यवतमाल, अमरावती, नागपुर, मुंबई: 39 वर्षीय बेबी किनके के पति ने 12 साल पहले आत्महत्या कर ली थी। बेबी बताती हैं कि इस घटना से पहले उन्होंने अपने पति के व्यवहार में कुछ भी अजीब या गलत महसूस नहीं किया था।

बेबी के पति शत्रुघ्न कपास किसान थे । वह पूर्वी महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र के मंगुरदा के आदिवासी गांव में रहते थे। 10 सदस्यों के एक संयुक्त परिवार की देखरेख की जिम्मेदारी उनपर थी। शत्रुघ्न हर किसी से विनम्रता के साथ बातचीत करते थे। आख़िरी वक्त तक किसी ने भी शत्रुघ्न के स्वभाव या व्यवहार में किसी तरह का बदलाव नहीं देखा था।

किसी को भी आभास नहीं था कि शत्रुघ्न किसी तरह के तनाव से गुजर रहे हैं। लेकिन तनाव इतना ज्यादा था कि साल 2007 में एक दिन जिंदगी से हार कर उन्होंने अपने ही खेत में जहर खा कर जान दे दी और पीछे पत्नी के लिए छोड़ गए, दो बच्चे और ढेर सारे कर्ज का बोझ।

मंगुरदा में एक स्वयंसेवी स्वास्थ्य कार्यकर्ता शोभा किनके से बेबी की मुलाकात कुछ साल पहले हुई। किनके के साथ काउंसलिंग शुरू होने के बाद ही बेबी को अहसास हुआ कि कैसे छिपे हुए तनाव ने शत्रुघ्न को अपनी जान लेने के लिए मजबूर किया होगा। वह अब सोचती हैं, अगर उन्हें ये पहले पता होता तो वह किसी भी तरह से अपने पति को बचाने की कोशिश कर लेती।

महाराष्ट्र सरकार और विदर्भ क्षेत्र में गैर-सरकारी संगठन मानसिक रोगों के इलाज के प्रयास किए कर रहे हैं। ग्रामीणों के बीच चलाए जा रहे इन प्रयासों में शोभा किनके की महत्वपूर्ण भूमिका है। विदर्भ में किसानों की आत्महत्या करने की बढ़ती घटनाओं को देखते हुए ही इस तरह के कार्यक्रम की शुरुआत की गई है। मानसिक रोग सिर्फ़ किसानों तक ही सीमित नहींं हैं। महिलाओं, गैर-किसानों, किशोरों और युवाओं को भी इसने अपनी चपेट में ले लिया है।

यवतमाल के गांव मंगुरदा में स्वयंसेवी मानसिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता शोभा किनके रोज आस-पास के लोगों से मिलती हैं और उनकी काउंसलिंग करती हैं

सितंबर 2019 में डेक्कन हेराल्ड ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसमें बताया था कि जनवरी और जून 2019 के बीच, महाराष्ट्र भर में 1,300 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। जुलाई 2019 तक दर्ज सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, अकेले विदर्भ के यवतमाल जिले में, इस वर्ष 139 किसानों ने आत्महत्या की है।

सरकार ने स्थिति की गंभीरता को देखते हुए किसानों की काउंसलिंग के लिए प्रेरणा प्रकल्प किसान परामर्श स्वास्थ्य सेवा कार्यक्रम शुरू किया है । साथ ही मानसिक बीमारियों को दूर करने के लिए मौजूदा जिला मेंटल हेल्थ प्रोग्राम (डीएमएचपी) का विस्तार किया है। पीड़ित किसान परिवारों को मानसिक तनाव से निकालने में ये अहम भूमिका अदा कर रहा है। गांव के लोग किनके जैसे स्थानीय स्वयंसेवकों पर भरोसा करते हैं जिन्हें काउंसलर के रूप में प्रशिक्षित किया गया है। लोगों को मदद मिल रही है या नहीं, इसे देखने के लिए वे लोग खुद गांवों का दौरा करते हैं।

राज्य के 36 जिलों में से 14 में प्रेरणा प्रकल्प वर्ष 2015 में शुरू हुआ था। इस कार्यक्रम के तहत, मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आशा कार्यकर्ता), यानी स्थानीय स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के रूप में काम करने वाले स्वयंसेवी महिलाओं को 12 प्रश्न के एक सर्वेक्षण के माध्यम से मानसिक बीमारियों के सामान्य लक्षणों का पता लगाने के लिए प्रशिक्षित किया गया है।

