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अच्छी कीमत न मिल पाई तो उत्तर प्रदेश के मध्य में स्थित तिरवा मवेशी बाजार आए अधिकांश किसानों ने अपने पशुओं को घर वापस ले जाने का फैसला कर लिया। इन पशुपालकों को उम्मीद है कि कुछ समय बाद अच्छी कीमत मिलेगी।

कानपुर / लखनऊ (उत्तर प्रदेश): कमरे के एक कोने में एक बड़े कंटेनर में रखा हुआ अनाज मोहम्मद शफीक को सुकुन देता है। कहते हैं, “यह अनाज कम से कम छह से नौ महीने तक चल जाएगा। हम भूखे नहीं रहेंगे।”

52 वर्षीय मो. शफीक कानपुर की इदगाह कॉलोनी में एक कब्रिस्तान के पास पूरे परिवार के साथ रहते हैं। शफीक पास के सरकारी बूचड़खाने से मांस खरीद कर सड़क के किनारे बेचने का काम करते हैं।

वर्ष 2017 के मार्च में उत्तर प्रदेश में नव निर्वाचित भारतीय जनता पार्टी सरकार ने बूचड़खानों और मांस विक्रेताओं के खिलाफ बिना वैध लाइसेंस के साथ काम करने और पर्यावरण और स्वास्थ्य नियमों के उल्लंघन करने के गुनाह में कार्रवाई का आदेश दिया था।

राज्य भर में सरकारी बूचड़खाने सहित कई मांस दुकानों और कसाईखानों को बंद कर दिया गया है। इसी कारण राज्य भर में मांस की कमी हुई है और शफीक जैसे हजारों लोगों की आजीविका को प्रभावित हुई है। मूल रूप से इन सुविधाओं के उन्नयन में विफल नगरपालिका प्रशासन ने असंगठित मांस उद्योग और सैकड़ों सहायक नौकरियों को नष्ट कर दिया है।

UP’s Slaughterhouse Crackdown: Butchers, Farmers, Traders Hit, Big Businesses Gain

हालत की गंभीरता को देख थोड़े समय के लिए शफीक अपनी पत्नी और बच्चों के साथ अपने पैतृक गांव चले गए थे। गांव में उन्होंने खेतों में काम किया। हालांकि, शफीक अपने बांया हाथ से ठीक से काम नहीं कर पाते हैं। इंडियास्पेंड से बात करते हुए उन्होंने बताया, “गेहूं कटाई का मौसम था। इससे पहले मैंने खेतों पर कभी काम नहीं किया था। लेकिन अपने बच्चों की मदद से मैंने काम किया और बदले में किसी तरह 500 किलो अनाज कमा पाया।”

अब कानपुर में शफीक इमली और जामुन चुरान की फेरी लगाते हैं। कहते हैं, “इससे पहले मेरा बड़ा बेटा यही काम करता था, लेकिन उसे रतौंधी है। मैंने सोचा था कि इस काम में मैं ज्यादा समय दे सकता हूं। अब वह कबाड़ खरीदने और बेचने का काम करता है। मैं प्रति दिन 200 से 250 रुपए तक कमा लेता हूं, जबकि वह 75 से 125 रुपए के बीच कमाता है। ”

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उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर में अब मोहम्मद शफीक चूरन बेचने लगे हैं। तीन महीने पहले तक वह कानपुर के सरकारी बूचड़खाने से मांस लेकर सड़क पर बेचा करते थे। तब वह हर रोज तीन घंटे काम करते थे और 500 रुपये का लाभ कमाते थे। बूचड़खाने बंद हुए तो मोहम्मद शफीक का अपना काम बदलना पड़ा। चूरन बेचकर वह 200 से 250 रुपए प्रतिदिन कमाते हैं।

मांस बेचकर, शफीक तीन घंटे में 400 से 500 रुपए कमाते थे। वह बताते हैं, “बूचड़खाने से मिला ताजा मांस जल्दी बिकता है। हमारे पास फ्रीज नहीं है, इसलिए मैं केवल उतना ही मांस खरीदता था, जितना बेच पाने का भरोसा होता था। जो भी मांस बच जाता था, उसे परिवार के लोग इस्तेमाल करते थे।”

