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कानपुर (उत्तर प्रदेश): 23 वर्ष के शादाब हुसैन ने 11 साल की उम्र में स्कूल छोड़ दिया था। शादाब भारत के सर्वाधिक आबादी वाले राज्य के पुराने और औद्योगिक शहर कानपुर में चमड़े के कारखाने में काम करते थे। अपने परिवार, माता-पिता और चार भाई बहनों को सहारा देने के लिए शादाब हर दिन आठ घंटे काम करते हैं और महीने में 9,000 रुपए कमाते थे।

आठ वर्षों में, वह अर्द्ध साक्षर बने रहे, लेकिन उन्होंने तस्वीरों से नए डिजाइन के अच्छी फिटिंग वाले और मजबूत जूते बनाने की कला सीख ली है। लेकिन शादाब को कोई चिकित्सा सुविधा नहीं मिलती। पेंशन की कोई संभावना नहीं थी। उनका कौशल और हुनर भले ही बढ़ गया, उनके व्यक्तिगत जिंदगी में कोई सुखद बदलाव नहीं आया।

एक समय में शादाब पशुओं के चमड़े के साथ इस इंडस्ट्री में आया था। तब चमड़े पर आधारित यह अर्थव्यवस्था काफी फल-फूल रही थी, जो अब मुरझा रही है। । अब विश्व के दूसरे देशों से यहां के उत्पादों के मांग कम हो गए हैं। एनजीटी की चाबुक से भी यह उद्योग डरता रहता है । ‘गाय पर राजनीति’ ने बची खुची कसर पूरी कर दी है।

इस उद्योग की चमक फीकी हो चुकी है। न तो बेहतर जीवन की उम्मीद न ही वेतन बढ़ने की कोई संभावना, ऐसे में हताश शादाब ने तीन साल अपने मुहल्ले के पांच दोस्तों के साथ अपनी नौकरी छोड़ दी । आज वह ऑटोरिक्शा चलाते हैं। उनका एक दूसरा दोस्त सड़क के किनारे नाश्ते का एक स्टॉल चलाते हैं।

सरकार और चमड़ा उद्योग जगत के प्रतिनिधियों के साथ इंडिया स्पेंड के एक सर्वेक्षण के अनुसार वर्ष 1990 में कानपुर का चमड़ा उद्योग 10 लाख श्रमिकों को रोजगार दे रहा था। हालांकि इस पर कोई आधिकारिक आंकड़ें नहीं हैं। उत्तर प्रदेश के उद्योग विभाग में एक संयुक्त सचिव के अनुसार 10 वर्षों में 400 चमड़ा इकाइयों में से 176 के बंद होने के साथ अब यह संख्या आधी हो गई है।

ऑटो चला कर मिलने वाली आय अनियमित थी। एक महीने में 15,000 से 20,000 रुपए तक की कमाई होती थी। अब शादाब हुसैन नोएडा में एक जूता फैक्टरी के साथ डिजाइन और 'अपर' फिक्सिंग का काम करने की सोच रहे हैं। नोएडा उत्तर प्रदेश राज्य के तहत आता है, लेकिन दिल्ली के महानगरीय क्षेत्र का विस्तार है और प्रति व्यक्ति आय के अनुसार भारत के सबसे धनी इलाकों में से एक है।

शादाब कहते हैं, “वे मुझे महीने के 12,000 रुपए देंगे, लेकिन वहां काम करने की स्थिति अच्छी है।” शादाब बताते हैं कि वहां उसे वातानुकूलित कार्यस्थल में काम करने का मौका मिलेगा। साथ हीउन्हें कोई प्रबंधकीय कार्य या आपूर्ति लाइन की निगरानी की का काम दिया जा सकता है। उन्हें उम्मीद है कि जिंदगी में इस परिवर्तन से अब उनकी शादी भी हो जाएगी। वह कहते हैं, “कब तक ऑटो चलाउंगा, लंबे समय के लिए थोड़ा अच्छे स्तर का काम चाहिए। ” शादाब की कहानी उत्तर प्रदेश में काफी आम है। यह करीब 7 करोड़ बेरोजगार युवा लोगों में से एक हैं जिनकी उम्र 15 से 34 वर्ष के बीच है और बेरोजगार भारतीयों की एक चौथाई में से आते हैं। इन दिनों उत्तर प्रदेश चुनावी जंग के लिए तैयार है। 13.8 करोड़ मतदाताओं के साथ राज्य की औसत उम्र 23 है। भारत में सबसे ज्यादा युवाओं के आंकड़े इसी प्रदेश से हैं। शायद यही वजह है कि इस होने वाले विधान सभा में चुनाव में रोजगार सबसे बड़ा मुद्दा है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने पहले विस्तार से बताया है।