संकट के लक्षण

डिप्रेशन के लक्ष्णों का पता लगाना आसान नहीं है। क्या एक व्यक्ति अच्छी तरह से खा रहा है? क्या वो अच्छी तरह से सो रहा है? क्या वो अपने काम पर ध्यान दे पा रहा है और दोस्तों और परिवार के सदस्यो से बात कर रहा है? क्या वो अपनी फसल या आर्थिक स्थिति को लेकर बहुत ज्यादा परेशान है? क्या वो अलग-थलग रह रहा है? ये कईं सवाल हैं जिनके जवाब से व्यक्ति के अंदर के डिप्रेशन का पता लगाया जा सकता है।

महाराष्ट्र स्वास्थ्य सेवाओं की निदेशक साधना तायडे कहती हैं कि जितने सवालों का जवाब हां में होगा, व्यक्ति को उतनी ही मदद की जरुरत ज्यादा होगी।

यदि आशा कार्यकर्ता को किसी के बारे यह शक होता है कि वह व्यक्ति डिप्रेशन में है तो वह काउंसलर्स की टीम से बात करने के लिेए राज्य की 104 हेल्पलाइन पर कॉल करती है। लक्ष्णों के आधार पर, वह किसी व्यक्ति को प्राइमरी हेल्थ सेंटर में मेडिकल ऑफिसर या जिला अस्पताल में मनोचिकित्सक के पास भेज सकती है।

यवतमाल के मथार्जुन गांव की एक आशा अनीता जंगरमदे रोजाना प्रेरणा प्रकल्प कार्यक्रम के लिए सर्वेक्षण करती हैं।

डीएमएचपी हर जिले में नैदानिक ​​मनोवैज्ञानिकों, मनोचिकित्सकों सामाजिक कार्यकर्ताओं और मनोरोग नर्सों के कर्मचारियों के साथ एक मनोचिकित्सक की उपस्थिति को सुनिश्चित करता है ताकि पीड़ित के इलाज के लिए मेडिकल स्टाफ उपलब्ध हों । यह कार्यक्रम 1997 में रायगढ़ जिले में शुरू हुआ था, लेकिन पिछले साल राज्य के 36 में से 34 जिलों में इसका विस्तार किया गया है। इस दोनों कार्यक्रमों के तहत, मनोचिकित्सकों को अपने जिले की प्रत्येक तहसील में हर महीने शिविर लगाना जरुरी है।

एक आशा कार्यकर्ता की तरह, किनके हर दिन के पहले छह घंटे मंगरुडा में परिवारों के साथ बिताती है। हालांकि, एक आशा कार्यकर्ता से अलग, किनके केवल मरीजों को परामर्शदाताओं या मनोचिकित्सकों के पास ही नहीं भेजती हैं बल्कि जब भी संभव होता है, वह खुद लोगों की काउंसलिंग भी करती हैं। किनके कहती हैं, कि मानसिक रुप से पीड़ित व्यक्ति पागल नहीं हैं। इसलिए लोगों को बताना जरूरी है कि वे ऐसे लोगों पर न हंसे और न ही उनसे नाराज हों।

इस तरह के मामलों में पागल के बजाय, ग्रामीणों को 'मानसिक रोगी' कहना सिखाया जाता है। ‘मानसिक रोगी’ शब्द धीरे-धीरे जिलों में फैल रहा है और धीरे-धीरे इससे जुड़े गहरे कलंक मिट रहे हैं।

चूंकि किनके अकेले सीमित काम ही कर सकती हैं, इसलिए उन्होंने परिवारों के भीतर कई कथजियों (कार्यवाहक) को प्रशिक्षित किया है। मंगुरदा में बीस वर्षीय गीता की मां जीजा सिज़ोफ्रेनिया से पीड़ित हैं। उनकी सेहत की देखभाल के लिए प्रभारी गीता हैं। जीजा की सिज़ोफ्रेनिया बीमारी तीन साल पहले तब सामने आई, जब उसका भाई अन्य रिश्तेदारों के साथ रहने के लिए दूसरे गांव चला गया था। वह लगातार उसके बारे में पूछा करती थी।

धीरे-धीरे, उन्होंने खाना और सोना बंद कर दिया और गांव में फटे-पुराने कपड़ों में घूमने लगी। किनके से मिली ट्रेनिंग के बाद गीता इस बात का ध्यान रखती है कि उसकी मां खाना खाए, सोए, स्नान करे और ठीक कपड़े पहने। वह मां को घर के कामों में भी शामिल करती है। गीता कहती है कि वह कोशिश करती है कि उसकी मां को अकेलापन महसूस न हो।

