नई दिल्लीः निर्भया कांड के दोषियों को फांसी दिए जाने की तारीख़ क़ानूनी दांवपेच में उलझी है। दिसंबर 2012 में ज्योति सिंह यानी ‘निर्भया’ के बलात्कार और हत्या में दोषी चार व्यक्तियों को फांसी देने का वारंट दिल्ली की एक सत्र अदालत जारी कर चुकी है। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद दोषियों में से एक की दया याचिका पहले ख़ारिज कर चुके हैं।

साल 2004 से लेकर अब तक भारत में केवल चार लोगों को फांसी दी गई है, आख़िरी बार 2015 में फांसी हुई थी। इंडियास्पेंड ने अगस्त 2018 की अपनी रिपोर्ट में बताया था कि आरोपियों में से तीन आतंकवाद, और एक नाबालिग़ के बलात्कार का दोषी था।

निर्भया कांड ने पूरे देश को झकझोर दिया था। इससे महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध शायद कम नहीं होंगे, वास्तव में, इससे एक ऐसी स्थिति बनेगी जो सुधारों को लागू करने से सरकार का ध्यान हटाएगी जिनसे बलात्कार के मामलों में अभियोग चलाने में सुधार आ सकता है, ऐसा विशेषज्ञों का कहना है।

मौत की सज़ा में 53% की बढ़ोतरी

साल 2018 में, 186 दोषियों को मौत की सज़ा सुनाई गई, यह 2017 में 121 दोषियों को सुनाई गई मौत की सज़ा से 53% ज़्यादा है, हाल ही में जारी नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के जेल के आंकड़ों के अनुसार।

भारत में, मौत की सज़ा “दुर्लभ” मामलों में सुनाई जाती है। अदालतों ने इस विकल्प का इस्तेमाल कई प्रकार के मामलों में किया है, इनमें हत्या, आतंकवाद, अपहरण के साथ हत्या, दंगे के साथ हत्या, नशीले पदार्थों से जुड़े अपराध और बलात्कार के साथ हत्या से संबंधित मामले शामिल हैं।

साल 2018 में मौत की सज़ा पाने वाले अपराधियों में से 40% से अधिक और 2019 में इनमें से आधे (52.9%) यौन अपराधों और हत्या के दोषी थे, नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी (एनएलयू), नई दिल्ली की वार्षिक रिपोर्ट, डेथ पेनल्टी इंडिया 2019 के अनुसार।

जनता के गुस्से और निराशा पर प्रतिक्रिया के तौर पर यौन हिंसा वाले मामलों में मौत की सज़ा अधिक सुनाई जा रही है, विशेषज्ञों ने इंडियास्पेंड को बताया।

“जनता की चिंताओं को दूर करने के लिए उन्होंने यह एक आसान रास्ता चुना है,” सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील और शोधकर्ता, वृंदा ग्रोवर ने कहा। ऐसा लगता है कि सरकारें और व्यवस्था ऐसे मूलभूत बदलाव नहीं करना चाहते जिनसे वास्तव में यौन हिंसा के मामले कम होंगे, उन्होंने कहा।

अगस्त 2019 में सरकार ने पॉक्सो एक्ट 2012 में संशोधन किया था ताकि 12 साल से कम उम्र के बच्चों के बलात्कार के मामलों में मौत की सज़ा का प्रावधान जोड़ा जा सके।

दिसंबर 2019 में हैदरबाद में “भागने की कोशिश कर रहे” 27 वर्षीय पशु चिकित्सक के साथ बलात्कार के आरोपी चार व्यक्तियों को पुलिस ने एक एनकाउंटर में मार दिया था। इसे “न्यायिक कार्यवाही के बिना हत्या” कहा गया था। इसके बाद आंध्र प्रदेश विधानसभा ने एक विधेयक पारित कर बलात्कार के मामलों में मौत की सज़ा का प्रावधान जोड़ा था।

यह साबित नहीं किया जा सकता कि उम्रक़ैद की तुलना में मौत की सज़ा एक कड़ा तरीक़ा है, मौत की सज़ा पर लॉ कमीशन की 2015 की रिपोर्ट के अनुसार।

साल 2012 में दिल्ली में ज्योति सिंह के बर्बर गैंगरेप के बाद यौन हिंसा के लिए कड़ी सज़ा की इसी तरह की मांग उठी थी, जिसके बाद कई सुधार और क़ानूनी बदलाव हुए। इनमें क्रिमिनल लॉ (अमेंडमेंट एक्ट), 2013 शामिल था। पीछा करना, अंग प्रदर्शन, एसिड अटैक और यौन उत्पीड़न इसके दायरे में लाए गए थे।

