‘समय पर नहीं मिली खाद, गेहूं उत्पादन पर पड़ेगा असर’, देश में डीएपी की किल्लत, किसान परेशान
देशभर में रबी सीजन की फसलों की बुवाई हो रही है। लेकिन देश के अलग-अलग राज्यों में किसान डीएपी खाद के लिए संघर्ष कर रहे हैं। देश में आखिर डीएपी की कमी क्यों हुई और फसलों पर इसका क्या असर पड़ेगा? पढ़िये ये रिपोर्ट
लखनऊ। “मैं अगेती गेहूं की बुवाई करता रहा हूं जो 20 नवंबर तक हो जाना चाहिए था। इस समय तक अगर बुवाई हो जाती तो पैदावार अच्छी होती। लेकिन डीएपी न मिलने से अभी तक बुवाई नहीं कर पाया। किसान पलेवा भी कर चुके हैं।”
गेहूं के सबसे बड़े उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से लगभग 300 किलोमीटर दूर बदायूं के किसान राजू शंकर (53) इस बात को भी लेकर चिंतित हैं कि देर से बुवाई का असर गेहूं की पैदावार पर पड़ेगा।
“अगर 20 नवंबर तक गेहूं की बुवाई हो जाती तो फसल होली के आसपास तैयार हो जाती। पैदावार भी अच्छी होती। फसल अब होली बाद तैयारी होगी। ऐसे में होली के समय गेहूं में पानी देना पड़ेगा, जिससे लागत बढ़ जाएगी। होली के आसपास पछुवा हवा चलने लगती है। ऐसे में अगर गेहूं को पानी दिया तो फसल हवा के चलते गिर जायेगी। अगर सिंचाई नहीं की तो दाना कमजोर पड़ जाएगा। दोनों ही परिस्थितियों में पैदावार पर असर पड़ना तय है। प्रति बीघा एक क्विंटल तक का नुकसान हो सकता है।” राजू फोन पर इंडिया स्पेंड को बताते हैं।
रबी सीजन की शुरुआत खरीफ की फसल की कटाई के बाद होती है। देश के अलग-अलग हिस्सों में रबी फसलों की बुआई सितंबर से दिसंबर महीने के बीच की जाती है। गेहूं रबी सीजन में सबसे ज्यादा बोई जाने वाली फसल है। लेकिन सीजन की शुरुआत से ही देश के अलग-अलग हिस्सों से उर्वरक डीएपी (डाय-अमोनियम फॉस्फेट) की कमी की खबर लगातार आ रही है। कई प्रकाशित सूचनाओं के अनुसार डीएपी के लिए किसानों को धरना-प्रदर्शन तक करने पड़े। और इन सबका असर रबी फसलों की बुवाई पर भी पड़ा है।
नवंबर में आई एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि भारत में रबी फसलों की बुवाई का क्षेत्र 7.4% घटकर 14,606 मिलियन हेक्टेयर (एमएच) रह गया, जबकि पिछले साल यह 15,773 मिलियन हेक्टेयर था। प्रारंभिक राज्य रिपोर्टों के अनुसार, गेहूं, चना, सरसों और ज्वार की फसल में गिरावट आई है। रबी सीजन की प्रमुख फसल गेहूं की बुवाई में 15.5% की कमी आई है, जो पिछले साल के 4,887 मिलियन हेक्टेयर की तुलना में 4,130 मिलियन हेक्टेयर रह गई है।
बदायूं कृषि वैज्ञानिक केंद्र में फसल वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. संजय कुमार कहते हैं कि पैदावार पर पड़ने वाले असर से बचने के लिए उत्तर-पश्चिमी मैदानी इलाकों में गेहूं की बुवाई 20 नवंबर तक पूरी हो जानी चाहिए थी। बुवाई में देरी की वजह से किसानों को कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।
देश के कई राज्यों में डीएपी की किल्लत
रबी सीजन की शुरुआत होते ही देश के कई राज्यों से डीएपी की किल्लत की खबरें आने लगीं। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में जहां किसान खाद के लिए लंबी लाइनों में दिखे तो वहीं हरियाणा के कई जिलों में पुलिस की निगरानी में खाद बांटी गई।
जिला चित्रकूट के किसान संतोष कुशवाहा कहते हैं कि खाद न मिलने से हम लोग बाजार से महंगे दामों पर डीएपी खाद लेने के लिए मजबूर हैं। खाद की किल्लत इतनी ज्यादा है कि हम लोग रोज सुबह खाद लेने सहकारी समिति में आते तो हैं। लेकिन देर शाम खाद न मिलने से खाली हाथ लौट जाते हैं।
अनुपम यह भी कहते हैं कि सरकार को तो स्थिति के बारे में पता ही होगी। फिर सरकार ने व्यवस्था क्यों नहीं की?