लोगों के लिए नई उम्मीद

कुंडी गांव में, गीता और जीजा के घर से लगभग 30 किमी दूर, एक कपास किसान बप्पू राव पिंडर का बेटा भी सिज़ोफ्रेनिया से पीड़ित है। पिंडर अपने बेटे की देखभाल करने का तरीका सिखाने का श्रेय स्वयंसेवक सुरेखा विकल चौधरी को देते हैं।

आठ साल पहले जब पिंडर का बेटा, प्रदीप पहली बार बीमार पड़ा था, तो वह अपने पिता के साथ बाहर घूमता था, रात में सड़कों पर भटकता था। इस दौरान कभी-कभी लोगों से उसका झगड़ा भी हो जाता था। पिंडर उसे एक स्थानीय झाड़-फूंक वाले के पास ले गए। बाबा के निर्देश पर उन्होंने अपनी मुर्गियों की बलि भी दी। लेकिन जब उनके बेटे की हालत में सुधार नहीं हुआ, तो वह यवतमाल में एक निजी क्लीनिक गए। हालांकि,नियमित इलाज के लिए यवतमाल उनके घर से काफ़ी दूर था।

इलाज के लिए निजी क्लीनिक तक जाना दो साल तक जारी रहा, जब तक कि उनकी चौधरी से मुलाकात नहीं हुई। चौधरी 2013 में गांव के परिवार सहायता समूह की सदस्य थीं। चौधरी ने उसे सिज़ोफ्रेनिया के लक्ष्णों के बारे में बताया और पिंडर को मासिक तहसील शिविर जाने के लिए प्रोत्साहित किया, जिससे प्रदीप को नियमित रुप से सही दवा मिल सके।

प्रदीप अब नियमित रुप से दवा ले रहा है। उसकी स्थिति में सुधार हो रहा है। वह अब नाराज नहीं दिखता और हिंसक भी नहीं होता। अब पहले की तरह वह आधी रात को घर से भाग नहीं जाता है। वह अब परिवार के खेत में काम करता है और कपास की उपज में सहायता करता है।

यवतमाल के कुंडी गांव में, कपास किसान बापू राव पिंडर इस बात के लिए शुक्रगुज़ारर हैं कि उनके सिज़ोफ्रेनिक बेटे की देखभाल के लिए मानसिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं ने रास्ता बताया।

सरकार के कार्यक्रमों के अलावा, क्षेत्र के कई गैर सरकारी संगठन भी राज्य की पहल के समर्थन के लिए मानसिक स्वास्थ्य सेवा में सक्रिय हैं। उदाहरण के लिए, दो एनजीओ ( नागपुर में स्थित प्रकृति और गोवा में स्थित संगत ) के नेतृत्व में चलने वाला विश्राम कार्यक्रम। इस कार्यक्रम से नागपुर से 165 किलोमीटर पश्चिम विदर्भ के अमरावती जिले के घाटलाडकी गांव में रहने वाले किसान दिनेश इंगोले को मदद मिली है।

दस साल पहले, इंगोले पहली बार बीमार पड़े थे। वह अपने घर के आसपास भटकते रहते थे। उन्हें लगता था कि सब उसके खिलाफ बात करते हैं। उन्होंने अपने परिवार के लोगों और सड़क पर चलने वाले लोगों से लड़ाई करनी शुरु कर दी थी।

इंगोले धीरे-धीरे अपने मित्रों और पड़ोसियों से दूर होते चले गए। लोग उन्हें पागल और खतरनाक समझने लगे थे। जैसे-जैसे उसकी बीमारी गहरी होती गई, वह शारीरिक रूप से कमजोर और काम करने में असमर्थ हो गए। उनके परिवार के लिए अमरावती में महंगे निजी डॉक्टरों से इलाज कराना मुश्किल था। फिर 2014 में उनकी मुलाकात स्थानीय मानसिक स्वास्थ्य स्वयंसेवक, सैयद यूनिस से हुई, जिन्होंने विश्राम ( विदर्भ तनाव और स्वास्थ्य कार्यक्रम ) के तहत उनकी मदद की।

दवा, परामर्श और इस रोग को लेकर अब एक समझ विकसित कर चुके परिवार के साथ, इंगोले की सेहत में धीरे-धीरे सुधार हो रहा है।