इन सुधारों से बलात्कार के अपराधों को दर्ज कराने के मामलों में सुधार आया, लेकिन अपराधियों की गिरफ़्तारी और उन्हें दोषी करार देने की दर पर मामूली असर पड़ा। फरवरी 2019 के एक अध्ययन के आधार पर इंडियास्पेंड ने अगस्त 2019 में यह रिपोर्ट किया था। बलात्कार के मामलों में दोषी करार दिए जाने की दर 2007 से गिर रही है। साल 2006 में यह 27% से 2016 में 18.9% के साथ अभी तक के सबसे निचले स्तर पर चली गई थी, जैसा कि इस अध्ययन में बताया गया था।

पीड़ित के उच्च या मध्यम वर्ग और अपराधी के निम्न वर्ग से होने पर कड़ी सज़ा के लिए दबाव बनाया जाता है। अगर मामला विपरीत है, तो ऐसा कोई ग़ुस्सा नहीं दिखता, महिला अधिकारों से जुड़ी वक़ील और महिलाओं को क़ानूनी सहायता देने वाले संगठन, मजलिस की निदेशक फ़्लेविया एग्नेस ने बताया।.

यौन अपराधों के लिए मौत की सज़ा में बढ़ोतरी

31 दिसंबर, 2019 तक देश में मौत की सज़ा पाए 378 क़ैदी थे, एनएलयू की रिपोर्ट के मुताबिक़। निचली अदालतों ने 2019 में 102 मामलों में मौत की सज़ा सुनाई थी, इससे पिछले साल यह संख्या 162 थी। 2019 में सुनाई गई मौत की सज़ा में से आधे से अधिक (102 में से 54) यौन अपराधों से जुड़ी हत्याओं के लिए थी। ऐसे 40 मामलों में पीड़ित की उम्र 12 साल से कम थी, रिपोर्ट के अनुसार।

हाई कोर्ट्स और सुप्रीम कोर्ट ने 2019 में क्रमशः 26 और 17 मौत की सज़ा की पुष्टि की थी। एनएलयू की रिपोर्ट से पता चलता है कि इनमें से 17 (65.3%) और 11 (57.1%) यौन अपराधों से जुड़े मामले थे।

इसके अलावा, उस साल हाईकोर्ट्स और सुप्रीम कोर्ट ने क्रमशः 56 और सात मामलों में मौत की सज़ा को उम्रक़ैद में बदल दिया था, इनमें से 15 (26.7%) और चार (64.7%) मामले यौन अपराधों से जुड़े थे।

महिलाओं और बच्चों के ख़िलाफ़ यौन हिंसा के लिए कड़ी सज़ा के मुद्दे पर राष्ट्रीय बहस ने मौत की सज़ा को बहस के केंद्र में ला दिया है, एनएलयू में मौत की सज़ा वाले दोषियों पर शोध के प्रोजेक्ट 39A, के कार्यकारी निदेशक, अनूप सुरेन्द्रनाथ ने कहा। उन्होंने 2019 के दो मामलों का संदर्भ दिया जिनमें सुप्रीम कोर्ट ने मौत की सज़ा की पुष्टि करते हुए, इसके समर्थन में पॉक्सो कानून में 2019 के संशोधनों का हवाला दिया था, जबकि अपराध संशोधनों से पहले हुए थे।

“मौत की सज़ा सुनाने के लिए इसका इस्तेमाल करना व्यक्तिगत तौर पर सज़ा सुनाने के सिद्धांतों का उल्लंघन है। हमें इस धारणा से भी निकलना होगा कि मौत की सज़ा से कम कोई सज़ा देना “अन्याय” है,” अनूप सुरेन्द्रनाथ ने कहा।

फ़ास्ट-ट्रैक अदालतों से दोषी करार देने की दरों में मामूली सुधार

राज्य सरकारें जल्द न्याय देने के लिए फास्ट-ट्रैक अदालतें बना रही हैं, लेकिन इससे अधिक अंतर नहीं आया है। मार्च 2019 तक, देश में 581 फास्ट-ट्रैक अदालतें और लगभग 590,000 लंबित मामले थे, अगस्त 2019 की द हिंदू की इस रिपोर्ट के अनुसार। देश के सबसे अधिक जनसंख्या वाले राज्य उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक लंबित मामले थे, जबकि राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से 56% (कर्नाटक, मध्य प्रदेश और गुजरात सहित) में कोई फास्ट-ट्रैक अदालत नहीं थी।

आंध्र प्रदेश विधानसभा की तरफ़ से क़ानून में जो संशोधन किए गए उनमें से एक था सुनवाई को 21 दिनों के अंदर पूरा करना (जांच पूरी करने के लिए सात दिन और सुनवाई पूरी करने के लिए 14 दिन)। जबकि आपराधिक क़ानून संशोधन अधिनियम, 2013 में यह अवधि चार महीने है।

