सोनीपत: 2019 के लोकसभा चुनावों मेंअनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए आरक्षित लोकसभा क्षेत्रों और वामपंथी अतिवाद से प्रभावित क्षेत्रों के निर्वाचन क्षेत्रों में ‘उपरोक्त में से कोई नहीं’ या नोटा चुनने वाले मतदाताओं का उच्च प्रतिशत देखा गया,जबकि ऐसे राज्यों में जहां बहु-पक्षीय मुकाबला देखा गया, वहां नोटा के लिए डाले गए वोटों का कम हिस्सा देखा गया है। यह जानकारी मतदान डेटा पर हमारे विश्लेषण में सामने आई है।

देश भर में, नोटा केे 65 लाख वोट रिकॉर्ड हुए, जो अहमदाबाद की आबादी से अधिक है, या 2019 के आम चुनाव में सभी वोटों का 1.06 फीसदी है। यह 2014 में मतदान किए गए से 1.08 फीसदी ( 60 लाख ) कम है। बिहार में इस वर्ष नोटा के लिए सबसे अधिक वोट-शेयर (2 फीसदी) दर्ज हुआ, इसके बाद आंध्र प्रदेश (1.49 फीसदी), छत्तीसगढ़ (1.44 फीसदी) और गुजरात (1.38 फीसदी) में देखा गया है।

Source: Trivedi Center for Political Data, Ashoka University

मानवाधिकार संस्था ‘पीपुल्स यूनियन फ़ॉर सिविल लिबर्टीज़’, जो एक मानवाधिकार निकाय है, की रिट याचिका के बाद 2013 के अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा ‘उपरोक्त में से कोई नहीं’ चुनने का विकल्प रखा गया था। नोटा की परिकल्पना लोकतंत्र के अभ्यास में अधिक से अधिक भागीदारी हासिल करने में मदद करने के लिए गोपनीयता बनाए रखते हुए मतदाताओं को असंतोष व्यक्त करने में मदद करने के लिए की गई थी।

तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश पी. सदाशिवम ने फैसले में लिखा था, “जब राजनीतिक दलों को पता चलता है कि बड़ी संख्या में लोग उनके द्वारा डाले जा रहे उम्मीदवारों के साथ अपनी अस्वीकृति व्यक्त कर रहे हैं, तो धीरे-धीरे एक प्रणालीगत परिवर्तन होगा और राजनीतिक दलों को उन लोगों की इच्छा को स्वीकार करने के लिए मजबूर किया जाएगा और ऐसे उम्मीदवारों को मैदान में उतारा जाएगा जो उनकी ईमानदारी के लिए जाने जाते हैं।”

29 अक्टूबर 2013 को, भारत के चुनाव आयोग ने घोषणा की कि भले ही नोटा के वोट निर्वाचन क्षेत्र के किसी अन्य उम्मीदवार से अधिक हों, लेकिन सबसे अधिक वोट वाले उम्मीदवार को विजेता घोषित किया जाएगा।

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के ट्रस्टी जगदीप छोकर ने ‘द हिंदू’ में इस पर दिसंबर 2018 की टिप्पणी में लिखा, "इस प्रावधान ने नोटा विकल्प को लगभग निरर्थक बना दिया।...“प्रावधान ने स्पष्ट किया कि नोटा के वोट का चुनाव परिणाम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, जो कि उम्मीदवारों, राजनीतिक दलों और मतदाताओं का हित है। इसके तुरंत बाद, उम्मीदवारों ने नोटा के खिलाफ अभियान शुरू किया, जिसमें मतदाताओं को बताया गया कि विकल्प चुनने का मतलब वोट बर्बाद करना है।"

2019 के चुनाव परिणाम पर नोटा के प्रभाव को देखने के लिए, हमने नोटा के वोट-शेयर के मुकाबले एक निर्वाचन क्षेत्र में जीत के अंतर की तुलना की। 543 निर्वाचन क्षेत्रों में से छह ने जीत के अंतर से नोटा के लिए एक उच्च वोट-शेयर देखा। यानी, अगर नोटा को वोट देने वालों ने किसी निर्वाचन क्षेत्र में उपविजेता को चुना होता, तो वह विजयी होता।

सुप्रीम कोर्ट ने 2013 के अपने फैसले में कहा था कि नोटा ‘लोगों की व्यापक भागीदारी’ में भी मदद करेगा, । हालांकि, चुनावी आंकड़े इस तरह के संबंध नहीं दिखाते हैं। उच्चतम नोटा वोट-शेयर के साथ शीर्ष 10 निर्वाचन क्षेत्रों में, तीन ने राष्ट्रीय औसत से अधिक मतदान किया।

अर्थशास्त्री, राजनीतिक विश्लेषक और एडीआर के संस्थापक ट्रस्टी,अजीत रानाडे ने 2018 के दिसंबर में पुणे मिरर में लिखा था, " नोटा एक दंतहीन उपकरण बन गया है। नोटा बटन असंतोष का एक मत है और इसमें शक्ति होने चाहिए।" उन्होंने महाराष्ट्र राज्य चुनाव आयोग के फैसले का हवाला दिया, जो एक उदाहरण के रूप में स्थानीय निकाय चुनावों पर लागू होता है। आदेश के तहत, यदि किसी निर्वाचन क्षेत्र में नोटा को सबसे अधिक वोट मिले, तो चुनाव रद्द कर दिया जाएगा और नए सिरे से चुनाव कराना होगा।"

आरक्षित सीटों पर उच्च नोटा वोट देखा गया

औसतन, 2019 में सामान्य सीटों की तुलना में आरक्षित सीटों ने एक उच्च नोटा मतदान दर्ज किया, जैसा कि हमने कहा। सामान्य सीटों पर 0.98 फीसदी की तुलना में सभी एसटी सीटों पर 1.76 फीसदी और एससी सीटों में 1.16 फीसदी लोगों नेनोटा को चुना।