मानसिक बीमारी की जल्द पहचान

सरकारी कार्यक्रमों और काम करने वाले गैर सरकारी संगठनों का लक्ष्य है कि वे मानसिक बीमारी की जल्द से जल्द पहचान कर लें ताकि उसका इलाज शुरु हो जाए। लेकिन पर्याप्त स्टाफ और बुनियादी ढांचे की कमी से इस लक्ष्य तक पहुंचने में मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।

जिन जिला अस्पतालों में मनोचिकित्सक तैनात हैं लेकिन वे अक्सर काफी दूर स्थित होते हैं, जिससे मरीजों का वहां तक नियमित जाना संभव नहीं हो पाता है। उदाहरण के लिए, तेलंगाना सीमा के करीब केलापुर तहसील में मंगुरदा, यवतमाल शहर से 70 किमी दूर है। वहां के जिला अस्पताल में मनोचिकित्सक बैठते हैं।

अगस्त 2019 तक दर्ज किए गए तायडे के कार्यालय के आंकड़े बताते हैं कि प्रेरणा प्रकल्प के तहत मनोचिकित्सकों के 14 पदों में से चार फिलहाल खाली हैं। यहां केवल मनोरोग विशेषज्ञों की कमी नहीं है;स्थानीय स्तर पर सेवाकर्मियों की भी कमी है।

तायडे कहते हैं, “सरकारी योजनाओं में लगभग 60% पद खाली हैं। हम मानव संसाधन की इस समस्या के समाधान के लिए सामुदायिक स्तर पर लोगों को प्रशिक्षित करने की कोशिश कर रहे हैं। ”

अगस्त 2019 तक राज्य के आंकड़ों के अनुसार, राज्य के 60,000 आशा कार्यकर्ताओं में से आधे से भी कम को प्रेरणा प्रकल्प योजना के तहत प्रशिक्षित किया गया है। अप्रैल 2018 से अगस्त 2019 तक मानसिक स्वास्थ्य सेवा के लिए सिर्फ 45.48% आशा कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित किया गया था। 2015-16 में, जो कि प्रेरणा प्रकल्प का पहला वर्ष था, 20,185 आशा कार्यकर्ताओं ने इस कार्यक्रम के तहत काम किया। चार साल में, प्रेरणा प्रकल्प योजना के तहत आशा कार्यकर्ताओं की संख्या सिर्फ 740 बढ़ी है।

राज्य के आंकड़ों के अनुसार, डीएमएचपी के तहत कर्मियों के लिए प्रशिक्षण भी अपर्याप्त है। 45.36% आशा कार्यकर्ता, 34.57% पैरामेडिकल स्टाफ और 48.39% मेडिकल ऑफिसरों को ही ट्रेनिंग मिली है।

विशेष रूप से किसानों की जांच करने के लिए अप्रैल से अगस्त 2019 तक 34 जिलों में 46 सत्र आयोजित किए गए थे। सत्र में आए 2,079 किसानों में से, 261 में मानसिक बीमारी का पता चला और डीएमएचपी प्रोटोकॉल के अनुसार उनका इलाज किया गया। इसके अलावा, स्कूल के बच्चों के लिए 282 सत्र हुए, जहां 298 बच्चों का इलाज किया गया था। बुजुर्गों के लिए 103 सत्र हुए, जिसके बाद 394 बुजुर्गों का इलाज किया गया। कैदियों के लिए 96 सत्र आयोजित किए गए, जिसके बाद 1,390 कैदियों का इलाज हुआ। किसानों में मानसिक बीमारी को पकड़ पाना सबसे मुश्किल काम है। डीएमएचपी स्टाफ को शाम तक उनके लिए इंतजार करना पड़ता है। जब तक कि वे खेतों में अपना काम पूरा नहीं कर लेते, वे नहीं आते। कभी-कभी, उन्हें इस तरह की जांच में शामिल होने के लिए मनाना भी पड़ता है।

Source: Data shared with IndiaSpend by director, health services, Maharashtra

नेटवर्क निर्माण की चुनौतियां

वर्ष 2014 और 2015 के बीच के 18 महीने में, अमरावती के 30 गांवों में विश्राम कार्यक्रम चला। अन्य गैर सरकारी संगठनों ने भी अपने मानसिक स्वास्थ्य परियोजनाओं के साथ कुछ काम शुरु किया। चौधरी और किनके सोसाइटी फॉर रूरल एंड अर्बन जॉइंट एक्टिविटीज़ या सृजन से जुड़े हैं। सृजन नागपुर और मंगरुदा में स्थित है। पूरे यवतमाल में इस संगठन के 12 मानसिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता काम करते हैं।

