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1990 की तुलना में 2016 में 60 लाख कम बच्चों की मृत्यु हुई है। यह संख्या फ्रांस में कुल बच्चों की संख्या से अधिक है।

यह अंश ‘द स्टोरी बिहाइंड का डेटा- 2017’ से लिए गए हैं। यह वैश्विक प्रगति पर एक नई रिपोर्ट है, जो गरीबी और बीमारी से लड़ने के वैश्विक प्रयास के संबंध में बिल और मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन द्वारा जारी की गई है।

रिपोर्ट में 18 आंकड़े अंक को ट्रैक किया गया है, जिसे संयुक्त राष्ट्र के 'सतत विकास लक्ष्यों' में शामिल किया गया था। हमने कुछ स्वास्थ्य संकेतकों पर वैश्विक औसत के साथ भारत के प्रदर्शन की तुलना की है।

भारत मातृ मौत को कम करने में सक्रिय, पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों में मृत्यु दर कम करने में भारत विश्व में पीछे

  • मातृ मृत्यु दर:

वर्ष 2013 तक, भारत की मातृ मृत्यु दर वैश्विक औसत से कम थी। वर्ष 2004-06 में प्रति 100,000 जीवित जन्मों में 254 मौतों से, अनुपात 2013 में गिरकर 167 हुआ था। 2016 में वैश्विक औसत 179 पर उच्च बनी हुई है। एनएफएचएस के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में संस्थागत प्रसव का प्रतिशत वर्ष 2005-06 में 39 फीसदी से बढ़कर वर्ष 2015-16 में 79 फीसदी हुआ है।

वर्ष 1990 में, वैश्विक मातृ मृत्यु दर, प्रति 100,000 जीवित जन्मों में 275 का था। कुछ वर्षों के लिए, अनुपात समान रहा । वर्ष 2016 में यह गिर कर 179 हुआ है। रिपोर्ट के अनुसार, इस संख्या में गिरावट का श्रेय स्वास्थ्य सुविधाओं में जन्म देने वाली महिलाओं की बढ़ती संख्या को दिया गया है, जहां घर की बजाय ​​उनके पास कुशल प्रसूति देखभाल सदस्य थे।

वर्तमान दर पर, वैश्विक एमएमआर, वर्ष 2030 तक 138 तक पहुंचने का अनुमान है, जैसा कि रिपोर्ट में बताया कहा गा है। एसडीजी ने वर्ष 2030 तक प्रति 100,000 जीवित जन्मों में 70 से कम मौतों का लक्ष्य निर्धारित किया है। भारत की राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना -2017 वर्ष 2020 तक 100 की दर को लक्षित करता है।

  • नवजात मृत्यु दर:

वर्ष 1990 में, भारत में नवजात मृत्यु दर ( 1,000 जन्मों पर जन्म के 28 दिनों के भीतर होने वाली शिशु मृत्यु ) 52 थी, जबकि वैश्विक औसत 32 था। भारत की दर वर्ष 2013 में लगभग 50 फीसदी घटकर 28 हुई है, लेकिन वैश्विक औसत (वर्ष 2016 में 17) से अब भी अधिक है। रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर प्रयासों में सुधार हुआ तो 2030 में वैश्विक नवजात मृत्यु दर 11 हो जाएगी या 50 फीसदी कम हो कर से 9 तक पहुंचेगी।

बद्तर स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे, मानव संसाधनों की खराब उपलब्धता, भारतीय किशोरावस्था में खून की कमी और गरीब महिलाओं में अतिरिक्त शारीरिक गतिविधि नवजात मृत्यु दर में धीमी गति से गिरावट के कुछ कारण हैं, जैसा कि इंडियास्पेंड ने जून 2017 की रिपोर्ट में बताया है। भारत की ‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना-2017’ वर्ष 2025 तक 16 की दर को लक्षित करता है।

  • पांच वर्ष की आयु के भीतर मृत्यु दर:

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण -1 के मुताबिक, वर्ष 1992-93 में, भारत की पांच वर्ष की आयु के भीतर मृत्यु दर 1000 जीवित जन्मों पर 109 मृत्यु का था। वर्ष 2005-06 तक, यह गिरकर 74 पर आ गया, और 2015-16 तक 50 पर, विश्व औसत से 12 ज्यादा। भारत में पांच वर्ष की आयु के भीतर मृत्यु दर नेपाल, बांग्लादेश और रवांडा जैसे गरीब देशों की तुलना में अधिक है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने मार्च. 2017 की रिपोर्ट में बताया है।

वर्ष 1990 में, पांच वर्ष से कम आयु के भीतर प्रति 1000 जीवित जन्मों पर 83 मौतों की मृत्यु दर के साथ विश्व भर में 1.12 करोड़ बच्चों की मृत्यु हुई है। वर्ष 2016 तक, मृत्यु की संख्या में 50 फीसदी से कम हो कर 50 लाख और मृत्यु दर 38 हो गई है, जैसा कि रिपोर्ट कहती है।