उत्तर प्रदेश के बीमार औद्योगिक बिजलीघरों में राज्य के भविष्य का संकेत

यह समझने के लिए क्यों उत्तर प्रदेश शादाब हुसैन जैसे युवा लोगों के लिए लाभकारी रोजगार की पेशकश नहीं कर सकते हैं, हमने कानपुर के अग्रणी उद्योग, चमड़ा और चमड़े के उत्पादों की गिरावट में जावाब ढूंढने की कोशिश की।

कानपुर का वित्तीय योगदान उत्तर प्रदेश के लिए महत्वपूर्ण है। उत्तर प्रदेश सरकार के आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2013-14 में, शहर के जिले और औद्योगिक क्षेत्रों ने राज्य के 4.6 लाख करोड़ के सकल घरेलू उत्पाद में 19,000 करोड़ रुपए या 4 फीसदी का योगदान दिया है। आगरा, लखनऊ और गौतम बुद्ध नगर (नोएडा भी शामिल है) के साथ यह एकल जिले से मिलने वाला चौथा सबसे ज्यादा योगदान है। हालांकि टॉप चार के बीच अंतर काफी कम है।

छठी आर्थिक जनगणना 2012-13 के अनुसार, उत्तर प्रदेश की 2 फीसदी आबादी के साथ कानपुर, उत्तर प्रदेश के शहरी कार्यबल के 6 फीसदी को रोजगार देती है। केवल नोएडा अधिक रोजगार प्रदान करता है। यह उत्तर प्रदेश के शहरी कामकाजी आबादी में से लगभग 10 फीसदी को रोजगार देता है।

उत्तर प्रदेश के 16 फीसदी काम कर रहे युवा (15-34) और 20 फीसदी बच्चे ( 5-14 ) की आबादी अगले एक दशक में रोजगार के बाजार में शामिल हो जाएंगे। उत्तर प्रदेश के मुख्य निर्वाचन अधिकारी की वेबसाइट के अनुमान के अनुसार करीब 45 फीसदी मतदाताओं की उम्र 35 वर्ष से कम है, जो बिहार के साथ भारत में सबसे अधिक अनुपात है।

लेकिन इन बच्चों का भविष्य? शिक्षा डेटा की 2015-16 जिला सूचना प्रणाली के अनुसार शादाब हुसैन की तरह, उत्तर प्रदेश में हर 100 छात्रों में नौ छात्र कक्षा चार से पहले स्कूल छोड़ देते हैं, यह आंकड़े भारत के बड़े राज्यों में प्राथमिक स्कूल छोड़ने वालों की सबसे ज्यादा दर है। यहां प्रति 39 स्कूल छात्र पर एक शिक्षक का अनुपात है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने 5 जनवरी को बताया है। ये आंकड़े भारत में सबसे बद्तर हैं। बड़े राज्यों में सबसे कम नामांकन दर भी उत्तर प्रदेश का है। और अगर कानपुर की अर्थव्यवस्था को लेकर कोई शुभ संकेत नहीं हैं तो शादाब हुसैन जैसे लोगों के लिए रोजगार के लिए बहुत मौके भी नहीं हैं।

कानपुर के चमड़ा उद्योग ने खो दी है अपनी चमक

ब्रिटिश राज के दौरान कानपुर भारत के प्रमुख राज्यों में से था। वर्ष 1907 में बंबई के साथ यहां भी पहला इलेक्ट्रिक ट्राम चलाया गया था और इसके सात साल बाद कोलकाता में ट्राम शुरु किया गया था।

पहली कपड़ा कंपनी ‘एल्गिन मिल्स’ 1857 के विद्रोह के पांच साल बाद कानपुर में शुरु हुई थी। इससे इसके भारत के सबसे बड़े औद्योगिक शहर बनने का रास्ता तो साफ हुआ ही 20 वीं सदी के शुरू होने से पहले नौ टेक्सटाइल कंपनियों के लिए जमान भी तैयार हुई।

