नई दिल्ली और मुंबईः 1 दिसंबर, 2019 से लेकर अब तक राजस्थान और गुजरात के छह सरकारी अस्पतालों से 600 से ज़्यादा नवजात शिशुओं की मौत की ख़बर है।

राजस्थान में कोटा के जे के लोन अस्पताल में दिसंबर में 101 से ज़्यादा नवजात शिशुओं की मौत हुई है। जोधपुर के उम्मेद और एमडीएम अस्पताल में यह संख्या 102, और बीकानेर के सरदार पटेल मेडिकल कॉलेज में 124 थी। गुजरात में राजकोट के पंडित दीनदयाल उपाध्याय अस्पताल में 111 नवजात शिशुओं की मौत हुई और अहमदाबाद सिविल अस्पताल में यह संख्या 85 थी।

2018 में देश भर में 721,000 शिशुओं की मौत हुई थी, जैसा कि संयुक्त राष्ट्र के बाल मृत्यु दर अनुमानों में बताया गया है। यानी 2018 में औसतन हर रोज़ 1,975 शिशुओं की मौत हुई।

“यह (शिशुओं की मृत्यु) केवल कोटा की समस्या नहीं है,” बाल रोग विशेषज्ञ और मातृत्व और बच्चों के स्वास्थ्य पर कार्य करने वाले ग़ैर सरकारी संगठन ‘ममता’ के कार्यकारी निदेशक, सुनील मेहरा ने कहा। “प्राथमिक केंद्रों में उपयुक्त सुविधाओं की कमी, मरीज़ों को रेफ़र करने (विशेषज्ञों के पास) में देरी और ट्रांसपोर्टेशन की समस्या जैसे बुनियादी मुद्दे हैं जिनके कारण शिशुओं की मृत्यु की संख्या इतनी बढ़ जाती है।”

देशभर में शिशुओं और बच्चों की बड़ी संख्या में मौत की वजह समझने के लिए इंडियास्पेंड ने 13 राज्यों के स्वास्थ्य संबंधी आंकड़ों का विश्लेषण किया। इनमें कुछ सबसे ग़रीब राज्य जिन्हें सरकार एमपावर्ड एक्शन ग्रुप (ईएजी) कहती है—बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और असम- के साथ ही महाराष्ट्र और गुजरात के अस्पताल नवजात शिशुओं की मौत के लिए सुर्खियों में रहे हैं। गोवा, केरल और तमिलनाडु देश में सबसे कम नवजात मृत्यु दर वालों राज्यों में हैं।

स्वास्थ्य सुविधाओं, जन्म से पहले की देखभाल, जच्चा की सेहत और जन्म के बाद देखभाल की खराब क्वॉलिटी से बच्चों के जीवन को ख़तरा होता है, जैसा कि हमारे विश्लेषण से पता चला।

शिशुओं की मृत्यु के लिए ज़्यादा ज़िम्मेदार कुपोषण, साफ़-सफ़ाई ना होना और टीकाकरण ना होना जैसी समस्याएं भी हैं ना कि केवल चिकित्सा सुविधाएं, दिल्ली में बी आर अंबेडकर यूनिवर्सिटी की असिस्टेंट प्रोफ़ेसर दीपा सिन्हा ने बताया। अधिकतर मौतें निमोनिया जैसे इंफ़ेक्शन से होती हैं, जिसका इलाज प्राथमिक स्तर पर किया जा सकता है। देश में बीमारियों से बचाव और प्राथमिक स्वास्थ्य व्यवस्था चरमराई हुई है, उन्होंने कहा।

कम मृत्यु दर के बावजूद, दुनिया में सबसे ज़्यादा मौतें

भारत में बच्चों की सबसे ज़्यादा जनसंख्या है। पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर (प्रति 1,000 जीवित जन्मों पर 37) दुनियाभर के औसत (39) से कम है। इसके बावजूद 2018 में, भारत में पांच साल से कम उम्र के 882,000 बच्चों की मौत का अनुमान लगाया गया है, जो दुनिया में सबसे ज़्यादा है।

बहुत से बच्चों की मौत जन्म के एक साल के अंदर ही हो जाती है। सरकार के सैम्पल रजिस्ट्रेशन सिस्टम के आंकड़ों और इंडियास्पेंड की जून 2019 की रिपोर्ट के अनुसार, 2017 में हर 1,000 बच्चों में 33 की मृत्यु जन्म के एक साल के अंदर हो गई थी। इस संख्या में पिछले 11 साल में 42% की कमी आई है।

हालांकि, राज्यों के बीच इन्फ़ेंट मोर्टेलिटी रेट (आईएमआर) और नवजात शिशुओं की मृत्यु के कारणों, दोनों में बड़े अंतर हैं। 2017 में, नागालैंड में सबसे कम 7 आईएमआर था, इसके बाद गोवा (9) और केरल (10) थे, जबकि मध्य प्रदेश (47) में इसकी सबसे अधिक दर थी।

