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मुंबई: ग्रामीण भारत में योग्य चिकित्सा पेशेवरों की गंभीर कमी का असर 23 सितंबर, 2018 को लॉन्च की गई राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना ‘आयुष भारत’ के तहत 150,000 स्वास्थ्य उप-केंद्रों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (पीएचसी) को "स्वास्थ्य और कल्याण केंद्र" के रूप में पुन: स्थापित करने पर पड़ सकता है।

स्वास्थ्य बीमा कार्यक्रम का एक कम प्रचलित कार्यक्रम, जिसे मोदीकेयर भी कहा जाता है, उसमें स्वास्थ्य और कल्याण केंद्र शामिल हैं जो भारत में गैर-संक्रमणीय बीमारियों के बढ़ते बोझ को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। वे मातृ और शिशु स्वास्थ्य सेवाओं की भी पेशकश करेंगे।

समस्या यह है कि,उप-केंद्र जो एक सहायक नर्स मिडवाइफ, एक पुरुष बहु-कुशल स्वास्थ्य कार्यकर्ता और स्वास्थ्य सहायक द्वारा संचालित होता है, वहां कर्मचारियों की कमी है। साथ ही, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में पर्याप्त डॉक्टर नहीं हैं:

  • ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी-2017 के अनुसार, भारत में 156,231 उप-केंद्रों में से 78,569 पुरुष स्वास्थ्य कर्मियों के बिना थे, सहायक नर्स मिडवाइव के बिना 6,371 उप-केंद्र थे और 4,263 उपकेंद्रों में न तो पुरुष स्वास्थ्य कर्मी थे न ही सहायक नर्स मिडवाइव थे।

  • भारतीय सार्वजनिक स्वास्थ्य मानकों (आईपीएचएस) के अनुसार आउट पेशेंट देखभाल के लिए प्रति दिन प्रति डॉक्टर कम से कम 40 रोगियों के लिए पीएचसी को पूरे भारत में 25,650 डॉक्टरों की आवश्यकता है। यदि इन मानकों को पूरा किया जाता है, तो 1 मिलियन रोगियों को रोजाना लाभ हो सकता है। लेकिन 3,027 डॉक्टरों की कमी के साथ, 1,974 पीएचसी में डॉक्टर नहीं हैं। इसका मतलब है कि 12 फीसदी या 121,080 रोगियों को हर दिन प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल नहीं मिल पाता है।

भारत के गांवों में हेल्थकेयर राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) के तहत तीन-स्तर की संरचना है - उप केंद्र, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र। उप-केंद्र सबसे आगे है, जो मैदानों में 5,000 लोगों और पहाड़ी या जनजातीय क्षेत्रों में 3,000 लोगों को कवर करता है।आयुष भारत योजना के सफल होने के लिए पीएचसी समान रूप से महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि वे चिकित्सा परामर्श के लिए पहला लिंक हैं और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में विशेषज्ञ परामर्श के लिए रेफ़रल प्वांइट के रूप में कार्य करते हैं।

पीएचसी और उप-केंद्र दोनों को सुदृढ़ करने से माध्यमिक (जिला अस्पतालों और ब्लॉक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों) और तृतीयक स्वास्थ्य संस्थानों (अस्पतालों-सह-चिकित्सा महाविद्यालयों में विशेषज्ञ और सुपर-विशेषज्ञ सेवाएं) पर बोझ कम हो जाएगा।

पर्याप्त डॉक्टरों को खोजने में विफलता 2002 और 2017 में लगातार राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीतियों के अनुसार कल्पना की गई सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज को प्रभावित करेगा।

डॉक्टरों की कमी वाले राज्य और केंद्र शासित प्रदेश, 2017

स्वास्थ्य पेशेवरों का झुकाव शहरों की ओर

भारत की आबादी का सत्तर प्रतिशत गांवों में रहता है और शहरी इलाकों में 30 फीसदी रहता है। लेकिन देश के 2 मिलियन मजबूत स्वास्थ्य सेवकों का 60 फीसदी शहरी भारत को सेवा देता है, केवल शेष 40 फीसदी गांवों को सेवा देते हैं, जैसा कि 2016 विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की रिपोर्ट के आंकड़ों से पता चलता है।

शहरी और ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य कर्मी

प्रस्तावित केंद्रों के साथ समझौता करने के लिए एक और मुद्दा है: डब्ल्यूएचओ अध्ययन के मुताबिक भारत के शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में स्वास्थ्य-श्रमिक पर्याप्त रूप से योग्य नहीं हैं। शहरी और ग्रामीण एलोपैथिक डॉक्टरों में 58 फीसदी और 19 फीसदी डॉक्टर, चिकित्सकीय रूप से योग्य थे। ग्रामीण इलाकों में अभ्यास करने वाली नर्सों और दाइयों के लिए केवल 33 फीसदी ने माध्यमिक विद्यालय से ऊपर अध्ययन किया है और 11 फीसदी के पास मेडिकल योग्यता है, जैसा कि रपोर्ट में अनुमान लगाया गया है।

