट या उसका समर्थन नहीं कर सकते हैं।" जो कोई भी यूपी से जीतता है, उसे युवाओं की बढ़ती बेरोजगारी को देखना होगा।

यूपी की प्रजनन दर 2.7 बच्चे प्रति महिला (2.2 की राष्ट्रीय औसत और प्रतिस्थापन दर से ऊपर है ) है। इसके लिए जनसांख्यिकीय लाभ के लिए अवसरों की खिड़की पूरी तरह से खुली है और 2061 तक जारी रहेगा, जैसा कि 2018 संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या निधि रिपोर्ट से पता चलता है।

पांच अन्य गरीब राज्यों (झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान) की तरह, यूपी में संभावित रूप से बड़े जनसांख्यिकीय लाभांश हैं - आर्थिक विकास जो एक बड़ी कार्य-आयु की आबादी से अर्जित होता है - लेकिन यह पर्याप्त शिक्षा और रोजगार के बिना आसानी से भटक सकता है।

टूटे हुए वादे और सपने

2017 में, मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की कमी के बावजूद, उत्तर प्रदेश राज्य विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने सत्ता में वापसी की। मोदी की लोकप्रियता पर सवार होकर, युवाओं को रोजगार ( सत्ता में आने के 90 दिनों के भीतर ) कृषि-ऋण छूट, लड़कियों के लिए मुफ्त शिक्षा और भ्रष्टाचार को समाप्त करने का वादा किया गया था, बीजेपी ने 403 में से 325 सीटें जीतीं थी।

यह जीत ऐसे समय में हुई, जब जनवरी 2016 से 2017 के बीच यूपी की बेरोजगारी की दर औसतन 13.25 फीसदी थी, जैसा कि सीएमआईई के आंकड़ों से पता चलता है। नोटबंदी से पांच महीने पहले जून 2016 तक 18 फीसदी की उच्च दर दर्ज की गई। “इस उच्च दर की वजह वे समस्याएं थीं, जिनका सामना कंपनियों ने औद्योगिक भूमि को पट्टे पर लेने या नए भूखंडों को खरीदने में किया। परिणामस्वरूप कई कंपनियां उत्तराखंड या पश्चिम बंगाल चली गई, ” जैसा कि लखनऊ के ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर और अर्थशास्त्री नीरज शुक्ला कहते हैं।

उपमुख्यमंत्री दिनेश शर्मा ने कहा कि यूपी में रोजगार के आंकड़े विरोधाभासी हैं । उन्होंने कहा, “ यूपी सरकार ने पिछले दो वर्षों में विभिन्न कार्यक्रमों के तहत 15 लाख लोगों को रोजगार प्रदान किया है। और इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए, क्योंकि नौकरियां उत्पन्न हो रही हैं और राज्य सरकार अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर रही है।”

जनवरी 2017 और जुलाई 2018 के बीच, बेरोजगारी दर 19 महीनों में औसतन 3.9 फीसदी तक गिर गई। राज्य के श्रम और बेरोजगारी मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य ने राज्य विधान परिषद को बताया कि अगस्त 2018 में यूपी में 21 लाख से अधिक युवाओं को बेरोजगार के रूप में पंजीकृत किया गया था। उन्होंने कहा कि वास्तविक संख्या ज्ञात नहीं था।

यूपी के रोजगार के आंकड़ों पर संदेह हो सकता है, लेकिन अवसरों की हानि स्पष्ट है और अब बारन जैसे बीजेपी के समर्थकों के लिए यह एक मुद्दा है।

बारन ने कहा कि उन्होंने राम मंदिर बनाने के वादे के कारण 2014 में बीजेपी को वोट दिया था। जब नोटबंदी आया, तो वह मोदी द्वारा पेश किए गए तर्क से प्रभावित थे ( ...कि यह बेहिसाब धन और आतंकवाद के खिलाफ एक कदम था ) लेकिन उन्हें नहीं पता था कि यह उनके जीवन को प्रभावित करेगा।