एसडीजी ने वर्ष 2030 तक प्रति 1,000 जीवित जन्मों पर 25 मौतों का लक्ष्य निर्धारित किया है। भारत की राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रोफ़ाइल ने 2025 तक 23 का लक्ष्य निर्धारित किया है। वर्तमान दर के साथ, वर्ष 2030 तक, पांच वर्ष की भीतर वैश्विक दर 23 हो जाएगी, और संभवत: बेहतर स्वास्थ्य देखभाल के साथ 19 तक गिर सकती है।

  • टीकाकरण:

रिपोर्ट के अनुसार, अगले साल अनुमानित बाल मृत्युओं में, करीब 15 लाख ऐसे रोगों से होगा, जो कि टीके से रोका जा सकता है।

वर्ष 1990 के बाद से, मुख्य रूप से टीके और बेहतर नवजात शिशु देखभाल प्रथाओं के कारण, 10 करोड़ से अधिक बच्चों को बचाया गया है, लेकिन रिपोर्ट कहती है कि कमजोर स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों वाले देशों में अब भी बुनियादी ढांचे के निर्माण की आवश्यकता है। दुनिया में लगभग 2 करोड़ बच्चे हैं, जो बिल्कुल भी प्रतिरक्षित नहीं होते हैं। खसरा से हर साल 150,000 बच्चे मरते हैं। यह एक ऐसी बीमारी है जिसका टीका 20 सेन्ट (13 रुपये) से भी कम है। भारत में, वर्ष 2015-16 में 12-23 महीने के आयु वर्ग के 80 फीसदी से ज्यादा बच्चों ने खसरे की टीका प्राप्त किया है।

वर्ष 2015-16 में, 12-23 महीने के आयु वर्ग के 62 फीसदी भारतीय बच्चों को पूरी तरह से प्रतिरक्षित किया गया था। 2005-06 में यह आंकड़े 43.5 फीसदी थे। राज्यों में व्यापक विविधताएं हैं - नागालैंड में 36 फीसदी से पंजाब में 89 फीसदी तक।

रोग नियंत्रण: भारत में सबसे ज्यादा टीबी की घटनाएं, तीसरा उच्चतम मलेरिया के मामले, तीसरा सबसे अधिक एचआईवी मामले

एसडीजी ने वर्ष 2030 तक एड्स, तपेदिक, मलेरिया और उपेक्षित रोगों की महामारी समाप्त करने का लक्ष्य रखा है। हालांकि, रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि हम उस लक्ष्य से बहुत दूर होंगे।

  • क्षय रोग:

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने भारत को दुनिया में टीबी की सबसे अधिक मामलों वाला देश घोषित किया है। वर्ष 2015 में, भारत ने टीबी के करीब 28 लाख नए मामले दर्ज किए हैं। यह आंकड़े विश्व स्तर पर दर्ज 96 लाख मामलों का एक-चौथाई है। साथ ही ये आंकड़े वर्ष 2009 में दर्ज 20 लाख मामलों से 10 फीसदी ज्यादा है। अनुमान है कि भारतीय जनसंख्या का लगभग 40 फीसदी टीबी जीवाणुओं के साथ रह रहा है।

वर्ष 2015 में भारत में टीबी के अनुमानित मौतों की संख्या दोगुनी हुई है। यह संख्या वर्ष 2014 में 220,000 मौतों से बढ़ कर 480,000 हुई हैं। पिछले अनुमान बहुत कम थे, जैसा कि इंडियास्पेंड ने अक्टूबर, 2016 की इस रिपोर्ट में बताया है।

टीबी के लिए डब्ल्यूएचओ द्वारा बताई गई 16 प्रमुख सिफारिशों को भारत लागू नहीं करता है। इस संबंध में भी इंडियास्पेंड ने पहले 20 जुलाई, 2017 की रिपोर्ट में बताया है। रिपोर्ट के अनुसार, 1990 में प्रति 100,000 लोगों पर टीबी के नए मामलों की संख्या 187 थी। 2016 में, ये आंकड़े 140 थे।

  • मलेरिया:

विश्व स्तर पर भारत में मलेरिया मामलों की तीसरी सबसे बड़ी संख्या है और डब्ल्यूएचओ के आंकड़ों के अनुसार दक्षिण पूर्व एशिया क्षेत्र में 70 फीसदी की हिस्सेदारी है। 29 जुलाई, 2016 को लोकसभा में दिए गए उत्तर के अनुसार, भारत में मलेरिया की घटना वर्ष 2013 में 8 लाख थी, जो बढ़कर वर्ष 2015 में 11 लाख हुई है। इसी अवधि के दौरान मृत्यु की संख्या 440 से कम हो कर 287 हुई है।