अध्ययनों से पता चला है कि शिशुओं की अधिक मृत्यु दर 30-40 (प्रति 1,000 जन्म) वाले राज्यों में मृत्यु के डायरिया और सेप्सिस जैसे कारण थे जिनसे बचा जा सकता था, फ़िज़िशियन और सार्वजनिक स्वास्थ्य के विशेषज्ञ चंद्रकांत लहरिया ने बताया। “केरल जैसे कम आईएमआर वाले राज्यों में बच्चों की मौत के जन्मजात या आनुवांशिक असामान्यताएं जैसे अन्य कारण थे,” उन्होंने बताया।

खराब प्राथमिक देखभाल, ज़िला अस्पतालों में भीड़

पांच साल से कम उम्र के बच्चों की होने वाली मौतों में लगभग आधी संख्या नवजात शिशुओं की है जिन्हें जन्म से पूर्व सही देखभाल, जन्म के वक्त कुशल देखभाल, मां और शिशु की जन्म के बाद देखभाल, और छोटे और बीमार नवजात शिशुओं की देखभाल का दायरा बढ़ाकर रोका जा सकता है, जैसा कि यूनिसेफ़ की 2019 की इस रिपोर्ट में कहा गया था।

स्वास्थ्य केंद्रों या अस्पतालों में होने वाली डिलीवरी की दर 2005 में 38.7% से बढ़कर 2015-16 में 78.9% पर पहुंच गई, इससे नवजात शिशुओं की मौतों को काफ़ी हद तक कम करने में सफ़लता मिली है। लेकिन अस्पतालों में होने वाली डिलीवरी में बढ़ोत्तरी के साथ नवजात शिशुओं की देखभाल की सुविधाएं नहीं बढ़ी हैं, गुजरात के आणंद में प्रमुखस्वामी मेडिकल कॉलेज में पिडियाट्रिक्स के प्रोफ़ेसर, सोमशेखर निंबालकर ने बताया।

पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु में से अधिकतर (57.9%) नवजात शिशुओं - 28 दिन से छोटे बच्चे - की थी, द लांसेट में प्रकाशित एक स्टडी के अनुसार। इन मौतों को कम ख़र्च वाले कंगारू केयर जैसे तरीक़ों से रोका जा सकता है -- जिनमें शिशुओं को मां के साथ त्वचा-से-त्वचा के संपर्क में, थर्मल कंट्रोल में रखा जाता है और स्तनपान में सहायता और इंफ़ेक्शन और सांस लेने में मुश्किलों का इलाज मौजूद होता है, जैसा कि रिपोर्ट में बताया गया है।

नेशनल रूरल हेल्थ मिशन के अंतर्गत सुविधा-आधारित नवजात केयर के तहत नवजात शिशु देखभाल केंद्रों को प्रसव के हर बिंदू पर, फर्स्ट रेफ़रल इकाइयों में स्टेबलाइज़ेशन और देशभर के ज़िला अस्पतालों में नवजातों की देखभाल के लिए विशेष यूनिट बनाई गई हैं।

हालांकि, इन देखभाल केंद्रों में क्षमता से अधिक मरीज़ आते हैं। इनमें डॉक्टरों और अस्पताल बेड की कमी है और उपकरण की समय पर मरम्मत नहीं होती, जैसा कि जर्नल ऑफ पेरिनैटोलॉजी में 2016 में प्रकाशित एक स्टडी में कहा गया था।

सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में से 83% में नवजात शिशुओं की देखभाल की सुविधा थी, लेकिन 59% में शिशुओं के लिए स्टेबिलाइज़ेशन यूनिट नहीं थी, रूरल हेल्थ स्टैटिस्टिक्स 2018 के आंकड़ों के मुताबिक़।

आंकड़ों के मुताबिक़, केरल और महाराष्ट्र को छोड़कर सभी 13 राज्यों में स्पेशलिस्ट्स की कमी थी। यह कमी 75% से 95% तक थी।

इसका अर्थ है कि अधिकतर मरीज़ों को ज़िला अस्पताल में इलाज के लिए जाना पड़ता है, जिससे नवजात और शिशुओं के लिए इंटेंसिव केयर यूनिट में भीड़ बढ़ जाती है। इससे इंफ़ेक्शन का ख़तरा बढ़ जाता है, ‘ममता’ एनजीओ के सुनील मेहरा ने बताया।

जन्म से पहले शुरू हो जाती हैं समस्याएं

परिवार का आर्थिक स्तर और मातृत्व संबंधी शिक्षा नवजात और बच्चों की मृत्यु दर में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

