नई दिल्ली: उत्तर प्रदेश और बिहार में प्रसव के दौरान होने वाली महिलाओं की मौत के अनुपात (एमएमआर) में सुधार देखने को मिला है। उत्तर प्रदेश में प्रसव के दौरान मरने वाली महिलाओं का अनुपात 2015-17 के 216 से सुधर कर 2016-18 में 197 पर आ गया है। इसी दरमियान बिहार में यह अनुपात 165 से घटकर 149 पर आ गया है। नेशनल सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम (एसआरएस) के 16 जुलाई 2020 को देश भर में 2016-18 में प्रसव के दौरान होने वाली महिलाओं की मौत के आंकड़े जारी किए हैं।

देश भर के स्तर पर माओं की मौत का अनुपात, 2015-17 के 122 से घटकर 2016-18 में 113 रह गया है। इससे पहले 2014-16 में यह अनुपात 130 था।

हर एक लाख जीवित बच्चों के जन्म या गर्भावस्था के दौरान या गर्भपात के 42 दिन के अंदर 15 से 49 साल की उम्र की महिलाओं की मौत के अनुपात को, जिसका संबंध गर्भ धारण या उसकी वजह से होने वाली जटिलताओं से है, उसे मातृ मृत्यु अनुपात कहा जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के 17 एसडीजी यानी सस्टेनेबल डवेलेपमेंट गोल्ज़ में तीसरा गोल है बेहतर स्वास्थ्य, जिसका पहला लक्ष्य है साल 2030 तक प्रसव के दौरान होने वाली महिलाओं की मौत के अनुपात को 70 या इससे कम करने का, भारत में यह अनुपात अभी 113 है।

लेकिन कुछ विशेषज्ञ माओं की मौत को दर्ज करने वाले इस तरीक़े से सहमत नहीं हैं। “यहआश्चर्यजनक है कि हम अब भी एसआरएस पर निर्भर हैं, जो कि सिर्फ़ एक सैम्पल के आंकड़े देता है। हर ज़िले में एक सर्विलेंस सिस्टम होना ज़रूरी है, जो माओं की मौत को दर्ज करे। हमारे पास आशा कार्यकर्ताओं का इतना विशाल नेटवर्क है और फिर भी हम एसआरएस पर निर्भर हैं,” ‘सहज- सोसायटी फ़ॉर हेल्थ अलटरनेटिव्स’ एनजीओ की सह-संस्थापक और जच्चा-बच्चा सेहत, प्रजनन स्वास्थ्य और गर्भपात पर काम करने वाले ‘कॉमनहेल्थ’ की संस्थापक सदस्य, रेणु खन्ना ने दलील दी।

देश में स्वास्थ्य और पोषण योजनाओं में गर्भवती महि्लाओं पर ख़ास ध्यान दिया गया है और राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन में इनके लिए विशेष योजनाएं जैसे- जननी-शिशु सुरक्षा कार्यक्रम, जननी सुरक्षा योजना, प्रधान मंत्री सुरक्षित मातृत्व अभियान, आदि- भी चलाई जा रही है, जिनकी वजह से देश में पिछले एक दशक में माओं की अनुपात में काफ़ी कमी आई है।

उत्तर प्रदेश का एमएमआर 197 है, जो देश के औसत से काफ़ी ख़राब है और यह देश का दूसरा सबसे ख़राब राज्य है। बिहार 149 के अनुपात के साथ सातवें नम्बर पर है। साल 2015-16 के मुक़ाबले उत्तर प्रदेश और बिहार दोनों ही राज्यों के आंकड़ों में सुधार दर्ज किया गया है।

लेकिन 2016-18 के आंकड़ों में आया यह सुधार क्या 2020 में बरकरार रह पाएगा? कोविड-19 की वजह से देश भर में हुए लॉकडाउन के दौरान कुछ समय के लिए गर्भपात की सेवाएं स्थगित कर दी गई थीं, कॉंट्रेसेप्टिव गोलियों की भी कमी थी और 18.5 लाख महिलाओं को गर्भपात की सुविधाएं नहीं मिल पाई थीं। असुरक्षित गर्भपात भारत में महिलाओं की मौत का तीसरा सबसे बड़ा कारण है।

उत्तर प्रदेश में माओं की मौत का अनुपात

देश में प्रसव के दौरान महिलाओं मौत की स्थिति को बेहतर समझने के लिए एसआरएस बुलेटिन में राज्यों को तीन श्रेणी में बांटा गया है-- एम्पावर्ड एक्शन ग्रुप जिसमें बिहार और उत्तर प्रदेश समेत 9 राज्य शामिल हैं; दक्षिणी राज्य और अन्य राज्य।