अवैध बूचड़खानों पर पिछली सरकारों ने ध्यान नहीं दिया

प्रीवेन्शन एंड कंट्रोल ऑफ पॉल्यूशन (यूनिफार्म कन्सेन्ट प्रोसीजर) रूल्स-1999 बूचड़खानों कोसार्वजनिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालने की आशंका के साथ 'लाल' भारी-प्रदूषण वाले श्रेणी के तहत सूचीबद्ध करता है।

देश के बाकी हिस्सों की तरह उत्तर प्रदेश में भी कई एजेंसियों का बूचड़खानों पर नियंत्रण है। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण राज्य स्तर का प्रदूषण नियामक, उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (यूपीपीसीबी) है, जो शीर्ष जिला प्रशासक- डीएम- से आगे बढ़ने के बाद एक बूचड़खाना स्थापित करने के लिए अनुमति, जिसे ‘नो-अब्जेक्शन सर्टिफिकेट’ भी कह सकते हैं, प्रदान करता है।डीएम अनुमति देने से पहले, कानून और व्यवस्था सहित विभिन्न मानकों के अनुपालन का आकलन करने के लिए एक साइट निरीक्षण भी आयोजित करता है।

एक बार एक बूचड़खाना स्थापित होने के बाद प्रदूषण नियंत्रण उपायों को सुनिश्चित करने के लिए यूपीपीसीबी कामकाज पर नजर रखता है।

अगर निर्यात की भी योजना है तो ‘ एग्रीकल्चर एंड प्रोसीड फूड प्रोडक्ट्स एक्सपोर्ट डेवलपमेंट अथॉरिटी’ (एपीईडीए) से भी अनुमति की आवश्यकता होती है।

बूचड़खानों को ‘प्रीवेन्शन ऑफ क्रूअल्टी टू एनिमल्स(स्लॉटर हाउस) रूल्स-2001’ का अनुसरण तो करना ही होता है, साथ ही ‘फूड सेफ्टी एंड स्टैन्डर्ड अथॉरिटी’’ (एफएसएसएआई) से लाइसेंस भी लेना होता है। इससे इस बात की गारंटी होती है कि जानवरों के मांस से बने खाद्य पदार्थ स्वास्थ्यजनक है।

उत्तर प्रदेश में कई बूचड़खानों पर मानदंडों का उल्लंघन करने का आरोप लगाया गया है और राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) में उनकी सुनवाई हो रही है। मई 2015 में, एक ऐसी याचिका पर सुनवाई करते हुए एनजीटी ने उत्तर प्रदेश में अपेक्षित परमिट के बिना चलने वाली सभी बूचड़खानों को बंद करने का आदेश दिया था। जब इस साल मार्च में यूपी में नई बीजेपी सरकार आई, तब उसने एनजीटी आदेश पर कार्रवाई शुरू कर दी।

वर्ष 2015 में एनजीटी आदेश का पालन करने में विफल रहे, निजी और सरकारी दोनों तरह की संस्थाओं द्वारा चलाए जा रहे बूचड़खानों को बंद कर दिया गया था।

2015 में एंटी-प्रदूषण उपकरणों को स्थापित करने में विफल रहने वाले 129 औद्योगिक इकाइयों की इस आंशिक सूची में, 44 बूचड़खाने थे, जिनमें से 39 नगरपालिका निकायों और नगर पंचायतों द्वारा चलाए जा रहे थे, जबकि अन्य लखनऊ छावनी बोर्ड द्वारा चलाया जा रहे थे। राजधानी लखनऊ के सभी चार बूचड़खानों को मानक नियमों के तहत उचित सुविधाएं प्राप्त नहीं थीं।

उत्तर प्रदेश नगर निगम अधिनियम, 1959 के अनुसार, सार्वजनिक बाजारों और और बूचड़खानों का निर्माण और रखरखाव स्थानीय निगम की जिम्मेदारी है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने बूचड़खानों के संचालन के संबंध में चल रहे मामले का समर्थन किया है।