जिन राज्यों में पढ़ी-लिखी महिलाओं की संख्या ज़्यादा है वहां बच्चों की सेहत के हालात बेहतर होते हैं, इंडियास्पेंड ने 20 मार्च, 2017 को अपनी रिपोर्ट में इसके बारे में बताया था। सबसे अमीर 20% परिवारों में पैदा होने वाले बच्चों के, सबसे निर्धन 20% परिवारों में पैदा होने वाले बच्चों की तुलना में, जीवित रहने की लगभग तीन गुना अधिक संभावना होती है, इंडियास्पेंड ने जनवरी 2019 में इस बारे में रिपोर्ट किया था।

सबसे अधिक आईएमआर वाले राज्यों -- मध्य प्रदेश, असम, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में 10 वर्षों से अधिक समय तक शिक्षा हासिल करने वाली महिलाओं की संख्या कम थी और बाल विवाह का अनुपात अधिक था।

इसके अतिरिक्त, इन राज्यों में कुछ ही महिलाओं को जन्म से पूर्व आवश्यक चार देखभाल (एएनसी) की सुविधा मिली थी। अनीमिया, कुपोषण, तनाव और जेस्टेशनल डायबिटीज़ जैसी समस्याओं का पता चल सकता है, जिससे भ्रूण पर भी असर पड़ता है।

बिहार (14.4%) में चार एएनसी विज़िट पाने वाली महिलाओं का प्रतिशत सबसे कम था। अन्य ईएजी राज्यों में, तीन में से लगभग एक महिला को चार एएनसी विज़िट मिले थे।

Source: National Family Health Survey (2015-16); Sample Registration System (2017) Note: Infant mortality data are as of 2017. Other indicators are as of 2015-16

जन्म के वक़्त की समस्याएं

हर पांच बच्चों में से एक (21.4%) का जन्म के समय वज़न कम (2.5 किलो से कम) था, और केवल आधे बच्चों को ही छह महीने के लिए स्तनपान (53.3%) कराया गया था, जिससे बच्चे के स्वास्थ्य और संज्ञान में सुधार होता है, द लांसेट में सितंबर 2019 में प्रकाशित इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च की रिपोर्ट के अनुसार।

“ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में सबसे बड़ी समस्या बच्चों का जन्म के समय कम वज़न और मां का ख़राब पोषण है। माताओं को जन्म के समय स्तनपान को लेकर उपयुक्त जानकारी नहीं होती और इससे जन्म के समय कम वज़न वाले शिशुओं में इंफेक्शन का जोखिम बढ़ जाता है,” शिशु रोग विशेषज्ञ और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी-बॉम्बे में सेंटर फ़ॉर टेक्नोलॉजी ऑल्टरनेटिव्स फ़ॉर रूरल एरियाज़ में कार्यरत, रुपल दलाल ने बताया।

नवजात शिशुओं की अधिक और कम मृत्यु दर वाले राज्यों में शिशुओं का जन्म के समय वज़न लगभग एक समान था, हमारे विश्लेषण से इस बात का पता चलता है। 2015-16 में उत्तराखंड में जन्म के समय कम वज़न वाले शिशुओं का प्रतिशत सबसे अधिक (24.7%) था। इसके बाद अधिक नवजात मृत्यु दर वाले मध्य प्रदेश (21.9%), राजस्थान (21.4%), ओडिशा (20.8%) और उत्तर प्रदेश (20.7%) जैसे राज्यों में स्थिति गोवा (22.3%) --जिसमें कम नवजात मृत्यु दर है-- और महाराष्ट्र (19.5%) के समान थी।

बच्चे के स्वास्थ्य पर प्रभाव डालने वाले अन्य कारण भी हैं। नवजात शिशुओं को जन्म के पहले घंटे में स्तनपान कराने पर उनके जीवित रहने के आसार अधिक होते हैं, जैसा यूनिसेफ़ की इस रिपोर्ट में कहा गया है, “जन्म के बाद स्तनपान में देर होने के परिणाम जीवन के लिए घातक हो सकते हैं और इसमें जितनी देर होती है ख़तरा उतना ही बढ़ जाता है।”

उत्तर प्रदेश में जन्मे 25% शिशुओं और राजस्थान में 28.4% शिशुओं को जन्म के एक घंटे के अंदर स्तनपान कराया गया था, एनएफ़एचएस के 2015-16 के आंकड़ों से पता चलता है। इन दोनों ही राज्यों में आईएमआर काफ़ी ज़्यादा है।

केरल (63.3%), गोवा (75.4%) और तमिलनाडु (55.4%) -- जहां नवजात शिशुओं की मृत्यु दर कम है -- में अधिक आईएमआर वाले उत्तर प्रदेश और राजस्थान की तुलना में दो से तीन गुना अधिक शिशुओं को जन्म के एक घंटे के अंदर स्तनपान कराया गया था। गुजरात में नवजात शिशुओं में से आधे और महाराष्ट्र में 57% ने एक घंटे के अंदर स्तनपान किया था।

Source: Sample Registration System (2017), National Family Health Survey (2015-16), Comprehensive National Nutrition Survey report (2018) Note: Infant mortality data are as of 2017, stunting data as of 2018. Other indicators are as of 2015-16.

