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मुंबई के आजाद मैदान में 13 मार्च 2018 को पालघर जिले के डहाणू की 85 वर्षीय आदिवासी किसान कमली बाबू । वह 35,000 किसानों में से एक हैं, जो कि गरीब किसान समुदाय के लिए अपनी मांगों के साथ नासिक से मुंबई तक 180 किलोमीटर की दूर यात्रा कर आई थी।

मुंबई: अपने दाहिने हाथ में एक लकड़ी की छड़ी और बाएं में एक कम्युनिस्ट झंडे के साथ आजाद मैदान स्पोर्ट्स ग्राउंड में एक 85 वर्षीय बुजुर्ग महिला खड़ी हैं। 85 वर्षीय यह कमली बाबू है, जो आदिवासी किसान है और साल में कुछ महीने खेतों पर काम करती हैं। कमली बाबू ने भी अन्य किसानों की तरह ‘किसान लांग मार्च’ में शरीक होने के लिए रोजाना 30 किलोमीटर की यात्रा की है। गर्मी और धूप में लगभग 180 किलोमीटर की यात्रा पूरी कर वह मुंबई पहुंची है।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी-मार्क्सवादी (सीपीएम) से संबद्ध अखिल भारतीय किसान द्वारा आयोजित एक शांतिपूर्ण विरोध मार्च, 8 मार्च 2018 को केंद्रीय नासिक के सीबीएस चौक में 15,000 किसानों के साथ शुरु हुआ था। 12 मार्च, 2018 तक, इस एक सप्ताह के दौरान अधिक किसानों और कृषि मजदूरों के जुड़ने के साथ उनकी संख्या तीन गुना से अधिक हो गई।

उनका गंतव्य था मुंबई ।उनका उद्देश्य था, किसानों की दुर्दशा पर राज्य सरकार का ध्यान आकर्षित करना। उनकी मांग थी संघर्षरत खेत क्षेत्र के लिए एक निर्बाध सौदा।

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने 12 मार्च, 2018 को विरोध करने वाले किसानों के एक प्रतिनिधिमंडल से मुलाकात की। इसके तत्काल बाद, उन्होंने घोषणा की कि सभी किसानों की प्रमुख मांगों को स्वीकार कर लिया गया और इसे छह महीने में पूरा किया जाएगा।

मुख्यमंत्री ने कहा कि यह सुनिश्चित करने के लिए कि सभी योग्य किसानों को राहत मिले, सरकार द्वारा 2017 में शुरू की गई अपनी कृषि ऋण माफी योजना के लिए पात्रता मानदंड का विस्तार करेगी। जनजातीय लोग, जिनके पास जमीन नहीं है, उन्हें 2006 के वन अधिकार अधिनियम के तहत भूमि खिताब दिए जाएंगे, बशर्ते वे 2005 से पहले का निवास प्रमाण पत्र जमा कर सकें। पेंशन और इसी तरह ही आवंटन बढ़ाई जाएगी और कृषि उत्पाद के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) सुनिश्चित करने के लिए सर्वोत्तम तरीके से सलाह देने के लिए एक समिति का गठन किया जाएगा, यह एक ऐसा मुद्दा है, जिसे पहले से 2018-19 के लिए केंद्रीय बजट में छुआ गया है।

सीपीएम के महासचिव सीताराम येचुरी ने कहा, "सरकार के पास अब छह महीने का समय है। अगर वे किसानों की मांगों को पूरा नहीं करते हैं, तो इस विरोध का अगला चरण अकेले किसानों तक ही सीमित नहीं रहेगा। बड़े पैमाने पर आंदोलन होगा। "

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‘किसान लॉंग मार्च’ में भाग लेने वाले 95 फीसदी भूमिहीन मजदूर और आदिवासी किसान थे।

