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घाटकोपर में सूखा प्रभावित नांदेड़ और लातूर जिले से 350 परिवार अल्पविकसित घरों में रहते हैं। इन शुष्क जिलों से पलायन – जो मुंबई के दक्षिण पूर्व इलाके में है – हर वर्ष होता है लेकिन इस साल, सदी का सबसे बद्तर सूखा पड़ने के कारण, पलायान सामान्य से पांच गुना अधिक है। इस रुखे स्थिति के बावजूद, यह प्रवासी मुंबई के निर्माण उद्योग में पर्याप्त पैसे कमाते हैं।

महाराष्ट्र के सूखा प्रभावित क्षेत्र, मराठवाड़ा से प्रवासियों की मुबंई आने के बाद - अस्थायी रुप से – आय तीन गुना हो जाती है, गरीबी से बाहर आते हैं और लिया गया ऋण चुकाते हैं लेकिन परिवार को 40 वर्ग फुट के आकार वाले घरों में रख पाते हैं जोकि एक बड़ी कालीन का आकार होता है। यह जानकारी इंडियास्पेंड द्वारा 60 प्रवासी परिवारों पर किए गए सर्वेक्षण में सामने आई है।

हमारे सर्वेक्षण से पता चलता है कि मुबंई आने के चार महीने बाद ही, इन परिवारों में प्रत्येक वयस्क, प्रति माह 1,823 रुपए कमाता है – जोकि आधिकारिक शहरी गरीबी रेखा के प्रति माह प्रति व्यक्ति 1,000 रुपए से 80 फीसदी अधिक है। इनमें से अधिकांश लोग अपने गांव में खेतीहर मजदूर हैं और भारत की वित्तीय राजधानी में निर्माण और नगर निगम के बुनियादी ढांचे - स्थलों पर काम करते हैं।

मराठवाड़ा के नांदेड़ में, 600 किमी पूर्व, प्रत्येक व्यक्ति प्रति माह 569 रुपए कमाता है, जोकि 819 रुपये प्रति माह प्रति व्यक्ति के ग्रामीण गरीबी रेखा से 30 फीसदी कम है।

पानी की कमी के कारण यह प्रवासी मुबंई आए हैं - प्रति परिवार प्रति दिन करीब 43 लीटर पानी जोकि उनके अपने गांवों में प्रति दिन 115 लीटर पानी से कम है – लेकिन उनका कहना है कि दूर-दराज से विभिन्न स्रोतों से पानी लाए बिना यह संभव नहीं था। भारतीय मानव विकास सर्वेक्षण (आईएचडीएस II) के अनुसार, औसत ग्रामीण भारतीय परिवार हर दिन पानी लाने के लिए 30 मिनट खर्च करता है।

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घाटकोपर प्रवासी शिविर में स्थानीय नगर निगम के अधिकारियों द्वारा भेजे गए पानी के टैंकर के रिवास से पानी भरता बच्चा। प्रवासियों का कहना है कि मुंबई में उन्हें हर रोज़ 43 लीटर पानी मिलता है जबकि घर पर उन्हें 115 लीटर पानी मिलता था लेकिन शहर में पानी की पहुंच आसान है।

मुंबई में, परिवारों द्वारा कमाने वाले प्रति दिन अतिरिक्त 266 रुपए में से कुछ भोजन पर खर्च किए जाते हैं जो तीन महीने तक (15 अप्रैल तक) पैसे घर भेजने की तुलना में दोगुना है। घाटकोपर नागरिक समूहों द्वारा मुक्त खाद्यान्न – चावल एवं तूर दाल - प्राप्त होने के बाद, प्रतिदिन, प्रति परिवार का 300 रुपए का रोज़ाना खर्च करीब आधा हुआ है।

घर पर, करीब 72 फीसदी प्रवासियों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली से रियायती दर पर अनाज मिलने की रिपोर्ट दर्ज की गई है; करीब आधे परिवारों का कहना है कि बच्चों के स्कूल में उन्हें मध्यान्ह भोजन दिया जाता है। एक बार मार्च में जब स्कूल समाप्त होता है तब आमतौर पर परिवार यह आकलन करती है गांव में कितना पानी उपलब्ध है और फिर यह तय करते हैं कि उन्हें मुंबई साथ ले जाना है या नहीं।

