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वर्ष 2001 से 2013 के बीच पुलिस हिरासत में कम से कम 1,275 लोगों की मौत हुई है लेकिन पुलिस हिरासत में होने वाली 50 फीसदी से भी कम मौत के मामलों को पंजीकृत किया गया है। यह जानकारी राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों में सामने आई है।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) द्वारा सूचित न्यायिक हिरासत में होने वाली मौतों– या जेल में होने वाली मौत – की संख्या काफी अधिक है।

2001 से 2010 के बीच न्यायिक हिरासत में होने वाले लोगों की संख्या 12,727 दर्ज की गई है।

लोकसभा में गृह मंत्री के एक जवाब के अनुसार, बाद के वर्षों (2013 के बाद) के लिए आंकड़े संकलित किए जा रहे हैं।

सदी के अंत तक, सबसे कम मौतों की संख्या (70) 2010 में दर्ज की गई है जबकि सबसे अधिक संख्या 2005 (128 मौतें) में दर्ज की गई हैं। औसतन, भारत में हर वर्ष पुलिस हिरासत में 98 लोगों की मौत होती है।

पुलिस हिरासत में होने वाली मौतें, 2001-2013

Source: National Crime Records Bureau

टॉर्चर इन इंडिया 2011, एशियाई मानवाधिकार केन्द्र (एसीएचआर ) की एक रिपोर्ट, के अनुसार यह आंकड़े "सही तस्वीर" को प्रतिबिंबित नहीं करते हैं क्योंकि वे सशस्त्र बलों की हिरासत में होने वाली मौतों को शामिल नहीं करते हैं। रिपोर्ट में उन उद्हारणों का भी उल्लेख किया गया है जहां हिरासत में होने वाली मौतों को दर्ज नहीं किया गया है या एनएचआरसी द्वारा अभिलिखत नहीं किया गया है।

2001 से 2013 के दौरान महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और गुजरात में हिरासत में होने वाले मौतों के सबसे अधिक मामले दर्ज किए गए हैं जबकि बिहार में ऐसे केवल छह मामले दर्ज हैं।

सबसे अधिक एवं सबसे कम हिरासत में मौत वाले राज्य, 2001 से 2013

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Source: National Crime Records Bureau

बड़े राज्यों में, इस अवधि के दौरान, हरियाणा में हिरासत में होने वाली मौत का हर मामला दर्ज किया गया है। मणिपुर , झारखंड और बिहार राज्यों में भी , हिरासत में होने वाली मौतों की 100 फीसदी मामले दर्ज हुए हैं लेकिन केवल इन राज्यों ने केवल दो, तीन और छह मौतों की सूचना दी है।

इसकी तुलना में, महाराष्ट्र में केवल 11.4 फीसदी हिरासत में होने वाली मौतों के मामले दर्ज किए गए है। हालांकि यह संभव है कि कई मौतों को एक मामले के तहत दर्ज किया गया है।

हिरासत में मौत के अनुपात के रुप में दर्ज मामले

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Source: National Crime Records Bureau

राष्ट्रीय स्तर पर,पुलिस हिरासत में हरेक 100 मौतों के लिए 2 पुलिसकर्मियों को दोषी ठहराया गया है - हिरासत में होने वाली मौतों के लिए केवल 26 पुलिस अधिकारियों को दोषी ठहराया गया है।

पुलिसकर्मियों को सज़ा मिलने की संभावना आरोपपत्र दाखिल करते वक्त ही कम हो जाती है: दर्ज किए गए प्रत्येक 100 मामलों पर 34 पुलिसकर्मियों के खिलाफ आरोपपत्र दाखिल किया जाता है और आरोपपत्र दाखिल किए गए 12 फीसदी पुलिसकर्मी दोषी पाए गए हैं।

महाराष्ट्र में, केवल 14 फीसदी मामलों में पुलिसकर्मियों के खिलाफ आरोपपत्र दाखिल किया गया है और इनमें से किसी को भी दोषी नहीं पाया गया है। उत्तर प्रदेश में 71 पुलिसकर्मियों के खिलाफ आरोपपत्र दाखिल हुए हैं एवं 17 को दोषी पाया गया है। छत्तीसगढ़ में, कुल पुलिसकर्मियों के खिलाफ दाखिल किए गए आरोपपत्र में से 80 फीसदी को दोषी ठहराया गया है।

2010 में, लोकसभा द्वारा पारित हुआ यातना रोकथाम विधेयक अब समाप्त हो गया है। यह विधेयक अत्याचार के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन की अभिपुष्टि के उदेश्य से पेश किया गया था।

जबकि, शिकायतों पर एक छह महीने की समय सीमा और यातना की संकीर्ण परिभाषा सहित बिल में कई समस्याएं थीं, विपक्ष के अपने शुरुआती मंजूरी के लिए बुलाया था।

(विप्रा एलएएमपी फेलोशप के तहत संसद के एक सदस्य की पूर्व विधायी सहायक रही हैं, साथ ही ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में पब्लिक पॉलिसी की छात्र है।)

यह लेख मूलत: अंग्रेज़ी में 17 जून 2016 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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