आजादी के बाद कानपुर के ज्यादातर बड़े उद्योगों के विकास में बाधा उत्पन्न होती चली गई । 1970 में राष्ट्रीयकरण के बाद कपड़ा मिलों में गिरावट हुई। कानपुर की एक और बड़ी ब्रांड ‘लाल इमली’ को 1876 में ब्रिटिश इंडिया कॉर्पोरेशन द्वारा स्थापित किया गया था। यह ब्रांड भी राष्ट्रीयकरण के बाद धीरे धीरे बंद हो गया। शहर की चमक धीरे-धीरे कम होती गई।

चमड़ा उद्योग ही है, जिसने 1980 के दशक में कानपुर के पुनरुद्धार का काम किया । अब भी कानपुर भारत में एक चौथाई (268) कारखानों के साथ चमड़े और चमड़े की वस्तुओं, मुख्य रुप से जूते का प्रमुख उत्पादक है। कुल चमड़ा उत्पाद का 40 प्रतिशत जूते के रूप में निर्यात होता है और यह कानपुर से जाता है। यही नहीं, निर्यात होने वाले चमड़े के उत्पादों का एक तिहाई माल कानपुर ही तैयार करता है। तमिलनाडु में चेन्नै, अम्बुर, रानीपेट, वानियांवड़ी, त्रिची, डिंडिगुल जैसे कई क्षेत्र एक साथ मिलकर इस निर्यात में 34 फीसदी का योगदान करते हैं।

लेकिन फिलहाल कानपुर का चमड़ा उद्योग संकट में है। बड़े पैमाने पर लोग यहां से पलायन कर रहे हैं और शहर की जनसंख्या वृद्धि दर में गिरावट हो रही है।

कानपुर: 7 दशक बाद जनसंख्या वृद्धि की रफ्तार धीमी

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Figures in %; Note: GBNagar = Gautam Buddha Nagar, includes NOIDA

Source: Census of India

पिछले एक दशक से 2011 की समाप्ति तक, उत्तर प्रदेश की जनसंख्या में 20 फीसदी वृद्धि हुई है। जबकि लखनऊ, आगरा और मेरठ जैसे अन्य बड़े उत्तर प्रदेश के शहर की जनसंख्या में वृद्धि का प्रतिशत भी करीब-करीब यही है। इस संख्या के करीब हैं। सात दशकों के 20 फीसदी जनसंख्या की वृद्धि के बाद भी कानपुर की विकास दर 9 फीसदी तक गिरी है। नोएडा की 40 फीसदी की वृद्धि हुई है और यह तेजी से शहरीकरण और विकास का संकेत है।

वैश्विक मांग में गिरावट से कानपुर की मुश्किलें बढ़ीं

वर्ष 2014 के बाद मुख्य रूप से उन्नत अर्थव्यवस्थाओं से चमड़े के लिए वैश्विक मांग में गिरावट हुई है। इससे यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं और चीन की मंदी का पता लगाया जा सकता है। छह सालों तक वृद्धि के बाद वर्ष 2015-16 में भारत से चमड़ा निर्यात में 4 फीसदी की गिरावट हुई है। लेकिन इसी अवधि में कानपुर से निर्यात में 11 फीसदी की गिरावट हुई।

कानपुर से चमड़ा निर्यात में 11 फीसदी की कमी, उदारीकरण के बाद सबसे बड़ी गिरावट

Data obtained from Central Regional Office of Council of Leather Exports, Kanpur

जूतों को लेकर और कुछ खास तरह के चमड़े के सामानों को लेकर कानपुर के चमड़ा उद्योग का संघर्ष बढ़ गया है। मांग कम हुई है।

घुड़सवारी के लिए जरूरी घोड़े की जीन विशेष रूप से कानपुर से निर्यात किया जाता रहा है और इसकी मांग पर प्रभाव नहीं पड़ा है। लेकिन इसका निर्यात बढ़ा भी नहीं है।चमड़ा निर्यात परिषद के क्षेत्रीय निदेशक (मध्य क्षेत्र, कानपुर) अली अहमद कहते हैं, “यूरोपीय संघ से चमड़ा और उत्पादों की मांग में पिछले कुछ वर्षों से कमी हुई है।”

