नई दिल्ली: पिछले पांच महीने अनुष्का (13 साल) के लिए बड़ी बेबसी से भरे थे, ख़ासतौर पर माहवारी के दौरान। घर में खाने-पीने तक का संकट था, ऐसे में सेनेटरी पैड ख़रीदने की बात सोचना भी अनुष्का के लिए कल्पना से परे था। देश की राजधानी से महज़ 134 किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर ज़िले के बिरौली गांव में रहने वाली अनुष्का के पिता नहीं हैं। चार सदस्यों वाले परिवार के भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी अनुष्का की मां के कंधों पर है, जो एक दिहाड़ी मज़दूर हैं। लॉक़ाउन के बाद से आमदनी का यह इकलौता ज़रिया भी बंद हो चुका है।

“जब घर में खाने-पीने का सामान तक ना हो तो ऐसे में पैड (सेनेटरी) कहां से ख़रीदें। लॉकडाउन के बाद से आंगनबाड़ी केंद्र बंद हैं। कपड़ा इस्तेमाल करें और उसे कोई बीमारी हो जाए तो बात करने के लिए एएनएम दीदी भी नहीं हैं। अस्पताल जाने में वैसे ही ख़तरा,” अनुष्का ने बताया।

अनुष्का देश उन 12 करोड़ किशोरियों में से एक है जिन्होंने लगभग पांच महीने से चल रहे लॉकडाउन के दौरान हर महीने माहवारी के दिन बड़ी मुश्किल से गुज़ारे हैं।

देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान देश के तीन बड़े राज्य, उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान, में आधी से ज़्यादा लड़कियों को सेनिटेरी पैड नहीं मिले, और 15 से 19 साल के किशोरों में से सिर्फ़ एक-तिहाई को ही आयरन-फ़़ोलिक एसिड की गोलियां मिल पाईं, हाल ही में हुए एक सर्वेक्षण में यह बात सामने आई।

इन तीन राज्यों के किशोरों और किशोरियों पर कोरोनावायरस और लॉकडाउन का क्या असर पड़ा है, यह जानने के लिए पॉपुलेशन फ़ाउंडेशन ऑफ़ इंडिया (पीएफ़आई) ने यह सर्वेक्षण किया था।

पीएफ़आई ने उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान में 800 युवाओं पर सर्वेक्षण किया जिसमें 15 से 24 साल की उम्र के 271 लड़के और 530 लड़कियां शामिल थे। इंडियास्पेंड, लॉकडाउन के दौरान ऐसे कई सर्वेक्षणों पर रिपोर्ट प्रकाशित कर चुका है। इन सभी सर्वेक्षणों में लगभग एक ही तरह के रुझान सामने आए हैं। (ये रिपोर्ट्स यहां, यहां और यहां पढ़ी जा सकती हैं।)

इन राज्यों के ज़्यादातर किशोरों/किशोरियों को कोविड-19 के सभी लक्षणों की जानकारी न होकर कोई दो बड़े लक्षणों जैसे, बुख़ार, खांसी या सांस लेने में पारेशनी, आदि, की जानकारी थी। कई में अस्पताल जाने का डर था, किशोर आरोग्य सेतु एप की बजाय वॉट्सऐप से जानकारी ले रहे थे, इनपर घर के कामों का बोझ बढ़ गया था और यह घर पर होने वाली लड़ाइयों के बीच में फंसे थे, किशोरियों को न तो सेनेटेरी पैड मिल पा रहे थे और ना ही आयरन-फ़ोलिक एसिड की गोलियां। काफ़ी कम किशोरों को गर्भनिरोधक बांटे जाने के बारे में भी कोई जानकारी है।

कोरोनावायरस के बाद हुए लॉकडाउन के दौरान स्वास्थ्य सेवाएं, ख़ासकर प्रजनन स्वास्थ्य सेवाएं, प्रभावित हुईं और अलग-अलग राज्यों में कुछ समय के लिए स्थगित भी की गईं। रोज़गार, शिक्षा, खान-पान सभी प्रभावित हुए और इसका असर किशोरों और किशोरियों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर हुआ। लेकिन इस दौरान इनकी ज़रूरतों को सरकारी नीतियों में नज़रअंदाज़ किया गया, इस सर्वे में पाया गया।

लॉकडाउन के दौरान किशोरियों का खान-पान, स्वास्थ्य और शिक्षा प्रभावित हुए हैं, इनके साथ भेदभाव ज़्यादा होने की वजह से इनके पास घर के काम का ज़्यादा बोझ है, इनके पास पढ़ाई के लिए फ़ोन नहीं हैं, स्कूल खुलने पर इन्हें वापस स्कूल वापस जाने में दिक्कत हो सकती है और आर्थिक तंगी के चलते ये बाल-विवाह, बाल मज़दूरी या मानव तस्करी का शिकार हो सकती हैं, इंडियास्पेंड ने एक जून की इस रिपोर्ट में बताया था।