यह एक डेटा जर्नलिज्म पोर्टल Factly.in द्वारा जून 2019 के विश्लेषण के अनुसार, पहले के चुनावों के अनुरूप है, जिसमें 43 अलग-अलग चुनावों और 6,298 निर्वाचन क्षेत्रों (लोकसभा और विधानसभा दोनों) से अध्ययन किया गया था, जहां 2013 में नोटा शुरु होने के बाद चुनाव हुए थे।

Source: Trivedi Center for Political Data, Ashoka University

‘इकोनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली ’ के इस अगस्त, 2018 के पेपर के अनुसार,महाराष्ट्र के गढ़चिरौली और छत्तीसगढ़ के बस्तर में महत्वपूर्ण सबूत बताते हैं कि अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का एक वोट एसटी उम्मीदवारों के खिलाफ नोटा के पक्ष में है।’

बस्तर में, अनुसूचित जाति के उम्मीदवारों के विरोध में ओबीसी ने पिछड़ा वर्ग कल्याण मंच (पिछड़ा वर्ग कल्याण मोर्चा) का गठन किया, जो पांचवीं अनुसूची के प्रवर्तन के कारण अनुचित अधिकार प्राप्त कर रहे थे, जो आदिवासी समुदायों को विशेष अधिकार प्रदान करता है।

वामपंथी अतिवाद वाले क्षेत्रों में उच्च नोटा वोट-शेयर देखा गया

नोटा की स्थापना के बाद से, वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित क्षेत्रों ने औसतन, देश के अन्य हिस्सों की तुलना में एक उच्च नोटा वोट-शेयर देखा, जैसा कि हमारे विश्लेषण से पता चलता है।

हमारे विश्लेषण के अनुसार, 2019 में सर्वोच्च नोटा वोट वाले शीर्ष 10 निर्वाचन क्षेत्रों में से छह वामपंथी हिंसा से प्रभावित क्षेत्रों में हैं। इसमें छत्तीसगढ़ का बस्तर भी शामिल है, जहां डाले गए 4.56 फीसदी वोट नोटा के लिए थे - गोपालगंज के बाद दूसरा, जहां 5.04 फीसदी वोट मिले थे।

पश्चिम चंपारण (4.51 फीसदी), जमुई (4.16 फीसदी), नबरंगपुर (3.85 फीसदी), नवादा (3.73 फीसदी) और कोरापुट (3.38 फीसदी) में भी उच्च नोटा वोट-शेयर देखे गए।

Source: Trivedi Center for Political Data, Ashoka University

राज्य-वार आंकड़े भी इस प्रवृत्ति का समर्थन करते हैं: बिहार, छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश, वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित, सभी ने नोटा के वोट-शेयर का अधिक अनुपात देखा है।

नक्सल और माओवादी विद्रोह से प्रभावित क्षेत्रों में उच्च नोटा वोट-शेयर नोटा के संभावित उपयोग के रूप में राज्य मशीनरी के खिलाफ विरोध करने के लिए इशारा करता है।

अक्टूबर 2013 टाइम्स ऑफ इंडिया की इस रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने नोटा का इस्तेमाल "छत्तीसगढ़ में अपने विधानसभा चुनाव के बहिष्कार के आह्वान" के लिए किया, 2013 के राज्य विधानसभा चुनाव से पहले।

रिपोर्ट में कहा गया है कि विद्रोहियों ने बस्तर में डमी ईवीएम के साथ प्रशिक्षण शिविर आयोजित किए, ताकि मतदाताओं को परिचित कराया जा सके और इसके महत्व को "सरकार के उत्पीड़न और शोषण के खिलाफ विरोध" के एक उपकरण के रूप में समझाया।

बाईपोल कॉंटेस्ट में ज्यादातर मतदाताओं ने नोटा चुना

जिन राज्यों ने दो मुख्य राष्ट्रीय पार्टियों ( भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी या उनके सहयोगियों ) के बीच एक प्रत्यक्ष बाईपोल कॉंटेस्ट देखा, उन राज्यों ने एक तीसरे विकल्प के साथ वाले राज्यों की तुलना में उच्च नोटा वोट-शेयर अधिक देखा, जैसा कि हमारे 2019 के चुनावी आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है।

गुजरात, जहां सीधा मुकाबला और बीजेपी और कांग्रेस के बीच था, ने 1.38 फीसदी का नोटा वोट शेयर देखा। बिहार, जिसने बीजेपी-जनता दल (यूनाइटेड) गठबंधन और आईएनसी-राष्ट्रीय जनता दल गठबंधन के बीच बाईपोल कॉंटेस्ट देखा, वहां 2 फीसदी नोटा वोट शेयर था।

इसी तरह, आंध्र प्रदेश, जिसने दो क्षेत्रीय दलों ( तेलुगु देशम पार्टी और युवजन श्रमिका रायथू कांग्रेस पार्टी ) के बीच एक प्रतियोगिता देखी- वहां 1.49 फीसदी नोटा वोट प्राप्त हुए।

उत्तर प्रदेश और दिल्ली, जहां त्रि-कोणीय मुकाबला था,ने क्रमशः 0.84 फीसदी और 0.53 फीसदी नोटा वोट-शेयर दर्ज किए, आपको पता ही है, दिल्ली में आम आदमी पार्टी का तीसरा विकल्प था, उत्तर प्रदेश ने समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन को राष्ट्रीय दलों के विकल्प के रूप में देखा।

(बंसल और मराठे अशोक विश्वविद्यालय में छात्र हैं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 19 अगस्त 2019 को IndiaSpend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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