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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मेक इन इंडिया अभियान के तहत देश में मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर को बढ़ावा देने की कोशिश कर रहे हैं। जिससे औद्योगिक उत्पादन में तेजी आ सके। लेकिन उत्पादन के नए आंकड़े दो परेशान करने वाली बातों की ओर इशारा कर रहे हैं। एक तो यह है कि संगठित क्षेत्र में नौकरियों की संख्या में कमी आ रही है। जो कि देश में कुल नौकरी पेशा लोगों की 12 फीसदी हिस्सेदारी रखता है। सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वन मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार वित्त वर्ष 2012-13 में संगठित क्षेत्र से 4 लाख लोगों को नौकरियां गवांनी पड़ी है।

परेशान करने वाली दूसरी बात यह है कि जो कि लंबे समय में एक बड़ी समस्या बन सकता है, वह यह कि भारतीय कंपनियां अब ऑटोमेशन पर ज्यादा जोर दे रही हैं। इसका मतलब यह है कि श्रमिकों की संख्या में लगातार कमी आएगी। कंपनियों को ज्यादा श्रमिकों की जरुरत नहीं पड़ेगी। उद्योगों के सालाना सर्वेक्षण के अनुसार वित्त वर्ष 2012-13 में देश में 2,22,120 इकाईयां कार्यरत थीं। जो कि साल 2011-12 की तुलना में 2 फीसदी ज्यादा है। उस समय कुल 2,17,554 इकाईया कार्यरत थी। लेकिन चिंता की बात यह है कि इकाईयों की संख्या बढ़ने के बावजूद इस अवधि में 3.8 फीसदी यानी 4.80 लाख नौकरियां कम हुई हैं। वित्त वर्ष 2012-13 में 1.29 करोड़ लोग काम कर रहे थे, वह 2011-12 में 1.34 करोड़ थी।

यह आंकड़े बेहतर संकेत का इशारा नहीं कर रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मेक इन इंडिया अभियान के जरिए मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र की जीडीपी में हिस्सेदारी मौजूदा 16 फीसदी से बढ़ाकर 25 फीसदी करना चाहते हैं।

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Source: Annual Survey of Industries; FY 2013 figures are provisional; FY 1999 figures for Total persons engaged are not available

वित्त वर्ष 2002-03 से 2012-13 के दशक में भले ही उद्योगों की संख्या में 73 फीसदी इजाफा हुआ है, लेकिन इस दौरान औद्योगिक गतिविधियों से जुड़े लोगों की संख्या में 63 फीसदी का इजाफा हुआ है। साल 1994-95 से अगर इन आंकड़ों का विश्लेषण किया जाय, तो इस अवधि से नौकरियों की संख्या में कहीं तेजी से कमी आई है।

पिछले दो दशक में साल 2012-13 तक भारत के संगठित क्षेत्र की क्या स्थिति रही:

  • औद्योगिक इकाइयों की संख्या में 80 फीसदी बढ़ोतरी हुई
  • पूंजी और रोजगार के अनुपात में 700 फीसदी की बढोतरी
  • आउटपुट में मूल्य के आधार पर 1066 फीसदी बढ़ोतरी
  • कुल रोजगार में केवल 40 फीसदी इजाफा

साल 1994-95 के दौरान भारतीय उद्योगों में कहीं ज्यादा नौकरियां कर रहे थे, जबकि एक दशक बाद साल 2005-06 में यह संख्या कम हो गई है। इससे साफ है कि उद्योगो को प्रति व्यक्ति उत्पादन पहले से कहीं ज्यादा मिल रहा है। इसे दूसरे शब्दों में कहें, तो अब कंपनियों को उसी काम को करने में पहले की तुलना में कम श्रमिकों की जरुरत है।

कम संख्या में ज्यादा उत्पादन करने का ट्रेंड सभी इंडस्ट्री में बढ़ रहा है। जिसका सीधा सा मतलब है कि कंपनियां ऑटोमेशन पर ज्यादा जोर दे रही हैं। इस वजह से नौकरियों की संख्या में लगातार कमी हो रही है। साल 1994-95 में प्रति कर्मचारियों से पूंजी का निर्माण 1,23,010 इकाइयों से 3,87,534.59 करोड़ रुपये था। जो कि साल 2012-13 में 2,22,120 इकाइयों से 31,39,028.07 करोड़ रुपये हो गया।