3 जनवरी, 2017 को लखनऊ के मोती झील में बूचड़खाने के आधुनिकीकरण के लिए 12.5 करोड़ रुपए की राशि मंजूर की गई थी, लेकिन अगले दिन ही विधानसभा चुनाव की घोषणा के बाद आचार संहिता लागू होने से परियोजना अटक गई ।

आगरा को छोड़कर अन्य शहरों और कस्बों में इसी तरह की स्थिति बनी हुई है। आगरा में नगर निगम एक आधुनिक बूचड़खाने का संचालन करती है।

कानपुर में मांस और बीफ आपूर्तिकर्ताओं और बूचड़खाने के मालिकों के एक संगठन ‘जमीयत-उल-कुरेश’ के उपाध्यक्ष इरफान अहमद कहते हैं, “मौजूदा सरकार की तुलना में पिछली सरकारों पर जिम्मेदारी ज्यादा बनती है। वे मौजूदा संकट के लिए जिम्मेदार हैं। उस सरकार ने तैयारी के लिए बहुत लंबा समय लिया, लेकि बूचड़खाने के आधुनिकीकरण में नाकाम रहे । ”

लखनऊ और आगरा नगर निगमों की कमाई और व्यय की तुलना से पता चलता है कि कैसे राज्य की राजधानी ने बूचड़खाने के आधुनिकीकरण करने में नाकाम रहने के बाद अनमोल राजस्व खो दिया है।

वर्ष 2014-15 में आगरा नगर निगम ने अपने आधुनिक बूचड़खाने को निजी ठेकेदार को पट्टे देने के बाद 4.26 करोड़ रुपए की कमाई की।ठेकेदार निर्यात उद्देश्यों के लिए सुविधा का उपयोग करता है और व्यक्तिगत बूचड़ों को 385 प्रति भैंस के शुल्क पर इसका इस्तेमाल करने की अनुमति भी देता है। इसके विपरीत, लखनऊ नगर निगम ने बकरी / भेड़ के वध के लिए 10 रुपए और भैंस के लिए 25 रुपए शुल्क लिए हैं, जिससे कुल मिलाकर 25.33 लाख रुपए की कमाई हुई है। कर्मचारियों के वेतन पर 44.87 लाख रुपये खर्च करते हुए, इसमें 19 लाख रुपये से अधिक के नुकसान की रिपोर्ट है।

आगरा और लखनऊ में बूचड़खानों से कमाई

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Source: Budget documents of Lucknow and Agra municipal corporations

Lucknow: Lucknow Nagar Nigam Budget 2016-17 , Lucknow Nagar Nigam Budget 2015-16

Agra: Nagar Nigam Agra Budget 2016-17, Nagar Nigam Agra Budget 2015-16

तीव्र विरोध के साथ कानूनी कार्यवाही

वर्ष 2012-13 में भारत का शीर्ष मांस उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश ने तीव्र विरोध महसूस किया है।

भारत में 77 एपीईडीए मंजूरी वाले बूचड़खानों में से 44 उत्तर प्रदेश में हैं। इन के अतिरिक्त नगर निगम और नगर पंचायत घरेलू मांस की आवश्यकता को पूरा करने के लिए कई बूचड़खानों का संचालन करते हैं।

उत्तर प्रदेश में लंबे समय तक गैर-शाकाहारी पाक परंपरा है और नेशनल सेंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन (एनएसएसओ) के 2011-12 के उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण के अनुसार, हर माह उत्तर प्रदेश के परिवार में औसत बीफ का उपभोग 0.17 किलो है। जबकि इस संबंध में राष्ट्रीय औसत 0.10 किलो है। सर्वेक्षण में उत्तर प्रदेश के करीब 30.6 फीसदी परिवारों ने बताया कि वे गैर-शाकाहारी भोजन का सेवन करते हैं। 7.95 फीसदी घरों ने रिपोर्ट किया कि उन्होंने बीफ या भैंस मांस का सेवन किया है। इस मामले में अखिल भारतीय औसत तब 4.5 फीसदी था।