उन्होंने कहा, "मैं इन सुधारों (नोटबंदी) के दीर्घकालिक प्रभाव को नहीं जानता, मुझे पता है कि मेरी बेरोजगारी और कम मजदूरी के कारण मेरे परिवार को परेशानी हुई है।" उन्होंने जोर देकर कहा कि वह ऐसी पार्टी को वोट देंगे, जो नौकरियों की गारंटी दे, हालांकि उन्होंने यह नहीं बताया कि वह कौन सी पार्टी है। चिनहत में कई अन्य लोगों की ऐसी ही राय थी। बाराबंकी जिले के एक दिहाड़ी मजदूर 28 वर्षीय मुकेश यादव ने कहा कि उन्होंने 2017 में मोदी को वोट देने के लिए समाजवादी पार्टी के प्रति परिवार की राजनीतिक निष्ठा के खिलाफ विद्रोह कर दिया। इसके कारण उनके पिता के साथ उनका संबंध बिगड़ गया, जिन्होंने अपने बेटे के वोट को "विश्वास का उल्लंघन" कहा। यादव ने कहा कि उन्होंने मोदी और भाजपा को राम मंदिर बनाने और प्रत्येक नागरिक को 15 लाख रुपये प्रदान करने के अपने वादे के आधार पर वोट दिया था। वह विश्वास अब लड़खड़ा गया है।

यादव ने कहा, "मुझे कभी नहीं पता था कि उनके द्वारा किए गए सभी वादे जुमलों से ज्यादा कुछ नहीं थे।" मैं अब अखिलेश यादव (सपा के नेता) को वोट दूंगा। मैं कभी भी किसी भी चुनावी वादे के झांसे में नहीं आउंगा। ”

परिवार में एकमात्र कमाने वाले सदस्य के रूप में ( उनकी एक पत्नी और दो किशोर बच्चे हैं) बारन हर दिन तीन समय के भोजन का खर्च उठाने के लिए संघर्ष करता है। उसके मासिक वेतन का एक चौथाई 2,000 रुपये मासिक किराए पर खर्च होता है।

बारन पूछता है, "अगर मैं अपने परिवार का भरण पोषण करने और उन्हें बेहतर जीवन यापन करने में सक्षम नहीं हूं, तो इस सरकार का क्या फायदा है?” अपनी 12वीं की कक्षा पूरी करने के बाद, बारन के बच्चे नौकरी की तलाश शुरू करेंगे और उम्मीद है - अपनी घरेलू आय को बढ़ावा देंगे। बारन ने कहा, "मैंने हमेशा अपने बच्चों को इंजीनियर बनने का सपना दिखाया। लेकिन यह असंभव लगता है।"

नोटबंदी से तबाही

इंडियन इंडस्ट्रीज एसोसिएशन इन लखनऊ के कार्यकारी निदेशक डी. एस. वर्मा कहते हैं, “नोटबंदी और माल और सेवा कर ने रियल एस्टेट से ऑटोमोबाइल तक कई उद्योगों को अपंग कर दिया है।” याद रहे, (नोटबंदी और माल और सेवा कर लागू करने में जल्दबाजी और इसके अराजक कार्यान्वयन के लिए व्यापक रूप से आलोचना की गई थी।

वर्मा ने कहा कि नकदी संकट से जूझ रहे उद्योगपतियों ने आपूर्तिकर्ताओं का भुगतान करने, कच्चे माल खरीदने और दिहाड़ी मजदूरों का भुगतान करने के लिए संघर्ष किया।

47 वर्षीय प्रदीप कुमार श्रीवास्तव उनमें से एक थे। श्रीवास्तव ऑटोमोबाइल्स के मालिक और बारन के पूर्व नियोक्ता, श्रीवास्तव ने कहा कि उन्हें अपने अधिकांश कर्मचारियों को छोड़ देना पड़ा, क्योंकि उन्हें अपना काम जारी रखने के लिए कोई नकदी नहीं बची थी।

उन्होंने क्रोध के साथ कहा, "मेरा उत्पादन नोटबंदी ड्राइव की वजह से बुरी तरह प्रभावित हुआ।" नोटबंदी से पहले, श्रीवास्तव ने सात स्थायी और चार अस्थायी कर्मचारियों को 12,000 रुपये प्रति माह पर नियुक्त किया था। आज उनके पास सिर्फ तीन हैं, जिन्हें वे 7,000 रुपये प्रति माह का भुगतान करते हैं और इसके लिए भी काफी संघर्ष करना पड़ता है। वह लागत कम करने के लिए अपने अधिकांश काम आउटसोर्स के हिसाब से करते है।

लगभग 200,000 रुपये के नुकसान के बाद, अपने परिवार के एकमात्र कमाऊ सदस्य, श्रीवास्तव ने कहा कि उनका व्यवसाय अभी तक खड़ा नहीं हो पाया है। वह कहते हैं, "कुशल श्रमिकों को खोना एक बड़ा नुकसान है।" नोटबंदी से पहले वह एक महीने में 10 से अधिक ई-रिक्शा का निर्माण कर सकते थे, जो अब घटकर सात या उससे कम रह गया है।