सेनेटेरी पैड, आयरन फ़ोलिक एसिड की गोलियों और गर्भनिरोधकों की कमी

हालांकि हर पांच में से तीन युवा, फ़्रंटलाइन हेल्थ वर्कर्स- आशा, एएनएम या आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं- से लॉकडाउन के दौरान किसी ना किसी तरह सम्पर्क में थे, इसके बावजूद इन्हें गर्भनिरोधक नहीं मिल पाए, बड़ी संख्या में युवाओं को ये पता ही नहीं था कि उन्हें इन कार्यकर्ताओं से गर्भनिरोधक मिल भी सकते हैं।

आधी से ज़्यादा लड़कियों को इस दौरान सेनेटेरी पैड नहीं मिले और 15 से 19 साल के किशोरों/किशोरियों में से सिर्फ़ एक-तिहाई को आयरन-फ़ोलिक एसिड की गोलियां मिल पाईं।

“सेनेटरी पैड बांटने के लिए सरकार के पास कई तरीक़े थे, आशा या पीडीएस आदि के ज़रिए, पर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया। अब जबकि काफ़ी सुविधाएं शुरू हो गई हैं, तब भी लड़कियों को पैड नहीं मिल पा रहे हैं,” उत्तर प्रदेश में काम करने वाले एनजीओ, परदादा-परदादी एजुकेशनल सोसायटी की सीईओ, रेणुका ने बताया।

बिहार में 55%, उत्तरप्रदेश में 19% और राजस्थान में 73% लड़कियों को लॉकडाउन के दौरान सेनेटरी पैड नहीं मिल पाए। साथ ही किशोरों/किशोरियों के शरीर में अहम पोषक तत्वों की भरपाई के लिए बांटी जाने वाली आयरन-फ़ोलिक एसिड की गोलियां, राजस्थान में 4%, बिहार में 30% और उत्तर प्रदेश में 66% किशोरों/किशोरियों को ही मिल पाईं।

“लॉकडाउन के बाद से मुझे आयरन की 100 गोलियां मिली थीं। जिसको ज़्यादा ज़रूरत थी उस गर्भवती को दे दी, लड़कियों को तो ज़्यादा ज़रूरत नहीं पड़ती है,” लखनऊ के रहमत नगर में काम करने वाली आशा कार्यकर्ता शिव देवी ने बताया।

सिर्फ़ 30% युवाओं को जानकारी थी कि फ़्रंटलाइन हेल्थ वर्कर्स से गर्भनिरोधक मिल सकते हैं, बिहार में ये आंकड़ा 43%, उत्तर प्रदेश में 47% और राजस्थान में सिर्फ़ 5% था। बिहार में 61%, उत्तर प्रदेश में 70% और राजस्थान में 46% युवाओं को ये भी नहीं पता था कि ये कार्यकर्ता उन्हें परिवार नियोजन से जुड़ी जानकारी और सलाह दे सकते हैं।

बुलंदशहर की अनुष्का सिंह ने बताया कि उसके घर के पास जो आशा आती है वो कभी किसी को यौन संबंधों के बारे में जानकारी नहीं देती, पूछने पर अनुष्का ने संकोच के साथ कहा कि अगर कभी ज़रूरत पड़ी तो वो आशा से पूछने की बजाय, किसी दोस्त से या गूगल से ये जानकारी हासिल करना बेहतर समझेगी।

“जानकारी के अभाव में किशोरों और ख़ासतौर पर किशोरियों के स्वास्थ्य पर बड़ा दुष्प्रभाव होता है, लॉकडाउन के दौरान अस्पताल ना जा पाने की वजह से अनचाहे गर्भ का ख़तरा, असुरक्षित गर्भपात और कई तरह के इन्फ़ेक्शन का ख़तरा भी बढ़ा है,” पॉप्युलेशन फ़ाउंडेशन ओफ़ इंडिया की एक्सीक्यूटिव डिरेक्टर, पूनम मुटरेजा ने बताया।

युवाओं में जानकारी का स्तर

सर्वेक्षण के अनुसार युवाओं में कोविड-19 के लक्षण और इस से बचाव के तरीक़ों की जानकारी का स्तर काफ़ी अच्छा पाया गाया। ज़्यादातर युवा कम से कम दो मुख्य लक्षण जैसे खांसी, बुख़ार, सांस लेने में परेशानी, बदन दर्द आदि से वाक़िफ़ थे। साथ ही बचाव के तरीक़ों- नियमित हाथ धोना, नाक-मुंह ढंकना और सोशल डिस्टेंसिंग- का पालन करने के बारे में भी उन्हें जानकारी थी।