महाराष्ट्र ने वन भूमि पर अधिकतम दावों को खारिज कर दिया

महाराष्ट्र वन क्षेत्र के साथ उन शीर्ष चार राज्यों में शामिल है, जहां पर पारंपरिक जनजातीय लोगों को जमीन के अधिकार दिए जा सकते हैं। (अन्य राज्य छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और ओडिशा हैं।)

हालांकि, यह राज्य समुदाय के सभी दावों या वन भूमि पर व्यक्तिगत आदिवासी स्वामित्व के दावों में से लगभग दो-तिहाई खारिज कर देता है, जैसा कि आदिवासी मंत्रालय के आंकड़ों पर इंडियास्पेंड के विश्लेषण से पता चलता है। 10 अक्टूबर, 2017 तक प्राप्त हुए 364,358 दावों में से राज्य ने 64 फीसदी (231856 दावों) को खारिज कर दिया था।

अधिकांश राज्य यह नहीं बताते हैं कि दावा क्यों खारिज कर रहे हैं। और जो बताते हैं उनमें से सबसे सामान्य कारण दस्तावेज की कमी होती है।

जबकि, वन अधिकार अधिनियम (एफआरए), जिसके तहत दावों पर कार्रवाई की जाती है, यह स्पष्ट करता है कि दस्तावेज़ों पर जोर देना नहीं चाहिए।

दावा प्राप्त और अस्वीकृत

Claims Received And Rejected
StatesClaims ReceivedClaims RejectedClaims Rejected (In %)
Madhya Pradesh615,949364,30959.1
Chattisgarh880,078459,79952.2
Odisha630,212149,71123.7
Maharashtra364,358231,85663.6
India4,189,8271,827,14343.6

Source: Ministry of Tribal Affairs

देश भर में, 10 में से से पांच सबसे कम संपत्ति वर्ग में आने के साथ अनुसूचित जनजाति भारत के सबसे गरीब लोग हैं, जैसा कि इंडियास्पेंड न 28 फरवरी, 2018 की रिपोर्ट में बताया है। लगभग 93 फीसदी ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं और कृषि पर निर्भर हैं। उनकी साक्षरता दर (59 फीसदी) सामान्य आबादी (74 फीसदी) की तुलना में काफी कम है और 86.5 फीसदी आदिवासी घरों में उच्चतम कमाई वाले सदस्य का मासिक वेतन 5,000 रुपये (लगभग 76 डॉलर) से कम है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने 2 जुलाई, 2016 की रिपोर्ट में बताया है।

स्थाई कृषि पर जीवन यापन करने वाले आदिवासी समुदाय विभिन्न समस्याओं से पीड़ित हैं, जिसे सरकारी रिपोर्टों ने स्वीकार किया है। अनुत्पादक और गैर-अर्थव्यवस्थागत होल्डिंग्स, भूमि अलगाव, ऋण, सिंचाई की कमी, बिजली की कमी, पर्याप्त सड़कों और परिवहन की अनुपस्थिति, बैंक ऋण सुविधाओं तक पहुंच की कमी, मजदूरी या आय के लिए अन्य स्थानों पर मौसमी प्रवास, और विस्तार सेवाओं की कमी और आधुनिकीकरण के लिए उनकी क्षमता में शिक्षा का बाधा ।

एक लंबे संघर्ष के बाद वन अधिकार कानून (एफआरए) लागू हुआ. मकसद जल-जंगल-जमीन पर वहां के मूल निवासियों को पहला अधिकार देना था। एक अंतरराष्ट्रीय गैर-सरकारी संगठन, ‘ऑक्सफाम-इंडिया राइट एंड रिसोर्ट इनिशिएटिव’ द्वारा 2016 के इस रिपोर्ट के अनुसार इससे 170,000 से ज्यादा आदिवासी गांवों के 200 मिलियन से अधिक आदिवासियों के अधिकार सुरक्षित हो सकते हैं।

हालांकि, एफआरए के अधिनियमन के 12 सालों में सामुदायिक वन अधिकारों की न्यूनतम क्षमता का केवल 3 फीसदी ही हासिल किया गया है, जैसा कि रिपोर्ट में कहा गया है।

आजाद मैदान में यह अस्वीकार प्रतिध्वनित हुआ है।

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33 वर्षीय आदिवासी किसान दत्तू सकाराम वाल्ंबा (दाएं) पूछते है, बिना किसी स्वामित्व के कोई भी आकर हमारी जमीन पर दावा कर सकता है? कहां गए हम लोगों के अधिकार?