उत्तर प्रदेश में 2016-18 के आंकड़ों में पहले के मुक़ाबले सुधार आया है, हालांकि यह आंकड़ा 2014-16 में 201 था जो 2015-16 में बढ़ कर 216 पर पहुंच गया, पर 2016-18 में यह थोड़े से सुधार के साथ 197 पर है।

उत्तर प्रदेश स्वास्थ्य के मामले में देश का सबसे पिछड़ा राज्य है, नीति आयोग के 2019 के हेल्थ इंडेक्स में यह सामने आया। इस इंडेक्स में देश भर के राज्यों को स्वास्थ्य के क्षेत्र में उनके प्रदर्शन के अनुसार अंक दिए गए और उत्तर प्रदेश को इसमें सबसे कम, 28.6 अंक मिले।

इंडेक्स के अनुसार उत्तर प्रदेश का टोटल फ़र्टिलिटी रेट 3.1 है, यानी 15 से 49 साल की उम्र की महिलाएं औसतन 3 बच्चे पैदा कर रही हैं, जो देश भर में दूसरा सबसे ज़्यादा औसत है। ज़्यादा फ़र्टिलिटी रेट, राज्य में ग़रीबी, माओंं में कम साक्षरता और लैंगिक असमानता की तरफ़ इशारा करता है।

प्रसव के दौरान महिलाओं की मौत को कम करने के लिए ज़रूरी है कि उनकी सही देख-भाल की जाए। इसके लिए संस्थागत प्रसव के आंकड़ों पर नज़र डालना ज़रूरी है। उत्तर प्रदेश में संस्थागत प्रसव के आंकड़े देश में सबसे ख़राब हैं, राज्य की लगभग आधी गर्भवती महिलाएं सरकारी या प्राइवेट अस्पतालों में प्रसव नहीं करा पाती हैं।

उत्तर प्रदेश में सिर्फ़ 0.9% गर्भवती महिलाएं गर्भधारण की पहली तिमाही में प्रसव पूर्व जांच के लिए पंजीकरण कराती हैं।

बिहार में माओं की मौत का अनुपात

बिहार में 2014 से 17 तक एमएमआर 165 पर स्थिर रहा, पर 2016-18 में इसमें थोड़ा सुधार आया है और अब यह 149 पर है।

स्वास्थ्य सम्बन्धी आंकड़ों में बिहार का प्रदर्शन, देश में उत्तर प्रदेश के बाद दूसरा सबसे ख़राब है। बिहार 32 अंकों के साथ देश भर में सिर्फ़ उत्तर प्रदेश से बेहतर है। दोनों ही राज्य, देश के उन छह सबसे ख़राब राज्यों में शामिल हैं, जहां स्वास्थ्य के क्षेत्र में सबसे कम सुधार नज़र आया है, नीति आयोग के 2019 के हेल्थ इंडेक्स के अनुसार।

महिलाओं की ख़राब स्थिति का एक और सूचक, टोटल फ़र्टिलिटी रेट भी बिहार में सबसे ज़्यादा, 3.2 है। ज़्यादा फ़र्टिलिटी रेट बताता है कि महिला स्वास्थ्य पर राज्य में उचित ध्यान नहीं दिया जाता है, नीति आयोग की इंडेक्स के अनुसार।

संस्थागत प्रसव की माओं की मौत के अनुपात कम करने में एक अहम भूमिका है, प्रसव के दौरान सही उपकरण और स्वच्छता, जच्चा और बच्चा, दोनों के स्वास्थ्य के लिए बहुत ज़रूरी है। घर पर प्रसव के आंकड़े, सीधे तौर पर माओं और शिशुओं की मौत से जुड़े हुए हैं। बिहार में यह आंकड़ा देश में दूसरा सबसे ख़राब है। यहां 40% से भी ज़्यादा महिलाएं घरों में ही बच्चों को जन्म देती हैं।

बिहार में 16% गर्भवती महिलाएं अपनी पहली तिमाही में प्रसव पूर्व जांच के लिए पंजीकरण कराती हैं। गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य और देखभाल के लिए महत्वपूर्ण, एएनएम या सहायक नर्स, दाई के लगभग 60% पद राज्य में ख़ाली हैं और इनकी भर्ती नहीं की गई है। साथ ही राज्य के प्राथमिक और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में स्टाफ़ नर्स के लगभग 50% और मेडिकल ऑफ़िसर के 60% से भी ज़्यादा पद ख़ाली हैं, नीति आयोग की इस इंडेक्स में बताया गया।