बिहार में 92% युवाओं को लक्षणों की जानकारी थी, 100% नियमित रूप से हाथ धोने और मास्क पहनने और 98% सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कर रहे थे।

उत्तर प्रदेश में 85% युवाओं को लक्षणों की जानकारी थी, 100% नियमित रूप से हाथ धोने, 89% मास्क पहनने और 92% सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कर रहे थे।

राजस्थान में 90% युवाओं को लक्षणों की जानकारी थी, 99% नियमित रूप से हाथ धोने, 98% मास्क पहनने और सोशल डिस्टेन्सिंग का पालन कर रहे थे।

लड़कों के मुक़ाबले लड़कियों में जानकारी का स्तर कम था, साथ ही उच्च शिक्षा हासिल किए हुए युवा ज़्यादा जागरूक थे। सामाजिक रूप से हाशिए पर रहने वाले समूहों- अनुसूचित जाति और जनजातियों- के युवाओं को बीमारी के लक्षणों के बारे में कम जानकारी थी।

जो युवा लाकडाउन या सोशल डिस्टेंसिंग का पालन नहीं कर रहे थे, उनमें से 45% को खेती-किसानी और 35% को नौकरी और काम के लिए बाहर जाना पड़ रहा था।

जानकारी का माध्यम

जानकारी के पारंपरिक स्रोतों- टीवी और आशा या एएनएम से सीधे बातचीत- से काफ़ी युवाओं को जानकरी मिली। डिजिटल मीडिया- ट्विटर, फ़ेसबुक, सरकारी जानकारी के मुख्य स्रोत आरोग्य सेतु एप- से बहुत ही कम युवाओं ने जानकारी ली, लेकिन वॉट्सऐप, जानकारी का एक बड़ा माध्यम रहा।

आरोग्य सेतु एप कुछ ही युवाओं की जानकारी का स्रोत बन पाई, बिहार में इसे 11%, उत्तर प्रदेश में 8% और राजस्थान में मात्र 2% युवाओं ने इस्तेमाल किया। कुल 61% युवाओं ने टीवी और 30% ने वॉट्सऐप का रुख़ किया।

बिहार में 58%, उत्तर प्रदेश में 54% और राजस्थान में 42% युवाओं ने आशा या एएनएम से जानकारी प्राप्त की।

“लॉकडाउन के दौरान जिसे भी ज़रूरत थी वो हमारे घर आककर पूछ गया, लड़कियां तो काफ़ी आईं पर लड़का एक भी नहीं आया,” लखनऊ के रहमत नगर में काम करने वाली आशा कार्यकर्ता, शिव देवी ने बताया, जो अपने गांव में 1200 लोगों की आबादी देखती हैं।

“गांव में हर महीने एक किशोरी बैठक होती है, जिसमें आशा, एएनएम और आंगनबाड़ी आती हैं और किशोरियों से माहवारी और साफ़-सफ़ाई से जुड़ी बात होती है, उनकी समस्याएं सुनी जाती है और एएनएम कोई गोली देती है या हमको बताती है कि किस लड़की को अस्पताल ले जाना है, इसी बैठक में आयरन की गोलियां भी बांटी जाती है, लॉकडाउन में ये बैठक होनी बंद हो गई,” शिव देवी ने आगे बताया।

स्कूलों को बहुत ही कम युवाओं ने अपनी जानकारी का माध्यम बताया, सर्वेक्षण के अनुसार ये स्कूलों की अपने परिसर के बाहर निकल कर अपने छात्रों से जुड़े रहने में असफलता दर्शाता है। पर साथ ही बाक़ी राज्य राजस्थान से कुछ सीख सकते हैं जहां एक चौथाई युवाओं ने स्कूल को कोविड से जुड़ी जानकारी का एक विश्वसनीय स्रोत बताया।

“इस महामारी के दौरान सबसे ज़्यादा निराशाजनक प्रदर्शन शिक्षा व्यवस्था का रहा, कुछ महीने बीत जाने के बाद भी स्कूल जानकारी देने या युवाओं की किसी भी रूप में मदद करने में असफल रहे,” पूनम ने बताया।

बिहार में कोविड के लिए डॉक्टर के पास जाने से ज़्यादा ठीक समझा घर में आइसोलेट करना