टीकाकरण की कमी और कुपोषण

हमने जिन अन्य राज्यों का विश्लेषण किया उनकी तुलना में तमिलनाडु (69.7%) और गोवा (88.4%) में दो साल से कम उम्र के ज़्यादा बच्चों को ज़रूरी टीके लगे थे। सभी टीके लगवाने वाले बच्चों का सबसे कम प्रतिशत असम (47.1%), गुजरात (50.4%) और उत्तर प्रदेश (51.1%) में था। राजस्थान में 45.2% बच्चों को टीके नहीं लगे थे।

साल 2017 में देश के हर राज्य में पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मौत का एक बड़ा कारण कुपोषण था। कुपोषण के कारण 68.2% बच्चों की मौत हुई थी, जैसा कि इंडियास्पेंड ने सितंबर 2019 की अपनी रिपोर्ट में बताया था।

अक्टूबर 2019 में जारी हुई कॉम्प्रिहेन्सिव नेशनल न्यूट्रिशन सर्वे की रिपोर्ट के अनुसार, बिहार में 42% के साथ शून्य से चार वर्ष के बीच स्टंटेड बच्चे (उम्र के हिसाब से कम क़द) सबसे अधिक थे। औसतन ईएजी राज्यों में पांच में से दो बच्चे स्टंटेड थे। केरल (20.5%), तमिलनाडु (19.7%) और गोवा (19.6%) में पांच में से एक बच्चा स्टंटेड था।

निमोनिया और डायरिया

बच्चों में मृत्यु के 12.9% मामलों में निमोनिया और 8.9% मामलों में डायरिया कारण था। इन दोनों बीमारियों को रोका जा सकता है।

पोषण की कमी वाले बच्चों को पीने का साफ़ पानी और स्वच्छ माहौल नहीं मिलता, और उन्हें घर के अंदर अधिक वायु प्रदूषण का सामना करना पड़ता है, जिससे उन्हें निमोनिया होने का ख़तरा रहता है। निमोनिया की अगर सही समय पर पहचान कर ली जाए तो इसका इलाज सस्ती एंटीबायोटिक्स से हो सकता है। इसके बावजूद, 2018 में दुनियाभर में पांच साल से कम उम्र के बच्चों में निमोनिया से होने वाली मौतों की दूसरी सबसे अधिक संख्या भारत में (1,27,000 मृत्यु) थी।

2017 में डायरिया से 90,000 बच्चों की मृत्यु हुई थी। डायरिया से पीड़ित बच्चों में से केवल 50.6% को ओरल रिहाइड्रेशन सॉल्यूशन (ओआरएस) मिला था, जो डायरिया से निपटने का एक आसान तरीका है, 20.3% को ज़िंक सप्लीमेंट मिला था, जो डायरिया से लड़ने में मदद करता है। “हमें डायरिया से पीड़ित बच्चों को ब्रांडेड ओआरएस पैकेट नहीं, बल्कि साफ़ पानी में नमक और चीनी का घोल देने की ज़रूरत है। कितने बच्चों को यह मिल रहा है?” बी आर अंबेडकर कॉलेज में प्रोफ़ेसर सिन्हा ने पूछा।

डायरिया से सुरक्षा देने वाला रोटावायरस टीका देश भर में उपलब्ध कराया गया है, लाइवमिंट की अगस्त 2019 की रिपोर्ट के अनुसार। इस टीके की वर्तमान पहुंच 41% की लक्षित जनसंख्या में 73% तक है, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की एक निगरानी रिपोर्ट के अनुसार।

सार्वजनिक क्षेत्र में, केवल छह राज्य निमोनिया के ख़िलाफ़ सुरक्षा देने वाला निमोकोकल कॉन्जुगेट टीका उपलब्ध कराते हैं। डब्ल्यूएचओ के अनुसार, इस टीके की वर्तमान पहुंच 13% की लक्षित जनसंख्या में 44% तक है, इंडियास्पेंड ने नवंबर 2018 में यह रिपोर्ट दी थी।

(स्वागता, इंडियास्पेंड/हेल्थचेक के साथ स्पेशल कॉरेस्पॉन्डेंट और श्रेया, इंडियास्पेंड के साथ डेटा एनालिस्ट हैं।)<>/p

यह रिपोर्ट मूलत: अंग्रेज़ी में 9 जनवरी 2020 को IndiaSpend पर प्रकाशित हुई है।

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