इस वर्ष निर्णय लेना आसान था।

महाराष्ट्र के 36 ज़िलों में से कम से कम 22 ज़िले लगातार दूसरे वर्ष सूखे की चपेट में है। सूखे से तबाह जिलों से कई परिवार मुंबई, पुणे और औरंगाबाद विस्थापित हो गए हैं - वास्तविक खातों के अनुसार अन्य वर्षों की तुलना में इस वर्ष अधिक लोग विस्थापित हुए हैं।

हमारे नमूने में,350 प्रवासी मराठवाड़ा परिवारों में से शामिल किए गए हैं – जोकि किसी तरह के अस्थाई घरों में अवैध रुप से रह रहे हैं - बांस की छड़ें द्वारा आयोजित तिरपाल – जो मध्य मुंबई के उपनगर के भरे हुए इलाके में, घाटकोपर से सटे नगर निगम खुली भूमि के किनारे रहते हैं।

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स्थानीय घाटकोपर अधिकारियों द्वारा स्थापित एक अस्थायी पानी की टंकी के पास पानी लेने को तैयार पांच वर्षीय महादेव। अन्य बच्चे, सभी 12 वर्ष से नीचे, पानी के लिए डब्बे लाइन में लगाते हैं, जो दिन में दो बार 30 मिनट के लिए आता है।

नौकरियों में कमी, सरकार की लड़खड़ाती योजनाओं से पलायन में वृद्धि

2016 की सूखे से 11 राज्यों के 266 जिलों में रहने वाले 330 मिलियन भारतीय प्रभावित हुए हैं। यह स्पष्ट नहीं है कि कितने लोगों ने पलायन किया है लेकिन लेकिन संख्या करोड़ों में होने का अनुमान है। करीब एक-तिहाई भारतीय हर रोज़ पलायन करते हैं। यह जानकारी 2001 की जनगणना में सामने आए हैं जो यह संकेत देता है कि ग्रामीण आय और सरकारी सहायता कार्यक्रमों के लिए पर्याप्त नहीं हैं।

हमने सर्वेक्षण में पाया कि 10 में से नौ प्रवासी मराठवाड़ा से काम की तलाश में आए हैं। आधे लोगों का साहूकारों के पास 20,000 रुपए से 2,50,000 रुपए की राशि बकाया है। सर्वेक्षण किए गए लगभग सभी लोगों को विश्वास था कि वे मुंबई में पैसे कमा कर ऋण चुकता कर देंगे।

घाटकोपर में सर्वेक्षण किए गए 60 परिवारों की आय में 214 फीसदी की वृद्धि हुई है।

प्रवासियों का स्थानीय नगर निगम के श्रम ठेकेदारों के साथ अच्छा तालमेल पाया गया है, जो नगर निगम और अन्य निर्माण कार्य - सड़कों, फुटपाथ और फ्लाईओवर की मरम्मत या निर्माण - के कार्य शुरु के पहले उनसे मिलने की योजना बनाते है। मौनसून के दौरान जब काम बंद होता तो वे वापस चले जाते हैं।

केवल 8 फीसदी प्रवासियों ने महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम (मनरेगा) लाभकारी पाया है। मनरेगा कार्यक्रम ग्रामीण संकट को दूर करने के लिए चलाया गया है, लेकिन दुनिया का सबसे बड़ा कार्यक्रम अक्सर विफल रहा है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने फरवरी में बताया है, जैसे कि इस लेख श्रृंखला के तीसरे भाग में बताया जाएगा।

लेख के दूसरे भाग में हम बताएंगे कि किस प्रकार शिक्षा एवं भूमि की कमी से पलायान में वृद्धि हो रही है और किस प्रकार उनके हाथों में मोबाईल फोन उनकी बढ़ती आकंक्षाओं की ओर इशारा करता है।

मराठवाड़ा में गरीबी रेखा से नीचे से रहने वाले प्रवासी मुंबई में गरीबी रेखा से ऊपर हैं

वे व्यक्ति जिनका हमने सर्वेक्षण किया है, उनकी दिनभर की अर्जित मजदूरी दोगुनी है, मराठवाड़ा के गांवों में प्रतिदिन, प्रति व्यक्ति 156 रुपए कमा पाते थे जबकि मुंबई में 334 रुपए तक कमा लेते हैं।