कमली बाबू कहती हैं, "कई वर्षों से हम जमीन पर काम कर रहे हैं लेकिन हमारे पास इसका कोई दावा नहीं है। किसी भी समय वे हमारे घर को वन भूमि बता सकते हैं। हमारे पास कोई सुरक्षा नहीं है। हम लगातार अतिक्रमण झेल रहे हैं। "

नासिक जिले के 34 वर्षीय आदिवासी किसान नाना चाहले कहते हैं, "सुरगाना जिले में, जंगल विभाग ने उस भूमि को पुनः प्राप्त कर लिया है, जिस पर लोग कई वर्षों से क्षेत्र में पेड़ लगाकर काम कर रहे हैं। हम नहीं चाहते कि यही हमारे साथ हो। हम 2010 के बाद से भूमि अधिकारों के लिए विरोध कर रहे हैं। ”

स्वामित्व के बिना 35 वर्षीय प्रभाकर कदले, जैसे आदिवासी किसान निवेश करने से अपने आप को रोक रहे थे, ताकि जमीन से अपना उत्पादन बढ़ा पाएं। नासिक जिले के दिंडोरी तालुका से कदले कहते हैं, "यदि हमारे पास स्वामित्व है, तो हम कुएं खोद सकते हैं, वर्ष भर की फसलों के लिए सिंचाई शुरू कर सकते हैं और हम सहकारी समितियों के बजाय सरकारी बैंकों के साथ ऋण के लिए आवेदन के लिए पात्र होंगे। इस मान्यता के बिना परेशानी है, और हम एक वर्ष से अधिक फसल मौसम के लिए खेती नहीं कर सकते हैं। अन्य छह महीनों के लिए, हमें अन्य खेतों पर काम करना होगा। "

ऋण माफी, उचित कीमतों से इनकार

जून 2017 में, पूरे राज्य में किसानों के विरोध के जवाब में, फडनवीस सरकार ने ऋण माफी योजना की घोषणा की थी, जिसका सरकारी खजाने पर 34,000 करोड़ रुपये (5.2 बिलियन डॉलर) की लागत आएगी। 2017 से, नौ अन्य राज्यों- मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में भी इसी तरह के किसानों के आंदोलन ने ऋण माफी की मांग की है।

13 मार्च 2018 को, फडनवीस ने कहा कि इस योजना से सीधे तौर पर 80 फीसदी किसानों को लाभ हुआ है, वे कुल मिलाकर 4.6 मिलियन हैं। हालांकि, जब योजना की घोषणा की गई थी, सरकार ने 8.9 मिलियन किसानों को लक्षित करने का इरादा किया था।

इस बीच, मुख्यमंत्री ने किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के लिए बेहतर नीति का भी आश्वासन दिया है। इससे पहले, भारतीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बजट 2018-19 में घोषणा की थी कि नए एमएसपी किसानों के उत्पादन लागत के ऊपर और 50 फीसदी रिटर्न की गारंटी देंगे।

उनमें से किसी ने 'उत्पादन की लागत' की परिभाषा को स्पष्ट नहीं किया है

विरोध करने वाले किसानों ने मांग की है कि महाराष्ट्र सरकार 2006 एमएस स्वामिनाथन समिति की रिपोर्ट की सिफारिशों के अनुसार एमएसपी तय करे। रिपोर्ट ने सुझाव दिया था कि उत्पादन की लागत ‘प्रत्यक्ष घटकों’ जैसे कि बीज, उर्वरक, मजदूरी और सिंचाई लागत के साथ-साथ ‘अप्रत्यक्ष लागत’ जैसे कि परिवार के श्रम, निश्चित पूंजी और ब्याज मूल्य पर रुचि स्वामित्व वाली भूमि सहित गणना की जाती है।