स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं का दौरा करने वाले मरीजों के सर्वेक्षण से पता चला है कि चार राज्यों में औसतन 43 फीसदी रोगी स्वास्थ्य सुविधाओं द्वारा प्रदान किए गए चिकित्सा उपचार से संतुष्ट नहीं थे। सर्वेक्षण किए गए मरीजों में से 34 फीसदी ने स्वास्थ्य कर्मचारियों की अनुपस्थिति की शिकायत की, 32 फीसदी ने दवाओं की कमी की बात कही और 13 फीसदी ने कहा कि उन्हें इलाज तक पहुंचने में लंबा इंतजार करना पड़ा। 3 फीसदी ने कहा कि केंद्र बंद थे, 2 फीसदी ने कहा कि वहां कोई सुविधा नहीं थी और शेष 5 फीसदी ने भ्रष्टाचार का आरोप लगाया गया था, जैसा कि सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज पर उच्च स्तरीय विशेषज्ञ समूह द्वारा 2011 की रिपोर्ट से पता चलता है।

भारत में स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं में मरीजों की धारणा सर्वेक्षण, 2011

सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा न मिलने का मतलब निजी चिकित्सकों पर निर्भरता

उत्तर प्रदेश और बिहार में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक नए कल्याण केंद्रों के लिए चिंता का एक संभावित क्षेत्र गैर-डिग्री एलोपैथिक चिकित्सकों (एनडीएपी) ( एमबीबीएस के बिना चिकित्सकों ) पर ग्रामीण मरीजों की निर्भरता हो सकती है।

ग्रामीण कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और ओडिशा में अध्ययन ने कई कारणों से निजी चिकित्सकों पर निर्भरता दिखायी है। इनमें से सबसे बड़ा कारण सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं तक आसानी से पहुंच की कमी है। 73 फीसदी उप-केंद्रों की दूरी मरीजों के निवास स्थल से 3 किलोमीटर दूर थी। 28 फीसदी उप-केंद्र और 20 फीसदी पीएचसी तक सार्वजनिक परिवहन सेवा नहीं थी, जैसा कि नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट पर इंडियास्पेंड द्वारा किए गए एक विश्लेषण की निष्कर्ष से पता चला है। उत्तर भारत में किए गए इस 2014 के अध्ययन के मुताबिक तेजी से परामर्श के लिए आसान उपलब्धता और एनडीएपी की निकटता जरूरी है। अध्ययन में कहा गया है, "समुदाय में मिलकर, एनडीएपी ने लोगों की जरूरतों, प्राथमिकताओं और आर्थिक क्षमताओं के लिए अपनी सेवाओं को अनुकूलित किया है, जिससे उन्हें "ऑल इन वन" सेवाओं के लिए पसंदीदा संसाधन बनाया गया है। "

ग्रामीण भारत से क्यों बचते हैं योग्य चिकित्सा पेशेवर

ग्रामीण इलाकों में डॉक्टरों की नियुक्ति एक बड़ी चुनौती है जिसका अब तक आयुष भारत को सामना करना बाकी है। विश्व बैंक और ब्रिटेन के अंतर्राष्ट्रीय विकास विभाग द्वारा वित्त पोषित 2011 के एक अध्ययन में पाया गया कि 19 प्रमुख राज्यों में पीएचसी में 39 फीसदी चिकित्सा प्रदाताओं को "अनुपस्थित" गिना गया है। ‘पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया’ द्वारा 2017 के एक अध्ययन में कहा गया है कि रहने और काम करने की बद्तर स्थितियों, अनियमित दवा आपूर्ति, कमजोर बुनियादी ढांचे, पेशेवर अलगाव और प्रशासनिक काम का बोझ - ग्रामीण इलाकों में काम करने वाले डॉक्टरों द्वारा सामना की जाने वाली कुछ चुनौतियां हैं। 2018 तक, भारत में ‘मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया’ के साथ पंजीकृत 497 मेडिकल कॉलेज हैं, जो एमबीबीएस के लिए 60,680 सीटों की क्षमता प्रदान करते हैं । भारत में रुझान के साथ दक्षिण अफ्रीका जैसे अन्य ब्रिक्स राष्ट्र संकेत देते है कि अधिकांश डॉक्टर पीएचसी में सामान्य अभ्यास करने के बजाय शहरी क्षेत्रों में अस्पताल स्थित विशेषज्ञताओं को चुनना पसंद करते हैं, जैसा कि 2015 में मानव संसाधन संसाधन में प्रकाशित एक अध्ययन में कहा गया है।