Beef And Buffalo Meat Consumption
Quantity (Per 30 days)Incidence (Per 1,000 households)
Uttar Pradesh0.17 kg7.95
All India0.1 kg4.5

Source: Household Consumption of Various Goods and Services in India 2011-12 NSS) 68th Round

वर्ष 2007-12 के दौरान भारत में पशुधन की आबादी में 3.33 फीसदी की कमी दर्ज की गई थी। लेकिन वहीं उत्तर प्रदेश में 14 फीसदी की वृद्धि देखी गई थी। यह पशुओं और संबद्ध व्यवसायों पर अर्थव्यवस्था की निर्भरता को दर्शाता है, जैसा कि इंडियास्पेंड 29 मार्च, 2017 की रिपोर्ट में बताया है।

उत्तर प्रदेश में मांस उत्पादन (पंजीकृत बूचड़खानों में)

Source: Animal Husbandry Department, Uttar Pradesh

NOTE: *Including meat processing plants

गुम हुई आजीविका

कानपुर के बकर मंडी बूचड़खाने में शफीक मांस खरीदने जाया करता था। वैसे तो इस बूचड़खाने में कई सरकारी सुविधाएं थीं। लेकिन में यूपीपीसीबी द्वारा कई बार चेताने के बावजूद इसका आधुनिकीकरण नहीं किया गया था।

रात में इस तरह सुविधा का उपयोग करने वाले एक छोटी शुल्क का भुगतान करते थे। भैंस के लिए 25 रुपए और बकरी के लिए 10 रुपए। सुबह होने से पहले मांस बिक्री के लिए शहर में चला जाता था। शफीक कहते हैं, “मैं आधुनिकीकरण का समर्थन करता हूं, लेकिन सरकार को इसे बंद करने से पहले एक वैकल्पिक व्यवस्था करनी चाहिए थी। धीरे-धीरे बंद करना सबके लिए हितकर होता।”

रामपुर शहर के 25 वर्षीय डैनिश कुरैशी भी बूचड़खाने बंद होने के बाद बेरोजगार हो गए । वह अब किराए पर एक ई-रिक्शा लेकर चलाते है। हालांकि वह अब भी मांस बेचने को अपना पुश्तानी व्यवसाय मानते हैं। वह कहते हैं, “मेरे पिता को 45 साल पहले नगर निगम द्वारा एक लाइसेंस जारी किया गया था। मैं इसे हर साल नया करवाता था। किसी ने हमें क्यों नहीं बताया कि हम अवैध रूप से व्यवसाय कर रहे थे”?

कुरैशी को एक बड़ी शिकायत यह है कि दुकानों को अपग्रेड करने के लिए वह बैंक ऋण लेना चाहते हैं, लेकिन उनको कोई सरकारी मदद न मिली । एफएसएसएआई लाइसेंस प्राप्त करने के लिए दुकानों को अपग्रेड करना जरुरी है। वह कहते हैं, "हममें से ज्यादातर के पास बचत के जरिए बहुत कम हैं। जिनके पास धन है, उन्होंने अपनी दुकानों का पुनर्निर्माण किया है, लेकिन रामपुर में मेरे कस्तूरी समुदाय में ऐसे केवल एक फीसदी लोग ही हैं”।

किसानों से जुड़े व्यापार पर प्रभाव

यूपी के कन्नौज शहर से करीब 15 किलोमीटर दूर तिरवा गांव में रविवार के मवेशी बाजार में बहुत कम लेन-देन हो रहे थे, क्योंकि किसानों को अच्छी कीमत नहीं मिल रही थी।

यह मुख्य तौर पर एनजीटी आदेश लागू करने के कारण था। हाल ही में केंद्र सरकार ने मारे जाने के लिए मवेशियों की बिक्री पर पशु बाजारों में प्रतिबंध लगा दिया है। हालांकि इसे जमीनी स्तर पर अब भी लागू करना बाकी है।

अचानकपुर गांव के एक किसान अर्जुन सिंह कहते हैं, “आखिरी साल नोटबंदी थी और इस साल यह मांस बंदी है, जिसने मांग कम कर दी है।”