पर्यावरण नियमों में कड़ाई के बीच उद्योग का संघर्ष

चमड़ा बनाने के कारखाने पर लगाए पर्यावरण नियमों से उद्योग के वित्त पर प्रभाव पड़ा है। वर्ष 2010 में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) की स्थापना और प्रदूषण स्तर पर कठोर निगरानी से कानपुर की 400 चमड़ा बनाने के कारखानों में से 128 बंद हुए हैं।

इसके अलावा एनजीटी की प्रिंसिपल बेंच में चमड़े की इकाइयों के खिलाफ कम से कम 500 मामले हैं, जैसा दस्तावेजों का यह रिकॉर्ड संग्रह इंगित करता है।

वर्ष 2007 की इस रिपोर्ट के अनुसार, “चमड़ा बनाने का उद्योग प्रदूषण के लिए जाना जाता है। विशेष रूप से कार्बनिक और अकार्बनिक अपशिष्ट और ठोस अपशिष्ट की वजह से। चमड़े के प्रसंस्करण में रसायन के महत्वपूर्ण हिस्से का इस्तेमाल वास्तव में इस प्रक्रिया में अवशोषित नहीं होता है, बल्कि उसे वातावरण में छोड़ दिया जाता है। ”

कच्चे माल के आगमन पर राजनीति से बाधा

वर्ष 2014 से पहले करीब 1000 मवेशी कानपुर के सबसे बड़े कसाईखाने में लाए जाते थे। तीन साल की राजनीतिक गर्मी और हिंदू सतर्कता के बाद पिछले साल यह संख्या कम होकर 500 हुई है। नोटबंदी के बाद ये आंकड़े गिरकर 100 हुए हैं। यह जानकारी इंडियास्पेंड से बाद करते हुए उद्योग जगत के प्रतिनिधियों ने नाम का खुलासा न करने की शर्त पर बताया। यह संख्या अब धीरे-धीरे बढ़ रही है।

उत्तर प्रदेश चमड़ा उद्योग एसोसिएशन के उपाध्यक्ष ताज आलम कहते हैं, “मवेशी जो अब किसानों के लिए एक भार बन जाते हैं उनसे करीब 10 उद्योगों को कच्चा माल मिलता है।" इनमें फार्मसूटिकल कंपनियां भी हैं, जहां खुर, सींग और खाल से जिलेटिन तैयार होता है, साबुन में जानवरों की वसा का इस्तेमाल होता है। ये कंपनियां कमरे का साज सामान में बाल का प्रयोग भी किया जाता है।

चमड़ा इंडस्ट्री में छोटे उपकर्मी के लिए अब कोई जगह नहीं

मंदी से जो लोग प्रभावित हो रहे हैं, उनमें से ज्यादातर छोटे पैमाने के चमड़े के जूते बनाने वाले हैं। कानपुर के पारंपरिक जूते का बाजार बेगमगंज में एक छोटी हैसियत का जूता निर्माता मोहम्मद रईस कहते हैं, “चमड़ा अब फैशन व्यापार में महंगे कच्चे माल के रूप में जा रहा है।”

"सस्ता जूते और महिलाओं का पर्स नव विकसित पॉलिमर के इस्तेमाल से बनाया जाता है, जो लोग आसानी से वहन कर सकते हैं और पसंद करते हैं। स्थानीय निवासियों के अनुसार कानपुर के बेगमगंज और उससे सटे तमनगंज में कम से कम 1,000 घरों में चमड़े के कारखाने चलते हैं।

इन छोटे व्यापारियों को बाजार की बदलती प्राथमिकताओं के साथ बदलना पड़ता है। अहमद कहते हैं, “भारतीय अब नियमित रूप से इस्तेमाल के लिए सस्ते सामान की मांग करते हैं। हमें भी बदलना पड़ता है।” 50 वर्षीय गुड्डु मोहम्मद अपने चार सहयोगियों के साथ बेगमगंज में एकमात्र जीवित घरेलू जूता बनाने के कारखाने में कुशल कारीगर के रुप में काम करते हैं। वह बीते दिनों को याद कर भावुक हो उठते हैं, “हमारे बचपन में कानपुर में इस तरह के कई सौ कारखाने थे। बड़े उद्योग क्रांति ने हमारे जैसे छोटे जूते बनाने वालों निगल लिया है। उनके पास हम जैसे हुनरमंद कुशल कारीगरों के लिए कोई काम नहीं है।”

(वाघमारे विश्लेषक हैं और इंडियास्पेंड के साथ जुड़े हैं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 11 फरवरी 2017 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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