यह संगठन वर्ष 2000 से यवतमाल में मातृ और बाल स्वास्थ्य सेवा पर काम कर रहा था। फिर उन्हें पता चला कि जिन शिशुओं की उन्होंने मदद की थी, वे अब किशोर या युवा वयस्क हो चुके हैं और वे डिप्रेशन का शिकार हैं। सृजन का उद्देश्य सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं का एक नेटवर्क तैयार करना है, जो जरुरत पड़ने पर आशा कार्यकर्ताओं की मदद कर सके।

सृजन के सह-संथापक, अजय डोलके बताते हैं, "सरकार को सामुदायिक आधार कल्याण को समझने की जरूरत है। मानसिक रोग पीड़ितों को सहायता परिवार और पड़ोसियों को साथ लेकर शुरू होनी चाहिए। देखभाल कैसे करें, इस पर उनको सलाह दी जानी चाहिए। यदि किसी को मनोचिकित्सक के पास जाने की आवश्यकता है, तो उसके पड़ोसी को इस बात का भरोसा देना चाहिए कि उसके खेतों या मवेशियों की देखभाल हो जाएगी। ऐसा तभी संभव है जब लोग यह समझ लें कि मानसिक बीमारी वास्तव में एक किस्म बीमारी है।”

एनजीओ के कार्यकर्ताओं को लगता है कि वे आशा कार्यकर्ताओं से बेहतर प्रशिक्षित हैं। वे न केवल पीड़ितों के लिए, बल्कि उनकी देखभाल करने वालों के साथ भी अपना समय देते हैं और उनके साथ भी वे घुलते-मिलते हैं, जिनके परिजनों ने आत्महत्या कर ली है। वे मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े अंधविश्वास और कलंक से लड़ते हैं और पीड़ितों के बारे में बात करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली भाषा और शब्दावली को बदलते हैं। यवतमाल में, सृजन की मदद से शुरु किया गया परिवार सहायता समूह, देखभाल करने वालों को अपने बोझ के बारे में बात करने और सहायता पाने के लिए अवसर देता है।

नागपुर जिला अस्पताल के मनोचिकित्सक अभिषेक ममर्दे ने विश्राम के लिए घाटलाडकी और असीगांव गांवों में स्वयंसेवकों को प्रशिक्षित किया है। वह कहते हैं "हमें स्वयंसेवकों को इस बात के लिए प्रशिक्षित करना पड़ा कि वे लोगों की सुनें, धैर्य रखें, कठोर न बनें और लोग अपनी जिंदगी के बारे में क्या सोचते हैं और आगे क्या करना चाहते हैं, इस पर उनकी बातों को खुलकर सुनें। उन्हें प्रश्न पूछने के लिए भी प्रशिक्षित करना पड़ा।”

स्वयंसेवकों को इस सच को समझना होगा कि 'तनाव' शब्द का इस्तेमाल गंभीर चिंता या डिप्रेशन जैसी बीमारियों की शुरुआत हो सकती है। अमरावती के घाटलाडकी गांव के एक किसान 40 वर्षीय ज़हीर सौदागर को कुछ साल पहले सूखे के दौरान भयानक सिरदर्द होने लगा। इसी दौरान उन्हें चार पारिवारिक शादियों में खर्च भी करना पड़ा था। हर कोई कहता रहा कि वह 'तनाव' से पीड़ित है। वह बताते हैं, “मैंने हर समय एक भारीपन महसूस किया। मेरा दिल और मेरा शरीर भारी था। मैं डर गया था कि मुझे कोई बड़ी बीमारी हो जाएगी।”

केवल फसलों का खराब होना और कर्ज़ों का बोझ ही नहीं है, जो ग्रामीणों को निराश कर देता है। निराशा शादी जैसे समारोह में खर्च न कर पाने या अन्य अकाक्षाओं के पूरे न होने के कारण भी होती है। सौदागर निराश रहने लगे, क्योंकि उन्होंने महसूस किया कि वह अपने आसपास के लोगों की अकांक्षाओं पर खरे नहीं उतर पा रहे हैं। विश्राम द्वारा की गई काउंसलिंग से उन्होंने समझा कि उनके सिरदर्द का कारण उनकी चिंता थी। कार्यक्रम के परिणाम से पता चला कि 18 महीने की दौरान डिप्रेशन का शिकार लोगों के लिए इलाज की मांग 4.3% से बढ़कर 27.2% हुई है।