अर्जुन वह कम उम्र के भैंस के लिए 50,000 रुपए की मांग कर रहे थे, लेकिन उन्हें 32,000 रुपए की पेशकश की जा रही थी।

बूचड़खानों पर कड़ी कार्यवाही से किसान दुधारू पशुओं के लिए भी अच्छी कीमतें लाने में असमर्थ हैं। खरीदार चिंतित हैं कि वे उसे फिर से बेचने में असमर्थ रहेंगे।

कानपुर के पास चौबेपर गांव में एक मवेशी बाजार में एक किसान सवाल करते हैं, “क्या होगा यदि एक भैंस प्रजनन में असमर्थ है? कोई किसान इसे छुएगा नहीं। क्या हमें चारा पर खर्च करना चाहिए या इसे एक बूचड़खाने में बेचना चाहिए? सरकार इस सरल तर्क को क्यों नहीं समझ सकती?”

जयसिंहपुरा गांव के एक युवा किसान ब्रजल कुमार द्विवेदी- मां-बछड़ा भैंस जोड़ी को 90,000 रुपये में बेचना चाहते थे। उन्हें 70,000 रुपए तक की पेशकश मिल रही थी। उन्होंने कहा, "पिछले साल सकिप मंडी से मैंने 80,000 रुपये में खरीदा था, इसे खिलाया था और गर्भवती हुई थी, और अभी मुझे इसकी कीमत नहीं मिल रही है।" ब्रजल कुमार को उनकी शादी के लिए पैसे की ज़रूरत थी, लेकिन उन्होंने कहा कि वह कीमतों को स्थिर करने के लिए कुछ सप्ताह इंतजार करेंगे, और तब तक स्थानीय डेयरी को दूध बेचेंगे।

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जयसिंहपुरा गांव के एक युवा किसान ब्रजल कुमार द्विवेदी- मां-बछड़ा भैंस जोड़ी को 90,000 रुपये में बेचना चाहते थे। उन्हें 70,000 रुपए तक की पेशकश मिल रही थी। उन्होंने कहा, "पिछले साल सकिप मंडी से मैंने 80,000 रुपये में खरीदा था, इसे खिलाया था और गर्भवती हुई थी, और अभी मुझे इसकी कीमत नहीं मिल रही है।" ब्रजल कुमार को उनकी शादी के लिए पैसे की ज़रूरत थी, लेकिन उन्होंने कहा कि वह कीमतों को स्थिर करने के लिए कुछ सप्ताह इंतजार करेंगे, और तब तक स्थानीय डेयरी को दूध बेचेंगे।

किथवा गांव के जद्दननाथ सिंह इतना भाग्यशाली नहीं थे। उन्हें केवल 11,000 रुपए में अपनी भैंस बेचना पड़ी । उनके पिता अस्पताल में भर्ती थे और उन्हें पैसों की सख्त जरुरत थी।

सहायक सेवाएं प्रदान करने वालों पर भी इसका प्रभाव पड़ा है। राजेंद्र सिंह जानवरों को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने का काम करते थे। उनके परिवहन व्यवसाय के लिए भी समय मंदी का है। वह कहते हैं, “अधिकांश किसान अपने पशुओं को उन्ही वाहनों पर वापस ले जा रहे हैं, जिन पर वे आए थे। केवल खरीदार ही यहां वाहन किराए पर ले रहे हैं, लेकिन ज्यादा सौदे नहीं मिल रहे हैं। ऐसा पिछले तीन महीनों से चल रहा है ”

कानपुर का पेक बाग बाजार भैंस की खाल का सबसे बड़ा बाजार है। यहां भी पिछले कुछ सालों में व्यापार में गिरावट आई है, विशेष रूप से 2015 में एक मुस्लिम व्यक्ति मोहम्मद अख्लाख पर गौ मांस रखने के आरोप में उसकी हत्या कर देने की घटना के बाद से।

पेक बाग के एक गोदाम मालिक और स्थानीय हाईड मर्चेंट एसोसिएशन के ऑफिस पदाधिकारी अख्तर हुसैन अख्तर कहते हैं, “ट्रांसपोर्टरों तो यहां से केवल भैंस का खाल ले जाते हैं। इसके बावजूद गो रक्षकों द्वारा की जाने वाली मार-पीट से एक डर का माहौल बन गया है। ”

