Energy 620

पिछले सात वर्षों में, ऊर्जा क्षेत्र में करीब 70,000 करोड़ रुपये मूल्य की लगभग 75 परियोजनाएं, जिनसे ऊर्जा की 30,809 मेगा वाट (मेगावाट) उत्पन्न हो सकती थी ( भारत के सालाना बिजली उत्पादन क्षमता में 11 फीसदी की आपूर्ति करने के लिए पर्याप्त ) को बंद किया गया है।

बिजली मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार सितंबर 2015 तक मांग और आपूर्ति के बीच की खाई 2.4 फीसदी (15,981 मिलियन यूनिट ) है इसलिए यदि यह परियोजनाएं चल रही होतीं तो भारत में पर्याप्त ऊर्जा होती।

विभिन्न कारणों से इन परियोजनाओं को बंद किया गया है - भूमि और वित्त से लेकर लाभप्रदता और स्थानीय मुद्दे मुख्य कारण रहे हैं। सरकारी परियोजनाएं निर्धारित समय से पीछे चलना एवं नौकरशाही में मतभेद के कारण भारी लागत, अन्य कारण प्रतीत होते हैं।

रद्द परियोजनाओं में से करीब 44 फीसदी मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश में थे।

राज्य अनुसार बंद किए गए ऊर्जा परियोजनाएं

2005 की योजना

संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन ( यूपीए ) सरकार ने अपने 2005 राष्ट्रीय विद्युत नीति में वर्ष 2010 तक देश के सभी गांवों में बिजली पहुंचाने का वादा किया था एवं 2012 तक प्रति व्यक्ति 1,000 किलोवाट घंटे (kWh) बिजली देना सुनिश्चित किया था। इन दोनों वादों को पूरा करने में सरकार विफल रही है। प्रति व्यक्ति 1,000 किलोवाट घंटा का लक्ष्य , केवल 2014-15 में प्राप्त किया जा सकता है और 16,000 से अधिक गांव अभी भी अंधेरे में रह रहे हैं।

2011 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार, कम से कम 55.8 फीसदी घरों में बिजली नहीं है।

ग्रामीण विद्युतीकरण स्थिति

परियोजनाओं के बंद होने से मांग में वृद्धि

आनंद एस , इंजीनियरिंग अधिकारी , केन्द्रीय विद्युत अनुसंधान संस्थान, बंगलौर, के अनुसार ऊर्जा परियोजनाओं के बंद होने से आपूर्ति में कमी हुई है जबकि मांग में वृद्धि जारी है।

आनंद कहते हैं कि, “कई बार यह परियोजनाएं केवल कागज़ों तक ही सीमित होती हैं और प्रकाश से कोसो दूर हैं। ”

इंडियास्पेंड ने पहले ही पनी रिपोर्ट में बताया है कि किस प्रकार विद्युतीकरण का मतलब बिजली नहीं है।

मिंट की रिपोर्ट के अनुसार चीन एवं अमरीका के बाद, भारत तीसरा सबसे बड़ा उपभोक्ता है लेकिन 2014-15 में 1,000 किलोवाट घंटा प्रति व्यक्ति लक्ष्य प्राप्त करने के बावजूद यह दुनिय में सबसे कम है। चीन में ऊर्जा की खपत चार गुना अधिक है एवं विकसित राष्ट्रों का औसत 15 गुना अधिक है।

लागत में औसत वृद्धि : 550 करोड़ रुपए प्रति परियोजना

शंकर शर्मा , ऊर्जा नीति विश्लेषक कहते हैं कि, “पिछली नीतियों हमारी बढ़ती जनसंख्या के लिए टिकाऊ नहीं हैं। स्पष्टता की कमी, स्थिर नीतियों और व्यावसायिकता और राजनीतिक हस्तक्षेप मुख्य बाधाएं हैं।”

पिछले 40 वर्षों में सरकार द्वारा शुरू की गई 1,200 बिजली परियोजनाओं में से, 61,694 करोड़ रुपये की लागत के साथ निर्धारित समय से पीछे चल रही 111 परियोजनाओं सहित, 594 निर्माणाधीन हैं।

प्रति परियोजना औसत लागत में वृद्धि 550 करोड़ रुपए है।

निर्माणाधीन परियोजनाएं

बिजली मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, भूमि का अधिग्रहण, लोगों की बेदखली, जनशक्ति की कमी, अनुचित बंधन और कच्चे माल की आपूर्ति देरी के लिए मुख्य कारण हैं।

विशेषज्ञों का कहना है कि जब बात प्रमुख बिजली परियोजनाओं को क्रियान्वित करने की आती है तो सरकार और लोगों के बीच एक प्रमुख संवादहीनता है।

शर्मा कहते हैं कि, “सभी महत्वपूर्ण निर्णय लेने की प्रक्रिया में, समाज के विभिन्न वर्गों से सक्रिय भागीदारी महत्वपूर्ण है।”

राज्य और केंद्र सरकारों के बीच समन्वय की कमी भी देरी के लिए ज़िम्मेदार हैं – कम से कम 47 लंबित परियोजनाओं बहु राज्य परियोजनाएं हैं।

परियोजना में देरी - समय और लागत में वृद्धि

विद्युत अधिनियम , 2003, में केंद्रीय और राज्य विद्युत नियमितता आयोगों प्रावधान है। अधिनियम के अनुसार बिजली क्षेत्र की उचित प्रशासन के लिए आयोगों के स्वतंत्र नियामक निकायों होने की जरूरत है।

सिंह कहते हैं कि, “अभ्यास में, अध्यक्ष और इन संस्थाओं के सदस्यों की नियुक्तों में राजनीतिक रुप से प्रभाव रहता है।”

इसी संबंध में जानकारी के लिए हमने ई-मेल के ज़रिए बिजली मंत्री पीयूष गोयल, केंद्रीय बिजली नियामक आयोग के अध्यक्ष गिरीश बी प्रधान एवं सचिव , केन्द्रीय विद्युत नियामक आयोग शुभा शर्मा से संपर्क साधने की कोशिश की है लेकिन किसी की तरह से कोई जवाब नहीं आया है।

विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार को अपनी रणनीति पर फिर से काम करने की जरूरत ​​है । शर्मा कहते हैं कि बिजली उत्पादन को अधिकतम करने की बजाए सबसे कम कीमत पर ग्रामीण क्षेत्रों में घर-घर में विद्युतीकरण के लिए आवश्यक न्यूनतम बिजली पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

( घोष 101reporters.com के सदस्य हैं। 101reporters.com ज़मीनी पत्रकारों का भारतीय नेटवर्क है। )

यह लेख मूलत: अंग्रेज़ी में 09 दिसंबर 2015 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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