बिहार में लगभग 40% युवाओं ने कहा कि अगर उन्हें कोविड इन्फ़ेक्शन होता है तो वो किसी अस्पताल या डॉक्टर के पास नहीं जाएंगे, साथ ही 85% ने कहा कि अगर उन्हें इन्फ़ेक्शन होता है तो वो होम आइसोलेशन के लिए तैयार हैं।

जबकि उत्तर प्रदेश में 4% युवाओं ने इन्फ़ेक्शन होने पर अस्पताल जाने से इंकार किया और 8% ने होम आइसलेशन से इंकार किया, राजस्थान में ये आंकड़ा 3% और 5% था।

“गांव में लड़कियों को अकेले अस्पताल नहीं जाने देते, अगर कोई दिक्कत है तो वो हमारे साथ जाती हैं और हम उनकी दिक्कत डॉक्टर को बता देते हैं, पर लड़के ऐसा नहीं करते वो खुद ही चले जाते हैं,” शिवेदी ने बताया।

किशोर-अनुकूल स्वास्थ्य क्लीनिक (एएफ़एचसी), राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम के तहत बनाए गए। इनका मक़सद, किशोर और किशोरियों को चिकित्सा और अहम मुद्दों- यौन और प्रजनन स्वास्थ्य, पोषण, नशा, हिंसा, निजी स्वच्छता और मानसिक स्वास्थ्य- पर जानकारी देना था। “ये क्लीनिक लॉकडाउन के दौरान बंद थे, किशोर यहां जाकर अपनी समस्याएं साझा कर सकते थे पर इस पर ध्यान ही नहीं दिया गया,” पूनम ने बताया।

65% युवाओं ने किसी न किसी स्वास्थ्य कर्मचारी से लाकडाउन के दौरान बातचीत की, बिहार में 59%, उत्तर प्रदेश में 86% और राजस्थान में 52% युवाओं ने ऐसा किया।

जिन स्वास्थ्य कर्मियों से युवाओं ने बात की, उनमें से 7% डॉक्टर, 2% टीचर और 48% आशा कार्यकर्ता शामिल थीं।

युवाओं की स्थिति सुधारने के लिए सुझाव

सर्वेक्षण के अनुसार किसी स्वास्थ्य-आपातकाल के दौरान जो ज़रुरी जानकारियां प्रसारित की जाती हैं, उनमें काफ़ी सुधार की आवश्यकता है। साथ ही यह भी ध्यान देना होगा कि ये जानकारियां दूर-दराज़ में रहने वाले सीमांत समुदायों- अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों तक पहुंचे।

कोविड महामारी आते ही स्वास्थ्य व्यवस्था का पूरा ध्यान और संसाधन इसकी रोकथाम के लिए सक्रिय हो गए जिसकी वजह से प्रजनन स्वास्थ्य जैसी अहम सेवाओं पर ध्यान नहीं दिया गया और ये युवाओं तक नहीं पहुंच पाईं। इसीलिए ज़रूरत है कि प्रजनन स्वास्थ्य को प्राथमिकता बनाकर इस पर निरंतर ध्यान दिया जाए।

नए दौर में शिक्षा के माध्यम को नई सोच की ज़रूरत है ताकि ये स्कूल परिसर के भीतर बंधी ना रहे और स्कूल बंद होने पर भी छात्रों तक पहुंच सके। इसके लिए नई तकनीक और डिजिटल माध्यम को आने वाले समय में वंचित, ग़रीब और पिछड़े समूहों तक पहुंचाना भी ज़रूरी है।

“लॉकडाउन के दौरान पोषण तो दूर, दो वक़्त की रोटी भी नहीं थी परिवारों के पास, किशोरों के लिए आयरन और डीवरमिंग की गोलियां नहीं थीं, स्कूल बंद होने से यहां से मिलने वाली सहायता भी नहीं थी, आंगनबाड़ी केंद्र बंद थे, अस्पताल जाने में किशोरियों को वैसे भी संकोच होता है, और जानकारी का एक बड़ा माध्यम- फ़ोन, आज भी गांवों में ज्यादातर लड़कियों को नहीं दिया जाता है,” रेणुका ने बताया।

“स्वास्थ्य नीतियों का ध्यान 0-5 साल के बच्चों पर तो है पर इसके बाद इनके पोषण, शिक्षा, स्वास्थ्य, ख़ासकर प्रजनन स्वास्थ्य पर ज़रूरत से काफ़ी कम ध्यान दिया जाता है। कोविड-19 जैसी महामारी में भी इनकी ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए”, पूनम मुटरेजा ने कहा।

(साधिका, इंडियास्पेंड के साथ प्रिन्सिपल कॉरेस्पॉंडेंट हैं।)

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