अख्तर समझाते हैं कि बड़े यांत्रिक बूचड़खाने सीधे बड़े चमड़े कारखानों को चमड़ा और खाल बेचते हैं । जो मृत जानवर से खाल निकालते हैं, वे पेक बाग के व्यापारियों को बेचते हैं। वह कहते हैं, " पहले अधिकांश आपूर्ति सरकारी बूचड़खानों से आती थी, जबकि गांवों से साप्ताहिक आपूर्ति की जाती थी। अब जो भी कच्चा माल हम प्राप्त कर रहे हैं वो गांवों से हैं और वो वैसे पशुओं के हैं जो प्राकृतिक कारणों से मरे हैं और जिनकी हत्या नहीं की गई है। "

वह कहते हैं चमड़े और खाल की आपूर्ति 10,000 से गिर कर 500 तक हुआ है। अब उन्होंने अपने कर्मचारियों की संख्या आठ से घटा कर एक कर दिया है।

हाईड मर्चेंट एसोसिएशन के अनुसार, करीब 40,000 लोग इस व्यापार में सीधे जुड़े हुए हैं। पिछले कुछ सालों में एसोसिएशन की सदस्यता आधे से कम हो गई है। ढेर सारे लोग अपने गोदामों को परिधान की दुकानों में बदल चुके हैं।

बड़े व्यवसायियों को लाभ

अखिल भारतीय मांस और पशुधन निर्यात संघ के अनुसार, उत्तर प्रदेश में मांस उद्योग में 2.5 मिलियन लोग काम करते हैं। लेकिन औपचारिक बाजार और बूचड़खाने के इस अव्यवस्थित बाजार के बीच बहुत अंतर है।

औपचारिक बाजार में ज्यादातर अमीर निर्यातक हैं। वे सब मशीनीकृत, अच्छी तरह से सुसज्जित बूचड़खानों के मालिक हैं जिनके पास आमतौर पर अपेक्षित परमिट होते हैं। जबकि अनौपचारिक बाजार सरकार द्वारा चलाए जाने वाले बूचड़खानों पर निर्भर है, जिनमें से ज्यादातर नियमों का पालन करने में नाकाम रहने के कारण बंद हैं।

सख्त कानूनी कार्यवाही से बड़ी कंपनियों के पक्ष में बाजार में गिरावट आई है, जो अब तक भैंस के मांस के निर्यात में जुड़ी हुई है। भारतीय किसान संघ (बीकेयू) के उत्तर प्रदेश शाखा के महासचिव धर्मेंद्र मलिक ने इंडियास्पेंड से बात करते हुए बताया कि, “बड़ी कंपनियां साफ-साफ मुनाफा कमा रही हैं । क्योंकि कसाई से कोई मांग नहीं होने के कारण मवेशी बाजार में गिरावट आई है। दूसरी ओर, बाजार में मांस की कमी ने इसकी कीमत में वृद्धि करने के लिए कारण दिया है। इसलिए, कंपनियां कम कीमत पर पशुओं को खरीद सकती हैं और अधिक कीमत पर मांस बेच सकती हैं। ”

मांस की कमी से उबरने के लिए कानपुर डीएम ने कानपुर से मांस के विक्रेताओं और उन्नाव से संचालित निजी कंपनियों की बैठक की व्यवस्था की है। कानपुर महानगर निगम के पशु चिकित्सा अधिकारी डॉ ए.के. सिंह ने इंडियास्पेंड को बताया, “हम मांस की दुकानों के लिए ‘नो-अब्जेक्शन सर्टिफिकेट’ दे रहे हैं, ताकि वे इन कंपनियों के लिए मांस का स्रोत बन सकें। ”

इसी तरह की व्यवस्था बरेली, मोरादाबाद, अलीगढ़ और मुजफ्फरनगर सहित अन्य शहरों में की गई है। भैंस के मांस की कीमत 150 रुपए प्रति किलोग्राम थी, बढ़कर 200 रुपए हो गई है।