भारत में रोजगार की पहेली

इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशंस के हालिया वर्किंग पेपर के अनुसार असंगठित क्षेत्र में खास तौर से घरेलू क्षेत्र में बड़े पैमाने पर रोजगार की हिस्सेदारी है। लेकिन उसकी मैन्यूफैकचरिंग सेक्टर में बहुत थोड़ी सी हिस्सेदारी है। साल 1999-2000 और 2011-12 के बीच रोजगार के आंकड़ें बताते हैं कि भारतीय मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में हर साल 14 लाख रोजगार के अवसर उत्पन्न हो रहे हैं। जबकि हमें हर साल 1.2 करोड़ नौकरियों की जरूरत है। सेक्टर से इस समय 6 करोड़ से ज्यादा लोग नौकरी से जुड़े हैं। इसी अवधि में संगठित मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में रोजगार के अवसर में 4.5 फीसदी बढ़ोतरी हुई है। उद्योगों के सालाना सर्वेक्षण के अनुसार इस अवधि में रिकार्ड 1.22 करोड़ नौकरियां उत्पन्न हुई हैं।

इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशंस के पेपर के अनुसार यह समय निश्चित तौर पर मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में रोजगार शून्य ग्रोथ का नहीं रहा है। लेकिन नए रोजगार उत्पन्न होने की दर में निश्चित तौर पर मांग की तुलना में काफी कम हुई है। अगले दस साल करीब हर साल करीब 70-80 लाख नए युवा रोजगार के मांग करेंगे। इस अध्ययन से साफ है कि हमें रोजगार की मांग को देखते हुए राज्य स्तर पर कारोबार माहौल पैदा करना होगा। अध्ययन के अनुसार जिन राज्यों में श्रम सुधारों को लेकर लचीलापन नही है, वहां पर रोजगार के अवसरों में कमी आई है। जबकि सुधारवादी रुख रखने वाले राज्यों में रोजगार के ज्यादा अवसर पैदा हुए हैं।

हालांकि अध्ययन यह भी स्पष्ट करता है कि मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर के खराब प्रदर्शन की एक मात्र वजह केवल श्रम कानून नहीं हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह कानून केवल कंपनियों में स्थायी रुप से काम कर रहे कर्मचारियों पर असर डालते हैं। जो कि संविदा पर लिए गए कर्मचारियों पर लागू नहीं होता है।

सुस्ती की वजहों में पुराने कारोबारी कानून और बुनियादी सुविधाओं में कमी होना भी रहा है। जिसके कारण भी उत्पादन कम हुआ है। इस समय संगठित क्षेत्र में मैन्यूफैक्चरिंग ग्रोथ को पर्यावरण मंजूरी और भूमि अधिग्रहण जैसे दो प्रमुख मुद्दें बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ औदयोगिक विकास संगठन (यूएनआईडीओ )की रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक स्तर पर भारत चीन और अमेरिका के बाद मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में तीसरा सबसे ज्यादा रोजगार देने वाला देश है। जो कि 1970 में आंठवें और 1990 में पांचवे नंबर था।

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Source: UNIDO; Russian Federation had 30,352,000 manufacturing jobs in 1991 and was second between China and United States with a share of 11%. The number of jobs has declined since.

साल 1991 में सोवियत रुस चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच में दूसरे स्थान पर रोजगार देने के मामले में था। उस समय रुस की हिस्सेदारी 11 फीसदी के साथ 30,352,000 नौकरियों के रुप में थी। उस अवधि से नौकरियों की संख्या में कमी आई है।

इन उदाहरणों से साफ है कि सभी उदयोगों में नौकरियों की संख्या में कमी आई है। खास तौर पर जोर लोग नई नौकरियों के जरिए उद्योगों से जुड़ रहे हैं। मेक इन इंडिया अभियान से नई उम्मीद जगी है। भारतीय उद्योग फिर भी बेहतर काम कर रहे हैं। इसकी एक प्रमुख वजह पूंजी आधारित उत्पादन और स्थायी कर्मचारी रखने की जगह संविदा आधारित सिस्टम बन रहा है। यह एक उहापोह की स्थिति है, इसको सरकार को जल्द ही हल करना चाहिए, जिसको लेकर अभी तक कोई ठोस य़ोजना नही है।

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