जिम्मेदारी का बोझ

प्रशिक्षण और जागरूकता के बावजूद, सामुदायिक सामाजिक कार्यकर्ता, स्वयंसेवक, और आशाएं उन बड़ी जिम्मेदारी के बारे में चिंता करती हैं, जो उन पर सौंपी गई है।

32 वर्षीया आशा कार्यकर्ता अनीता जांगरमेड, ज़ारी जमानी तहसील में मथारजुन गांव में रोजाना परिवारों से मिलती हैं। मानसिक स्वास्थ्य पर 12-प्रश्न के सर्वेक्षण के जवाब के साथ उनका रजिस्टर, उनके काम का सबूत है। उन्हें अक्सर 'हां' और 'नहीं' में प्रतिक्रियाएं मिलती हैं, जिसे वे रजिस्टर में नोट करती हैं।

एक-शब्द के जवाब से किसी व्यक्ति की मन:स्थिति के बारे में ज्यादा पता नहीं चल पाता है। वह बताती हैं, "अगर कोई खुद को खत्म कर लेने की सोचता है या अगर वह घर पर झगड़ा करता है और कीटनाशक पी लेता है, तो मैं उसे मरने से कैसे रोक सकती हूं?"

जब मनोचिकित्सक नहीं होते हैं तो उन्हें ग्रामीणों के गुस्से का सामना भी करना पड़ता है। यवतमाल जिले में, जहां के ज्यादातर इलाकों में नेटवर्क काफी कमजोर रहता है, वहां यह पता लगाने का कोई तरीका नहीं है कि मनोचिकित्सक जिला अस्पतालों या मासिक तहसील शिविरों में मौजूद हैं या नहीं।

किनके कहती हैं, “यदि निर्धारित दिनों में मनोचिकित्सक नहीं रहते हैं, तो उन पर लोगों का जो विश्वास है, वह हिल जाता है।” किनके को उन लोगों के गुस्से का सामना करना पड़ा है, जिन्होंने केवल मनोचिकित्सक से परामर्श लेने के लिए लंबी दूरी की यात्रा की थी।

तहसील-कस्बों की फार्मेसियों में गंभीर मानसिक बीमारियों के लिए दवाओं की कमी एक और गंभीर मुद्दा है। किसी भी स्थानीय एनजीओ या निजी संगठनों को थोक में ‘शेड्यूल एच’ दवाओं के स्टॉक करने की अनुमति नहीं है। उन दवाओं को किसी भी दुकान से ऐसे ही खरीदा नहीं जा सकता है। दवा खरीदने के लिए केयरटेकर और पीड़ित हमेशा यवतमाल जाते हैं। कई लोग लम्बी अवधि के लिए दवा लिए बिना चले आते हैं, जिससे उनकी स्थिति बिगड़़ जाती है।

तायडे जैसे अधिकारी जानते हैं कि इन सभी मुद्दों को प्रत्येक जिले में सभी संबंधित विभागों से समन्वित प्रतिक्रिया की आवश्यकता है, विशेष रूप से ख़ाली पदों को भरने के मामले में।

केंद्र सरकार ने महाराष्ट्र के चार मानसिक अस्पतालों में से तीन ठाणे, पुणे और नागपुर को सेंटर ऑफ एक्सेलेंस में बदलने का फ़ैसला लिया है। इससे प्रशिक्षित लोगों को तैयार करने में मदद मिल सकती है, हालांकि इसमें काफ़ी वक्त लगेगा। इसका नतीजा ये होगा कि अगले वर्ष से मनोचिकित्सा, मनोवैज्ञानिक, मनोरोग सामाजिक कार्य और मानसिक नर्सिंग संख्या ज़्यादा होगी।

इस रिपोर्ट के लिए ठाकुर फैमिली फाउंडेशन की ओर से सहयोग मिला था। इस रिपोर्ट की सामग्री पर ठाकुर फैमिली फाउंडेशन का कोई संपादकीय नियंत्रण नहीं है।

इससे पहले यह आलेख हेल्थचेक पर यहां प्रकाशित हुआ था।

(वाल स्वतंत्र पत्रकार हैं और दिल्ली में रहती हैं।)

यह आलेख अंग्रेजी में 11 अक्टूबर 2019 को IndiaSpend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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