चिनहत लेबर हब यूपी सरकार द्वारा बनाए गए एक औद्योगिक क्षेत्र के करीब है। ऑटोमोबाइल और रियल एस्टेट उद्योगों के नियोक्ता और ठेकेदार यहां कुशल और अकुशल श्रमिक रखने के लिए आते हैं। जबकि एक कुशल कामगार को आज एक दिन के काम के लिए 400-450 रुपये मिलते हैं, वहीं नोटबंदी से पहले उन्हें 500 रुपये तक मिलते थे। अकुशल कर्मचारी को अब 250 रुपये का भुगतान किया जाता है, जो पहले 8 घंटे के लिए 350 रुपये या उससे अधिक मिलता था।

उत्तर प्रदेश राज्य औद्योगिक विकास निगम के अनुसार, टाटा मोटर्स, यूपी के सबसे बड़े उद्योगों में से एक है, और 193 उद्योग लखनऊ में पंजीकृत हैं। कई ने परिचालन बंद कर दिया है। छोटे और बड़े सहायक उद्योग, जैसे कि ईंधन टैंक और स्टेनलेस स्टील के भागों का निर्माण, ट्रकों और बसों के लिए चेसिस और बैटरी बनाने के काम बंद हो गए हैं। इन उद्योगों ने विभिन्न प्रकार के नौकरियों के लिए अकुशल श्रमिकों को काम पर रखा था, जिनमें मशीनरी सफाई और सामान लोड करना शामिल था।

लेकिन कौशल होने से भी नौकरी की संभावनाओं में सुधार नहीं होता है।

कुशल श्रमिक और ठेकेदार प्रभावित

नौकरियों के आ रही परेशानी झेलते हुए कॉमर्स ग्रैजुएट और राजमिस्त्री 28 वर्षीय सुजीत कुमार रावत कहते हैं, “ मुझे अपने कौशल का कोई फायदा नहीं दिखता है। चिनहत में काम मिलने का इंतजार करते हुए रावत कहते हैं, “ऐसे कौशल का क्या फायदा जब आपको कम भुगतान मिलता है। एक राजमिस्त्री का औसत दैनिक वेतन नोटबंदी से पहले लगभग 600 रुपये थी, जबकि एक अकुशल श्रमिक लगभग 350 रुपये कमाते थे। आज, राजमिस्त्री 350 रुपये से 400 रुपये तक कमाते हैं।

चूंकि कुशल और अकुशल दोनों तरह के श्रमिकों की मजदूरी ‘बहुत कम’ है, इसलिए प्रतिस्पर्धा कड़ी है। रावत कहते हैं, " जिंदगी बहुत कठिन होती जा रही है।"

2004 के बाद से, रावत ( अपने परिवार, एक पत्नी और एक बेटे के लिए एकमात्र कमाऊ सदस्य ) अपने ससुर द्वारा उपहार में दी गई मोटरसाइकिल से चिनहट लेबर हब के लिए 14 किमी की यात्रा करते हैं। 15 से 18 दिनों के काम के लिए उसकी औसत कमाई 9000 रुपये से घट कर 6000 से 7000 रुपये हो गई है।

रावत ने कहा कि एक वरिष्ठ राजमिस्त्री ने उन्हें औद्योगिक भट्टियां बनाना सिखाया, लेकिन उन कौशलों का उपयोग शायद ही कभी होता है। वह कहते हैं, "पिछले दो वर्षों में मुझे लगता है कि मैंने केवल दो भट्टियों का निर्माण किया है, जबकि पहले मैं एक महीने में कम से कम एक भट्टी का निर्माण करता था। अब मैं घरों का निर्माण करता हूं और मुझे अपने कौशल के अनुसार भुगतान नहीं मिलता है।"

बीच में एक और रास्ता निकलता है।

चिनहत में एक लेबर कॉन्ट्रैक्टर अरविंद कुमार शुक्ला ( जो नौकरी ढूंढने के लिए 10 फीसदी कमीशन लेते हैं ) ने कहा कि उद्योग श्रमिक को हायर करने के लिए कॉन्ट्रैक्टर का इस्तेमाल करना पसंद करते हैं, क्योंकि वे खर्च में कटौती कर सकते हैं, जैसे बोनस और इंश्योरेंस: अगर श्रमिक अतिरिक्त वेतन या बढ़ी हुई मजदूरी की मांग करते हैं तो, ठेकेदार प्रतिस्थापन की आपूर्ति करने के लिए तैयार हैं।

फिर भी, अरविंद शुक्ला को हाल की मंदी के प्रभाव का सामना करना पड़ा है।

अपने रजिस्टर के पन्नों को पलटते हुए, उन्होंने कहा कि 30,000 रुपये से 40,000 रुपये, उनकी कमाई 22,000 रुपये से 25,000 रुपये के बीच गिर गई है।