राजस्थान के हनुमानगढ़ जिला में रहने वाले किसान श्रीगंगा मीणा भी की स्थिति भी अनुपम जैसी ही रही। वे बताते हैं कि दुकान पर पांच बोरी डीएपी पहुंच रही और उसके दावेदार हैं 500। ऐसे में कई बार तो मारपीट की नौबत आ जा रही है। सरकार खाद आपूर्ति पूरी तरह से फेल है।
राजस्थान के कृषि उप निदेशक (फर्टिलाइजर) बीएल कुमावत का कहना है कि केंद्र से डीएपी की आपूर्ति कम हुई जिस कारण राज्य में किल्लत हुई। वे कहते हैं, ‘‘हमने रबी सीजन के लिए 4 लाख 50 हजार मीट्रिक टन डीएपी की मांग की। लेकिन केन्द्र ने 3 लाख मीट्रिक टन डीएपी को ही मंजूरी दी। अब तक एक लाख 67 हजार मीट्रिक टन डीएपी हमें मिली है जो जिलों में भेजी जा रही। जैसे-जैसे आपूर्ति बढ़ेगी, जिलों में वितरण होगा।’’
उत्तर प्रदेश के कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही ने बताया कि किसानों के द्वारा की जा रही रबी फसलों की बुवाई को लेकर फास्फेटिक उर्वरकों की खेप अलग-अलग जिलों में पहुंच रही है। उन्होंने बताया कि भारत सरकार द्वारा माह अक्टूबर, 2024 में 150 रैक फास्फेटिक उर्वरक डिस्पैच की गई थी, जिनकी कुल मात्रा 363,132 मेट्रिक टन मिली थी। 20 नवंबर को 160 फास्फेटिक उर्वरक रैक डिस्पैच की गई है, जिनकी कुल मात्रा 369824 मेट्रिक टन प्रदेश को मिलेगी।
पंजाब और हरियाणा में डीएपी की किल्लत को लेकर हुई खबरों को केंद्र सरकार ने भ्रामक बताया था। इसके कुछ दिनों बाद 27 नवंबर केंद्र सरकार ने एक विज्ञप्ति में बताया, “वह डाय-अमोनियम फॉस्फेट (DAP) उर्वरकों की घरेलू आपूर्ति को बढ़ावा देने और 60 प्रतिशत आयात निर्भरता के बीच स्थानीय स्तर पर उपलब्धता के मुद्दों को हल करने के लिए कदम उठा रहा है।”
सरकार ने डीएपी की कमी के लिए लाल सागर मुद्दे और कुछ वैश्विक आपूर्तिकर्ताओं द्वारा निर्यात में कटौती को भी जिम्मेदार ठहराया है। केंद्र सरकार ने डीएपी कमी के कारण भी बताए। कहा कि चुनौतियों के बावजूद, उर्वरक विभाग ने राज्यों को डीएपी की पर्याप्त आपूर्ति बनाए रखने के लिए कई कदम उठाए हैं। विभाग ने कहा, "इस साल, प्रमुख आपूर्तिकर्ताओं द्वारा भारत को कम निर्यात और लाल सागर संकट जैसी मौजूदा भू-राजनीतिक स्थितियों के कारण डीएपी की आपूर्ति प्रभावित हुई।"
सरकार ने यह भी बताया कि मौजूदा रबी सीजन के दौरान अब तक 34.81 लाख मीट्रिक टन डीएपी और 55.14 लाख मीट्रिक टन एनपीकेएस उपलब्ध कराया गया है।
केंद्रीय रसायन और उर्वरक मंत्रालय ने एक सवाल के जवाब में 29 अक्टूबर 2024 को लोकसभा में बताया कि खरीफ 2024 सीजन के दौरान देश में 59.87 लाख मीट्रिक टन डीएपी की आवश्यकता के मुकाबले डीएपी की उपलब्धता 58.08 लाख मीट्रिक टन रही जबकि डीएपी की बिक्री 46.12 लाख मीट्रिक टन रही। इसके अलावा चालू रबी 2024-25 सीजन के दौरान 01.10.2024 से 24.11.2024 तक की अवधि के लिए देश में 31.60 लाख मीट्रिक टन डीएपी की आवश्यकता के मुकाबले डीएपी की उपलब्धता 34.07 लाख मीट्रिक टन रही जबकि डीएपी की बिक्री 24.23 लाख मीट्रिक टन रही।
हालांकि फर्टिलाइजर एसोसिएशन ऑफ इंडिया ने इंडिया स्पेंड को बताया कि के अनुसार, 1 अक्टूबर 2024 तक केवल 16 लाख मीट्रिक टन डीएपी उर्वरक का स्टॉक उपलब्ध था। यह कुल आवश्यकता का केवल 29 प्रतिशत है।
क्यों जरूरी है डीएपी?