इस समस्या को संबोधित करने के लिए, कई राज्यों में नीतिगत फैसले के बाद स्नातकोत्तर चिकित्सा अध्ययन के दौरान 1-5 साल की अनिवार्य ग्रामीण सेवा अनिवार्य कर दी है। इसके अलावा, कुछ राज्यों को स्नातकोत्तर अध्ययन के बाद एक विशेष अवधि के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में चिकित्सा का अभ्यास करने के लिए चिकित्सा अधिकारियों की आवश्यकता होती है। मध्य-स्तरीय स्वास्थ्य प्रदाता कल्याण अभियान के लिए आदर्श हैं: विशेषज्ञ ग्रामीण स्वास्थ्य देखभाल को मजबूत करने पर राष्ट्रीय परामर्श की 2018 की इस रिपोर्ट के मुताबिक, मध्य-स्तर के स्वास्थ्य प्रदाता ग्रामीण इलाकों में डॉक्टरों की कमी का समाधान हो सकते हैं।

डब्ल्यूएचओ के यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज के राष्ट्रीय पेशेवर अधिकारी, चंद्रकांत लाहरिया कहते हैं, "भारत की एक बड़ी चुनौती यह है कि निदान के बाद भी, लोग प्राथमिक देखभाल स्तर पर प्रबंधित की जा सकने वाली स्थितियों के लिए माध्यमिक और तृतीयक सेटिंग्स में स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं का उपयोग करना जारी रखते हैं। यहां प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करने और जारी रखने में मिड स्तरीय सेवा प्रदाता मदद कर सकते हैं। " आयुष भारत के तहत प्रस्तावित स्वास्थ्य और कल्याण केंद्र के पास मध्य-स्तरीय स्वास्थ्य प्रदाताओं के नेतृत्व में टीम होगी। ये नर्स प्रैक्टिशनर्स, सहायक नर्स मिडवाइव या फिजिशियन हो सकते हैं, जो छोटे से प्रशिक्षण के बाद डॉक्टरों की सहायता कर सकते हैं। हालांकि, यह बहस के लिए एक सतत मुद्दा है। नेशनल मेडिकल कमीशन विधेयक जारी होने पर आयुष चिकित्सकों के लिए एक ब्रिज कोर्स शुरू करने की मांग की गई, जिससे वे आधुनिक चिकित्सा का अभ्यास कर सकें। लेकिन इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने अंडर-क्वालिफाइड प्रैक्टिशनर्स के बारे में अपने संदेह व्यक्त किए कि वे बिना किसी योग्यता के हैं। वे आधुनिक चिकित्सा का अभ्यास करने के लिए योग्य नहीं हैं लेकिन आधुनिक चिकित्सा का अभ्यास कर रहे हैं।

लेकिन पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया, नेशनल हेल्थ सिस्टम्स रिसोर्स सेंटर और स्टेट हेल्थ रिसोर्स सेंटर ऑफ छत्तीसगढ़ द्वारा आयोजित एक 2010 का अध्ययन मध्य स्तर के पेशेवरों की संभावित भूमिका के बारे में अधिक आशावादी थे।

छत्तीसगढ़ में, साढ़े तीन सालों से प्रशिक्षित स्वास्थ्य प्रदाताओं के एक विशेष कैडर और इंटर्नशिप के एक वर्ष से लैस, ग्रामीण चिकित्सा सहायकों (आरएमए ) को पीएचसी में चिकित्सा अधिकारियों के लिए रिक्तियों द्वारा बनाए गए अंतराल को भरने के लिए राज्य के स्वास्थ्य कार्यबल में शामिल किया गया था। 2017 में, छत्तीसगढ़ में 43 फीसदी डॉक्टरों (पीएचसी में आवश्यक 785 डॉक्टरों की स्थिति में 444 डॉक्टर) की कमी आई थी।

अध्ययन में कहा गया है कि एमबीबीएस के साथ एक मेडिकल अधिकारी और तीन साल के डिप्लोमा के साथ एक आरएमए प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करने में समान रूप से सक्षम माना जाता रहा है।

वास्तव में, आरएमए ने दवाओं को निर्धारित करने के मामले में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया है। मलेरिया के लिए ‘प्रभावी’ पर्चे का सबसे बड़ा अनुपात आरएमए (64 फीसदी) द्वारा लिखा गया था। आयुष डॉक्टर (57 फीसदी) और आरएमए (10 फीसदी) ने दस्त के लिए चिकित्सा अधिकारियों की तुलना में ‘बेहतर’ पर्चे भी लिखे।