“अवधि में इतनी कमी और इसे अनिवार्य करना, सफ़ल अभियोजन को सुनिश्चित करने के बजाय, जल्दबाज़ी में जांच या अधूरा आरोपपत्र दाख़िल करने जैसी मुश्किलें हो सकती हैं, या आरोपी को ज़मानत मिल सकती है–जो पीड़ित के हित या मामले के परिणाम के लिए ख़तरनाक होगा,” अनूप सुरेन्द्रनाथ ने कहा।

2019 में, सुप्रीम कोर्ट ने तीन मामलों में पांच साल की सज़ा पाए 10 व्यक्तियों को संदिग्ध सबूतों की वजह से बरी कर दिया था। एक मामले में कोर्ट ने जांच अधिकारी के ख़िलाफ़ कार्रवाई का आदेश दिया था। दो अन्य मामलों में कोर्ट ने मामले की दोबारा सुनवाई के लिए निचली अदालत के पास वापस भेजा था।

“ज़िम्मेदारी के अधिक बोझ और कम सुविधाओं वाली पुलिस पर तीन सप्ताह के अंदर जांच पूरी करने का दबाव डालने से आरोपियों के बरी होने की संख्या बढ़ेगी,” अनूप सुरेन्द्रनाथ ने दलील दी।

सरकार को पुलिस के प्रशिक्षण और उसे जागरूक बनाने में अधिक निवेश करना चाहिए जिससे वह अपराध के प्रकार को समझ सके और सही जांच करें, बृंदा ने कहा। इसके साथ ही उन्होंने कहा कि अभियोजन पक्ष को सुनवाई ठीक तरीके से करनी चाहिए। “लेकिन इन पहलुओं पर कोई काम नहीं हो रहा है। हम या तो मौत की सज़ा पर कभी-कभार चर्चा या फिर हैदराबाद जैसे तुरंत न्याय के एक नए प्रकार को देख रहे हैं। इनमें से कोई भी हिंसा के चक्र को पलट नहीं पाएगा,” बृंदा ने कहा।

फ़ोरेंसिक लैब की कमी और मामलों के अधिक बोझ और कम कर्मचारियों की समस्या वाली फ़ास्ट-ट्रैक अदालतें, यह सब न्यायपालिका में निवेश की कमी की ओर इशारा करते हैं, उन्होंने बताया।

इस कारण से दोषी क़रार दिए जाने की दर कम बनी हुई है। 2018 में बलात्कार के मामलों में से 93.2% और पॉक्सो एक्ट के तहत बलात्कार के मामलों में से 94.3 % में आरोप पत्र दाख़िल किए गए थे। हालांकि, 2018 में बलात्कार के मामलों में से 27.2% में और पॉक्सो एक्ट के तहत बलात्कार के मामलों में से 31.5% में आरोपियों को दोषी क़रार दिया गया था, एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार।

कई मामलों में सुनवाई ज़्यादा वक़्त तक भी खिंचती है। 2018 में, भारतीय अदालतों ने 17,313 मामलों में सुनवाई पूरी की थी, जबकि बलात्कार के 1,38,642 मामले लंबित हैं – यह 88.7% की दर है।

“दोषी साबित करने के लिए, आपको पीड़ित और उसके परिवार के साथ काम करना होगा और परिवार को सहायता देनी होगी,” मजलिस की फ़्लेविया ने कहा।

बलात्कार के पीड़ित अपराध की रिपोर्ट बहुत कम दर्ज कराते हैं (एक अनुमान के अनुसार, यौन हिंसा के 99.1% मामलों में रिपोर्ट दर्ज नहीं कराई जाती क्योंकि इनमें दोषी पति होता है)। अधिकतर मामलों में (2018 में बलात्कार के मामलों में से 93.8) अपराध करने वाले पीड़ित के जानकार थे और 50% पीड़ित के दोस्त, परिवार या पड़ोसी थे, एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक़।

हमारी अगस्त 2019 की रिपोर्ट में सामने आया था कि अपमान और क़ानून लागू करने वाले अधिकारियों की लापरवाही और मुश्किलों का सामना करने के डर से बहुत कम पीड़ित मामला दर्ज कराती हैं।

(स्वागता, इंडियास्पेंड/हेल्थचेक के साथ स्पेशल कॉरेसपॉन्डेंट हैं।)

यह रिपोर्ट मूलत: अंग्रेज़ी में 29 जनवरी 2020 को IndiaSpend पर प्रकाशित हुई है।

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