एओवी एक्सपोर्ट्स लिमिटेड के मालिक अभिषेक अरोड़ा ने इंडियास्पेंड से बात करते हुए बताया, “लोगों को शहर के बूचड़खाने से ताजा और कच्चा मांस लेने की आदत है। इसलिए वे फ्रोजन मांस के प्रति ज्यादा उत्सुक नहीं हैं। लेकिन वह विकल्प अब उपलब्ध नहीं है। हम वर्तमान में कानपुर में प्रति दिन 3-4 टन भैंस की मांस की आपूर्ति कर रहे हैं और उम्मीद है कि यह 30-35 टन तक बढ़ेगा। ”

हालांकि, बड़ी कंपनियों से मांस खरीदने के लिए मजबूर होने पर कसाई समुदाय नाखुश हैं। लखनऊ में मांस विक्रेताओं के एक एसोसिएशन ‘कुरैशी फाउंडेशन’ के महासचिव शहाबुद्दीन कुरैशी कहते हैं, “हमारी आय का चौथा हिस्सा मारे गए पशु की बेकार सामग्री बेचने से आता है। कंपनी के साथ एक समझौते में प्रवेश करने का मतलब है कि इस लाभ को छोड़ देना। अपने व्यवसाय को कंपनियों के हाथों सौंप देने से अच्छा है, इसे बंद कर देना। ”

आगे की सोच...

कई लोगों का मानना है कि समस्या का एक आदर्श समाधान सरकारी बूचड़खानों के आधुनिक होने तक, आबादी से दूर एक वैकल्पिक वधशाला स्थल स्थापित करना हो सकता है। ‘जमाइत-उल-कुरेश’ के अहमद कहते हैं, “जब एक पशु का वध होता है तो लगभग 20 लोगों को काम मिलता हैं। मांस विक्रेता मांस बेचते हैं। कुछ लोग जानवरों के चमड़े और खाल का व्यापार करते हैं। कुछ लोग हड्डियों और खुरों की बिक्री करते हैं और फिर ऐसे भी लोग हैं जो साबुन कारखानों के लिए चर्बी बेचते हैं। अब लाइसेंस प्राप्त दुकानों वाले मांस विक्रेता केवल कुछ व्यवसाय करने में सक्षम हैं। अन्य दूसरे तरह के रोजगार करने वाले बेरोजगार हैं। ”

इस बीच, लखनऊ में छिपकर, छोटे पैमाने पर अवैध पशु वध जारी है। कुरैशी सवाल उठाते हैं, “पशु बध के बाद कचरा, जो पहले एक स्थान पर उत्पन्न होता था और नगर निगम द्वारा उठाया जाता था, अब किसी भी उचित निपटान के बिना घनी आबादी वाले क्षेत्रों को प्रदूषित कर रहा है। सरकार द्वारा चलाए जा रहे बूचड़खानों के बंद होने से क्या हासिल हुआ है?”

सामूहिक रुप से बूचड़खाने बंद होने के बाद इससे जुड़े लोगं को अपने जीवन को पटरी पर लाने में अच्छा खासा संघर्ष करना पड़ रहा है। सैकड़ों- हजारों लोगों को रोजगार देने वाले व्यापार को व्यवस्थित करने के लिए पिछले और वर्तमान सरकार की विफलता साफ तौर पर देखी जा सकती है। लखनऊ स्थित भारतीय पशु कल्याण बोर्ड के पूर्व सदस्य कामना पांडे कहती हैं, “अवैध बूचड़खाने के साथ जुड़े स्वास्थ्य और पर्यावरण संबंधी चिंताओं को देखते हुए कठोर नीति बेहद जरुरी थी। वास्तव में, मैं इस तर्क से सहमत नहीं हूं कि कार्रवाई चरणों में होने की जरूरत है। लेकिन सरकार को सार्वजनिक नुकसान से बचने के लिए आधुनिक बूचड़खानों का निर्माण कराने में भी सक्रिय होना चाहिए। ”

(मोदगिल विकास पर एक वेब पत्रिका GoI Monitor के संस्थापक और संपादक हैं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 15 जुलाई 2017 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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