दैनिक मजदूरी, एक महीने में कार्य दिवसों की संख्या, और परिवार में काम करने वाले सदस्यों की संख्या, से हमने मासिक आय की गणना की है जो परिवार गांव में और मुंबई में कमाता है। एक औसत परिवार, अपने गांव में 3,730 रुपए प्रति माह की कमाई करता है एवं 11,730 रुपए मुंबई में कमाता है।

आय में तीन गुना वृद्धि पाई गई क्योंकि प्रवासियों को काम अधिक मिलता है – मुबंई में औसतन प्रति माह 16 दिन काम मिलता है जबकि गांव में आठ दिन काम मिल पाता है।

यह पारिवारिक आय सभी सदस्यों द्वारा साझा किया जाता है, काम एवं गैर काम के दिनों में। हमने प्रति व्यक्ति आय की गणना, मासिक आय को परिवार के सदस्यों की संख्या से विभाजित कर निकाला है।

एक प्रवासी, उसके गांव में प्रति माह 569 रुपए कमाती थी जो 819 रुपए प्रति माह प्रति व्यक्ति की आधिकारिक ग्रामीण गरीबी रेखा से 30 फीसदी नीचे है। मुंबई में वही 1,823 रुपए प्रति माह कमाती है जो 1,000 रुपये प्रति माह प्रति व्यक्ति की आधिकारिक शहरी गरीबी रेखा से 82 फीसदी अधिक है।

मुबंई प्रवास से लोग आ रहे हैं गरीबी रेखा से ऊपर

रोज़गार, मुंबई और घर (प्रति माह दिन)

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Source: IndiaSpend Primary Surveys - Migrants In Mumbai, May 2016

अपने मूल स्थान पर, प्रवासी परिवार कम कमाते हैं एवं अधिक खर्च करते हैं जबकि मुंबई में वे कमाते अधिक हैं एवं खर्च कम करते हैं।

दीपक हांडे, क्षेत्र के नगर निगम के पार्षद ने इंडियास्पेंड से बात करते हुए बताया कि, “एक प्रवासी ने बताया कि वह 1.5 लाख रुपए के साथ वापस अपने गांव जा रहा है।”

लेकिन यह आर्थिक अंतराल अस्थायी है और जीवन की निम्नीकृत गुणवत्ता पर आता है।

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घाटकोपर कैम्पिंग में रहने वाली महिलाएं, अपनी पति की अनुपस्थिति में घर जल्दी लौटती हैं। उपलब्ध पानी सीमित है जबकि लभार्थियों की संख्या अधिक है। यदि यह महिलाएं घर जल्द न लौटें और पानी के लिए टैंकरों तक चार से पांच चक्कर न लगाए तो उन्हें दिन भर 8-9 लीटर पानी कम से काम चलाना पड़ेगा।

7 फीट X 7 फीट , तिरपाल, चार बांस = घर

जब हम 30 वर्षीय लक्ष्मीबाई राठौड़ से मिलने गए तो वो अपनी दो साल की बेटी को दोपहर की गर्मी में तिरपाल की चटाई पर सुलाने की कोशिश कर रही थी। राठौड़ अपने पीछे छोड़े घर और मुंबई से नाराज़ दिख रही थी।

राठौड़ ने कहा कि, “वहां हमें खाने के लिए पर्याप्त खाना और पीने के लिए पानी नहीं मिलता है और यहां गटर से सीवेज लीक हमारे चादर के नीचे तक फैल जाता है।”

चार बांस से ऊपर लगा एक तिरपाल ही छत है और ज़मीन पर बिछा एक तिरपाल उनकी ज़मीन है। दो लोग करीब 40 वर्ग फुट में रहते हैं, जहां वे विश्राम करते हैं, खाते हैं, पकाते हैं, लड़ते हैं, सोते हैं और खाद्यान्न संग्रहित करते हैं।

बेहतर आय के बदले में ये प्रवासी रहने की जगह का त्याग करते हैं। हमने पाया कि औसतन रहने का आकार आधा है – घर पर 115 वर्ग फुट की जगह मुंबई में उन्हें 47 वर्ग फुट में गुज़ारा करते हैं।