लखनऊ स्थित कृषि विज्ञान केंद्र में वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉक्टर दीपल राय ने हमें बताया कि आखिर खाद में डीएपी की ही मांग इतनी ज्यादा क्यों होती है। वे बताते हैं, “डीएपी (डाइ-अमोनियम फॉस्फेट) भारतीय किसानों के बीच पसंदीदा खाद है जिसमें 18 प्रतिशत नाइट्रोजन और 46 प्रतिशत फॉस्फोरस (पी2ओ5) जैसे प्राथमिक मैक्रो-पोषक तत्व होते हैं जो जड़ों के विकास, टिलर (कल्ले) को बढ़ाने और पौधे के तने को मजबूत करने के लिए आवश्यक होते हैं और पैदावार बढ़ाते हैं। डीएपी का प्रयोग केवल बुआई के समय पर ही किया जाता है।”
“आईसीएआर और कई कृषि विश्वविद्यालयों के क्षेत्रीय प्रयोगों के आंकड़ों से पता चला है कि प्रति एकड़ 50 किलोग्राम की दर से डीएपी की से से गेहूं और धान की काफी अच्छी होती है। इसीलिए, डीएपी उर्वरक की मांग हमेशा बनी रहती है।” वे आगे बताते हैं।
क्यों गहराया डीएपी का संकट
रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय ने एक बयान में डीएपी संकट की वजह बताई है। सरकार ने कहा, "जनवरी से चल रहे लाल सागर संकट के कारण डीएपी आयात प्रभावित हुआ, जिसके कारण उर्वरक जहाजों को केप ऑफ गुड होप के माध्यम से 6,500 किलोमीटर की अतिरिक्त दूरी तय करनी पड़ी। उल्लेखनीय है कि कई भू-राजनीतिक कारकों से डीएपी की उपलब्धता कुछ हद तक प्रभावित हुई है। यह भी उनमें से एक है। उर्वरक विभाग द्वारा सितंबर-नवंबर, 2024 के दौरान डीएपी की उपलब्धता बढ़ाने के प्रयास किए गए हैं।"
भारत में हर साल करीब 100 लाख टन डीएपी की खपत होती है। जिसकी अधिकांश पूर्ति आयात से होती है। रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय के अनुसार वर्ष 2019-2020 में भारत ने 48.70 लाख मीट्रिक टन डीएपी का आयात किया था जो 2023-24 में बढ़कर 55.67 लाख मीट्रिक टन हो गया। वर्ष 2023-24 में डीएपी का घरेलू उत्पादन केवल 42.93 लाख मीट्रिक टन था।
मध्य प्रदेश के जिला सागर में रहने वाले किसान अनुपम दुबे पांच एकड़ में गेहूं की खेती करते हैं। वे कहते हैं कि डीएपी की ऐसी किल्लत कभी नहीं देखी। “एक सप्ताह तक रोज लाइन में लगा रहा। फिर भी डीएपी नहीं मिला। अंत में जब बुवाई में देरी होने लगी तो बाजार से दोगुनी कीमत पर खरीदना पड़ा। बुवाई में देरी भी हुई और हमारी लागत भी बढ़ गई।”