नई दिल्ली: Nदेश की न्याय प्रणाली पर बजट की कमी का असर पड़ रहा है। हाल ही में आई इंडिया जस्टिस रिपोर्ट में बताया गया है कि बजट में कम आवंटन, सही योजना के ना होने और आवंटित फंड के कम इस्तेमाल जैसे कुछ कारण हैं जो न्यायपालिका के कामकाज पर असर डाल रहे हैं।

इस रिपोर्ट के मुताबिक़ दिल्ली को छोड़कर कोई भी दूसरा राज्य या केंद्र शासित प्रदेश अपने बजट का 1% हिस्सा भी न्यायपालिका पर ख़र्च नहीं करता है। इस आंकलन के लिए वित्त वर्ष 2012 और वित्त वर्ष 2016 के बीच के बजट की समीक्षा की गई। इस दौरान न्यायपालिका पर देश की जीडीपी का 0.08% ख़र्च किया गया था। यह रिपोर्ट टाटा ट्रस्ट ने छह और संगठनों के साथ मिलकर तैयार की है।

ये स्टडी, न्याय प्रणाली के चारों हिस्सों – पुलिस, जेल, न्यायपालिका और क़ानूनी सहायता के आंकड़ों पर आधारित थी।

स्टडी के मुताबिक़, क़ानूनी सहायता पर सालाना प्रति व्यक्ति ख़र्च केवल 75 पैसे था। पुलिस, जेलों और क़ानूनी सहायता पर ख़र्च हर राज्य में अलग-अलग था। पुलिस का बजट, औसतन राज्यों के ख़र्च का 3 से 5% था, जेल के लिए औसत बजट राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में केवल 0.2% था।

स्टडी के दौरान पाया गया कि कम बजट मिलने से न्याय व्यवस्था के हाथ बंध जाते हैं। देश में पुलिसिंग की स्थिति पर कॉमन कॉज़ की 2019 की रिपोर्ट के मुताबिक़, पुलिस कर्मियों ने गाड़ियों, ईंधन, कंप्यूटर और स्टेशनरी जैसी मामूली सुविधाओं की कमी बताई है। एक थिंक टैंक, विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी, की 2019 की रिपोर्ट कहती है कि देश की 655 ज़िला अदालतों में से लगभग 80 में बाथरूम नहीं थे, और जहां थे भी उनमें से केवल 40% ही इस्तेमाल करने लायक थे।

जानकारों की राय है कि एक कमज़ोर न्याय प्रणाली, आगे चलकर आर्थिक वृद्धि को भी नुक़सान पहुंचाती है। एक ऑस्ट्रेलियन थिंक टैंक, इंस्टीट्यूट फॉर इकनॉमिक्स एंड पीस की 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक़, इंसाफ़ देने और क़ानून का क़ायम रखने में नाक़ामी से हिंसा की वारदातों में बढ़ोत्तरी हुई, जिसकी वजह से भारत को अपनी जीडीपी के 9% के बराबर नुक़सान उठाना पड़ा।

न्यायपालिका को कम सहायता मिलने का असर विदेशी निवेश पर भी पड़ा हैः वर्ल्ड बैंक की ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस 2020 के रैंकिंग में 14 पायदान चढ़ने के बावजूद, भारत में एक कॉन्ट्रैक्ट को लागू करने में अभी भी औसतन लगभग चार साल का वक़्त लगता है। 2016 में, अनुमान लगाया गया था कि अदालतों में देरी की वजह से देश को सालाना अपने जीडीपी का लगभग 0.5% (50,387 करोड़ रुपये यानी 7.5 बिलियन डॉलर) का नुक़सान उठाना पड़ता है।

न्यायपालिका के लिए पर्याप्त बजट नहीं

पिछले 15 साल से देश का बजट, ज़ीरो-सम के सिद्धांत पर बन रहा है। जिसके तहत एक क्षेत्र में ख़र्च बढ़ाने का मतलब है दूसरे क्षेत्र के ख़र्च में कटौती। इन हालात में कटौती का शिकार अक़सर न्याय प्रणाली होती है।