हालांकि, इस फार्मूले का उपयोग किया जाएगा या नहीं, यह संदिग्ध हो गया है, क्योंकि केंद्र सरकार ने फरवरी, 2015 में सर्वोच्च न्यायालय से कहा था कि वह इस फॉर्मूले पर नहीं पहुंच सकता, जैसा कि ‘द मिंट’ ने 1 अप्रैल, 2015 की रिपोर्ट में बताया है।

हाशिए के किसान और मजदूरों को कोई लाभ नहीं

मुख्यमंत्री फडणवीस ने कृषि मजदूरी कम होने के मुद्दे को भी संबोधित नहीं किया। राष्ट्रीय स्तर पर, कृषि मजदूर 90 फीसदी अनौपचारिक ग्रामीण कर्मचारियों की संख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं।

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) की ओर से नवीनतम उपलब्ध 2013 की कृषि गृह कल्याण के आकलन सर्वेक्षण पर एक रिपोर्ट के अनुसार, कृषि पर निर्भर परिवारों की मासिक मासिक आय 6,426 रुपये (99 डॉलर) है।

कमली बाबू जैसी किसानों, जिनके पास एक एकड़ से कम जमीन का स्वामित्व है, के घरों की औसत आय लगभग 30 फीसदी कम है, करीब 4,561 रुपये (70 डॉलर)। इनमें से 64 फीसदी या 2,902 रु (45 डॉलर), श्रम और मजदूरी से अर्जित किया गया था।

बाबू ने इंडियास्पेंड से बात करते हुए बताया कि, "मानसून के बाद फसल के मौसम में मैं अपने बेटे के साथ आजीविका के लिए अन्य लोगों के खेत पर काम करती हूं। मुझे मेरे काम के लिए खाना मिलता है, न कि रुपए।”

इस तरह के भुगतान पूरे भारत में इतने सामान्य हैं कि एनएसएसओ भी स्थानीय खुदरा बाजार में खाद्य वस्तुओं को कीमतों के आधार पर मजदूरी की गणना करता है, जिसमें पकाया हुआ भोजन, चाय, अनाज आदि शामिल हैं।

विभिन्न भूधारण आकार और आय

2014 से पेंशन योजनाओं के कम लाभार्थी

बाबू ने कहा, "मैं चाहती हूं कि सरकार मुझे कुछ पेंशन दें ताकि मैं जल्द से जल्द रिटायर हो सकूं।मैंने 2015 में स्थानीय तहसीलदार को अपना आवेदन जमा कर दिया था, लेकिन आगे क्या हुआ यह नहीं पता।"

छोटे और सीमांत किसानों और मजदूरों के कल्याण के लिए, जो 90 फीसदी ग्रामीण अनौपचारिक क्षेत्र का गठन करते हैं, सरकार ने राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम के तहत पांच पेंशन योजनाएं स्थापित की हैं: इंदिरा गांधी राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेंशन योजना, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय विधवा पेंशन योजना, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय विकलांगता पेंशन योजना, राष्ट्रीय परिवार लाभ योजना और अन्नपूर्णा।

प्रधान मंत्री आवास योजना (पीएमए) और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत आवास और गैर-कृषि रोजगार भी प्रदान किए जाते हैं।

हालांकि, सरकार ने एनएसएपी के लिए फंड में 14 फीसदी की वृद्धि का अनुमान लगाया है ( 2017-18 में 8,745 करोड़ रुपये से 2018-19 में 9,975 करोड़ रुपये हो गया है ) यह अभी भी 2013-14 में आवंटन से 660 करोड़ रुपये कम है (10,635 करोड़ रुपये ), जैसा कि बजट आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है।