काम की तलाश करने वाले मजदूरों की संख्या में वृद्धि हुई है, और श्रम ठेकेदारों का उपयोग करने वाले उद्योग प्रतिदिन औसतन 220 रुपये का भुगतान करते हैं ( 350 रुपये की नियमित दर से 62 फीसदी कम ) और कुछ हताश श्रमिक दिन के 150 रुपये में काम करने के लिए भी सहमत हैं।

अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों की सहायता के लिए ज्यादातर सरकारी कार्यक्रम अप्रभावी हैं।

कागजों पर राज्य की योजनाएं

बिल्डिंग एंड अदर कंस्ट्रक्शन वर्कर बोर्ड (बीओसीडब्लू) के अनुसार, सरकार के साथ पंजीकृत श्रमिक विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के लिए पात्र हैं, जैसे आवास सहायता (निर्माण श्रमिकों के लिए), श्रमिकों की बेटियों के लिए विवाह अनुदान, कौशल विकास, पेंशन और राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा।

बीओसीडब्ल्यू के अनुसार नोटबंदी के बाद श्रमिक पंजीकरण बढ़ गए हैं, 2016-17 में 685,652 से 2017-18 में 781,640 तक। 2014 से कौशल विकास मिशन (स्किल इंडिया मिशन) के तहत कम से कम 16,241 मजदूरों को प्रशिक्षित किया गया, यूपी श्रम विभाग के अनुसार, 2017-18 में, 7,029 श्रमिकों को प्रशिक्षित किया गया था, जो अब तक का सबसे अधिक है। यह कौशल और नौकरियों की तलाश में लाखों लोगों को दिए गए पर्याप्त से दूर है। श्रम ठेकेदार अरविंद शुक्ला कहते हैं, "कई बार, जो लोग ग्रैजुएट, इंजीनियर और यहां तक ​​कि पोस्ट-ग्रेजुएट हैं, वे नौकरियों के लिए हमारे पास आते हैं। चिनहत औद्योगिक क्षेत्र में मेरे साथ के अधिकांश मजदूर हाई स्कूल या इंटरमीडिएट पास हैं। "

लेबर एक्टविस्ट अवस्थी कहते हैं, "अकेले उत्तर प्रदेश में 100 से अधिक पॉलिटेक्निक हैं और वे हर साल हजारों कुशल लोगों को बाजार में भेजते हैं, लेकिन उनमें से 50 फीसदी को ही नौकरी मिलती है। निजी नौकरियों में कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है, और आने वाले समय में यह एक बहुत ही गंभीर समस्या है।"

श्रम विभाग के भारला ने कहा कि कुशल श्रमिक उच्च मजदूरी की मांग करते हैं, जो उद्योग भुगतान के लिए अनिच्छुक हैं। इसलिए, न्यूनतम प्रशिक्षण वाले अकुशल श्रमिकों का उपयोग किया जाता है और उन्हें मानक वेतन से कम भुगतान किया जाता है। वह कहते हैं, "इस समस्या से निपटने के लिए, विभाग अपने प्रशिक्षण कार्यक्रमों को बढ़ाने पर विचार कर रहा है। यदि कुशल श्रमिकों की एक बड़ी संख्या है, तो हमें लगता है कि यह समस्या समाप्त हो जाएगी।"

यूपी की रोजगार समस्या का आसान समाधान नहीं है।

2017 की अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट में कहा गया है, "शिक्षा और कौशल की मांग और आपूर्ति में मेल नहीं है, जो बेरोजगारी में बदल जाता है।“ हालांकि, कुशल श्रम की कमी है, लेकिन श्रमिकों को अक्सर विभिन्न कौशलों में प्रशिक्षित नहीं किया जाता है और ऐसा मुख्य रूप से शिक्षा की कमी और अवसरों के बारे में जागरूकता की कमी के कारणहै भी होता । रिपोर्ट में कहा गया है कि शिक्षित युवाओं में बेरोजगारी की उच्च दर ‘चिंता का विषय’ है।

यह 11 रिपोर्टों की श्रृंखला में यह छठी रिपोर्ट है। पिछली रिपोर्ट: इंदौर, जयपुर, पेरुम्बवूर, कोलकाता और अहमदाबाद।

शर्मा एक स्वतंत्र लेखक हैं, लखनऊ में रहते हैं और 101Reporters.com के सदस्य हैं, जो एक अखिल भारतीय स्तर पर जमीन से जुड़े पत्रकारों का नेटवर्क है

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 10 अप्रैल, 2019 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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