आमतौर पर बजट आवंटन करते वक़्त वित्त विभाग, पिछले आवंटन की राशि और उसके ख़र्च के आधार पर अगला बजट बनाते हैं। यही वजह है कि योजनाएं, ज़रूरत के हिसाब से नहीं बल्कि बजट के हिसाब से बनती हैं।

आवंटन का बंटवारा राज्यों और केंद्र के बीच भी किया जाता है। सेंटर फॉर बजट, गवर्नेंस एंड एनेलिसिस (सीबीजीए) और दक्ष की एक रिपोर्ट के अनुसार, न्यायपालिका पर केंद्र और राज्य सरकारों का मिलाजुला ख़र्च 2016-17 और 2018-19 के बीच 53% बढ़ा है। इसमें राज्यों की भागीदारी लगभग 92% रही।

इंडिया जस्टिस रिपोर्ट ने पांच साल के ट्रेंड का विश्लेषण कर बताया कि कैसे न्यायपालिका का बजट आवंटन राज्य के ख़र्च में कुल बढ़ोत्तरी के अनुपात में नहीं होता। न्याय प्रणाली में सुधार के लिए बजट ज़रूरी है। आंकड़ों से पता चलता है कि जिन राज्यों में न्यायपालिका के लिए बजट की बढ़ोत्तरी राज्य के कुल बजट की बढ़ोत्तरी से कम थी, वहां लंबित क़ानूनी मामलों में ज़्यादा बढ़ोत्तरी हुई।

राजस्थान में 2011-2012 और 2015-2016 के लिए कुल बजट में औसतन 20% की बढ़ोत्तरी हुई, लेकिन न्याय प्रणाली के लिए आवंटन केवल 8% बढ़ा। इसी दौरान, गुजरात का न्याय प्रणाली के लिए बजट, राज्य के ख़र्च से लगभग 22% कम था, जबकि ओडिशा के बजट में न्यायपालिका के आवंटन की तुलना में 26% की वृद्धि हुई थी। पंजाब अकेला ऐसा राज्य था जिसके न्याय प्रणाली के आवंटन में कुल बढ़ोत्तरी का प्रतिशत राज्य के कुल ख़र्च की बढ़ोत्तरी के प्रतिशत से अधिक था।

ख़ाली पदों पर भर्ती नहीं

बजट कम मिलने से न्यायपालिका, क़ानूनी सहायता, पुलिस और जेल की क्षमता बढ़ाने और रखरखाव पर असर पड़ता है। इनमें सबसे बड़ी रुकावट, न्याय प्रणाली में ख़ाली पड़े महत्वपूर्ण पद हैं ।

रिपोर्ट में बताया गया है कि 2018 में देश में कुल जजों की संख्या, स्वीकृत संख्या से कम थी। सभी स्तरों पर न्याय प्रणाली में ख़ाली पद स्वीकृत पदों के 23.25% थे। रिपोर्ट के अनुसार, 2016-17 में हाई कोर्ट्स में जजों के 42% और निचली अदालतों में 23% पद ख़ाली थे।

ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डिवेलपमेंट की जनवरी 2017 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, पुलिस में 22% पद ख़ाली थे। उत्तर प्रदेश में ख़ाली पदों की संख्या सबसे ज़्यादा थी – सिपाही के स्तर के 53% और अधिकारियों के 63% (017) पद ख़ाली थे।

इसी तरह, देश भर में जेलों में लगभग एक-तिहाई पद ख़ाली थे। उत्तराखंड और झारखंड की जेलों में कर्मचारियों की संख्या सबसे कम थी। उत्तराखंड में कैडर कर्मचारियों के 72% (016) पद ख़ाली थे। 2019 में, डिस्ट्रिक्ट लीगल सर्विस अथॉरिटीज़ में केवल 79% के पास क़ानूनी सहायता देने के लिए फ़ुल-टाइम सचिव थे।