वर्ष 1990 में, विश्वभर में प्रति 1,000 लोगों पर मलेरिया के 31 नए मामले सामने आए थे। दुनिया भर में मलेरिया से होने वाली मौतों में वृद्धि के कारण, वर्ष 2000 से पहले मलेरिया के अधिक मामले रिपोर्ट किए जा रहे थे, जैसा कि रिपोर्ट में बताया गया है। वर्ष 2016 तक, नए मलेरिया मामलों की वैश्विक संख्या केवल दो अंकों से घटकर 29 हो गई। रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया कि वर्ष 2030 में यह संख्या लगभग समान बनी रहेगी।

  • एचआईवी:

यूएनएड्स द्वारा वर्ष 2014 में प्रकाशित जीएपी रिपोर्ट के अनुसार भारत में एचआईवी के साथ रहने वाले लोगों की तीसरी सबसे बड़ी संख्या थी।

वर्ष 2015 तक, भारत में एचआईवी से ग्रस्त करीब 21 लाख लोग थे। इनमें से 44 फीसदी से कम लोगों को दवाएं प्राप्त हुईं, जो उनकी ज़िंदगी को लंबा रखने और संक्रमण को कम करने में सहायता करती हैं। जबकि एचआईवी के साथ केवल 36 फीसदी बच्चों ने एंटी-रेट्रोवायरल थेरेपी प्राप्त की है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने सितंबर 2016 की रिपोर्ट में बताया है।

वर्ष 2009-16 के बीच, एचआईवी के 14,474 मामले रक्त आदान-प्रदान के माध्यम से हुए हैं।एनएफएचएस आंकड़ो के अनुसार वर्ष 2015-16 तक, भारतीय महिलाओं में एक-पांचवें से कम और एक तिहाई से कम पुरुषों को एचआईवी / एड्स का व्यापक ज्ञान था।

अनुमान के मुताबिक वर्ष 2016 तक एचआईवी वायरस के कारण 350 लाख लोग मारे गए हैं। वर्ष1990 में, प्रति हजार लोगों की वैश्विक एचआईवी मृत्यु 0.05 थी। वर्ष 2005 तक, एचआईवी की मौतों में लगातार वृद्धि हुई थी। वर्ष 2005 में 0.3 पर सबसे ज्यादा बढ़ोतरी हुई थी। रिपोर्ट के अनुसार, एचआईवी रोगियों के लिए आवश्यक सेवाएं और उत्पादों को प्रदान करने की परिमाण में वृद्धि ने वर्ष 2016 में मृत्यु दर को 0.14 में घटा दिया था, हालांकि वर्ष 1990 की तुलना में यह अब भी ज्यादा है।

वर्तमान परिस्थिति पर रिपोर्ट में मृत्यु दर को वर्ष 2030 तक 0.09 तक कम होने का अनुमान लगाया गया है।

भारत में आधी से भी कम आबादी तक बेहतर स्वच्छता सुविधाओं की पहुंच

एनआईएफएचएस के आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2015-16 में, 48 फीसदी भारतीयों तक बेहतर स्वच्छता सुविधाओं ( उचित शौचालय और स्वच्छ, पीने का पानी ) तक पहुंच रही है। वर्ष 2005-06 में ये आंकड़े 29 फीसदी रहे हैं, जैसा कि एनएफएचएस डेटा में बताया गया है। डायरिया, जो कि बेहतर स्वच्छता सुविधाओं के जरिए रोका जा सकता है, अभी भी भारतीय बच्चों में मृत्यु के प्रमुख कारणों में से एक है।

वर्ष 2016 में, 15.7 करोड़ भारतीयों तक शौचालयों की पहुंच नहीं थी। ब्रिक्स देशों में, भारत में शौचालय के बिना जनसंख्या का सबसे बड़ा हिस्सा रहता है। भारत के लिए ये आंकड़े 37.4 फीसदी हैं। छह भारतीय राज्यों के 343 स्वास्थ्य सेवा संस्थानों में बुनियादी स्वच्छता, शौचालय, स्वच्छ पानी और अपशिष्ट निपटान का अभाव है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने जुलाई, 2016 की रिपोर्ट में बताया है। रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2016 तक, वैश्विक आबादी का एक-तिहाई हिस्सा तक स्वच्छता के असुरक्षित साधनों तक पहुंच थी। वर्ष 1990 में ये आंकड़े 57 फीसदी थे। वर्तमान दर पर, यह आंकड़ा वर्ष 2030 तक 23 फीसदी तक गिरने का अनुमान है।

(नायर इंटर्न हैं और इंडियास्पेंड के साथ जुड़ी हैं। )

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 14 सितंबर, 2017 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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