भारत के मातृ मृत्यु के अनुपात में सुधार

सबसे ज़्यादा (लगभग 65%) माओं की मौत 20 से 29 साल की उम्र की महिलाओं में देखी गई। 15 से 19 साल की उम्र की किशोरियों में यह 5% दर्ज की गई।

किसी भी इलाक़े में महिलाओं के प्रजनन स्वास्थ्य का सबसे बड़ा मानक है, वहां का प्रसव के दौरान महिलाओं की मौत का अनुपात। कई महिलाओं की मौत प्रजनन आयु के बीच, प्रसव या गर्भपात के दौरान, या जन्म देने के बाद हो जाती है, एसआरएस बुलेटिन के अनुसार।

देश में सबसे ख़राब एमएमआर असम का है जहां हर प्रति एक लाख प्रसवों के दौरान 215 महिलाओं की मौत हो जाती है, इसमें दूसरे नम्बर पर उत्तर प्रदेश (197) है। इसके बाद मध्य प्रदेश (173), छतीसगढ़ (159), राजस्थान (164), ओडिशा (150) और बिहार (149) आते हैं।

हालांकि देश के औसत में सुधार आया है, मगर छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, पंजाब और उत्तराखंड में प्रसव के दौरान महिलाओं की मौत का अनुपात बढ़ा है। छत्तीसगढ़ में एमएमआर 2015-17 के 141 से 159 हो गया है। इसमें पश्चिम बंगाल में 94 से 98, पंजाब में 122 से 129 और उत्तराखंड में 89 से 99 की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है।

“जहां औसत एमएमआर कम हो रहा है वहां भी काफ़ी असमानता है, कुछ इलाक़े ऐसे हैं जहां यह अनुपात बहुत ज़्यादा है क्योंकि वहां ध्यान ही नहीं दिया जाता है, पर यह सब औसत में छुप जाता है और हम खुश होने लगते हैं कि हालात सुधार रहे हैं,” रेणु ने कहा।

“हज़ारों महिलाएं इस गिनती में नहीं आती पर उन्हें मेडिकल की भाषा में ‘नीयर मिस’ कहते हैं यानी जो महिला मरते-मरते बची हो। ऐसी महिलाओं की क्या स्थिति है, उनका पोषण और प्रजनन स्वास्थ्य कैसा है यह देखना ज़रूरी है। एमएमआर को सिर्फ़ एक आंकड़े के तौर पर नहीं देख सकते हैं, इसके साथ ही देखना पड़ेगा कि कितनी महिलाएं अनीमिक हैं, कितनी कुपोषित हैं, संस्थागत प्रसव का प्रतिशत कितना है, सामाजिक स्थिति क्या है,” रेणु ने बताया।

लॉकडाउन का असर

कोविड-19 की वजह से देश भर में हुए लॉकडाउन के दौरान कुछ समय के लिए गर्भपात सुविधाएं स्थगित कर दी गई थीं, कॉंट्रसेप्टिव गोलियों की भी कमी थी और 18.5 लाख महिलाओं को गर्भपात की सुविधाएं नहीं मिल पाई थीं, इंडियास्पेंड ने 5 जुलाई की इस रिपोर्ट में इसके बारे में बताया था।

असुरक्षित गर्भपात भारत में माओं की मौत का तीसरा सबसे बड़ा कारण है।

अगर सितम्बर 2020 तक माहौल सामान्य होता है और परिवार नियोजन की सुविधाएं धीमी गति से शुरु होती हैं तो इसकी वजह से साल 2020 में प्रसव के दौरान 2,165 अधिक माओं की मौत हो सकती हैं। सही कॉंट्रेसेप्शन की कमी से सरकार का परिवार नियोजन कार्यक्रम 20% तक प्रभावित हो सकता है, यानी एमएमआर बढ़ने की भी आशंका है, मई 2020 में आए एक शोध में कहा गया।

यदि तुरंत क़दम नहीं उठाए जाते हैं तो भारत ने प्रसव के दौरान माओं की मौत के अनुपात को कम करने में जितनी तरक़्क़ी की है वह उसे खो सकता है और आने वाले समय में यह भारत को अपने एमएमआर के लक्ष्य से पीछे खींच सकता है, इस शोध में कहा गया।

(साधिका, इंडियास्पेंड के साथ प्रिन्सिपल कॉरेस्पॉंडेंट हैं।)

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