सीबीजीए के प्रोग्राम डायरेक्टर, असदुल्लाह का कहना है, “कर्मचारियों के ख़ाली पदों की वजह से निजीकरण और सब-कॉन्ट्रैक्टिंग के मामलों में बढ़ोत्तरी हो रही है। केंद्र औऱ राज्य सरकारों को इसके लिए फंड देने की ज़रूरत है।”

उदाहरण के तौर पर, बिहार में लॉ डिपार्टमेंट के वित्त वर्ष 2020 के बजट में कुल वेतन राशि का 13.6% कॉन्ट्रैक्ट वाली सर्विसेज़ के लिए अलग रखा गया है।

न्याय प्रणाली में, सबसे ज़्यादा ख़र्च तनख़्वाह पर होता है। जिससे उपकरणों और इन्फ़्रास्ट्रक्चर में सुधार, नई कोशिशों और क्षमता बढ़ाने के लिए पैसा कम ही बच पाता है। उदाहरण के लिए, क़ानूनी सहायता के फंड का बड़ा हिस्सा वकीलों पर ही ख़र्च हो जाता है, जबकि क़ानूनी सहायता केंद्रों और हिरासत में लिए गए लोगों पर कम ख़र्च किया जाता है।

फंड का गणित

बजट में कम आवंटन और आवंटित फंड के कम इस्तेमाल के मामले लगभग सभी राज्यों में हैं। केंद्र सरकार, अलग-अलग योजनाओं के लिए फंड देती है, लेकिन यह कुछ ख़ास मदों में ही ख़र्च किया जा सकता है। उदाहरण के तौर पर, गृह मंत्रालय से राज्यों को आधुनिकीकरण के लिए मिलने वाले फंड का इस्तेमाल केवल इन्फ़्रास्ट्रक्चर, क्षमता बढ़ाने, मरम्मत और रखरखाव पर ही किया जा सकता है; राज्य इस फंड का इस्तेमाल कर्मचारियों को रखने के लिए नहीं कर सकते। नागालैंड ने 2016-17 में पुलिस फ़ोर्स के आधुनिकीकरण के लिए मिले फंड का पूरा इस्तेमाल किया था।

योजनाओं के लिए केंद्र से मिलने वाले फंड के इस्तेमाल के लिए राज्यों को अक्सर कड़े नियम और शर्तें माननी पड़ती हैं। इन शर्तों में केंद्र के फंड के बराबर का फंड लगाना जैसी शर्तें होती हैं। इन शर्तों को पूरा ना कर पाने वाले राज्यों को ये फंड हासिल करने और फिर इनके इस्तेमाल में भी रुकावटों का सामना करना पड़ता है।

सही योजनाएं और उचित बजट के ना होने के कई नुकसान होते हैं। ख़ाली पदों को ना भरने की वजह से कर्मचारियों पर काम का बोझ बढ़ जाता है। नई भर्तियां होती भी हैं तो उनकी सही ट्रेनिंग नहीं हो पाती है। औसतन पुलिस कर्मी एक दिन में 14 घंटे तक काम करते हैं। कॉमन कॉज़ की 2019 की रिपोर्ट कहती है कि पिछले पांच साल में पुलिस फ़ोर्स में शामिल केवल 6.4% कर्मचारियों को ही नौकरी के दौरान ट्रेनिंग दी गई है।

दक्ष के फ़ेलो और प्रोग्राम डायरेक्टर, सूर्य प्रकाश बी एस का कहना है, “हमें फंडिंग की ऐसी कोशिशों के बारे में सोचना होगा जिनका ज़्यादा असर हो। बजट के तरीक़ों में सुधार के लिए एक विज़न की ज़रूरत होगी जो यह तय करेगा कि कर्मचारियों, टेकनोलॉजी या लंबित केसों को लेकर क्या करना चाहिए। ये विज़न कम से कम पांच साल तक का होना चाहिए ।”

(नियति इंडिया जस्टिस रिपोर्ट की लीड रिसर्चर हैं।)

यह रिपोर्ट 30 नवंबर को IndiaSpend पर प्रकाशित हुई थी।

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