इसके अलावा, एनएसएपी कार्यक्रम के लिए पंजीकृत लाभार्थियों की संख्या 2014-15 और 2017-18 के बीच 10 फीसदी तक गिर गई है। यह भारत भर में आधार नामांकन के करीब 90 फीसदी तक पहुंचने के बावजूद है।

पंजीकरण में इस गिरावट का मुख्य कारण आवेदकों की पहचान के सत्यापन की कमी है, जैसा कि भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक द्वारा 2015 की रिपोर्ट में कहा गया है।

गरीबी रेखा (बीपीएल) से नीचे का दर्जा सबसे व्यापक रूप से इस्तेमाल होने वाला योग्यता मानदंड है। हालांकि, गरीब होने के कारण ही बीपीएल कार्ड नहीं मिल जाता है, और बीपीएल कार्ड होने पर पेंशन सुनिश्चित नहीं होती है, जैसा कि टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस (टीआईएसएस) और पेंशन परिषद द्वारा 2014 में आठ राज्यों में हुए अध्ययन में पाया गया है। उदाहरण के लिए, रिपोर्ट के अनुसार, गुजरात में केवल 30 फीसदी पात्र व्यक्तियों को पेंशन प्राप्त हो रही थी।

विभिन्न पेंशन योजनाओं के तहत उपलब्धियां, 2014-2017

Achievements Under Various Pension Schemes, 2014-2017
Scheme2014-152015-162016-172017-18
Indira Gandhi National Old Age Pension Scheme23232121.3
Indira Gandhi National Widow Pension Scheme6665.7
Indira Gandhi National Disability Pension Scheme10.80.80.7
National Family Benefit Scheme0.30.40.20.3
Annapurna0.90.40.2NA

Source: PRS Legislative Research (figures are in million)

55,000 करोड़ रुपये (8.4 बिलियन डॉलर) का, मनरेगा के लिए आवंटन 2017-18 से 2018-19 तक अपरिवर्तित रहा है। हालांकि, 2016-17 तक पांच वर्षों में, कार्यक्रम के तहत रोजगार पाने वाले परिवारों का अनुपात 97 फीसदी से 90 फीसदी पर आ गया है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने 29 जनवरी 2018 की रिपोर्ट में बताया है। इसके अलावा, 56 फीसदी मजदूरों ने वेतन भुगतान विलंब की रिपोर्ट की है, जबकि 15 फीसदी नौकरी चाहने वालों को 2016-17 में कोई काम नहीं मिला, जैसा कि हमारे विश्लेषण में दिखाया गया है।

आजाद मैदान में नासिक जिले के 38 वर्षीय किसान हरी काली ने कहा, "हम गरीबी के चक्र को तोड़ने की कोशिश करते हैं लेकिन हम लगातार पीछे हो रहे हैं।" अमरावती जिले के 56 वर्षीय किसान गुनावत परशुराम टोन ने कहा, "हम बच्चों को केवल आठवीं कक्षा तक पढ़ा सकते हैं, जब तक मुफ्त शिक्षा प्राप्त है। हमारे पास कॉलेज फीस, नोटबुक और पाठ्यपुस्तकों के लिए पैसे नहीं हैं। बच्चों का कहना है कि पढ़ाई की तुलना में कुछ कमाना बेहतर है।"

अपने पोते की बात करते हुए, कमली बाबू मुस्कुराती हैं। वह कहती हैं "जब हम मैदान में काम करने जाते हैं, हम बच्चों को पास के आंगनवाड़ी में भेज देते हैं, जहां उन्हें दोपहर के भोजन में खिचड़ी मिलती है। मैं उम्मीद करती हूं कि मेरे जाने से पहले उनके भविष्य के लिए हमें कुछ बेहतर मिले।"

(सालवे विश्लेषक हैं और सालदानहा सहायक संपादक हैं। दोनों इंडियास्पेंड के साथ जुड़ी हैं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 16 मार्च, 2018 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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