कुल मिलाकर, आरएमए के लिए औसत माना गया गुणवत्ता स्कोर सबसे अधिक (85 फीसदी) था, इसके बाद चिकित्सा अधिकारी (84 फीसदी), आयुष चिकित्सा अधिकारी (80 फीसदी) और पैरामेडिकल (73 फीसदी) थे।

लाहरिया कहते हैं, "मिड स्तरीय हेल्थकेयर प्रदाता (एमएलएचपी) कई स्वास्थ्य सेवाओं, विशेष रूप से निवारक और प्रमोशनल सेवाओं की एक श्रृंखला प्रदान करने में बेहद सहायक हैं। भारत गैर-संक्रमणीय बीमारियों के वैश्विक बोझ के दो तिहाई से अधिक योगदान देता है। यहां, एमएलएचपी की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। "

उन्होंने बताया कि उच्च रक्तचाप और मधुमेह जैसी स्वास्थ्य परिस्थितियों से उत्पन्न होने वाली जटिलताओं में बड़ी संख्या में भारतीयों को प्रभावित करते हैं। वे कहते हैं, "मध्य-स्तरीय सेवा प्रदाता निवारक और प्रमोशनल स्वास्थ्य सेवाओं के वितरण में शामिल हो सकते हैं और मधुमेह और उच्च रक्तचाप के महामारी को नियंत्रित कर सकते हैं और भविष्य में संबंधित जटिलताओं से लागत को बचा सकते हैं।" "कई अफ्रीकी देशों में मध्यम स्तर के सेवा प्रदाता हैं जो बुनियादी नुस्खे प्रदान करते हैं और वे सही देखभाल के मानदंड हैं।"

सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल में प्रशिक्षित डॉक्टर

‘एकेडमी ऑफ फैमली फिजिशियन ऑफ इंडिया’ और ‘वर्ल्ड ऑर्गेनाईजेशन ऑफ फैमली डॉक्टर्स’ (WONCA) द्वारा इस रिपोर्ट के अनुसार, ग्रामीण भारत में डॉक्टरों की मौजूदगी बढ़ाने का एक और तरीका उन्हें कई विषयों में प्रशिक्षित करना हो सकता है। ‘एकेडमी ऑफ फैमली फिजिशियन ऑफ इंडिया’ के अध्यक्ष रमन कुमार कहते हैं, "समुदाय को प्रभावित करने वाली आम समस्याओं का नब्बे प्रतिशत परिवार के चिकित्सक द्वारा संभाला जा सकता है। शहरों में सिरदर्द और नाक चलने जैसे छोटे कारणों के लिए भी अस्पतालों का विशेष परामर्श के लिए दौरा किया जाता है। परामर्श के लिए प्रतीक्षा समय बढ़ता है और चूंकि ये सेवाएं महंगी होती हैं और कई बार लोगों को स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच नहीं मिलती है और फिर वे फार्मेसियों या गैर-डिग्री एलोपैथिक चिकित्सकों की ओर जाते हैं। " फार्मेसियों पर निर्भरता भारत में पारिवारिक बजट में एक बड़ा झटका है। फार्मेसियों की दवाइयां खरीदने के लिए किए गए आउट-ऑफ-पॉकेट व्यय में 52 फीसदी हिस्सेदारी है। सामान्य सरकारी अस्पतालों (3 फीसदी) में किए गए खर्चों से अठारह गुना अधिक और निजी सामान्य अस्पतालों में 22 गुना से अधिक खर्च (22 फीसदी) है, जैसा कि 2016 में जारी भारत में घरेलू स्वास्थ्य व्यय रिपोर्ट से पता चलता है। कुमार बताते हैं, "भारत में, अधिकांश स्नातकों को अस्पताल स्थित, विशेषज्ञ सेटिंग्स में पढ़ाया जाता है और फिर हम उन्हें एक समुदाय में काम करने की उम्मीद करते हैं। छात्रों और पेशेवरों के बीच एक सामान्य दृष्टिकोण के लिए मेडिकल कॉलेजों में पारिवारिक चिकित्सा के अलग विभाग होने चाहिए।" तृतीयक देखभाल संस्थानों की आवश्यकता-निर्धारण रिपोर्ट के अनुसार, 2030 तक, भारत को पारिवारिक चिकित्सकों के लिए 15,000 सीटें बढ़ाने की जरूरत होगी।

( क्षेत्री लेडी श्रीराम कॉलेज से ग्रैजुएट हैं और इंडियास्पेंड में इटर्न हैं। )

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 18 अक्टूबर, 2018 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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