उनके गांव में घर का सबसे बड़ा आकार 1,800 वर्ग फुट हमने दर्ज किया है, जबकि मुबंई में घर का सबसे बड़ा आकार 102 वर्ग फुट दर्ज किया गया है।

घाटकोपर के प्रवासी - ज्यादातर खानाबदोश जनजाती के लोग जिन्हें बंजारा कहते हैं – गर्मी के तीन से चार महीने मुंबई और अन्य पानी वाले राज्य में गुज़ारते हैं और जैसे ही मुंबई में मौनसून दस्तक देती है वे गांव की ओर इस उम्मीद से वापस चले जाते हैं ताकि खरीफ (गर्मी) फसल के लिए खेत मजदूर के रूप में उन्हें काम मिल सके, जिसके लिए बुआई का काम मानसून के आने पर शुरु होता है।

सर्दियों में वे, 300 किलोमीटर से 500 किलोमीटर की दूरी वाले मराठवाड़ा से समृद्ध पश्चिमी महाराष्ट्र, या उत्तरी कर्नाटक के बेलगाम, गुलबर्गा और हलियाल जिलों के सतारा, सोलापुर, पुणे और कोल्हापुर जिलों तक गन्नों की फसल के लिए यात्रा करते हैं।

42 वर्षीय उत्तम किसन राठौड़ पिछले 22 वर्षों से मुंबई की ओर पलायन कर रहे हैं। राठौड़ ने अब स्थायी रूप से प्रवासी शिविर के पास एक पहाड़ी पर एक अवैध मड़ई किराए पर लिया है। इस स्थान के लिए 10,000 रुपए की प्रतिभूति जमा भुगतान, 2,000 रुपए मासिक किराया और पानी और बिजली के लिए 500 रुपये प्रति माह देते हैं।

आसान पहुंच लेकिन पानी की कम खपत

मुंबई में प्रवासी कम पानी की खपत करते हैं लेकिन उनके घर के मुकाबले उन्हें यह आसानी से प्राप्त होता है।

नगर निगम के पार्षद हांडे कहते हैं, “ग्रेटर मुंबई नगर निगम ने प्रवासियों के लिए रोज़ाना दो टैंकर पानी और मोबाइल शौचालयों का प्रबंध किया है। मैं स्थानीय लोगों से आग्रह किया है स्वेच्छा से भोजन, कपड़े और बिजली व्यवस्था में योगदान करें।”

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घाटकोपर प्रवासी शिविर के पास निवरुत्ति नवहलि, 3000 लीटर पानी का टैंकर लगाते हैं। टैंकर से पानी प्लास्टिक के टैंक में निकाला जाता है, जिसमें 350 परिवारों के लिए सिर्फ दो घंटे के लिए पानी रहता है।

अपने गांव में ये प्रवासी, औसतन पानी पर प्रतिदिन 18 रुपए खर्च करते हैं, जो मुंबई में उनके लिए मुफ्त है। हांलकि मुंबई में वे गांव के मुकाबले आधा ही पानी की खपत करते हैं।

इसलिए, मुंबई में प्रवासी नहाना परिहार करते हैं और कभी-कभी तीन दिनों तक नहीं नहाते।

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घाटकोपर शिविर में नगर ​​निगम के अधिकारियों द्वारा प्रवासी महिलाओं के लिए अस्थाई शौचालयों का निर्माण किया गया है।

हांडे कहते हैं, “हमने प्रवासी शिविर में महिलाओं के लिए अस्थायी बाथरूम का निर्माण किया है. कबी-कभी पुरुष खुले में स्नान करते हैं।”

श्रेया मित्तल और सुकन्या भट्टाचार्य , सिम्बायोसिस स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स से स्नातक हैं एवं इंडियास्पेंड के साथ इंटर्न हैं। दोनों ने इस सर्वेक्षण में योगदान दिया है।

फोटोग्राफर: जयंत निकम , शारी अकादमी ऑफ फोटोग्राफ़ी, मुम्बई

यह तीन श्रृंखला लेख का पहला भाग है।

(वाघमारे इंडियास्पेंड के साथ विश्लेषक हैं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेज़ी में 13 जून 2016 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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